Saturday 8 December 2012

कैसे अच्छा सोचा जाए?

दूसरा भाग

श्रीराम का जब अवतार हुआ, तो जंगल के लोग चोरी-चमारी, लूटपाट, तमाम तरह के बलात्कार, मांस, मदिरा का सेवन, अभक्ष्य का सेवन, किसी तरह से धनवान बनना, ताकतवर बनना, ऐसा सारा गलत काम वे लोग करते थे। लिखा है कि चित्रकूट वाले प्रसंग में आता है कि जंगल के लोगों ने कहा, हमारी सबसे बड़ी सेवा यही है कि हम आपका सामान चुरा नहीं लेते हैं, धन, कमंडल, कपड़ा इत्यादि जो आपके पास है। वही कोल-भील लोग राम जी के संसर्ग में आकर ऐसे हो गए, जैसे बड़े-बड़े ऋषि महर्षि थे, सबने अपने दुष्कर्मों को छोड़ दिया, जो नकारात्मक थे, जो अपने लिए, समाज के लिए मानवता के लिए अभिशाप थे, उनका जीवन अच्छा हो गया, वे सब राम भाव में आ गए। राम जी को अपना सब-कुछ मान लिया। शुद्ध मानव स्वरूप हो गए।

यह ऐसे ही हुआ है, राम जो हैं हमारे हैं, वे केवल दूसरों के नहीं हैं। जैसे वे पूरी सृष्टि के हैं, वैसे ही हमारे हैं। इसलिए हम अपने जीवन को उनके लिए अर्पित करेंगे, संसार के लिए अर्पित करेंगे। जो आदमी संसार के लिए अर्पित हो गया, जो जाति, अड़ोस-पड़ोस सबके लिए अर्पित हो गया, वो वास्तव में अर्पित हो गया। तो सबसे बड़ी बात है कि ईश्वर विश्वास के अभाव में लोग नकारात्मक जीवन के होते जा रहे हैं। ईश्वर पर विश्वास होने पर आदमी का प्रेम बढ़ेगा, उसके निर्देश पर जीवन बिताएगा और सम्पूर्ण जीवन ईश्वर के लोगों का मानकर, पूरा संसार ईश्वर का रूप है मानकर, आदमी उसके निर्देश से ऐसे-ऐसे कर्मों का संपादन करेगा कि सारा संसार एकदम सकारात्मक भावों से जुड़ जाएगा। अयोध्या में सभी लोग एक दूसरे से प्रेम करते थे, ऐसा लिखा है रामायण में, तो प्रेम तो विकास की पराकाष्ठा है। भोजन होना, कपड़ा होना, मकान होना, ये भी विकास के लक्षण हैं, लेकिन विकास का सबसे बड़ा व अंतिम स्वरूप है या परिणति है कि हम आपस में एक दूसरे से प्रेम करें। कहा कि कैसे प्रेम करते थे लोग, ऐसे प्रेम करते थे कि ईश्वर के द्वारा जो निर्दिष्ट जीवन है, उसका पालन करते थे, शास्त्रों ने जो बताया कि ऐसा करो वैसा करो, वैसा ही करते थे।
राम को केन्द्र बिन्दु मानकर हमें वही करना है, जो ईश्वर करता है, दूसरा कोई भी सूत्र नहीं है समाज में। कोई भी ऐसा झगड़ा नहीं, कोई भी ऐसा धन प्रकल्प नहीं, कोई भी ऐसी व्यवस्था नहीं कि जिसके आधार पर हम पूरे संसार में सकारात्मक भावना उत्पन्न कर सकें, कैसे हम अपने पूरे संसार को अपना समझेंगे? कैसे हम राष्ट्र को अपना समझेंगे, कैसे हम अपनी बिरादरी को अपना समझेंगे, परिवार में सभी लोग अच्छे नहीं हैं, बिरादरी में अच्छे नहीं हैं, राष्ट्र की और भी बुरी समस्या है, पता चलता रहता है कि मुखिया लोग ही अच्छे नहीं हैं, रोज अखबार में आता रहता है इतना घोटाला हुआ, राष्ट्र के मुखिया लोग इतने परिवारवादी हैं, जातिवादी हैं, दुव्र्यसनी हैं। तमाम तरह की बुराई उनकी प्रकाश में आती हैं, तो कैसे हमारा समाज के साथ सकारात्मक चिंतन होगा, तो एक ही सूत्र है, जैसे एक सूत्र तमाम फूलों को एक साथ जोड़ देता है, वैसे एक ही सूत्र है ईश्वर, जो सम्पूर्ण संसार के लोगों को एक धागे में जोड़ सकता है और ईश्वर पर विश्वास करें, तो स्वत: यह लग जाएगा कि सम्पूर्ण संसार एक है। जैसे हम अपने विकास के लिए प्रयास करते हैं कि हम धनवान हो जाएं, बलवान हो जाएं, हमारा सम्मान बढ़ जाए, हमारा प्रेम बढ़ जाए, विद्या बढ़ जाए, जैसे इसके लिए हम प्रयास करते हैं, वैसे ही हम औरों के लिए नकारात्मक भाव छोडक़र सबके लिए सकारात्मक भाव के हो जाएंगे कि सब तो हमारे ही ईश्वर हैं।
एक जगह लिखा है, गोस्वामी जी से किसी ने पूछा कि आपको सभी लोगों से बहुत प्रेम है, आप इतनी चिंता करते हैं कि संसार के सभी लोगों का भला हो जाए, सभी लोग सुन्दर और सुखी हो जाएं, धनवान हो जाएं, सभी लोगों का जीवन परमोत्कर्ष को प्राप्त करे, इसका क्या कारण है। तुलसीदास जी ने जवाब दिया कि सब हमारे राम जी के हैं, मैं तो सबका नौकर हूं। ऐसी स्थिति में सकारात्मक सोच का सबसे बड़ा यही तरीका है।

