Monday, 29 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ८
सनातन धर्म में दूसरों को यश देना आवश्यक है। दूसरों को यश नहीं देने से बिखराव होता है। जो दूसरों को यश दे, उसे ही यशोदा कहते हैं। संत जन कहते हैं और शास्त्रों में भी वर्णित है कि सबको यश, प्रशंसा मिलती है किसी कार्य की सफलता के बाद, यही यश है। उसे आदमी निगलना चाहता है कि हमने ही किया। समुदाय को सहयोगियों में यश का बंटवारा करने की प्रवृत्ति सिकुड़ती जा रही है, जबकि राम जी सबको ही यश देते हैं। 
आज हम देखते हैं कि जो बड़े नेता हैं, जो राष्ट्राध्यक्ष हैं, जो बड़े अधिकारी हैं, जो भी जहां बड़प्पन या बड़े पद से जुड़े हैं, वो इस मामले में कंजूसी कर देते हैं। अच्छे संसाधन व अच्छी शिक्षा देने में कभी कंजूसी न करें। आपको जो यश मिला है, उसका बंटवारा करें। इसी को यशोदा कहते हैं। 
संत शिरोमणि डोंगरे जी कहते थे, जब कोई आता था नंद जी के घर बधाई देने के लिए, तब यशोदा जी कहती थीं कि आपके ही आशीर्वाद से लल्ला कितना सुंदर, कितना संस्कारी, कितना मनमोहक हुआ है, जो वैभव इसके रोम-रोम में आया है, आपके  आशीर्वाद से ही है। आपने मंगल कामना की, आपने भगवान से कामना की, आपने संयम-नियम किया, आपने उपासना की, इस बच्चे को आने के लिए। नहीं तो मेरी पात्रता नहीं दिख रही थी कि ये मेरे यहां आते। वो सबको यश देती थीं, इसलिए उनका नाम रख दिया यशोदा। जो धन देता है, उसे धनद बोलते हैं। जो कंबल देता है, उसे कंबलदा कहते हैं, ऐसे ही जो यश दे, उसे यशोदा कहते हैं। तो शुरू से बच्चों को ये शिक्षा दी जाए, जीवन के विकास के लिए यह ज्ञान का बीजारोपण है। जीवन के महान विकसित महल की यह बहुत मजबूत प्रशंसनीय नींव है कि हम बच्चों को शुरू से ही ये सिखलाएं कि कैसे यश को बांटना, धन को बांटना, ज्ञान को बांटना, भोजन को बांटना, अपने सबकुछ को बांटना है, जो उपलब्धियां हैं, उनको बांटना है। फिर आदमी राम राज्य का रक्षक, सिपाही होता है। इसी सूत्र को लेकर भरत जी ने राम जी की चरण पादुका को सिंहासन पर स्थापित किया। 
अभी जो दृश्य हैं, बहुत-बहुत विकृतियां हैं। कोई दूसरों को कुछ भी देना नहीं चाहता। दूसरों को कोई महत्व देना नहीं चाहता। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उनको बचपन से यह शिक्षा नहीं दी गई। हमारा इतिहास इसका उज्ज्वल उदाहरण है, अनुपम प्रकाशक है। जब लोगों को उचित शिक्षा दी जाती थी, तभी सम्मिलित या संयुक्त परिवार चलते थे। सम्मिलित परिवार और तमाम संगठनों के टूटने का एकमात्र यही कारण है। मिलकर रहने की शिक्षा शास्त्रों के आधार पर दी जाती थी, उदाहरण बतलाए जाते थे कि देखिए लोगों ने दूसरों को कैसे यश दिया। अयोध्या लौटने के बाद राम जी ने वानरों को बहुत महत्व दिया। गुरु वशिष्ठ से कहा कि ये नहीं होते, तो हम कुछ नहीं कर पाते। इन्होंने ही हमारा जो युद्ध स्वरूप जहाज था, उसमें बेड़ा का काम किया। थामे रखने का, भटकने नहीं देने का, बहने नहीं देने का काम इन्होंने किया, ये हमारे मित्र हैं। 
