Thursday 17 May 2012

श्रीमठ : हमारी आध्यात्मिक राजधानी

भाग -  दो
सीतानाथ से प्रवर्तित वैदिक राममन्त्र एवं अनादि रामभक्ति धारा को मध्यकाल में (१४वीं-१५वीं शताब्दी) में परमसिद्ध, विलक्षण संगठनवादी, लोकोत्तर उदार, अदम्य उत्साही स्वामी रामानन्द जी ने अनुपम तीव्रता प्रदान किया, जिसके कारण देश के कोने-कोने में राम भक्ति की परम मंगलमयी धारा फैल गई। वर्तमान भौतिक विनाशक वातावरण के बावजूद रामानन्द सम्प्रदाय के आश्रमों, अनुयायियों, सन्तों एवं प्रचार का जोड़ किसी दूसरे सम्प्रदाय के साथ नहीं है। इस सम्प्रदाय से निकली हुई अनेक शााखायें आज लोक कल्याण योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। जिनमें प्रमुख रूप से कबीर सम्प्रदाय, निराकारी सम्प्रदाय, रविदासी सम्प्रदाय, घीसापन्थी सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, गरीबदासी इत्यादि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।


कुछ समानताओं को देखकर हिन्दी साहित्य के कुछ विद्वानों ने रामनुज सम्प्रदाय के अन्तर्गत ही रामानन्द सम्प्रदाय को स्वीकार किया है। आंशिक समानताओं के आधार पर तो सभी सम्प्रदायों को एकरूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। अलग-अलग मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इसी आंशिक साम्य के कारण किसी ने आद्य शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कहा था। उन्हें शंकराचार्य भी बौद्ध के रूप में दिखाई दिए, जिन्होंने बौद्धों के अवैदिक महल को भारत भूमि से उखाडऩे में अनुपम भूमिका निभायी। न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र - दुखजन्मप्रवृत्ति दोषिमिथ्या ज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग: के भाष्य की व्याख्या करते हुए वार्तिककार उद्योतकार ने सम्प्रदाय शब्द की व्याख्या में लिखा है-
शिष्याचार्यसम्बन्धस्याविच्छेदेन शास्त्रप्राप्ति सम्प्रदाय: - इसका भाव यह है - शास्त्र की वह प्राप्ति जो शिष्य एवं आचार्य के अविच्छिन्न सम्बन्ध के द्वारा हो, उसे ही सम्प्रदाय कहते हैं। स्वामी राघवानन्द जी ने स्वामी रामानन्द जी को राममन्त्र का उपदेश किया तथा रामोपासना में प्रवृत्त किया। जिसके आधार पर सुनिश्चित होता है कि उन्हें भी अपनी अविच्छिन्न गुरु परम्परा से राम मन्त्र का उपदेश वैदिक सनातन धर्मोद्यान के परम संरक्षक स्वामी राघवानन्द जी कभी भी नहीं कर सकते थे। रामानुज सम्प्रदाय में कभी भी मुख्य रूप से राममन्त्र का उपदेश नहीं होता रहा है। श्री सीताराम कभी भी परमोपास्य के रूप में मान्य नहीं रहे हैं। अतएवं स्वामी राघवानन्द जी को या तो शास्त्र मर्यादा विमुख स्वच्छन्दचारी स्वीकार करना पड़ेगा या ऐसी वैदिक परम्परा में जोडऩा पड़ेगा, जिसमें राममन्त्र एवं रामोपासना का अनादि अविच्छिन्न प्रवाह हो। सभी सम्प्रदायाचार्यों ने अपने परमोपास्य को ही अपने सम्प्रदाय का मूल तथा परमाचार्य माना है। संन्यासी सम्प्रदाय भगवान शंकर को, रामानुज सम्प्रदाय भगवान लक्ष्मीनाथ इत्यादि। इसी क्रम से रामानन्द सम्प्रदाय का मूल एवं परमाचार्य किसी भी प्रकार से लक्ष्मीनाथ नहीं हो सकते। पूर्व लेखकों का लेखन ही जिनके लेखन का मूल आधार है, ऐसे वैदिक मर्यादाओं के ज्ञान से शून्य स्वतन्त्र चिंतन शक्ति से रहित भारतीय परम्पराओं के शत्रु एवं पाश्चात्य विचारों को ही परमवेद मानने वाले लोगों ने आंखों पर पट्टी बांधकर रामानन्द सम्प्रदाय को रामानुज सम्प्रदाय के अन्तर्गत मान लिया। अन्य भी अनेक तर्क हैं, जिन्हें विस्तार के भय से उद्धृत नहीं किया जा रहा है। स्वामी भगवदाचार्य की जीवनी में इसकी विस्तृत चर्चा द्रष्टव्य है।
प्राय: परम्परा के सम्बन्ध में रामानुज सम्प्रदाय एवं रामानन्द सम्प्रदाय एक है या रामानुज सम्प्रदाय की शाखा रामानन्द सम्प्रदाय हैं, ऐसा बताने वाले लोग श्रीनाभा स्वामी जी के भक्तमाल के - रामानुज पद्धति प्रताप अवनि अमृत ह्वै अनुसर्यो - को उद्धृत किया करते हैं। इस छप्पय के पद्धति पद से स्वामी रामानन्द जी को रामानुज सम्प्रदायान्तर्गत सिद्ध करने का प्रयास किया करते हैं, किन्तु यहां जो पद्धति पद है, उससे सम्प्रदायानुयायी अर्थ करना नितान्त असंगत है। पद्धति शब्द सिद्धान्त का वाचक है न कि सम्प्रदाय का। स्वामी रामानन्द और स्वामी रामानुज के विशिष्टाद्वैत में बहुत कुछ साम्य भी है। दोनों आचार्यों को तत्वत्रय स्वीकृत हैं। अत: प्रतीत होता है कि कतिपय स्थानों पर सिद्धान्तत: दोनों के निकट होने के कारण पाठ भेद से रामानुज पद्धति पद का प्रचार हो गया। यद्यपि दोनों आचार्यों के इष्ट, मन्त्र उपासना पद्धति में भारी भेद है। भक्तमाल की कई प्रतियों में रामानन्द पद्धति का पाठ है। भक्तमाल में पद्धति शब्द सम्प्रदाय, पथ, मार्ग, परिपाटी के पर्यायवाची के रूप में आया है। छप्पय में रामानन्द पद्धति का प्रयोग प्रसंग को देखते हुए सर्वाधिक उपयुक्त लगता है। छप्पय में स्वामी जी की परम्परा का थोड़ा-सा वर्णन करके उनके यश का वर्णन हुआ है। अत: रामानन्द पद्धति प्रताप अवनि अमृत ह्वै अनुयर्यो (जिसका अर्थ हुआ - स्वामी रामानन्द जी का सिद्धान्त अमृत बनकर पृथ्वी पर फैला) सर्वथा प्रसंगानुकूल ही है। 

