Tuesday 11 December 2012

अच्छा कैसे सोचा जाए?

जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी
 -तीसरा भाग-
 


महात्मा गांधी जब व्यापक रूप से सकारात्मक हो गए, तो पूरे देश में लोगों को लगा कि अब अपना काम केवल खेती, नौकरी, व्यवसाय करना ही नहीं होना चाहिए, अपनी मातृभूमि के लिए भी हमें आगे आना चाहिए। जो परतंत्रता है, कितना भी कष्ट सहकर निद्रा का परित्याग करके तमाम तरह के मोह माया के बंधनों को त्याग कर लोग आगे आए। केवल हमारे घर वाली बुढिय़ा माई ही हमारी मां नहीं है, रिश्तेदारी की मां ही मां नहीं है, सबसे बड़ी मां भारत माता है। गांधी जी रोम-रोम में नकारात्मक भावना से रहित और सकारात्मक भावना के थे। तभी उनको देखकर-सुनकर लोगों का जीवन अच्छा बना।
आजकल समाज में नकारात्मक जीवन के लोगों का बाहुल्य होता जा रहा है, सकारात्मक जीवन के लोग कम हो गए हैं। यह सोच ही बंद हो गई है कि सच्चाई से भी पैसा कमाया जा सकता है, बंद हो गई यह सोच कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भी नेता बना जा सकता है, बस पैसा-पैसा-पैसा, गुंडागर्दी, जाति, चापलूसी इत्यादि, यानी किसी तरह से नेता बनना है और सत्ता हस्तगत करना है, यह गलत है। आज हमें ऐसे लोगों का साथ देना चाहिए, जिनका जीवन सकारात्मक है। सकारात्मक जीवन वालों का सम्मान होना चाहिए।
आज शिक्षा जो दी जा रही है, उसमें बहुत बड़ा दोष है। नई पढ़ाई, एमबीएम, एमबीबीएस, एमटेक इत्यादि पढ़ाइयों का ही वर्चस्व होता जा रहा है, इससे तो आदमी केवल पैसा कमाएगा। पढ़ाई हो रही है, लेकिन जीवन की श्रेष्ठता, शुद्धि तो नहीं बढ़ रही है। जीवन केवल अपने लिए ही नहीं जीना है, दूसरों के लिए भी जीना है। कोई कुछ भी पढ़ाई करे, लेकिन अध्यात्म शास्त्र की पढ़ाई अनिवार्य होनी चाहिए।
प्लूटो ने कहा था कि दुनिया की बागडोर दार्शनिकों के हाथ में देनी चाहिए। मैं कह रहा हूं, दुनिया के हर व्यक्ति को दार्शनिक होना चाहिए, तभी वह नकारात्मक सोच से बचेगा।
गलत भोग नहीं होना चाहिए। गलत दृष्टि से भोग करना, गलत कपड़ा पहनना, गलत जगह रहना नहीं होना चाहिए। अब तो ऐसी भी घटनाएं सुनने में आ रही हैं कि किसी का भोग भी करना और उसको मार भी डालना। प्यार भी किया और मार दिया। यह कैसी सोच हैï? यह नितांत नकारात्मक सोच है। आजकल जिस माता-पिता ने हमारा पालन-पोषण किया, उसके लिए भी हम नकारात्मक सोच रखने लगे हैं। बीस-पच्चीस साल पालने-पोसने वाले माता-पिता से भले नहीं, लेकिन हम साल-दो साल पहले मिलीे पत्नी से ही प्यार करेंगे या संभव है, पत्नी से भी नहीं करेंगे, किसी पड़ोसी औरत से ही करेंगे, जिससे भोग मिलेगा, उसे ही पत्नी मानेंगे। ऐसे कैसे चलेगा? ये तो नकारात्मक बातें हो गईं। ये सारी गलत पद्धतियां हैं। 



जो राष्ट्र हमारे लिए सबकुछ करता है, उसके लिए हमारे मन में कोई भाव नहीं है? जो देश हमारे लिए शिक्षा, रक्षा, सडक़ सुविधा इत्यादि की व्यवस्था करता है, उसके लिए हमारे मन में भाव क्यों नहीं है? मेरा कहना है, तमाम शिक्षाओं के साथ अध्यात्म शिक्षा की पढ़ाई जरूरी है। जो आत्मा के सम्बंध में चिंतन प्रदान करती है। पता चलता है कि आत्मा और परमात्मा का स्वरूप, दोनों में सम्बंध क्या है। अभी तो नेता लोग अपनी जाति का वोट ले लेते हैं और बस मिल गई चुनावी सफलता। बहुजन सर्वजन हो गया, सरकार बन गई, इसके बाद कोई पूछ ही नहीं रहा है कि कहां गए सर्वजन वाले लोग। जो राष्ट्र व राज्य को चला रहे हैं, देश के धुरंधर लोग हैं, और वे कुछ नहीं कर रहे हैं। हर आदमी का चिंतन सिमट करके एकदम छोटा-सा हो गया है। इसलिए भगवान की दया से लोगों के शिक्षा में परिवर्तन हो, भोजन जीवन और जीवन जीने की पद्धति में परिवर्तन हो। ध्यान दीजिए -
कुंभकर्ण और रावण का जो जीवन है, वह बहुत नकारात्मक है, कुंभकर्ण केवल खाता है और पीता है, मदिरा-मांस, पशुओं का मांस। केवल खा रहा है और सो जा रहा है। उसको कोई लेना-देना नहीं है कि परिवार, पत्नी, बच्चे, समाज, लंका का क्या हाल है, बिरादरी का हाल क्या है। रावण भी केवल अपने ही भोग में लगा है, इतनी पत्नियां, इतना भोग, कहीं कोई ठिकाना नहीं, किसी का विमान छीन लेना, कन्याओं का अपहरण करना। रावण नकारात्मक चिंतन का है, क्योंकि उसको भोजन ठीक नहीं है, मन ठीक नहीं है।
रावण ने कहा कि मैं भजन नहीं कर सकता ईश्वर का, मैं अपने चित्त को परम शक्ति को नहीं दे सकता, क्योंकि मेरा चित्त मन तामस है, जब चित्त तामस होगा, कुंभकर्ण का और रावण का, तो सकारात्मक चिंतन नहीं होगा।
कुंभकर्ण, रावण के इर्दगिर्द जो चाटुकार लोग थे, जो हां में हां मिलाते थे, उनके भोग में सहभागी बनकर अपना उल्लू सिधा करते थे, अपना संकल्प पूरा करते थे, ऐसे लोगों से बचने की जरूरत है। कहा जाता था कि रावण पूजा भी करता था भगवान शंकर की, तो वह भी अपनी नकारात्मकता और भोग के लिए करता था, शास्त्र के विपरीत आचरण के लिए करता था। कुंभकर्ण का जीवन भी नकारात्मक जीवन है, विभीषण का जीवन नकारात्मक नहीं है क्योंकि उसका आहार-व्यवहार इत्यादि शुद्ध है, इसलिए वह लंका में रहकर भी जानकी जी के पक्ष में है, वह हरण के पक्ष में नहीं है, राम जी के पक्ष में है। समाज और अपने राष्ट्र के पक्ष में है। ऐसे विभीषण ने अत्याचार या नकारात्मक का विरोध कर दिया। जोरदार काम हुआ, जो लंका सम्पूर्ण दृष्टि से दुर्गंधित हो रही थी, वह लंका सुन्दर हो गई।
क्रमश:

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