भाग - ६
अब यह बहुत बड़ा प्रदूषण हो गया है, शुरू से ही चोरी से खाकर, चोरी से देखकर चोरी से जाकर, दूसरों को छोडक़र संपूर्ण जीवन को जीने की प्रक्रिया बनती जा रही है, जिसके कारण समाज टूट रहा है। समाज गंदा हो रहा है, उसके उपयोगी संगठन टूटे रहे हैं। इस बात की शिक्षा जैसे राम जी ने पिता दशरथ जी को दी, ठीक उसी तरह से भाई भरत जी को भी दी। अयोध्यावासियों और संसार को संदेश दिया कि बांटकर खाओ।
एक दिन हमारे एक भक्त ने बतलाया, जो पुलिस की सेवा में हैं, कि मैं एक दिन रसगुल्ले लाया और पत्नी से कहा, ‘सबको दीजिए एक-एक रसगुल्ला।’ सभी लोग हैं परिवार में, बड़ा परिवार है। तीन भाइयों का परिवार है, किन्तु उनकी पत्नी ने अपने बेटे को दो रसगुल्ले दे दिए और बाकी सबको एक-एक दिया। पति का इतना पवित्र जीवन है कि लोग चर्चा करते हैं। अब वे पुलिस सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं, अद्भुत प्रेरक है उनका जीवन। उनका नाम है देवेन्द्र राय। देवेन्द्र राय ने पत्नी को बुलाया और पूछा, ‘आपको अपने बेटे को महामानव बनाना है या राक्षस बनाना है?’
पत्नी ने पूछा, ‘आप ये क्या पूछ रहे हैं? ये क्या बात हुई?’
देवेन्द्र राय ने कहा, ‘जब मै खरीद कर लाया हूं और मैंने ही कहा कि सभी को एक-एक रसगुल्ला दिया जाए, तो आपने अपने बेटे को दो रसगुल्ला देकर उसे क्या बनाया?’
उसकी मां ही चोरी कर रही है, पक्षपात कर रही है, तो फिर क्या होगा? एक अतिरिक्त रसगुल्ला ज्ञान बढ़ा देगा क्या, उसके पुण्य को बढ़ा देगा क्या, बेटे को पहलवान बना देगा क्या, उसका भाग्य बना देगा क्या? एक अतिरिक्त रसगुल्ला जीवन को कौन-सी विशिष्ट विधा में पारंगत बना देगा। आपकी यह पक्षतापी बुद्धि, आपकी यह चोरी की बुद्धि, आपकी यह धृतराष्ट्र वाली बुद्धि आपको भी राक्षस बना देगी और आपके बेटे को भी बना देगी।
ऐसे उन्होंने अपनी पत्नी को झंकझोरा कि दुबारा वो पक्षपात नहीं कर सकीं। आज उनके दोनों बेटे जीवन में सबके लिए काम कर रहे हैं, वो अनुकरणीय हैं। निश्चित रूप से पिता की शिक्षा का प्रभाव है।
परिपालन की राम जी की पद्धति है, उसके माध्यम से मैं बताना चाहता हूं कि प्रारंभ से ही बहुत बड़ी दृष्टि वाला होकर, जीवन के उपयोग को, जीवन की सार्थकता को, जीवन के बड़प्पन को साबित करने का संकल्प लेना चाहिए कि सदैव बांटकर खाना है। मुंह के समान बांटकर खाना है।
जबकि आज शिक्षा ये हो रही कि कैसे छिपाकर अपने बेटे को बहुत-बहुत दे दें। मोक्ष की जो अवस्था है, उसमें कहा जाता है कि भोगे साम्यम्। भगवान सबकुछ अपने बराबर कर देते हैं। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा नौकरों को खिलाएगा। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा सबको पहनाएगा?
एक हमारे भक्त हैं, बहुत अच्छा जीवन है उनका हीरे की दुनिया में। लगभग ६००० कर्मचारी उनकी फेक्ट्री में काम करते हैं। मेरे संपर्क में पूरे विश्व में उनके जैसा कोई नहीं है - गोविंदभाई ढोलकिया। उनका नियम है कि वो अपने व्यापार में कोई गलत काम नहीं करते हैं। पांच से छह लाख रुपये रोज सफेद धन दान करते हैं। ये उनकी विशेषता है कि उनके यहां ६००० लोगों का भोजन साथ बनता है। वे और उनके सभी पार्टनर भी भोजन साथ करते हैं, एक ही भोजन सभी करते हैं और अलग से किसी को विशेष कुछ नहीं मिलता। एक हरी मिर्च भी किसी को अलग से विशेष रूप से नहीं मिलती है। ऐसे-ऐसे लोग काम करते हैं उनके यहां, जिनकी लाखों रुपए तनख्वाह है। खूब प्रतिष्ठा है, किन्तु सभी एक समान भोजन करते हैं।
अभी तो कई लोग इसीलिए कमा रहे हैं कि अलग से खाएं, दूसरों से अलग पहनें, दूसरों से अलग घूमें, दूसरों से अलग आनंद करें, दूसरों से अलग जीवन जीएं। ऐसे लोग सोचते हैं कि हम कैसे वो वस्त्र पहनेंगे, जो गरीब पहनते हैं। लोग लगे हैं कि हमारा सबकुछ अलग हो, खाना-पीना, रहना, आभूषण अलग हो, तभी तो हमारे कमाने की सार्थकता है, जबकि वास्तव में मनुष्य जीवन की सार्थकता तभी होगी, जब हम बांटकर खाएंगे।
क्रमश:
अब यह बहुत बड़ा प्रदूषण हो गया है, शुरू से ही चोरी से खाकर, चोरी से देखकर चोरी से जाकर, दूसरों को छोडक़र संपूर्ण जीवन को जीने की प्रक्रिया बनती जा रही है, जिसके कारण समाज टूट रहा है। समाज गंदा हो रहा है, उसके उपयोगी संगठन टूटे रहे हैं। इस बात की शिक्षा जैसे राम जी ने पिता दशरथ जी को दी, ठीक उसी तरह से भाई भरत जी को भी दी। अयोध्यावासियों और संसार को संदेश दिया कि बांटकर खाओ।
एक दिन हमारे एक भक्त ने बतलाया, जो पुलिस की सेवा में हैं, कि मैं एक दिन रसगुल्ले लाया और पत्नी से कहा, ‘सबको दीजिए एक-एक रसगुल्ला।’ सभी लोग हैं परिवार में, बड़ा परिवार है। तीन भाइयों का परिवार है, किन्तु उनकी पत्नी ने अपने बेटे को दो रसगुल्ले दे दिए और बाकी सबको एक-एक दिया। पति का इतना पवित्र जीवन है कि लोग चर्चा करते हैं। अब वे पुलिस सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं, अद्भुत प्रेरक है उनका जीवन। उनका नाम है देवेन्द्र राय। देवेन्द्र राय ने पत्नी को बुलाया और पूछा, ‘आपको अपने बेटे को महामानव बनाना है या राक्षस बनाना है?’