अर्जुन अपने जीवन में नकारात्मक जीवन का हो गया था कि मैं अब युद्ध नहीं करूंगा, मैं घर में नहीं रहूंगा, संन्यासी हो जाऊंगा, जो राज परिवार में पला बढ़ा, शिक्षित हुआ वह कह रहा है संन्यासी बनूंगा, जबकि अपने अधिकार के लिए लडऩे का समय। उसे लग रहा है कि सब लोग मर जाएंगे, तब भगवान ने एक लंबा प्रवचन करके, गीता का उपदेश करके अर्जुन को समझाया कि आत्मा नित्य है, वह मरने वाला नहीं है, यह न समझो कि जैसे शरीर नष्ट होगा, तो आत्मा का विनाश हो जाएगा। नकारात्मक चिंतन से जुडऩे की जरूरत नहीं है, तुम्हें सोचना है कि युद्ध करना चाहिए या नहीं। वस्तुत: शरीर का नाश होता है कि आत्मा का होता है? न्याय के लिए लडऩा है या नहीं लडऩा है? या अन्याय से ही युक्त रहना है? शोक और मोह के बादल अर्जुन के मन में मंडरा रहे थे, जो उसे नकारात्मक और कत्र्तव्य से भटका रहे थे, सारा जीवन उसका कुरूपता से घिरता जा रहा था, उस अर्जुन को भगवान ने गीता का प्रवचन किया और नकारात्मक चिंतन को भगाया, तो अर्जुन तैयार हो गया और बोला, 
- नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत!
स्थितोस्मि गलतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।।
अर्थात, हे अच्युत आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया। मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, संशयरहित होकर स्थित हूं। आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। आप जो कहेेंगे मैं करूंगा।
वस्तुत: मोहग्रस्त होने से ही आदमी नकारात्मक जीवन का होता है, जब सही ज्ञान नहीं हो कत्र्तव्य का, अपने परिवार का, अपने राष्ट्र का, मानवता का कि यह कैसा संसार है, इसके लिए हमें खूब प्रयास करना चाहिए, अभी जो आनंद मिल रहा है, उससे बहुत ज्यादा आनंद मिलेगा।
अर्जुन ने प्रतिज्ञा की, आप जो कहेंगे, मैं वही करूंगा, यह ज्ञान जब तक नहीं आएगा, ईश्वर के माध्यम से सम्पूर्ण संसार ईश्वर का रूप है, उसकी आज्ञा का पालन करके और अपना भी विकास करना है और इस जीवन को दूसरों के भी उपयोग में लाना है, ऐसा विचार जब हो जाता है, तो भगवान की दया से आदमी सकारात्मक सोच का हो जाता है। क्रमश:

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