Saturday, 29 March 2014

जय गंगा, जय नर्मदा - ३

भाग - ३

एक गुजराती भाई सपरिवार नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे। पत्नी और अपनी पुत्रियों के साथ। मैंने उनसे पूछा, 'परिक्रमा लंबी चलेगी, तो लड़कियां तो इसी दौरान सयानी हो जाएंगी? आप क्या करेंगे?
उन्होंने कहा, 'सयानी हो जाएंगी, तो अच्छा होगा, इनकी शादी नर्मदा परिक्रमा के दौरान ही कर दूंगा।
मैंने पूछा, 'कोई वर नहीं मिला तो? लोग कहेंगे, बाप नर्मदा परिक्रमा में लगा है, ऐसे बाप की बेटी से कौन विवाह करे?
उसने उत्तर दिया, 'तब नर्मदा जी जैसी ये भी कुंवारी रहेंगी।
क्या बात है! आस्था के मामले में जैसे गंगा का कोई जोड़ नहीं, उसी तरह से नर्मदा का भी कोई जोड़ नहीं है। मेरा अधिकांश समय गंगा तट पर बीता है, काशी में शिक्षा हुई, दीक्षा हुई, अध्यापन के लिए हरिद्वार, ऋषिकेश आ गया, वह भी गंगा तट पर था, रामानन्दाचार्य जी की सेवा मिली, तो पुन: काशी आ गया, फिर गंगा तट पर। बाद में रामानन्दाचार्य जी का प्राकट्य धाम स्थल इलाहाबाद में मिला, तो वह भी बिल्कुल गंगातट पर ही है। गंगा मां ने अपनी ज्यादा कुछ ज्यादा ही गोद और छाया मुझे प्रदान की है।
इसका एक कारण, मुझे ध्यान आता है। मैं सुनाता हूं।
मैं छोटा था, घूमने-फिरने काशी आया था। सुबह के चार बजे गंगा तट पर गया, दशाश्वमेध घाट पर, पहली बार इस तरह के बड़े-बड़े मकान, गंगा का तट घाट, दिव्य वातावरण, बिजली जल रही है, गांव का रहने वाला बच्चा और बड़े-बड़े मकान, शांत वातावरण, आध्यात्मिक वातावरण। मुझे संकल्प नहीं होता, अभी भी नहीं होता कि किसी वस्तु को प्राप्त करना है, लेकिन तब तुरंत एक आह निकली हृदय से कि कितना अच्छा होता, मैं भी यहीं होता।
यह १९६७ की बात है और उसके एक साल बाद १९६८ में मैं भाग आया काशी। गंगा जी ने बुला लिया, अब पूरा जीवन गंगा जी में ही समाहित हो गया। १३-१४ साल की आयु से लेकर अब तक। तो ऐसी स्थिति में मेरी आवाज लगता है, सही आवाज थी। गंगा जी ने कृपा की और मुझे अपने तट पर बुला लिया।
लेकिन जब जबलपुर आश्रम नर्मदा के तट पर मिला, तो मैं बहुत निष्ठा से नर्मदा जी में भाव-भक्ति करने लगा और इसका परिणाम यह हुआ कि वह आश्रम डूब गया था, महंत जी ने विवाह कर लिया था, उनको बाहुबली स्वरूप प्राप्त हो गया था, लेकिन वो मेरे विद्यार्थी थे। मैंने कहा, शंकराचार्य जी को यह आश्रम दे दिया जाए, शंकराचार्य स्वरूपानंद जी महाराज को, उनके पास शहर में आश्रम नहीं है, जो आश्रम है, वह शहर से काफी दूर है, तो उन्होंने कहा, मेरी श्रद्धा आपमें है, आपने मुझे पढ़ाया है, मुझ में जो भी दोष है, आप क्षमा करेंगे।
तो मैंने आश्रम संभाला, जिस आश्रम को लोग घृणित रूप में देखने लगे थे, वह आज जबलपुर का सबसे चमकदार आश्रम हो गया है। मैं मानता हूं, यह रामनरेशाचार्य का उत्कर्ष नहीं है, यह नर्मदा जी का ही प्रभाव और उत्कर्ष है। मैंने भली भांति उनका सेवन किया, उनके कारण ही वह आश्रम बना।
मैं वहां नर्मदा परिक्रमा के समय निरंतर सुनता रहता था। वहां परिक्रमा करने वाले लोग इस आश्रम में भी रुकते हैं, ठहरने की व्यवस्था है, भोजन की व्यवस्था है, रहने की व्यवस्था है, साधु आए, संत आए, भिखारी रूप में आए, भक्त आएं, नागा आएं, फकीर आएं, वहां सबको भोजन मिलता है।
मैं सोचता था कि इस आश्रम के उत्कर्ष का क्या कारण हो सकता है, वहां रामजी का भी मंदिर है। जिन्होंने यहां राम मंदिर का निर्माण करवाया, वो संन्यासी महात्मा थे, यहां उनका भी प्रभाव हो सकता है, राम जी का भी प्रभाव हो सकता है, किन्तु अंत में मैंने माना कि नर्मदा जी ही इस आश्रम की संरक्षक हैं, क्योंकि मैंने कोई भेद नहीं किया। मैं गंगावासी हूं, किन्तु मैंने कभी नहीं सोचा कि नर्मदा कौन होती हैं, गंगा जी का पाट इतना चौड़ा है, इतना उत्कर्ष है, गंगा जी ने ही मुझे जीवन दिया, उनके तट पर ही पढ़ा, पढक़र दूसरों को पढ़ाया, किन्तु मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा। गंगा जी और नर्मदा जी में कभी भेदभाव नहीं किया। तभी नर्मदा जी की कृपा मुझ पर आई। जबलपुर में जो आश्रम मिला है, वहां हम १०० कुंडों का यज्ञ भी कर चुके हैं, जिसमें जयपुर के पंडित उमाशंकर शास्त्री जी मुख्य यज्ञाचार्य थे।
क्रमश:

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