Wednesday, 30 October 2013

शक्ति का दुरुपयोग न हो

प्रवचन भाग - चार
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा -
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।
अर्थात हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरंतर चिन्तन करता हुआ आपको जानूं और आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं?
इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने बहुत-सी बातें बताईं, उन्होंने यह भी कहा कि मैं हिमालय हूं, हिमालय का ध्यान करो, नदियों में गंगा हूं, समासों में द्वंद्व हूं, शब्दों में अक्षर हूं अर्थात 'úÓ हूं, अक्षरों में अकार हूं, जो सबमें होता है। उसी तरह से भगवान ने कहा मैं काम हूं। काम माने भोग, जिसे ठीक से न समझने के कारण संसार में विकृतियां आ रही हैं। भोग की भावना सबमें है, जैसे सबमें बड़ा बनने या यश अर्जित करने की भावना है। वेदों में स्पष्ट लिखा है, हर व्यक्ति तीन ऐषणाओं के साथ आता है, पुत्र की ऐषणा, धन की ऐषणा और लोक की ऐषणा। संसार में हर किसी में ये तीन इच्छाएं होती हैं। हर कोई चाहता है कि उसके पास धन हो, समाज में यश मिले, वंश आगे चले, पुत्र हो। सिर्फ भोग ही काम की चरम परिणति नहीं है। केवल हम आनंदाभूति करें, यह चरम परिणति नहीं है। काम की चरम परिणति पुत्रोत्पत्ति है और पुत्र भी ऐसा उत्पन्न होना चाहिए, जो संस्कारी, सबल, धार्मिक, विद्वान हो, जो परिवार, समाज, राष्ट्र व मानवता को बल दे सके, समृद्ध कर सके, इतिहास रच सके। ऐसे अच्छे पुत्रों की ही उत्पत्ति हो, तभी सबका कल्याण होगा। तो भगवान ने कहा कि मैं धर्म से अवरुद्ध काम हूं। भगवान ने यह भी कहा कि प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: . . शास्त्र की रीति से सन्तान की उत्पत्ति हेतु काम हूं।
काम किसमें नहीं होता, काम किसमें नहीं था, जितने महात्मा महापुरुष संसार में जन्मे हैं, सबमें काम रहा है। भूख हर किसी को लगती है। संन्यासियों को भी खाने की इच्छा होती है, किन्तु कैसे, क्या, कहां खाना चाहिए, बनाने की प्रक्रिया कैसी है भोग लगा कि नहीं यह सब देखना चाहिए। खाते हैं, कपड़ा पहनते हैं, चलते हैं, घूमते हैं, इसी का तो नाम भोग है। देखना चाहिए कि आपके हिस्से का है या नहीं, खाने योग्य है या नहीं, उपयोग योग्य है या नहीं। धर्म के नियंत्रण में जो व्यक्ति चलते हैं, उनका भोग भी योग हो जाता है। सबके कल्याण का कारण बन जाता है।
भोग की भावना जवानों में होना स्वाभाविक है, किन्तु चिंता यह कि वे अनियंत्रित हो रहे हैं, जब ड्राइवर में 'ट्रैफिक सेंसÓ नहीं है, गाड़ी चलाने में परिपक्व नहीं है, तो अनियंत्रित गाड़ी चलाता है, दुर्घटना कर देता है। समाज में कन्या या देवी का पूजन हो रहा है, किन्तु उस पूजन का आधार क्या है या उस पूजन का ध्येय क्या है, पूजन को हमें किस रूप में ग्रहण करना है, यह वैसे ही नहीं बतलाया जा रहा है, जैसे किसी को यह नहीं बताया जाए कि संपत्ति आने के बाद उसका व्यय कैसे किया जाए। व्यय करना नहीं आएगा, तो समस्या तो होगी ही। पांच करोड़ रुपए किसी को दे दीजिए, यदि वह बच्चा हो, तो संभव है, सारे रुपए की टॉफी खरीदने बाजार दौड़ पड़े। हममें खाने की भावना है, किन्तु हम सबकुछ नहीं खाते, हममें पहनने की भावना है, किन्तु हम अपने सारे धन का कपड़ा नहीं खरीद लेते हैं, तो हम विवेक से खाते हैं, विवेक से पहनते हैं। मकान बनाने की भी भावना होती है, किन्तु अपनी शक्ति का संतुलन करके ही अपने अनुकूल मकान बनाते हैं। बड़ी गाड़ी की इच्छा होती है, किन्तु हम संतुलन बनाते हैं कि कितनी बड़ी गाड़ी से काम चल जाएगा। ठीक इसी तरह से स्त्रियों से जुडऩे की भावना में भी संतुलन होना चाहिए। शक्ति का विनियोग यदि विवेक के साथ किया जाए, तभी सुख होता है। वेदों ने यह नहीं कहा कि आप केवल आनंदाभूति के लिए विवाह करें, कहा गया कि पुत्र की इच्छा से ही भोग करना है। वेदों ने यह नहीं कहा कि काम ऐषणा होनी चाहिए, वेदों ने कहा कि पुत्र ऐषणा स्वाभाविक है।  
इसी तरह मठाधीशी की चरम परिणति इसमें नहीं है कि जो दान में धन आया है, उसका उपयोग रोज गुलाब जामुन, जलेबी खाने, रोज छप्पन भोग खाने में किया जाए। भोग के कारण कई महंत भी बदनाम हुए हैं। महंत जी बन गए, मोटे हो गए हैं, चला नहीं जा रहा है, दूसरों को बता रहे हैं कि ऐ दाल रोटी खाने वाले, मैं छप्पन भोग खाता हूं। वास्तव में यह मठाधीशी नहीं है, यह तो शक्ति का दुरुपयोग हो गया। संत का जीवन तो समाज के कल्याण में है, स्वयं छप्पन भोग, बड़ी गाड़ी, बड़े भवन के भोग में लग जाने में नहीं।
क्रमश:

