Monday, 29 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ७ 
ये जीवन की, सनातन धर्म की परंपरा है, जो वेदों से प्रेरित होती है। ईश्वर भी ऐसा ही करता है - बांटकर शक्ति का वितरण करता है। वायु देव करते हैं, वरुण देव करते हैं। पृथ्वी कभी नहीं बोलती किसी गरीब को, किसी छोटी जाति के आदमी को, किसी मूर्ख को, किसी कुरूप को कि यहां तो ऋषि बैठते हैं, तो तू यहां क्यों बैठा है, यहां तो कोई धनवान बैठता है, तू क्यों बैठा है। वैसे ही वायु देव, वरुण देव पक्षपात की दृष्टि से देखने लग जाएं, विषम दृष्टि से शक्ति देने लग जाएं, तो संसार का सत्यानाश हो जाएगा। 
केवल भोजन ही नहीं, जो हमें ज्ञान प्राप्त हुआ है, जो हमें यश प्राप्त हुआ है और संसार के जो दूसरे संसाधन और बल प्राप्त हुए हैं, उनको भी हमें बांटना चाहिए। सनातन धर्म में प्रकिया रही है कि गुरु से पढक़र आपस में बड़े व समझदार लोग अपने साथियों के साथ मिलकर ज्ञान का वितरण करते हैं। मैंने भी पढ़ते समय अपने साथ पढऩे वालों को उन बातों को समझाया-बतलाया-पढ़ाया, जो मैंने अपने गुरुओं से सीखा। यह ज्ञान बांटने की प्रशस्त प्रक्रिया है।
गुरु वशिष्ठ से पढऩे के बाद राम जी भी यही करते थे। वे अपने साथियों के साथ, अपने भाइयों के साथ, अपने परिजन के साथ बैठकर अपने ज्ञान का वितरण करते हैं। चर्चा होती है कि हमने ऐसा समझा, आपने कैसा समझा। आपको वह समझ में आ गया क्या, जो गुरुजी ने समझाया, यदि नहीं आया, तो मैं जो कह रहा हूं, आप प्रयास करें, ग्रहण करें। ज्ञान का वितरण राम जी अपने सभी भाइयों के साथ करते थे। गुरु वशिष्ठ से पढऩे के बाद राम जी अपने साथियों, अपने भाइयों के साथ बैठकर उस ज्ञान का बंटवारा करते थे। बैठकर बोलते थे कि हम ऐसा समझे हैं, आप भी समझिए और आप समझ गए हों, तो हमें भी सुनाइए। राम जी ऐसा नहीं मानते कि मुझे समझ में आ गया, मुझे इससे क्या मतलब कि दूसरों की समझ में आए या न आए। 
आज के आधुनिक संस्थानों में भी यह प्रक्रिया प्रचलित की जा रही है कि बच्चों के अध्ययन समूह बना दिए जाते हैं। बच्चे मिलकर चर्चा करें और मिलकर पढ़ें, मिलकर समझें। एक छात्र ने समझ लिया, तो वह दूसरों को भी समझा दे। जिसने जो समझा, वो बताए। अपनी समझ का वितरण करे। महामानव होने के लिए, जीवन में सफल होने के लिए तथ्यों को मिलकर संग्रहित करना है। उद्देश्य केवल भोजन ही नहीं, कपड़ा ही नहीं, ज्ञान भी है। ज्ञान को भी आपको बांटना है। याद करके उस ज्ञान को अपने साथियों में बांटिए। भगवान की दया से उन्हें भी उस ज्ञान से जोडि़ए, जिस ज्ञान को आपने प्राप्त कर लिया है। जब हम संस्कृत पढ़ते थे, तो बोलते थे कि हम लगा रहे हैं पाठ। जो पढ़ा है, उसे दूसरों से पूछना, दूसरों को सुनाना और अपनी समझ को परिपक्व बनाते थे। 
आज अनेक लोग अपनी नोट बुक दूसरों को नहीं देते हैं। कोशिश करते हैं कि केवल हमें समझ में आए, दूसरों को नहीं आए, तो कब राष्ट्र का विकास होगा, कब मानवता का विकास होगा? हर कोई यही सिद्ध करने में लगा है कि हमने ही सबकुछ किया, हमारे ही प्रयास से देश में हमारी पार्टी जीती है। हमारे ही प्रयास से यह प्रांत चला और हमने खूब पैसा कमाया, हमारे ही प्रयास से इस परिवार को सुयश प्राप्त हुआ। हर आदमी जीवन के जो लाभ हैं, उन्हें अपने कृतित्व और अपने संकल्प और अपनी चेष्टा के साथ जोडक़र अपने वर्तमान जीवन को, अपने भविष्य को कुंठित कर देता है। 
शुरू से ही शिक्षा दी जाए कि आपने ही सबकुछ नहीं किया, दूसरों ने भी किया है। सीखना चाहिए - रघुवंश के विकास से। रघुवंश के उत्कर्ष का, उसकी अत्यंत विशिष्टता का यही कारण था कि रघुवंशियों का कोई जोड़ नहीं था। राम जी जब वन विहार के लिए भी जाते थे, तो सभी मित्रों को यशस्वी बनाते हैं कि मैंने ही नहीं मारा, सभी लोगों ने मिलकर मारा है। सभी लोगों की सहायता से ही ऐसा हो पाया, आप सभी नहीं होते, तो ऐसा नहीं हो पाता। 
क्रमश:

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