पत्नी ने पूछा, ‘आप ये क्या पूछ रहे हैं? ये क्या बात हुई?’
देवेन्द्र राय ने कहा, ‘जब मै खरीद कर लाया हूं और मैंने ही कहा कि सभी को एक-एक रसगुल्ला दिया जाए, तो आपने अपने बेटे को दो रसगुल्ला देकर उसे क्या बनाया?’
उसकी मां ही चोरी कर रही है, पक्षपात कर रही है, तो फिर क्या होगा? एक अतिरिक्त रसगुल्ला ज्ञान बढ़ा देगा क्या, उसके पुण्य को बढ़ा देगा क्या, बेटे को पहलवान बना देगा क्या, उसका भाग्य बना देगा क्या? एक अतिरिक्त रसगुल्ला जीवन को कौन-सी विशिष्ट विधा में पारंगत बना देगा। आपकी यह पक्षतापी बुद्धि, आपकी यह चोरी की बुद्धि, आपकी यह धृतराष्ट्र वाली बुद्धि आपको भी राक्षस बना देगी और आपके बेटे को भी बना देगी।
ऐसे उन्होंने अपनी पत्नी को झंकझोरा कि दुबारा वो पक्षपात नहीं कर सकीं। आज उनके दोनों बेटे जीवन में सबके लिए काम कर रहे हैं, वो अनुकरणीय हैं। निश्चित रूप से पिता की शिक्षा का प्रभाव है।
परिपालन की राम जी की पद्धति है, उसके माध्यम से मैं बताना चाहता हूं कि प्रारंभ से ही बहुत बड़ी दृष्टि वाला होकर, जीवन के उपयोग को, जीवन की सार्थकता को, जीवन के बड़प्पन को साबित करने का संकल्प लेना चाहिए कि सदैव बांटकर खाना है। मुंह के समान बांटकर खाना है।
जबकि आज शिक्षा ये हो रही कि कैसे छिपाकर अपने बेटे को बहुत-बहुत दे दें। मोक्ष की जो अवस्था है, उसमें कहा जाता है कि भोगे साम्यम्। भगवान सबकुछ अपने बराबर कर देते हैं। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा नौकरों को खिलाएगा। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा सबको पहनाएगा?
एक हमारे भक्त हैं, बहुत अच्छा जीवन है उनका हीरे की दुनिया में। लगभग ६००० कर्मचारी उनकी फेक्ट्री में काम करते हैं। मेरे संपर्क में पूरे विश्व में उनके जैसा कोई नहीं है - गोविंदभाई ढोलकिया। उनका नियम है कि वो अपने व्यापार में कोई गलत काम नहीं करते हैं। पांच से छह लाख रुपये रोज सफेद धन दान करते हैं। ये उनकी विशेषता है कि उनके यहां ६००० लोगों का भोजन साथ बनता है। वे और उनके सभी पार्टनर भी भोजन साथ करते हैं, एक ही भोजन सभी करते हैं और अलग से किसी को विशेष कुछ नहीं मिलता। एक हरी मिर्च भी किसी को अलग से विशेष रूप से नहीं मिलती है। ऐसे-ऐसे लोग काम करते हैं उनके यहां, जिनकी लाखों रुपए तनख्वाह है। खूब प्रतिष्ठा है, किन्तु सभी एक समान भोजन करते हैं।
अभी तो कई लोग इसीलिए कमा रहे हैं कि अलग से खाएं, दूसरों से अलग पहनें, दूसरों से अलग घूमें, दूसरों से अलग आनंद करें, दूसरों से अलग जीवन जीएं। ऐसे लोग सोचते हैं कि हम कैसे वो वस्त्र पहनेंगे, जो गरीब पहनते हैं। लोग लगे हैं कि हमारा सबकुछ अलग हो, खाना-पीना, रहना, आभूषण अलग हो, तभी तो हमारे कमाने की सार्थकता है, जबकि वास्तव में मनुष्य जीवन की सार्थकता तभी होगी, जब हम बांटकर खाएंगे।
क्रमश:
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