शक्ति का दुरुपयोग न हो

प्रवचन भाग - तीन 
पहले शक्ति, औजारों, रथों का जो सम्मान था, पूजन का जो सही प्रतीक था, वह आज कहां है? जो धन मिला, बल मिला, प्रचण्डता मिली, जो विद्या मिली, उसका उपयोग कहां हो रहा है, कैसे हो रहा है? व्यवस्थाएं निरंतर क्यों बिगड़ रही हैं? कामाख्या हों, विंध्याचल हों, वैष्णो देवी हों, हर देवी-शक्ति के स्थान पर भीड़ बढ़ रही है, सजावट बढ़ी रही है। पहले दुर्गा पूजा केवल बंगाल में होती थी, अब लगभग हर स्थान पर होने लगी है। दुर्गा पूजा की भव्यता बढ़ी है, किन्तु पूजा की आध्यात्मिक प्रेरणा, दबाव, सुगन्ध, ऊर्जा से लोग लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। जो आयोजक हैं, वे उस वातावरण को पैदा नहीं कर रहे हैं, जो देवी पूजन का वातावरण होना चाहिए। वैसे बड़े-बड़े पंडाल बन रहे हैं, प्रसाद वितरण चल रहा है, लेकिन पूजा और आध्यात्मिक वातावरण गौण होता जा रहा है। आध्यात्मिक वातावरण पहले मुख्य था। वातानुकूलन की मशीन बहुत बड़ी हो और वह ठीक से काम नहीं करेगी, तो कमरे में बैठे लोगों को शीतलता कहां से मिलेगी? जो बड़ी ऊर्जा पहले प्रेरित करती थी, आकृष्ट करती थी कि शक्ति की मूल स्रोत मां से जो शक्ति मिलेगी, उसका सही सामाजिक, राष्ट्रीय, आध्यात्मिक उपयोग होगा, वह आज कम हुई है। पहले प्रेरणा मिलती थी, ये जो मां हैं, शक्ति का मूल स्रोत हैं, उसका हम सही-सही स्थानों पर प्रयोग करेंगे, जहां शक्ति की आवश्यकता है, वहीं उसका उपयोग करेंगे। किन्तु अब भव्य पूजा आयोजन, गरबा, डांडिया इत्यादि में काफी विकृतियां आ गई हैं, कार्यक्रम का स्वरूप तो बढ़ा, किन्तु विकृतियों ने अध्यात्म का गला घोंट दिया है। इस काल में लोग बेटियों को लेकर चिंतित हो जाते हैं कि क्या होगा। इस काल में धन और चरित्र, दोनों का खूब भ्रष्टाचार होता है। क्षणिक आनंद लेने के प्रयास में युवा परंपरा और शास्त्र से दूर हो जाते हैं। पूजन करने वालों में ही नहीं, अब पूजा करवाने वालों में भी कमी आई है। घर में भी पूजन सुधरना चाहिए। पूजन परंपरा से परे होने लगा है। अब पूजन के समय कोई ब्राह्मण नहीं कह रहा है कि आप धोती पहनें, आप ध्यान लगाइए, पूजन पर ध्यान दीजिए, पूजन के समय मोबाइल मत उठाइए, अब तो ब्राह्मणों का जोर भी केवल दक्षिणा पर है, उन्हें कोई मतलब नहीं कि यजमान या पूजा करवाने वाले नहाकर आए हैं या नहीं। शुद्धता समाप्त हो चुकी है। सच्ची पूजा में लोग शक्ति नहीं लगा रहे हैं।
पहले समाज की जो मर्यादाएं थीं, अंकुश थे, जाति-परिवार-समाज के जो अंकुश थे, वो भी ढीले हुए हैं, इससे भी महिला शोषण बढ़ा है। पूजन बिगड़ा, समाज पर धर्मगुरु, विद्वानों का, जाति का, समाजसेवकों का और राष्ट्र के प्रमुख लोगों का जो अंकुश था, वह कमजोर हो गया है। स्थितियां इतना बिगड़ी हैं कि अब तो कन्याओं को परिजनों और जान-पहचान वालों से ही खतरा होने लगा है। प्रशासन और पुलिस की बात छोड़ दीजिए, समाज और परिवार का अंकुश ही कमजोर पड़ गया है। किसी को यदि कोई छेड़ रहा है, तो वहां तीसरे व्यक्ति की भी बड़ी भूमिका होती है। पहले व्यक्ति-व्यक्ति पर दृष्टि रहती थी, किन्तु अब नहीं रहती। सब लोग दृष्टि रखें, तो कोई गड़बड़ नहीं हो।
लोग बच्चों को जरूरत से ज्यादा छूट दे रहे हैं, लडक़े को भी और लडक़ी को भी, साथी चुनने की भी छूट बढ़ी है, इस छूट का लाभ लेकर ज्यादातर युवा भटकने लगे हैं। हमारी एक संभ्रान्त शिष्या हैं, कह रही थीं कि समय इतना बिगड़ा है कि बहनों को अब भाइयों से ही खतरा होने लगा है, दूसरों की क्या बात करें?
सरकार की बात छोडि़ए, समाज भी अपनी भूमिका का सही निर्वहन नहीं कर रहा है, परिवार और पिता भी बच्चों पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे रहे हैं। कई अभिभावक कहते हैं कि अपना क्या है, बेटे या बेटी का जहां मन होगा, वहां शादी कर देंगे, वास्तव में ये अभिभावक अपने उत्तरदायित्व से बचना चाहते हैं, वे बच्चों के सम्बंध के लिए उतना समय नहीं दे रहे हैं, जितना उन्हें देना चाहिए। यह भाव भी आने लगा है कि बेटी खुद चुन लेगी, तो धन बचेगा। समाज के भरोसे और मनमानी पर ही यदि बेटी को छोड़ देना था, तो फिर क्यों जन्म दिया? अभिभावक मेहनत से बचने लगे हैं। पालन-पोषण को समय नहीं दे रहे हैं। अभिभावक अच्छी शिक्षा का परिवेश देने की बजाय बच्चों को देर रात तक पार्टी मनाने की छूट देने लगे हैं। यह शक्ति का अपव्यय है।
शक्ति हमें तभी सम्पूर्ण सुख देगी, जब हम सही मार्ग पर चलेंगे। शक्ति तभी सार्थक होती है, जब हम सही मार्ग पर चलते हैं।
क्रमश:

शक्ति का दुरुपयोग न हो

प्रवचन भाग - दो
पहले के समय में शक्ति की सच्ची अराधना होती थी, उसका लाभ मिलता था। जो जीवन को सही स्वरूप देने वाला शक्ति का उपयोग है, वह होता था। श्रीमद्भागवत में लिखा है, कमाई का एक भाग अपने में लगाना चाहिए, एक भाग परिजनों में अर्थात भाई-बहनों-सम्बंधियों में, एक भाग राष्ट्र में, एक भाग धर्म में और एक भाग व्यवसाय में लगाना चाहिए।
एक भाग परिजनों को भी देना पड़ता है, जैसे संपत्ति बंटी, तो मुकेश अंबानी की बहनों को भी हिस्सा मिला, कहते हैं कि दस-दस फीसद धन उन्हें मिला, उनकी माता कोकिला बेन को भी मिला। अब तो कानून बन गया है कि बहनों को भी बराबर का हिस्सा मिलेगा। बहनों की शक्ति बढ़ गई। राष्ट्र को भी कमाई का एक भाग देना चाहिए, जब सीमा पर लड़ाई छिड़ेगी, तो क्या आप लडऩे जाएंगे? तो राष्ट्र को भी आपकी कमाई का हिस्सा मिलना चाहिए, ताकि विकास हो, मूलभूत सुविधाएं बढ़ें। एक भाग धर्म में भी लगना चाहिए। व्यापार में भी एक भाग लगे, तभी तो व्यापार बढ़ेगा, धन आएगा।
शक्ति के छोटे-छोटे अनेक क्रम हैं, लेकिन जो सर्वोच्च शक्ति है, उसके रूप में देवी पूजन इत्यादि होता है। शक्ति या कमाई का सदुपयोग होना ही चाहिए। शक्ति जो अर्जित होती है अराधना से, उसका छोटा-छोटा सदुपयोग भी होता था और बड़ा-बड़ा सदुपयोग भी।
हमारे राष्ट्र में शक्ति पूजन का इतना लंबा क्रम चल रहा था, इसलिए चल रहा था कि शक्ति के अर्जन और उपयोग की प्रक्रिया नियंत्रित व संतुलित थी, हमारे पूर्वज शक्ति का बहुत विवेक के साथ उपयोग करते थे, अब सब गड़बड़ा रहा है। समाज में पहले भी ऐसी घटनाएं होती थीं शक्ति के अपमान की, बलात्कार या हत्या की, लेकिन बहुत कम होती थीं, किन्तु अब बहुत बढ़ गई हैं, क्योंकि शक्ति के प्रति सम्मान और सदुपयोग का भाव कम हो गया है। प्राचीन काल में भी बहुत अत्याचार हुए हैं, जब जानकी जी का ही अपहरण हो सकता है, तो क्या कहा जाए? राजाओं की बहुत-सी पत्नियां थीं। राम जी के पिता राजा दशरथ जी की भी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के अतिरिक्त साढ़े तीन सौ पत्नियां थीं। राम जी जब वनवास को जाने लगे, तब सारी माताएं अपने यथास्थान खड़ी थीं। हर किसी का अपना स्थान होता है, कौन कहां खड़ा होगा, कहां बैठेगा, इसकी भी अपनी एक परंपरा रही है। राजघरानों में भी यह व्यवस्था होती है। हालांकि अब तो चपरासी भी आगे बढक़र साहब के साथ खड़ा हो जाता है, छोटा भाई अपने बड़े भाई को पीछे करके आगे खड़ा हो जाता है। लोग अपने पिता से आगे खड़े हो जाते हैं। संत-महात्माओं के दरबार में भी गड़बड़ हुई है, पुराने संत चेले सेवा करके घिस जाते हैं, गुरुजी के सामने बैठने का अवसर नहीं मिलता, किन्तु कोई धनवान नया चेला भी आ जाए, तो गुरुजी उसे एकदम पास बिठाते हैं। 
तो अध्यात्म रामायण में लिखा है, राम जी जब चलने लगे, तो अपनी उन सभी ३५० माताओं से कहा, 'आप सभी को प्रणाम करता हूं, यदि मुझसे कोई भी अपराध हो गया हो, तो क्षमा करें, जैसे मां कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा माताएं हैं, वैसे ही आप भी माता हैं, मैंने आपसे कोई भेद नहीं किया, आप मेरे पिता को सुख देने वाली हैं, मैं आपका सम्मान करता हूं।

