(श्रीराम का बचपन और मानव होने का व्यावहारिक प्रशिक्षण)
(जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से)
संसार के सभी मनुष्य भगवान की विशेष कृपा और अपने जन्मजन्मांतरों के पुण्यों के फलस्वरूप ही मनुष्य जीवन को प्राप्त करते हैं, यही अपना वैदिक सिद्धांत है। मनुष्य जीवन से बड़ा उत्पादन, बड़ा सृजन इस सृष्टि में ईश्वर का और कुछ नहीं है। जो संपूर्ण संसार है, मनुष्य के लिए ही है, चाहे वो पृथ्वी हो, जल हो, थल हो, तो हमें इतना अच्छा जीवन मिला है, इस जीवन का अधिक से अधिक उत्तम से उत्मोत्तम उपयोग हो। मनुष्य केवल अपने लिए भी सुखदायी, अपने लिए ही स्थायी और अपने लिए ही सुंदर, मजबूत और हर दृष्टि से संपन्न न हो, वो दूसरों के लिए भी काम का हो, दूसरों के लिए भी समृद्धि व ऐश्वर्य जीवन में बढ़ाने वाला हो, इसके लिए बाल्यावस्था से ही बच्चों को कैसे तैयार किया जाए। यह मुख्य विषय है।
यह केवल भारतवर्ष में ही नहीं, संपूर्ण संसार के मनुष्यों के जो शिशु हैं, उनके जात हैं और उनके जो वंश के दीपक हैं, वंशवद्र्धक हैं, वंश-रक्षक हैं, तो उनको कैसे तैयार किया जाए, जिससे वो परिपूर्ण जीवन को प्राप्त करें, जिसे वो सुंदर जीवन को, संतुष्ट जीवन को, वरदान जीवन को प्राप्त करें। इसकी चर्चा को हम और आगे बढ़ाते हुए विस्तार देंगे।
असल में ज्ञान भी जीव का स्वरूप ही है। जैसे ईश्वर ज्ञान की राशि है, ज्ञान का सागर है, ज्ञान उससे ज्यादा हो ही नहीं सकता, इसलिए उसको सर्वज्ञ कहते हैं। वह पूरे संसार को सामान्य रूप से भी जानता है और विशेष रूप से भी जानता है। तो जीव भी ज्ञान स्वरूप है। चैतन्य स्वरूप है, जीव भी ज्ञान का अंग है, किन्तु हमारा ज्ञान छोटा है। बच्चे जो उत्पन्न होते हैं मनुष्य परिवार में, तो मनुष्य माता-पिता की गोद में, आंगन में, तो उनका ज्ञान बहुत छोटा होता है। सभी तरह का ज्ञान छोटा होता है। अब ये अलग बात है कि पिछले जन्म का बहुत बड़ा संस्कार हो, साथ आ रहा हो, तो कुछ विशेष लोगों का जन्म लेते ही ज्ञान बहुत बड़ा हो जाता है, किन्तु सामान्य लोगों को ज्ञान को बढ़ाना पड़ता है। ज्ञान के संवर्धन की जो पद्धति है, ज्ञान के विकास का जो क्रम है, वो कैसे ऐसा किया जाए कि जिससे ज्ञान आदमी को हो। ज्ञान सभी व्यवहारों का कारण है। कोई भी व्यवहार ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। चाहे वो बैठने का हो, चाहे वो खाने का हो, कमाने का हो, चाहे वो शरीर के विकास का हो, चाहे वो धन के विकास का हो, चाहे वो सम्मान के विकास का हो, कोई भी व्यवहार होगा, तो ज्ञान उसका मूल सहयोगी होगा। मूल उत्पादक होगा, इसलिए दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि जो सभी व्यवहारों का कारण हो और गुण भी हो, उसी को ज्ञान कहते हैं।
जब हम ज्ञान अर्जित करने के लिए विद्यालय में बच्चों को भेजते हैं। पहले तो बच्चे ५ से ६ वर्षों के हो जाते थे, तो विद्यालय में जाते थे। अब आयु सीमा में कमी आई, अब ३ वर्ष के बाद बच्चे विद्यालय जाने लगते हैं। ३ वर्षों का जो प्रारंभिक काल है, उसका बहुत महत्व है। प्राथमिक विद्यालय से पहले का जो सर्वप्रथम नींव रखने वाला विद्यालय है, वो परिवार का विद्यालय है। माता-पिता, दादा-दादी और जो परिजन हैं, उनका जो सान्निध्य है, उनका जो संरक्षण है, उनका जो अत्यंत ममत्व है परिपालन में, हर्ष विकास में, वो बहुत बड़ा विषय है। अत: पहला विद्यालय वह है, जहां हमने जन्म प्राप्त किया, जहां हमने जीवन प्राप्त किया, तो उस विद्यालय की बड़ी भूमिका है, जीवन को सफल बनाने वाली शिक्षा के क्रम में। उस शिक्षा से जुडक़र माता-पिता, परिवार के जो अन्य लोग हैं, उनको बच्चों को शिक्षित करना चाहिए।
क्रमश:
(जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से)
संसार के सभी मनुष्य भगवान की विशेष कृपा और अपने जन्मजन्मांतरों के पुण्यों के फलस्वरूप ही मनुष्य जीवन को प्राप्त करते हैं, यही अपना वैदिक सिद्धांत है। मनुष्य जीवन से बड़ा उत्पादन, बड़ा सृजन इस सृष्टि में ईश्वर का और कुछ नहीं है। जो संपूर्ण संसार है, मनुष्य के लिए ही है, चाहे वो पृथ्वी हो, जल हो, थल हो, तो हमें इतना अच्छा जीवन मिला है, इस जीवन का अधिक से अधिक उत्तम से उत्मोत्तम उपयोग हो। मनुष्य केवल अपने लिए भी सुखदायी, अपने लिए ही स्थायी और अपने लिए ही सुंदर, मजबूत और हर दृष्टि से संपन्न न हो, वो दूसरों के लिए भी काम का हो, दूसरों के लिए भी समृद्धि व ऐश्वर्य जीवन में बढ़ाने वाला हो, इसके लिए बाल्यावस्था से ही बच्चों को कैसे तैयार किया जाए। यह मुख्य विषय है।
यह केवल भारतवर्ष में ही नहीं, संपूर्ण संसार के मनुष्यों के जो शिशु हैं, उनके जात हैं और उनके जो वंश के दीपक हैं, वंशवद्र्धक हैं, वंश-रक्षक हैं, तो उनको कैसे तैयार किया जाए, जिससे वो परिपूर्ण जीवन को प्राप्त करें, जिसे वो सुंदर जीवन को, संतुष्ट जीवन को, वरदान जीवन को प्राप्त करें। इसकी चर्चा को हम और आगे बढ़ाते हुए विस्तार देंगे।
असल में ज्ञान भी जीव का स्वरूप ही है। जैसे ईश्वर ज्ञान की राशि है, ज्ञान का सागर है, ज्ञान उससे ज्यादा हो ही नहीं सकता, इसलिए उसको सर्वज्ञ कहते हैं। वह पूरे संसार को सामान्य रूप से भी जानता है और विशेष रूप से भी जानता है। तो जीव भी ज्ञान स्वरूप है। चैतन्य स्वरूप है, जीव भी ज्ञान का अंग है, किन्तु हमारा ज्ञान छोटा है। बच्चे जो उत्पन्न होते हैं मनुष्य परिवार में, तो मनुष्य माता-पिता की गोद में, आंगन में, तो उनका ज्ञान बहुत छोटा होता है। सभी तरह का ज्ञान छोटा होता है। अब ये अलग बात है कि पिछले जन्म का बहुत बड़ा संस्कार हो, साथ आ रहा हो, तो कुछ विशेष लोगों का जन्म लेते ही ज्ञान बहुत बड़ा हो जाता है, किन्तु सामान्य लोगों को ज्ञान को बढ़ाना पड़ता है। ज्ञान के संवर्धन की जो पद्धति है, ज्ञान के विकास का जो क्रम है, वो कैसे ऐसा किया जाए कि जिससे ज्ञान आदमी को हो। ज्ञान सभी व्यवहारों का कारण है। कोई भी व्यवहार ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। चाहे वो बैठने का हो, चाहे वो खाने का हो, कमाने का हो, चाहे वो शरीर के विकास का हो, चाहे वो धन के विकास का हो, चाहे वो सम्मान के विकास का हो, कोई भी व्यवहार होगा, तो ज्ञान उसका मूल सहयोगी होगा। मूल उत्पादक होगा, इसलिए दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि जो सभी व्यवहारों का कारण हो और गुण भी हो, उसी को ज्ञान कहते हैं।
जब हम ज्ञान अर्जित करने के लिए विद्यालय में बच्चों को भेजते हैं। पहले तो बच्चे ५ से ६ वर्षों के हो जाते थे, तो विद्यालय में जाते थे। अब आयु सीमा में कमी आई, अब ३ वर्ष के बाद बच्चे विद्यालय जाने लगते हैं। ३ वर्षों का जो प्रारंभिक काल है, उसका बहुत महत्व है। प्राथमिक विद्यालय से पहले का जो सर्वप्रथम नींव रखने वाला विद्यालय है, वो परिवार का विद्यालय है। माता-पिता, दादा-दादी और जो परिजन हैं, उनका जो सान्निध्य है, उनका जो संरक्षण है, उनका जो अत्यंत ममत्व है परिपालन में, हर्ष विकास में, वो बहुत बड़ा विषय है। अत: पहला विद्यालय वह है, जहां हमने जन्म प्राप्त किया, जहां हमने जीवन प्राप्त किया, तो उस विद्यालय की बड़ी भूमिका है, जीवन को सफल बनाने वाली शिक्षा के क्रम में। उस शिक्षा से जुडक़र माता-पिता, परिवार के जो अन्य लोग हैं, उनको बच्चों को शिक्षित करना चाहिए।
क्रमश:
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