भाग - १२
एक और उदाहरण मुझे स्मरण हो रहा है, जो मैं बताना चाहूंगा। एक बार दुनिया के सभी बड़े राष्ट्राध्यक्ष कहीं एकत्रित थे और अपने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उपस्थित थे, तो सब लोग बैठ रहे थे। अमरीका के राष्ट्रपति और अन्य, किन्तु रूस के राष्ट्रपति नहीं बैठे, वो खड़े थे, सभी लोगों ने पूछा, आप क्यों खड़े हैं, बैठिए, कुर्सी खाली है। छोटे राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष भी बैठ गए, रूस का राष्ट्रपति नहीं बैठा, उन्होंने कहा कि अटल जी नहीं आए। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश के अटल जी की बराबरी का कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं है। इतना लोकतांत्रिक अनुभव, साथ ही बेदाग जीवन और अद्भुत वक्ता। जब अटल जी को देखता हूं, सुनता हूं, बातचीत करता हूं, तो ऐसा लगता है कि ये लोकतंत्र के सबसे बड़े सांचे में ढाला हुआ जीवन है। और उनके लिए खड़ा हूं। उनका सम्मान निश्चित रूप से लोकतांत्रिक जीवन को प्रकाशित करेगा प्रेरणा मिलेगी।’
आज समाज में मूल्यांकन की जरूरत है कि किसके लिए बैठना और किसके लिए खड़ा होना। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। अब तो बड़े-बड़े धर्माचार्य आते हैं, तो एक दूसरे को हाथ उठाने में भी संकोच नहीं होता है। अब नमस्ते कहते हैं, संप्रदाय की प्रक्रिया के अनुसार प्रणाम करने में भी उन्हें संकोच होता है। एक बार तीनों शंकराचार्यों के साथ मैं था, लोग मिले, तो एक दूसरे को प्रणाम नहीं किया। मैं साक्षी था। श्रंृगेरी मठ, ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी और मैं, हम तीनों मिल रहे थे, उन लोगों ने हाथ जोडक़र नम्रता के साथ प्रणाम नहीं किया। वे क्या दूसरों को शिक्षा देंगे। मैं बड़ा, तो मैं बड़ा। जबकि उनके सिद्धांत में सभी ब्रह्म हैं, तो कम से कम ब्रह्म तो ब्रह्म को प्रणाम करे।
लिखा है कि ज्ञानी होने के बाद आवश्यकता नहीं है, तो भी वह लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रणाम करता है, काम करता है। भगवान ने गीता में कहा, मैं इसलिए कर्म करता हूं कि सारे लोग कर्म करें। कर्म नहीं करूंगा, तो सारे लोग कर्म छोड़ देंगे, तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा, पालन कैसे होगा, उत्पादन कैसे होगा, सारी व्यवस्था ही रुक जाएगी। इसलिए मैं कर्म करता हूं। ज्ञानी भी कर्म करता है। शंकराचार्य होकर भी हाथ नहीं जोड़ें, यह कौन-सी बात हो गई। वो भी शंकराचार्य को नहीं जोड़ें। मैंने दोनों लोगों को हाथ जोडक़र सिर झुकाकर अत्यंत आदर के साथ प्रणाम किया और साथ में बैठ गया। यह पद्धति सभी बच्चों को शुरू से ही देने की आवश्यकता है।
जब ज्ञान धारा की शुरुआत हो रही है, जब नए जीवन का उद्गम हो रहा है, जब जीवन का प्रारंभिक उत्स है कि कैसे विकसित होंगे। सभी को इन बातों को सीखना चाहिए कि कैसे राम जी संपूर्ण संसार को अपने चरित्र के अद्भुत स्वरूप से, जो पूर्ण वैदिक था, पूर्ण ऐतिहासिक था, पूर्ण पौराणिक था, कैसे शिक्षित किया। हमारे यहां शिक्षा का क्रम कल्पित नहीं है। वह अनादि है। उसमें हमें मांस अच्छा लगेगा, तो मांस नहीं खाएंगे। शादी हमें करनी है, तो ऐसे ही नहीं कर लेंगे। जो हमारे संपर्क में जो बच्चे हैं, जो बच्चियां हैं, उन्हें कहता हूं कि मनमानी शादी नहीं कर लेना। किसी लडक़े को हैप्पी वेलनटाइन डे नहीं कह देना। जो भी सुंदर लग जाए, उसे लेकर आने का संकल्प नहीं करना। शादी अवश्य चाहिए। स्त्री बहुत बड़ी सहयोगिनी है पुरुष की। पुरुष को मिली है ऊर्जा, जिसके लिए स्त्री की आवश्यकता, और स्त्री को पुरुष की। वे पूरक हैं एक दूसरे के।