पौराणिक काल में भी गलत काम हुए थे। गाड़ी चलाने में पहले भी दुर्घटनाएं होती थीं, आज भी हो रही हैं, जब कोई ध्यान से गाड़ी नहीं चलाएगा, जब इधर-उधर देखकर चलाएगा, मोबाइल में बात करते हुए चलाएगा, तो दुर्घटना तो होगी ही। अच्छे-अच्छे वाहन आ गए हैं, किन्तु जब उन्हें ठीक से चलाया नहीं जाता है, तो दुर्घटनाएं होती हैं।
क्रमश:

Wednesday, 16 October 2013

शक्ति का दुरुपयोग न हो

प्रवचन भाग - एक
सनातन धर्म में शक्ति पूजन की समृद्ध परंपरा है। अपने-अपने कल्याण के अनुरूप विविध प्रकार के उत्सवों, अनुष्ठानों की परंपरा है। यहां इस परंपरा को अनादि रूप से स्वीकार किया जाता है। यह शास्त्रों द्वारा प्रवर्तित है। मेरा मानना है कि पूरे संसार में शक्ति का सम्मान है, इसे ही हम ऊर्जा कहते हैं, अंग्रेजी में एनर्जी कहते हैं। सम्पूर्ण समाज में उत्पादन का जो संकल्प और प्रयास है, वह शक्ति उत्पादन का ही प्रयास है। किसी भी तरह की शक्ति हो, शरीर की शक्ति हो, मशीन की शक्ति हो, संसाधन की शक्ति हो, धन की शक्ति हो, विविध प्रकार की शक्तियां हैं, शक्तियों के बिना साधना भी नहीं होती। किसी भोगी को भी शक्ति चाहिए और साधक को भी शक्ति चाहिए।
जैसे शरीर में खुजली होती है, तो हम वहां हाथ ले जाते हैं, उस जगह हम खुजलाते हैं, खुजलाने से वहां भी शक्ति उत्पन्न होती है और खुजलाहट दूर हो जाती है। सुनने और बोलने के लिए भी शक्ति होती है, हम हमेशा नहीं सुन सकते, हम हमेशा नहीं बोलते रह सकते। खाने के लिए भी शक्ति होनी चाहिए और पचाने के लिए भी शक्ति होनी चाहिए। सम्पूर्ण संसार शक्ति को जानता है, शक्ति के लिए ही प्रयास करता है, जीवन जीता है। जो लोग धार्मिक नहीं हैं, वे भी शक्ति का सम्मान करते हैं। जो शक्ति की पूजा नहीं करते, उन्हें भी शक्ति चाहिए।
शक्ति की ही पूजा देवी दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली व अन्य शक्ति रूपों में होती है। वास्तव में शक्ति एक ही है, उसके नाम अलग-अलग हैं। जो अग्नि पेट में खाए हुए पदार्थ को पचा रही है, वह भी शक्ति है, समुद्र में जो ताप है, वह भी शक्ति है। वायु में शक्ति है। जैसे एक ही नाक से शरीर के अंदर गए हुए वायु के भिन्न-भिन्न नाम हो जाते हैं जैसे - प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान। वैसे ही शक्ति के भी भिन्न-भिन्न नाम हैं।
शक्ति और शक्तिमान, दोनों की पूजा अपने देश में लंबे समय से हो रही है।
हम लोग अक्सर महाकवि महर्षि वाल्मीकि जी की बात करते रहते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने कहा, मैं राम जी को भी बहुत महत्व देता हूं, किन्तु मैं जानकी जी का चरित्र ही लिखूंगा, क्योंकि वही शक्ति हैं, उनके बिना राम जी कुछ नहीं हैं।
संसार में जब सबसे पहले गं्रथ लिखा गया लौकिक भाषा में, वैदिक संस्कृत में, दुनिया में दूसरी भाषाओं का जन्म भी नहीं हुआ था, वैदिक ज्ञान गंगा जब लोक में अवतरित हुई, बहुत ग्रंथ नाटक, काव्य के  रूप में लिखे गए, अभी भी लिखे जा रहे हैं, किन्तु भाषा में सबसे पहले ग्रंथ के रूप में वाल्मीकि रामायण की रचना हुई, महर्षि वाल्मीकि ने स्पष्ट कहा, मैं सीता जी का स्वरूप लिखंूगा, वह शक्तिस्वरूपा हैं। राम राज्य में कोई छोटा-सा अंश भी उनके बिना अधूरा है।
तो अनादि काल से शक्ति पूजा चल रही है, शक्ति के बिना किसी का काम नहीं चलता। लोक-परलोक, दोनों जगह शक्ति चाहिए। ज्ञान के लिए भी शक्ति चाहिए, विज्ञान के लिए भी शक्ति चाहिए। इंजीनियरिंग की विद्या के लिए भी शक्ति चाहिए, ब्रह्म विद्या के लिए भी शक्ति चाहिए।
शक्ति के रूप में लक्ष्मी हैं, धन देंगी, पुस्तक बनाइए, बम बनाइए, कृषि के लिए औजार बनाइए, अस्त्र-शस्त्र बनाइए, अंतरिक्ष में जाइए, मन हो, तो यज्ञ करिए, दान करिए परिवार पालिए, यह सब शक्ति से ही तो संभव होता है। शक्ति से धन उत्पन्न होता है और धन की शक्ति से नानाविध कार्य संपन्न होते हैं।
जीवन के लिए आवश्यक हिंसा के लिए या दंड देने के लिए भी शक्ति चाहिए। एक व्यक्ति अपनी संतान को दुलारता है, गलती करने पर डराता है और जब कभी संतान पूरी तरह से बिगड़ जाती है, तो उसे समाप्त भी कर देता है। हिंसक प्रवृत्ति के बिना या हिंसा के बिना भी दुनिया नहीं चल सकती। मान लीजिए, किसी के शरीर में बड़ा फोड़ा हो जाए, तो क्या किया जाएगा, उसे जीवन रक्षा के लिए फोडऩा ही पड़ेगा, कोई अंग खराब हो जाए, तो उसे काटना ही पड़ता है। जब कोई समाज, देश, संविधान की मर्यादा में चलता है, तो उसे लाड़-प्यार मिलता है, किन्तु यदि कोई मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है, तो उसे सुधारने या दंड देने के लिए शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। शक्ति से नानाविध कार्य होते हैं, जैसे बिजली से पंखा भी चलता है और रोशनी भी मिलती है और अन्य कई तरह के काम भी होते हैं।
तो हमारे यहां पूजन की परंपरा, शक्ति के सम्मान की परंपरा प्रारंभ से थी। शक्ति के बिना भोग नहीं होगा, मनुष्य का जीवन व्यर्थ हो जाएगा। जो प्रजनन क्षमता है, वहां भी शक्ति चाहिए। शक्ति से ही परम विकास संभव है। किन्तु यहां ध्यान रखने की बात यह है कि सम्पूर्ण शक्ति यदि भोग में ही लग जाए, तो खेती कैसे होगी, जीवनयापन कैसे होगा। जीविका कैसे अर्जित होगी?
संसार में कोई भी व्यक्ति बहुत दिनों तक अपनी सम्पूर्ण शक्ति को भोग में नहीं लगा सकता। यदि ऐसा किया जाए, तो जीवन व्यर्थ और समाप्त हो जाएगा। शक्ति को स्वनिर्माण में लगाना चाहिए। परिवार, देश, समाज के निर्माण में लगाना चाहिए।
क्रमश:

Sunday, 6 October 2013

सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए - ४

चरित्र की अवहेलना के कारण ही आज के समय में बलात्कार हो रहे हैं, खुलेआम अभद्रता व उत्पीडऩ हो रहा है। युवा ही पीडि़त हैं, युवा ही उत्पीडक़ हैं और उत्पीडऩ के विरुद्ध आंदोलन भी वही कर रहे हैं। हर युवा को आत्मावलोकन करना चाहिए, स्वयं में चरित्र की जो कमियां हैं, उन्हें दूर करना चाहिए।
स्थितियां ऐसी भी नहीं बिगड़ी हैं कि सुधार न हो सके। किसी भी समाज में सौ प्रतिशत लोग सही नहीं होते। अपराधियों और बलात्कारियों की संख्या अच्छे लोगों की तुलना में बहुत कम है। अच्छा जीवन साथी प्राप्त करने की इच्छा सबके मन में होती है, लगभग सभी युवा चाहते हैं कि सुन्दर पत्नी मिले, धनवान मिले, पढ़ी-लिखी मिले। अच्छी लडक़ी कब मिलेगी, जब अच्छा समाज होगा। इसके लिए युवा आंदोलन करते हैं, पाप और बलात्कार के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, इसका अर्थ है कि उनमें अच्छाइयों के लिए सद्भावना है और बुराइयों को दूर करने की इच्छा है।
हमें इस पक्ष को भी देखना चाहिए कि लड़कियों में भी विकृति आई है। कुछ लोग कहते हैं कि लड़कियों में लडक़ों से भी ज्यादा विकृति आई है। मैं अनेक लड़कियों से भी पूछताछ करता रहता हूं, स्वयं वे भी स्वीकार करती हैं कि लड़कियां बदमाशी कर रही हैं, कई मामलों में तो वे लडक़ों से भी बढक़र बिगड़ गई हैं। ऐसी लड़कियों के साथ क्या कोई सहानुभूति होनी चाहिए? यह कहना ठीक नहीं होगा कि केवल लडक़े ही गलत कर रहे हैं। किस समय घूमने निकलना है, किसके साथ घूमने निकलना है, कहां घूमने जाना है, शरीर का कितना भाग खुला रखना है, क्या यह नहीं सोचना चाहिए? बाहर दुनिया में युवाओं के लिए प्रलोभन हो गया है। घर में भी संयम नहीं है, घर में खूब स्वतंत्रता है और पॉकेट मनी भी हजारों में मिलने लगी है, तो बाहर भी कई युवतियां ऐसे घूम रही हैं कि लोग भडक़ते हैं। अनेक युवा हैं, जिन्हें अपनी, परिवार की, समाज या देश की कोई चिंता नहीं है।
बहुत-सी लड़कियों में पैसे का लोभ बढ़ गया है। पैसे के लालच में कई लड़कियां पागलों की तरह घूम रही हैं। अभिभावक पैसे नहीं देते या अभिभावकों के पास पैसे नहीं हैं, तो स्वयं असंयमित तरीकों से कमा रही हैं। कोई कानून नहीं, जो इन्हें रोक सके, रास्ते पर ला सके। जब स्वयं ही स्वच्छता और चरित्र की चिंता न हो, तो दूसरे कितना और क्या कर सकते हैं?
तो आवश्यक है कि प्रशासनिक दृष्टि से विकास के अवसर बढ़ाने पर चर्चा हो, रोजगार बढ़े, चरित्र सुधार के प्रयोग हों, कानून बनें। युवाओं को अच्छी शिक्षा मिले, रोजगार मिले, रोजगार देते समय चरित्र को भी अहमियत दी जाए। वास्तविक चरित्र के बारे में पता लगाकर नौकरी दी जाए। जो गलत हों, उन्हें तत्काल दंड हो, तो स्थितियां सुधरेंगी।
पहले बलात्कार-हत्या इत्यादि की घटनाएं कम होती थीं, होती भी थीं, तो अखबारों इत्यादि में कम ही छपता था, पहले चैनलों और अखबारों का विकास ज्यादा नहीं था, लेकिन अब हो गया है। अब स्थिति यह हो गई है कि दिल्ली में बलात्कार की एक घटना पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भी बयान दे दिया, मतलब भारत में बलात्कार की घटना की पूरी दुनिया में चर्चा में हो गई, यह अपने देश के लिए बहुत हानिकारक है, दुनिया के लोग हमें सिखा रहे हैं कि भारतीयों को कैसे रहना चाहिए। 
कभी यह देश चरित्र की शिक्षा पूरी दुनिया को देता था। यहां पवित्र जीवन वाली महिलाएं हुई हैं। कितने महापुरुष इस देश में हुए हैं। चरित्र की उच्चता वाले, दूसरों को शिक्षित करने वाले, इतने महान लोग दूसरे किसी भी देश में नहीं हुए हैं। ऐसे देश में ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिए कि नीचे देखना पड़े।
अंग्रेजी में भी कहा जाता है :-
इफ वेल्थ इज लॉस्ट, देन समथिंग इज लॉस्ट।
इफ करेक्टर इज लॉस्ट, एवरीथिंग इज लॉस्ट।
अर्थात :-
यदि संपत्ति गई, तो कुछ ही गया।
यदि चरित्र गया, तो सबकुछ गया।
दूसरे देश के लोगों को मौका नहीं देना चाहिए कि वे उंगली उठाएं। शासन और प्रशासन दोषी है। ये लोग देश में केवल एमबीए, सीए, डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि बनाने में लगे हैं, केवल ऐसी पढ़ाई से ही संसार की दृष्टि में हमारा स्वरूप बड़ा नहीं हो सकेगा। केवल इन पढ़ाइयों से किसी जाति, समाज, देश का भला नहीं हो सकता। शासन-प्रशासन को इस मामले में चुस्त होना चाहिए कि बच्चों को सही शिक्षा मिले। इस दिशा में दूसरे देशों की देखादेखी नहीं, बल्कि सोच-समझकर जल्दी कदम उठाने चाहिए। अच्छी शिक्षा मिले, व्यक्ति के काम का मूल्यांकन उसके चरित्र से होने लगे, तो सुधार होगा और भारत की छवि संसार में सबसे उज्ज्वल हो जाएगी।
जय सियाराम...
- समापन -

सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए - ३

यदि किसी व्यक्ति का खान-पान घर में ही बिगड़ चुका हो, संयमित-नियंत्रित न हो, तो वह दुकानों या उत्सवों में कहीं भी खान-पान में संयमित नहीं हो सकता, वह जहां खाएगा-पीएगा अनियंत्रित हो जाएगा। वासना सभी को होती है, कितना भी बड़ा आदमी हो, आश्रम में हो या संस्था में हो, सबमें इन्द्रियां हैं, सबका मन होता है कि हमें यह मिल जाता, किन्तु मन को समझाना पड़ता है, तभी वह संयमित होता है।
जब छूट मिल गई घर में, छूट मिल गई विश्वविद्यालय में, छूट मिल गई सडक़ पर, तो विकृति बढ़ती गई, शराब पीते-पीते जैसे आदमी पियक्कड़ हो जाता, सिगरेट पीते-पीते जैसे चेन स्मोकर हो जाता है, वैसे ही व्यक्ति चरित्र का पतन होने पर कहीं भी अपने को रोक नहीं पाता है। कोई वस्तु हो या स्त्री, कैसे भी प्राप्त करने की चेष्टा करता है। तो विश्वविद्यालयों का वातावरण सुधरना चाहिए, वो अच्छी शिक्षा के लिए ही बने हैं।
इधर एक विकृति ज्यादा दिख रही है, युवक-युवती मुंह बांधकर सिर ढककर एक दूसरे से चिपककर सडक़ों पर निकलने लगे हैं। गाड़ी पर बैठने का भी एक तरीका है, जो मुद्रा या आचरण गाड़ी पर आवश्यक नहीं है, उसे अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। पहले कड़ी सुरक्षा होती थी, पंजाब में जब आतंकवाद था, लोगों को मुंह बांधकर वाहन चलाने नहीं दिया जाता था, आज भी गाडिय़ों पर से काले शीशे उतार दिए जाते हैं। कुंभ मेले में ही जितनी गाडिय़ां आईं, किसी पर काला शीशा नहीं रहने दिया गया। यह सुरक्षा के लिए जरूरी है, किन्तु मुंह बांधकर यात्रा को कैसे अनुमति दी जा रही है। खुलेआम सडक़ पर गलत मुद्रा में किसी को जाने क्यों दिया जा रहा है? कड़ाई होनी चाहिए, पूछताछ होनी चाहिए, कोई भाई-बहन है, पति-पत्नी है, तो प्रमाण दे और उन्हें शालीनता से जाने दिया जाए, किन्तु बाकी लोगों पर रोक लगनी चाहिए। मुंह छिपाकर यात्रा की छूट से भी वास्तव में वासना बढ़ रही है। अनेक युवा व लोग रोज साथी बदलने लगे हैं। सुबह किसी के साथ दोपहर किसी के साथ, संध्या को किसी के साथ, तो रात किसी के साथ। यह समाज को क्या हो गया है? एक चरित्रवान समाज में केवल वैध सम्बंधों को ही बढ़ावा देना होगा। विश्वविद्यालय के परिसर, सडक़ और सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी तरह के अश्लील आचरण पर रोक लगनी चाहिए। सख्त कानून बनना चाहिए।
इधर, टेलीविजन से भी वासना को बढ़ावा मिला है। अनेक टीवी चैनलों ने विकृतियों को उकसाने का काम किया है। अश्लीलता को रोकना चाहिए। लोग फिल्म में देखते हैं, तो उनका भी मन होता है, मनुष्य का स्वभाव है, देखकर आदमी सीखता है। इतने बड़े प्रसारण दुनिया भर में चल रहे हैं, इन चैनलों से हमारा क्या लाभ है? जो लाभदायक हैं, उन्हें इजाजत मिले, लेकिन जो गलत हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए। गलत हवा को रोकना होगा। सजा निर्धारित होनी चाहिए। विकृत मानसिकता का व्यक्ति अब मरने या नपुंसक होने की भी चिंता नहीं करता, मानो अच्छा चिंतन ही खतरे में पड़ गया हो।
