भाग - ४
हमें भोग के रूप में उसे नहीं लेना है। केवल शरीर बढ़ाना है, सुंदरता बढ़ाना है, इसके लिए नहीं लेना है। हमें भोजन भगवान के जूठे के रूप में लेना है। इससे संपूर्ण जीवन धीरे-धीरे यज्ञ से जुड़ जाएगा, वह कभी भोगी नहीं होगा। वह भगवान का जूठा ग्रहण करके परममानव ही रहेगा, उसकी तमाम बुरी आदतें समाप्त हो जाएंगी।
तो पिता राम जी को बुला रहे हैं, रामचरितमानस में लिखा है तुलसीदास जी ने - भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।
भोजन के लिए दशरथ जी बुला रहे हैं, किन्तु अपने साथियों को छोडक़र राम जी आ नहीं रहे हैं। बाल मित्रों के साथ मिलकर अपने आनंद को बढ़ा रहे हैं, उनके साथ मिलकर वे अपने शरीर की, स्वास्थ्य की तमाम गतिविधियों को मजबूत बना रहे हैं। साथियों को छोडक़र नहीं आ रहे हैं। जो राम मर्यादा के, संस्कारों के आदर्श हैं, वे देवता के तुल्य पिता की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। ये तो बहुत गलत है, ऐसा कैसे कर रहे हैं, यहां तक कि कौशल्या जी को कहा कि बुलाकर लाइए। कौशल्या जी जब जाती हैं, तो राम जी कभी भाग जाते हैं, कभी ओझल हो जाते हैं। तो इस बात को देखा राम जी ने बहुत देर तक कि पिता जी बुला रहे हैं, तो फिर आ गए। शरीर पर धूली लगी हुई है। सारा बाहर-भीतर ऊपर-नीचे धूल कण लिपटे हुए हैं।
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, हर आदमी को धूल में लेटने का अभ्यास करना चाहिए, तब उसे लगेगा कि स्वाभाविक जीवन क्या है, पृथ्वी से जुड़ा हुआ जीवन क्या है। अभी हर आदमी हवाई जहाज वाली यात्रा करके बड़ा होना चाहता है। पृथ्वी से ही सभी अन्न निकलते हैं, तमाम औषधियां निकलती हैं। जीवन निर्वाह के सभी साधन निकलते हैं, किन्तु धूल-मिट्टी से ही हम जुड़े रहना नहीं चाहते हैं। मुख पर पाउडर तो हम लगाना चाहते हैं, इत्र हम लगाना चाहते हैं, जबकि हमारे शरीर में पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। पृथ्वी से हमें सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।
लिखा तुलसीदास जी ने -
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।
राजकीय वैभव होने के बावजूद भगवान का शरीर धूल से सना हुआ है और ऐसे ही रूप में राम जी अपने पिता दशरथ जी की गोद में बैठ जाते हैं। दशरथ जी ने भी परहेज नहीं किया कि उनके कपड़े गंदे हैं, हाथ गंदे हैं और बैठाकर खाना खिलाने लगे। किन्तु राम जी का मन वहीं अपने साथियों में लगा हुआ है। वे बार-बार अपने साथियों को देखते हैं और ये समझने की बात है कि भले ही वे अत्यंत समृद्ध और यशस्वी वंश के भूपति दशरथ जी के गोद में बैठकर भोजन कर रहे हैं, ऐसे दशरथ जी, जिन्हें आगे बढक़र इंद्र भी सम्मान देते थे, स्थान देते थे। वैसे पिता राजा की गोद में बैठकर भी राम जी का चित्त साथियों और खेल में लगा हुआ है और वे राजा की गोद से भाग जाते हैं। राम जी भोजन करते हुए दौडक़र चले जाते हैं, दूध-दही मुंह में लगा हुआ है।
इस शिक्षा का एक बड़ा संकेत है, जो हमें बच्चों को सिखाना चाहिए, जो संपूर्ण संसार के बच्चों के लिए मनुष्यों को माता-पिता को, संरक्षकों-अभिभावकों को कि राम जी का संकेत है कि जो आदमी अकेले खाता है समुदाय को छोडक़र, अपनों को छोडक़र, वह कभी भी बड़ा मनुष्य नहीं हो पाता, वह कभी भी ऋषित्व, संतत्व, कभी देवत्व को, कभी इस संसार के लिए प्रेरक स्थान को प्राप्त नहीं कर सकेगा। मनुष्य जीवन का चरम है - कभी अकेले नहीं खाना, जब खाना बांटकर खाना।
आज बहुत बड़ी विडंबना है। आज समाज टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं, परिवार टूट रहे हैं, पार्टियां टूट रही हैं, देश विखंडित हो रहे हैं, तो इसका मूल कारण है अकेले भोग की भावना। अकेले सुसज्जित होने की भावना, अकेले सम्मानित होने की भावना। इसलिए संतों ने, अपने शास्त्रों ने कहा कि बांट करके खाइए। राम जी यही संकेत कर रहे हैं कि पिता जी आप बहुत अच्छे हैं, रघुवंश के शिरोमणि हैं। आपको खूब-खूब पुण्य प्राप्त है, तभी तो मैं आपके घर आया और पिता-माता के रूप में आपको स्वीकार किया, किन्तु इसमें यह अभी जोडऩे की बात है कि केवल राम को खिलाकर आपको ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होगा, वह तो सबको खिलाकर ही होगा। राम बनने के लिए आपको आवश्यक है आप भी भोजन में समदर्शिता और सर्वव्यापकता अर्जित करें, तो अच्छा होगा।
क्रमश:
हमें भोग के रूप में उसे नहीं लेना है। केवल शरीर बढ़ाना है, सुंदरता बढ़ाना है, इसके लिए नहीं लेना है। हमें भोजन भगवान के जूठे के रूप में लेना है। इससे संपूर्ण जीवन धीरे-धीरे यज्ञ से जुड़ जाएगा, वह कभी भोगी नहीं होगा। वह भगवान का जूठा ग्रहण करके परममानव ही रहेगा, उसकी तमाम बुरी आदतें समाप्त हो जाएंगी।
तो पिता राम जी को बुला रहे हैं, रामचरितमानस में लिखा है तुलसीदास जी ने - भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।
भोजन के लिए दशरथ जी बुला रहे हैं, किन्तु अपने साथियों को छोडक़र राम जी आ नहीं रहे हैं। बाल मित्रों के साथ मिलकर अपने आनंद को बढ़ा रहे हैं, उनके साथ मिलकर वे अपने शरीर की, स्वास्थ्य की तमाम गतिविधियों को मजबूत बना रहे हैं। साथियों को छोडक़र नहीं आ रहे हैं। जो राम मर्यादा के, संस्कारों के आदर्श हैं, वे देवता के तुल्य पिता की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। ये तो बहुत गलत है, ऐसा कैसे कर रहे हैं, यहां तक कि कौशल्या जी को कहा कि बुलाकर लाइए। कौशल्या जी जब जाती हैं, तो राम जी कभी भाग जाते हैं, कभी ओझल हो जाते हैं। तो इस बात को देखा राम जी ने बहुत देर तक कि पिता जी बुला रहे हैं, तो फिर आ गए। शरीर पर धूली लगी हुई है। सारा बाहर-भीतर ऊपर-नीचे धूल कण लिपटे हुए हैं।
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, हर आदमी को धूल में लेटने का अभ्यास करना चाहिए, तब उसे लगेगा कि स्वाभाविक जीवन क्या है, पृथ्वी से जुड़ा हुआ जीवन क्या है। अभी हर आदमी हवाई जहाज वाली यात्रा करके बड़ा होना चाहता है। पृथ्वी से ही सभी अन्न निकलते हैं, तमाम औषधियां निकलती हैं। जीवन निर्वाह के सभी साधन निकलते हैं, किन्तु धूल-मिट्टी से ही हम जुड़े रहना नहीं चाहते हैं। मुख पर पाउडर तो हम लगाना चाहते हैं, इत्र हम लगाना चाहते हैं, जबकि हमारे शरीर में पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। पृथ्वी से हमें सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।
लिखा तुलसीदास जी ने -
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।
राजकीय वैभव होने के बावजूद भगवान का शरीर धूल से सना हुआ है और ऐसे ही रूप में राम जी अपने पिता दशरथ जी की गोद में बैठ जाते हैं। दशरथ जी ने भी परहेज नहीं किया कि उनके कपड़े गंदे हैं, हाथ गंदे हैं और बैठाकर खाना खिलाने लगे। किन्तु राम जी का मन वहीं अपने साथियों में लगा हुआ है। वे बार-बार अपने साथियों को देखते हैं और ये समझने की बात है कि भले ही वे अत्यंत समृद्ध और यशस्वी वंश के भूपति दशरथ जी के गोद में बैठकर भोजन कर रहे हैं, ऐसे दशरथ जी, जिन्हें आगे बढक़र इंद्र भी सम्मान देते थे, स्थान देते थे। वैसे पिता राजा की गोद में बैठकर भी राम जी का चित्त साथियों और खेल में लगा हुआ है और वे राजा की गोद से भाग जाते हैं। राम जी भोजन करते हुए दौडक़र चले जाते हैं, दूध-दही मुंह में लगा हुआ है।
इस शिक्षा का एक बड़ा संकेत है, जो हमें बच्चों को सिखाना चाहिए, जो संपूर्ण संसार के बच्चों के लिए मनुष्यों को माता-पिता को, संरक्षकों-अभिभावकों को कि राम जी का संकेत है कि जो आदमी अकेले खाता है समुदाय को छोडक़र, अपनों को छोडक़र, वह कभी भी बड़ा मनुष्य नहीं हो पाता, वह कभी भी ऋषित्व, संतत्व, कभी देवत्व को, कभी इस संसार के लिए प्रेरक स्थान को प्राप्त नहीं कर सकेगा। मनुष्य जीवन का चरम है - कभी अकेले नहीं खाना, जब खाना बांटकर खाना।
आज बहुत बड़ी विडंबना है। आज समाज टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं, परिवार टूट रहे हैं, पार्टियां टूट रही हैं, देश विखंडित हो रहे हैं, तो इसका मूल कारण है अकेले भोग की भावना। अकेले सुसज्जित होने की भावना, अकेले सम्मानित होने की भावना। इसलिए संतों ने, अपने शास्त्रों ने कहा कि बांट करके खाइए। राम जी यही संकेत कर रहे हैं कि पिता जी आप बहुत अच्छे हैं, रघुवंश के शिरोमणि हैं। आपको खूब-खूब पुण्य प्राप्त है, तभी तो मैं आपके घर आया और पिता-माता के रूप में आपको स्वीकार किया, किन्तु इसमें यह अभी जोडऩे की बात है कि केवल राम को खिलाकर आपको ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होगा, वह तो सबको खिलाकर ही होगा। राम बनने के लिए आपको आवश्यक है आप भी भोजन में समदर्शिता और सर्वव्यापकता अर्जित करें, तो अच्छा होगा।
क्रमश:
No comments:
Post a Comment