Friday, 19 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - २ 
हमें बच्चे को केवल आयु नहीं देना है, केवल उसे बड़ा ही नहीं करना है। उसे उन सभी संस्कारों को देना है, जिनके आधार पर वह अपने लिए और अपने परिवार के लिए और संपूर्ण संसार, मानवता के लिए सहयोगी बने। बलवान हो, विद्वान हो और सार्थकता-सुंदरता बढ़ाने में कारगर हो, इसलिए मनमानी नहीं करके हमें परंपरागत प्राप्त जो संस्कार हैं, जो शिक्षा के स्वरूप हैं, जो ज्ञान के स्वरूप हैं, जो प्रामाणिक हैं और जो हमें दिव्य दृष्टियों से सम्पन्न ऋषियों, आचार्यों, गुरुओं से प्राप्त हैं और उनका मूल वेद, शास्त्र हों, जिनका कोई जोड़ नहीं है और जो वस्तुत: सभी दृष्टि से निर्विवाद, प्रामाणिक और कारगर हैं। इसकी बड़ी आवश्यकता है कि हम उससे शिक्षित हों। हम उदाहरणों, इतिहासों, विचारों से बच्चे को शिक्षा दें, चाहे वो शब्द ज्ञान की शिक्षा हो, वाक्य ज्ञान की शिक्षा हो। बोलने-बैठने की शिक्षा हो, वो सब प्रामाणिक रूप से होनी चाहिए और उसमें कहीं से भी दिखावटी-मिलावटी काम नहीं हो। ऐसा नहीं हो कि केवल कल्पनाओं के आधार पर शिक्षित किया जाए। ऐसा नहीं हो कि जहां-तहां से अनुकरण कर ली गई शिक्षा हो। शिक्षा का ऐसा आधार होना चाहिए, जो बहुत-बहुत वर्षों से चला आ रहा है। वह शिक्षा दी जाए, जो बहुत-बहुत वर्षों से शिष्ट-श्रेष्ठ जीवन तैयार करने में प्रामाणिक हो चुकी है, मान्य हो चुकी है। इसके लिए आवश्यक है कि हम जो बतलाएं, वो प्रामाणिक हो, मनमानी नहीं हो। आज की बड़ी विडंबना है कि पूरे संसार में अधिकांश लोग मनमानी संस्कारों के आधार पर बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं, सयाना कर रहे हैं। जो बच्चों को मनुष्य नहीं बनाकर, महामानव नहीं बनाकर, ऋषित्व नहीं देकर, देवत्व नहीं देकर, सृष्टि के लिए वरदान नहीं बनाकर उन्हें पाश्विक जीवन, राक्षसी जीवन, आतंकवादी जीवन, भोगी जीवन दे देते हैं। 
हमें एक तो सबसे पहले बच्चों को ये बताना जरूरी है कि ये जो जीवन आपको मिला है, वो बहुत ही महत्वपूर्ण जीवन है। लोग अपने बच्चों से कहते हैं कि आपको प्रधानमंत्री बनना है, आपको राजा बनना है, सबसे बड़ा एक्टर बनना है, सबसे बड़ा क्रिकेटर बनना है, आपको सबसे ज्यादा धनवान बनना है। लोग ये बातें बच्चों को सिखलाते हैं, जैसे जीवन का सब कुछ वहीं है। जब हम प्राचीन परंपरा को ध्यान में रखकर बात करते हैं, तो जो बात निकलती है, वह है - आपको सर्वश्रेष्ठ मनुष्य बनना है। मनुष्य जीवन सबसे सर्वश्रेष्ठ जीवन है। उसके अनुकूल हमें स्वयं का विकास करके मनुष्य का जीवन प्राप्त हो। जैसे लंका में बोलते हैं कि उस राक्षस की आकृति मनुष्यों की तरह थी। वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि राम जी की सेना में मात्र सात मनुष्य थे। राम जी, लक्ष्मण जी, विभीषण जी, और विभीषण जी के साथ आए हुए चार अन्य सहयोगी-अनुयायी, जो उनके मंत्री थे। तो आकृति हमारी मनुष्य की हो और हमारा संपूर्ण ज्ञान और क्रिया अनियंत्रित हो, अमर्यादित हो, मनमानी हो, तो हमें वो राक्षस बना देती है, जैसे लंका के लोगों को बना दिया। इसलिए आज भी व्यवहार देखकर किसी को कहा जाता है कि ये दिखता तो मनुष्य है, किन्तु प्रवृत्तियां तो राक्षस जैसी हैं, इसमें कहीं से भी मनुष्यता नहीं है।
अत: बच्चों को पहली शिक्षा यही दी जाए कि मनुष्य जीवन की जो अपूर्वता है, मनुष्य जीवन की जो विशेषता है, अन्य जीवनों से बड़ा जो इसका स्वरूप है, यह सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है। अतुलनीय स्वरूप है, इस बात को बतलाकर हमें आगे बढऩा है। हमें ये नहीं कहना है कि आपको ये या वो करना है, आपको वस्तुत: मनुष्य बनना है। आपको मनुष्य का सही स्वरूप प्राप्त करना है। तब हम मनुष्य से धीरे-धीरे श्रेष्ठ होते हुए ऋषित्व को प्राप्त करेंगे। मनुष्य से देवत्व को प्राप्त कर सकते हैं। उस पद या अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं, जैसे इतिहास में वर्णित संत जन, ऋषि जन, राजा जन और तमाम समाज के लिए वरदान समाज उद्धारक लोग हुए हैं। वैसे ही बच्चों को मनुष्य जीवन की महिमा और उसकी विशेषता, श्रेष्ठता, मनुष्यता को बढ़ाने वाले संस्कारों को देने की आवश्यकता है। इस देश के ऋषियों ने पूरे संसार को चरित्र की शिक्षा दी है, ऐसा मनु ने लिखा है, जिनकी वाणी को ईश्वर की समकक्षता प्राप्त है। मनु ने कहा है कि हमारे लोग केवल ज्ञान-विज्ञान को याद करके धन्य नहीं होते थे। ऐसा नहीं कि किसी बात को हमने कहीं से सीखा-सुना और बोलने लग गए। ज्ञान जब प्राप्त होता है, तो उसकी पहली अवस्था बचपना की अवस्था होती है। अपरिपक्व अवस्था, कच्ची व्यवस्था होती है। ज्ञान पका हुआ नहीं होता, इसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं। फिर ज्ञान पकता है, उसको अपरोक्ष ज्ञान कहते हैं। फिर वो हमारे चरित्र में उतरता है। फिर हम दूसरों को भी उस ज्ञान से और उसके दोनों स्वरूपों से जोड़ते हैं और अपने चरित्र, व्यवहार से प्रेरित करते हैं। 
क्रमश:

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