जो अपराधी हैं, जो बलात्कारी हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई तेजी से होनी चाहिए, त्वरित न्याय होना चाहिए और फिर उसका प्रचार किया जाना चाहिए। दोषी को भी बताया जाए और बाकी लोगों को भी खूब बताया जाए कि दंड क्यों दिया जा रहा है। इसका जितना प्रचार संभव है, किया जाए। लोगों को शिक्षा मिलनी चाहिए।
पहले के समय में चरित्र का महत्व था, लेकिन अब लोग या सरकार भी चरित्र देखकर फैसला नहीं लेती है। चरित्रहीन लोग भी बड़े पदों पर बैठ जाते हैं। हर तरह की पढ़ाई हो रही है, तो चरित्र निर्माण का भी पाठ्यक्रम हो, चरित्र की पढ़ाई हो, चरित्रवान लोगों का सम्मान होना चाहिए। प्रशासन में भी अच्छे लोगों को जगह मिलनी चाहिए। डिग्री और संपत्ति के आधार पर निर्णय होता है, लेकिन चरित्र के आधार पर भी निर्णय होना चाहिए। चरित्र ठीक नहीं है, तो बड़ा काम नहीं मिलना चाहिए, चुनावी टिकट नहीं मिलना चाहिए।
अब सरकार की बात, जिसके पास रोजगार नहीं हो, प्रकाश नहीं हो, जीवन के लिए, कहीं से कोई आधार नहीं हो, तो वह क्या करेगा? बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो जाएगी, तो क्या होगा? कहा गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है, हर आदत बिगडऩे लगती है पीने, खाने, जीने में। नशा करना, जहां मन भटक गया, वहां चले जाना। तमाम वर्जनाओं को छोडक़र वासना की पूर्ति में लग जाना। नि:संदेह युवाओं की बहुत उपेक्षा हो रही है। सरकार को इन युवाओं को रोजगार देना चाहिए। अधिक से अधिक मात्रा में रोजगार हो। रोजगार देने के बाद निगरानी की आवश्यकता है। स्पष्ट होना चाहिए कि ऑफिस में गलत होने पर निकाल देंगे। यह बाध्यकारी होना चाहिए, यदि आपने मर्यादा के खिलाफ कुछ किया है, तो हम वेतन काट लेंगे, जुर्माना करेंगे। जो लोग प्रशासन में हैं, उन्हें चरित्रवान होना चाहिए और चरित्र के लिए दूसरों पर भी कड़ाई होनी चाहिए। हमारा इतना बड़ा देश है, कहा जाता है कि युवाओं का देश है। यहां एक से एक मेधावी युवा हुए हैं। निश्चित रूप से यहां के लोगों में ऊर्जा है, इस ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सकार को विभिन्न योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए। चरित्र के आधार पर राष्ट्रीय, शासकीय और जिला स्तर पर सम्मान हो। जैसे शरीर और पैसे का मूल्यांकन होता है, वैसे ही चरित्र के लिए भी मूल्यांकन होना चाहिए। यदि आज तक अभद्र व्यवहार नहीं किया, किसी लडक़ी या शिक्षक के साथ गलत नहीं किया, बिना अर्थ कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं किया, तो इसके लिए भी अंक होने चाहिए। जैसे खेलकूद और चित्र के भी अंक जुड़ते हैं, एनसीसी के भी अंक जुड़ते हैं, ठीक उसी तरह से चरित्र के भी अंक जुडऩे चाहिए। अच्छा चरित्र होगा, तो ज्यादा अंक दिया जाए। बाकी विषयों के अंक के साथ चरित्र का भी अंक जोड़ा जाए। राष्ट्र के स्तर पर चरित्र सुधार के लिए सरकार को ऐसे उपाय करने होंगे। सरकार चरित्रवान लोगों को सामाजिक रूप से आगे बढ़ाए, सम्मानित कराए, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए। आवेदन में एक कॉलम दे दें कि जो चरित्रवान लोग होंगे, उन्हें अच्छा पद मिलेगा, अच्छी तरक्की दी जाएगी।
क्रमश:

Friday, 4 October 2013

सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए

चित्र श्री हिमांशु व्यास जी ने लिए हैं
भाग - २
बच्चों को जैसे बहुत-सी बातों की शिक्षा दी जाती है, वैसे ही उन्हें यह शिक्षा भी देनी चाहिए कि माता-पिता जहां चाहेंगे, वहीं विवाह करना होगा। बच्चों को साफ बताना होगा कि घर में भी ठीक से रहना होगा। संयम से नहीं रहेंगे, तो बहुत महत्व नहीं मिलेगा या संपत्ति में भागीदारी नहीं मिलेगी। ऐसे तमाम तरह के नियंत्रण घर-परिवार में पहले होते थे, किन्तु अब उसमें काफी छूट हो गई है। पारिवारिक वातावरण में भी संयम का भाव नहीं रह पाया है। मेरा मानना है कि पहले से ही बच्चों को अगर यह बात कही जाए कि हम अपनी परंपरा के हिसाब से ही आपकी शादी करेंगे, यह निर्णय हम सोच-समझकर लेंगे, तो बच्चा या किशोर समझेगा और संयम में रहेगा। कई परिवार ऐसे हैं, जहां माता-पिता पहले ही यह बात स्पष्ट कर देते हैं, तो देखा गया है कि इन परिवारों के बच्चे संयम के साथ सही मार्ग पर चलते हैं और जिन परिवारों में आवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता दी जाती है, वहां बच्चों में संयम कम होता है और उनके गलत मार्ग पकडऩे की आशंका ज्यादा रहती है।
किसी लडक़ी को यदि यह ज्ञात हो जाए कि फलां लडक़ा गलत है, तो उससे दूर ही रहना चाहिए। कभी भी मित्र या जीवन साथी के रूप में किसी अपराधी, अराजक, अभद्र, असंयमी, अनुशासनहीन व्यक्ति का चयन नहीं करना चाहिए। किन्तु यह कौन बताएगा? इसका माता-पिता पर सर्वाधिक उत्तरदायित्व है। बच्चों को माता-पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, तभी परिवार बचेंगे। जो इस तरह के गलत लोग हैं उनका बहिष्कार हो, बिरादरी से, समाज से अलग किया जाए। कई घटनाएं होती हैं, जब लोग अपने भटके हुए बच्चों को जान से मार देते हैं, किन्तु यह गलत है, तरीके में सुधार होना चाहिए। हत्या बिल्कुल गलत है, वास्तव में भटके हुए लोगों का सामाजिक परिष्कार होना चाहिए। समझाकर सुधारना चाहिए, फिर भी यदि कोई समाज विरोधी गलत कार्य करे, तो उसके साथ खान-पान का व्यवहार नहीं रखें, उससे बोले नहीं, गलत और चरित्रहीन व्यक्तियों का बहिष्कार ज्यादा अच्छा उपाय है। गलत आदमी को किनारे कर दीजिए, उपेक्षित छोड़ दीजिए, वह स्वयं सुधर जाएगा या अपने अंत को प्राप्त हो जाएगा।
चरित्र निर्माण पर सरकार को भी पूरा ध्यान देना चाहिए। सरकार के पास संसाधन है, तो बच्चियों को अलग से शिक्षा दी जाए, उनके लिए अलग शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा देना चाहिए। चिंतन, मनन, अध्ययन का लडक़ों के लिए अलग स्थान हो, लड़कियों के लिए अलग स्थान हो, तो उनमें संयम बढ़ेगा, भटकाव कम होगा।
एक बार मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से मिला, तो उनसे पूछा, 'आपके विश्वविद्यालय के परिसर में लडक़े-लड़कियां किस रूप में रहते हैं, क्या उस पर आपका कोई नियंत्रण है?Ó
तो उन्होंने उत्तर दिया, 'हम केवल पढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं, कौन कहां किससे गले मिल रहा है, कौन कहां बैठ रहा है? हमें इससे क्या लेना-देना?Ó
ध्यान दीजिए, यह एक कुलपति के शब्द हैं, जिस पर पूरे विश्वविद्यालय परिसर का उत्तरदायित्व है। यदि विश्वविद्यालय परिसर में कुछ गलत हो रहा है, तो इसके लिए सीधे कुलपति की ही जिम्मेदारी बनती है। प्राचीन काल में आश्रमों में क्या होता था, अभी आश्रमों में क्या होता है, आश्रम या मठ के प्रमुख पर ही उत्तरदायित्व होता है। आश्रम में कौन-कैसे उठेगा, बैठेगा, रहेगा, इसका उत्तरदायित्व आश्रम के प्रमुख पर ही होता है आज भी। लगभग हर आश्रम और यहां तक कि अस्पतालों में भी व्यवहार की अपनी आचार संहिता होती है, जिसके अनुरूप ही उस परिसर में सबको व्यवहार करना पड़ता है। विश्वविद्यालय जो शिक्षा की इतनी बड़ी संस्था है, उसमें कोई आचार संहिता ही नहीं है कि लडक़े कैसे बोलते हैं, कैसे बैठते हैं, कैसे दिखते हैं, किस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, क्या सोचते हैं, कोई संहिता ही नहीं है? कुलपति को ही जब संयमित आचार-विचार की चिंता नहीं है, तब विश्वविद्यालयों के परिसर में विकृतियों को पनपने और बढऩे से कौन रोक सकता है? प्रकृति का ऐसा विधान है कि स्त्री और पुरुष के बीच एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होगा, किन्तु यदि संयम नहीं होगा, तो विकृति होगी ही और वह परिसर ही नहीं, उसके बाहर सडक़ों पर भी दिखेगी।
क्रमश:

Thursday, 3 October 2013

जगद्‌गुरू का एक पावन संकल्प

 हरिद्वार में निर्माणाधीन राम मंदिर

 सप्तऋषि मार्ग, हरिद्वार स्थित यह निर्माणाधीन मंदिर ऋषीकेश जाने वाले मार्ग पर शान्तिकुंज के बाद पड़ता है.