क्या बात है, कहां राम और कहां ये उनके मित्र वानर, भालू इत्यादि। कहीं से कोई तुलना नहीं है, कहीं से कोई बराबरी नहीं है। बराबरी में मित्रता होती है। धन की बराबरी, रूप की बराबरी, प्रभाव की बराबरी, यश की बराबरी। कहीं से भी इन वानरों की भगवान राम जी से बराबरी नहीं है, किन्तु भगवान ने कहा, ये मेरे मित्र हैं। 
राम जी ने कहा - 
ए सब सखा सुनहू मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
ये कैसी मित्रता है, कैसी समानता है? भगवान संकेत दे रहे हैं कि यदि इनको हम महत्व नहीं देंगे, तो संपूर्ण संस्कृति विद्रूप हो जाएगी। मानवता ही लज्जित हो जाएगी, क्योंकि इन्होंने मेरे लिए अपने प्राणों को हथेली पर रखकर प्रयास किया, तो हमको कहना है कि हमने जो विजय प्राप्त किया, हमने जो ये सारा सुयश प्राप्त किया, आप उसमें बड़े सहयोगी हैं, सबसे बड़े भागीदार हैं। 
मैं इन आख्यानों के माध्यम से कहना चाह रहा हूं कि हमें अपने बच्चों को बुढ़ापे और जवानी में नहीं, बाल्यावस्था से ही संपूर्ण उपलब्धियों को परस्पर बांट करके संपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा देनी चाहिए। इसका अभाव हो गया है। अभी तो दुनिया का सबसे बड़ा सिद्धांत हो गया है, बांटो और राज करो। दूसरों को निगल जाओ और अपने अस्तित्व को बरकरार रखो। हमें मतलब नहीं है कि आपका क्या होगा। हमें मतलब इसी से है, हम सबसे बड़े हैं, हम सबसे सुंदर हैं, सबसे धनवान हैं, संपूर्ण संसार में हमारा दबदबा है, आपका क्या हो रहा है, इससे हमें क्या मतलब? इसलिए अपने देश में इस पद्धति का जीवन, जो ये वैदिक जीवन पद्धति है, जो पौराणिक, ऐतिहासिक हमारी जीवन पद्धति है, जिसका प्रचलन अनादि काल से हमारे परिवार और संस्कृति में था। कहां कृष्ण और कहां सुदामा? कहां ये राजाधिराजा और कहां वो संत, गरीब ब्राह्मण, जिसके पैरों में कुछ नहीं होता था। उसके सामने लोग नतमस्तक होते थे। मालूम है, जैसे कि हम राज्य साम्राज्य के विस्तार में तत्पर हैं, ठीक वैसे ही ब्राह्मण भी तत्पर हैं। वैसे ही हमारे गुरु भी, संत भी तत्पर हैं, हम सब एक हैं, कोई भेद नहीं। ये हमारा बहुत बड़ा पक्ष है, जिसको इसी तरह से बड़े परिवारों में संस्कारी परिवारों में शुरू से ये बात बताई जाती है कि कैसे हमारा जीवन हो। सम्मान देने का भाव बच्चों में शुरू से डालना चाहिए। इसे ही अंग्रेजी में प्रोटोकाल कहते हैं - क्या किसकी मर्यादा है। आज मैं देखता हूं - पिता जी खड़े रहते हैं और बेटा बैठ जाता है। बतलाइए, कहीं ऐसा होता है क्या कि पुलिस का बड़ा अधिकारी खड़ा है और छोटा अधिकारी बैठ जाए। ऐसा तो नहीं होता, ऐसा कोर्ट में भी नहीं होता। सेना में नहीं होता, बड़े संगठन में ऐसा होगा क्या? बड़ा अधिकारी महाप्रबंधक खड़ा हो और द्वारपाल बैठ जाए, ऐसा तो नहीं होता है। कहीं भी नहीं होता। बड़ा जब तक खड़ा है, तब तक छोटा भी खड़ा रहेगा। बड़ा यदि बैठा है, तो छोटा भी बैठ सकता है, किन्तु पूछ कर बैठेगा। आज सम्मान देने का भाव बहुत ही कम हो रहा है, प्रोटोकॉल लोग समझ ही नहीं रहे हैं। 
अमानिना मानदेय: कीर्तनीय: सदा हरि:।
क्रमश:

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