इसलिए वेदों में लिखा है कि भगवान का भी अकेले में मन नहीं लगता। तभी उन्होंने स्त्री पुरुष का रूप धारण करके अपने मन को रंजित किया। तो शादी हो, किन्तु कैसे हो, छोटी आयु से शिक्षा दीजिए कि आपको भी दुल्हन मिलेगी, किन्तु दुल्हन ऐसी, जो अपने बड़ों द्वारा आपको प्राप्त होगी, गुरु के द्वारा होगी। परिवार के माता-पिता दादा-दादी सब जो लाएंगे, वो आपको मिलेगी। ऐसा नहीं कि जो भी मिलेगी, उसे ले आएंगे।
जैसे राम जी को मिली पत्नी, किन्तु विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी के मार्गदर्शन में मिली। बक्सर पहुंचे, जनकपुर गए और वहां जो विधि थी सीता जी की प्राप्ति की। उस विधि का परिपालन किया। जनक जी के संकल्प के अनुसार ही जानकी जी मिलीं। जनक ने ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त कर लिया था। राजा होने के बाद भी जिन्होंने खूब जप किया, ऐसे परम तेजस्वी और सभी दृष्टि से परिपूर्ण जीवन के ब्रह्मर्षि के माध्यम से पत्नी प्राप्त हुई।
इन बातों की शिक्षा, जिन मूल्यों को जीवन में विकसित करना है, जिन ज्ञानों को जिन स्वभावों, व्यवहारों, संकल्पों को, जिन निश्चयों को जिन अहंकारों को हमें जीवन में विकसित करना है। एवरेस्ट पर पहुंचाना है, अपने लिए और संपूर्ण मानवता के लिए वरदान बनाना है, उसकी शिक्षा शुरू से दी जाए। हमारे यहां तमाम इतिहास वर्णित हैं, तमाम तरह की घटनाएं हैं, खूब-खूब उदाहरण हैं, उनके अनुसार चलें, सिखाएं।
मेरे गुरुजी, जब मैं घर से भाग करके आया, तो मैं साधु बनने के लिए नहीं आया था। मैं इसलिए नहीं घर छोड़ा था। घर छोड़ा था, तो तीन संकल्प लिए थे। एक - इस गांव में जहां जन्म हुआ, वहां कभी नहीं आऊंगा। दूसरा संकल्प लिया कि विवाह नहीं करूंगा। तीसरा संकल्प लिया कि खूब विद्वान बनूंगा। तो ठीक है। उस संकल्प के साथ गुरुजी के साथ लग गया। लोग आते थे सलाह देते थे, आप साधु हो जाइए, तो आपको पढऩे में सुविधा हो जाएगी। गुरुजी भी बोलते थे और जो लोग आते थे, वो भी बोलते थे। मैं साधु जीवन से उतना प्रभावित नहीं था, किन्तु कुछ बोलता नहीं था।
क्रमश:
एक और उदाहरण मुझे स्मरण हो रहा है, जो मैं बताना चाहूंगा। एक बार दुनिया के सभी बड़े राष्ट्राध्यक्ष कहीं एकत्रित थे और अपने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उपस्थित थे, तो सब लोग बैठ रहे थे। अमरीका के राष्ट्रपति और अन्य, किन्तु रूस के राष्ट्रपति नहीं बैठे, वो खड़े थे, सभी लोगों ने पूछा, आप क्यों खड़े हैं, बैठिए, कुर्सी खाली है। छोटे राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष भी बैठ गए, रूस का राष्ट्रपति नहीं बैठा, उन्होंने कहा कि अटल जी नहीं आए। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश के अटल जी की बराबरी का कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं है। इतना लोकतांत्रिक अनुभव, साथ ही बेदाग जीवन और अद्भुत वक्ता। जब अटल जी को देखता हूं, सुनता हूं, बातचीत करता हूं, तो ऐसा लगता है कि ये लोकतंत्र के सबसे बड़े सांचे में ढाला हुआ जीवन है। और उनके लिए खड़ा हूं। उनका सम्मान निश्चित रूप से लोकतांत्रिक जीवन को प्रकाशित करेगा प्रेरणा मिलेगी।’
आज समाज में मूल्यांकन की जरूरत है कि किसके लिए बैठना और किसके लिए खड़ा होना। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। अब तो बड़े-बड़े धर्माचार्य आते हैं, तो एक दूसरे को हाथ उठाने में भी संकोच नहीं होता है। अब नमस्ते कहते हैं, संप्रदाय की प्रक्रिया के अनुसार प्रणाम करने में भी उन्हें संकोच होता है। एक बार तीनों शंकराचार्यों के साथ मैं था, लोग मिले, तो एक दूसरे को प्रणाम नहीं किया। मैं साक्षी था। श्रंृगेरी मठ, ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी और मैं, हम तीनों मिल रहे थे, उन लोगों ने हाथ जोडक़र नम्रता के साथ प्रणाम नहीं किया। वे क्या दूसरों को शिक्षा देंगे। मैं बड़ा, तो मैं बड़ा। जबकि उनके सिद्धांत में सभी ब्रह्म हैं, तो कम से कम ब्रह्म तो ब्रह्म को प्रणाम करे।