पवित्र श्रीमठ में लगे इस चित्र में आपके बाएं से दाएं - जगदगुरु रामानन्दाचार्य जी महाराज, जगदगुरु रामानन्दाचार्य श्री भगवदाचार्य जी महाराज, जगदगुरु रामानन्दाचार्य श्री शिवरामाचार्य जी महाराज एवं वर्तमान पीठाधीश्वर जगदगुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज।


श्री स्वामी भगवदाचार्य के अनुसार कुछ प्रतियों में रामानुज पद्धति पाठ भी है। जिसका अर्थ है - श्रीराम जी ही जिसके सर्वश्रेष्ठ उपास्य देवता हैं, ऐसी पद्धति का पृथ्वी पर प्रचार हुआ। इस पाठ (रामानुज पद्धति) और रामानन्द पद्धति में कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। स्वामी रामानन्दजी के सिद्धान्त से श्रीरामजी ही सर्वश्रेष्ठ उपास्य देव हैं। अत: रामानन्द पद्धति और रामानुज पद्धति, दोनों का एक ही भाव होने के कारण कोई विरोध नहीं है। इन तीनों पाठों में से किसी के द्वारा यह नहीं सिद्ध होता कि स्वामी रामानन्दाचार्य जी रामानुज सम्प्रदाय के दीक्षित शिष्य थे और रामानन्द सम्प्रदाय रामानुज सम्प्रदायान्तर्गत है।
शताब्दियों बाद श्रीमठ अपनी गौरवमयी आध्यात्मिक धारा की परिपुष्टि की दिशा में अग्रसर हो चला है। आचार्य प्रवर स्वामी रामानन्द जी ने अपनी परमोदात्त भावना से समाज के प्रत्येक वर्ग को श्रीराम भक्ति के परम मंगलमय महापथ पर चलाकर परमकल्याण से जोड़ते हुए देश को विखण्डन से बचाया था। श्रीमठ पथ विमुख समाज को अपने आदर्श एवं स्वरूप ज्ञान द्वारा पथारूढ़ करेगा। फलत: यह समाज और देश विखण्डन से बचेगा तथा अपनी शक्ति का उपयोग अपने अभ्युत्थान में करेगा। श्री सीतानाथ के चरणों में मेरी यही अभ्यर्थना एवं मंगल कामना है।  
(जगदगुरु की कलम से)

1 comment:

  1. सीतानाथ के चरणों Me Pranam
    Jai jai shri sita ram.
    I want to join this sampradaye. I love shri Ram and his Charecter and found this on as genuine place to devote him.

    Jai jai shree sita ram

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