लिखा है कि ज्ञानी होने के बाद आवश्यकता नहीं है, तो भी वह लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रणाम करता है, काम करता है। भगवान ने गीता में कहा, मैं इसलिए कर्म करता हूं कि सारे लोग कर्म करें। कर्म नहीं करूंगा, तो सारे लोग कर्म छोड़ देंगे, तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा, पालन कैसे होगा, उत्पादन कैसे होगा, सारी व्यवस्था ही रुक जाएगी। इसलिए मैं कर्म करता हूं। ज्ञानी भी कर्म करता है। शंकराचार्य होकर भी हाथ नहीं जोड़ें, यह कौन-सी बात हो गई। वो भी शंकराचार्य को नहीं जोड़ें। मैंने दोनों लोगों को हाथ जोडक़र सिर झुकाकर अत्यंत आदर के साथ प्रणाम किया और साथ में बैठ गया। यह पद्धति सभी बच्चों को शुरू से ही देने की आवश्यकता है।
जब ज्ञान धारा की शुरुआत हो रही है, जब नए जीवन का उद्गम हो रहा है, जब जीवन का प्रारंभिक उत्स है कि कैसे विकसित होंगे। सभी को इन बातों को सीखना चाहिए कि कैसे राम जी संपूर्ण संसार को अपने चरित्र के अद्भुत स्वरूप से, जो पूर्ण वैदिक था, पूर्ण ऐतिहासिक था, पूर्ण पौराणिक था, कैसे शिक्षित किया। हमारे यहां शिक्षा का क्रम कल्पित नहीं है। वह अनादि है। उसमें हमें मांस अच्छा लगेगा, तो मांस नहीं खाएंगे। शादी हमें करनी है, तो ऐसे ही नहीं कर लेंगे। जो हमारे संपर्क में जो बच्चे हैं, जो बच्चियां हैं, उन्हें कहता हूं कि मनमानी शादी नहीं कर लेना। किसी लडक़े को हैप्पी वेलनटाइन डे नहीं कह देना। जो भी सुंदर लग जाए, उसे लेकर आने का संकल्प नहीं करना। शादी अवश्य चाहिए। स्त्री बहुत बड़ी सहयोगिनी है पुरुष की। पुरुष को मिली है ऊर्जा, जिसके लिए स्त्री की आवश्यकता, और स्त्री को पुरुष की। वे पूरक हैं एक दूसरे के।
इसलिए वेदों में लिखा है कि भगवान का भी अकेले में मन नहीं लगता। तभी उन्होंने स्त्री पुरुष का रूप धारण करके अपने मन को रंजित किया। तो शादी हो, किन्तु कैसे हो, छोटी आयु से शिक्षा दीजिए कि आपको भी दुल्हन मिलेगी, किन्तु दुल्हन ऐसी, जो अपने बड़ों द्वारा आपको प्राप्त होगी, गुरु के द्वारा होगी। परिवार के माता-पिता दादा-दादी सब जो लाएंगे, वो आपको मिलेगी। ऐसा नहीं कि जो भी मिलेगी, उसे ले आएंगे।
जैसे राम जी को मिली पत्नी, किन्तु विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी के मार्गदर्शन में मिली। बक्सर पहुंचे, जनकपुर गए और वहां जो विधि थी सीता जी की प्राप्ति की। उस विधि का परिपालन किया। जनक जी के संकल्प के अनुसार ही जानकी जी मिलीं। जनक ने ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त कर लिया था। राजा होने के बाद भी जिन्होंने खूब जप किया, ऐसे परम तेजस्वी और सभी दृष्टि से परिपूर्ण जीवन के ब्रह्मर्षि के माध्यम से पत्नी प्राप्त हुई।
इन बातों की शिक्षा, जिन मूल्यों को जीवन में विकसित करना है, जिन ज्ञानों को जिन स्वभावों, व्यवहारों, संकल्पों को, जिन निश्चयों को जिन अहंकारों को हमें जीवन में विकसित करना है। एवरेस्ट पर पहुंचाना है, अपने लिए और संपूर्ण मानवता के लिए वरदान बनाना है, उसकी शिक्षा शुरू से दी जाए। हमारे यहां तमाम इतिहास वर्णित हैं, तमाम तरह की घटनाएं हैं, खूब-खूब उदाहरण हैं, उनके अनुसार चलें, सिखाएं।
मेरे गुरुजी, जब मैं घर से भाग करके आया, तो मैं साधु बनने के लिए नहीं आया था। मैं इसलिए नहीं घर छोड़ा था। घर छोड़ा था, तो तीन संकल्प लिए थे। एक - इस गांव में जहां जन्म हुआ, वहां कभी नहीं आऊंगा। दूसरा संकल्प लिया कि विवाह नहीं करूंगा। तीसरा संकल्प लिया कि खूब विद्वान बनूंगा। तो ठीक है। उस संकल्प के साथ गुरुजी के साथ लग गया। लोग आते थे सलाह देते थे, आप साधु हो जाइए, तो आपको पढऩे में सुविधा हो जाएगी। गुरुजी भी बोलते थे और जो लोग आते थे, वो भी बोलते थे। मैं साधु जीवन से उतना प्रभावित नहीं था, किन्तु कुछ बोलता नहीं था।
क्रमश:
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