Wednesday 16 October 2013

शक्ति का दुरुपयोग न हो

प्रवचन भाग - एक
सनातन धर्म में शक्ति पूजन की समृद्ध परंपरा है। अपने-अपने कल्याण के अनुरूप विविध प्रकार के उत्सवों, अनुष्ठानों की परंपरा है। यहां इस परंपरा को अनादि रूप से स्वीकार किया जाता है। यह शास्त्रों द्वारा प्रवर्तित है। मेरा मानना है कि पूरे संसार में शक्ति का सम्मान है, इसे ही हम ऊर्जा कहते हैं, अंग्रेजी में एनर्जी कहते हैं। सम्पूर्ण समाज में उत्पादन का जो संकल्प और प्रयास है, वह शक्ति उत्पादन का ही प्रयास है। किसी भी तरह की शक्ति हो, शरीर की शक्ति हो, मशीन की शक्ति हो, संसाधन की शक्ति हो, धन की शक्ति हो, विविध प्रकार की शक्तियां हैं, शक्तियों के बिना साधना भी नहीं होती। किसी भोगी को भी शक्ति चाहिए और साधक को भी शक्ति चाहिए।
जैसे शरीर में खुजली होती है, तो हम वहां हाथ ले जाते हैं, उस जगह हम खुजलाते हैं, खुजलाने से वहां भी शक्ति उत्पन्न होती है और खुजलाहट दूर हो जाती है। सुनने और बोलने के लिए भी शक्ति होती है, हम हमेशा नहीं सुन सकते, हम हमेशा नहीं बोलते रह सकते। खाने के लिए भी शक्ति होनी चाहिए और पचाने के लिए भी शक्ति होनी चाहिए। सम्पूर्ण संसार शक्ति को जानता है, शक्ति के लिए ही प्रयास करता है, जीवन जीता है। जो लोग धार्मिक नहीं हैं, वे भी शक्ति का सम्मान करते हैं। जो शक्ति की पूजा नहीं करते, उन्हें भी शक्ति चाहिए।
शक्ति की ही पूजा देवी दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली व अन्य शक्ति रूपों में होती है। वास्तव में शक्ति एक ही है, उसके नाम अलग-अलग हैं। जो अग्नि पेट में खाए हुए पदार्थ को पचा रही है, वह भी शक्ति है, समुद्र में जो ताप है, वह भी शक्ति है। वायु में शक्ति है। जैसे एक ही नाक से शरीर के अंदर गए हुए वायु के भिन्न-भिन्न नाम हो जाते हैं जैसे - प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान। वैसे ही शक्ति के भी भिन्न-भिन्न नाम हैं।
शक्ति और शक्तिमान, दोनों की पूजा अपने देश में लंबे समय से हो रही है।
हम लोग अक्सर महाकवि महर्षि वाल्मीकि जी की बात करते रहते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने कहा, मैं राम जी को भी बहुत महत्व देता हूं, किन्तु मैं जानकी जी का चरित्र ही लिखूंगा, क्योंकि वही शक्ति हैं, उनके बिना राम जी कुछ नहीं हैं।
संसार में जब सबसे पहले गं्रथ लिखा गया लौकिक भाषा में, वैदिक संस्कृत में, दुनिया में दूसरी भाषाओं का जन्म भी नहीं हुआ था, वैदिक ज्ञान गंगा जब लोक में अवतरित हुई, बहुत ग्रंथ नाटक, काव्य के  रूप में लिखे गए, अभी भी लिखे जा रहे हैं, किन्तु भाषा में सबसे पहले ग्रंथ के रूप में वाल्मीकि रामायण की रचना हुई, महर्षि वाल्मीकि ने स्पष्ट कहा, मैं सीता जी का स्वरूप लिखंूगा, वह शक्तिस्वरूपा हैं। राम राज्य में कोई छोटा-सा अंश भी उनके बिना अधूरा है।
तो अनादि काल से शक्ति पूजा चल रही है, शक्ति के बिना किसी का काम नहीं चलता। लोक-परलोक, दोनों जगह शक्ति चाहिए। ज्ञान के लिए भी शक्ति चाहिए, विज्ञान के लिए भी शक्ति चाहिए। इंजीनियरिंग की विद्या के लिए भी शक्ति चाहिए, ब्रह्म विद्या के लिए भी शक्ति चाहिए।
शक्ति के रूप में लक्ष्मी हैं, धन देंगी, पुस्तक बनाइए, बम बनाइए, कृषि के लिए औजार बनाइए, अस्त्र-शस्त्र बनाइए, अंतरिक्ष में जाइए, मन हो, तो यज्ञ करिए, दान करिए परिवार पालिए, यह सब शक्ति से ही तो संभव होता है। शक्ति से धन उत्पन्न होता है और धन की शक्ति से नानाविध कार्य संपन्न होते हैं।
जीवन के लिए आवश्यक हिंसा के लिए या दंड देने के लिए भी शक्ति चाहिए। एक व्यक्ति अपनी संतान को दुलारता है, गलती करने पर डराता है और जब कभी संतान पूरी तरह से बिगड़ जाती है, तो उसे समाप्त भी कर देता है। हिंसक प्रवृत्ति के बिना या हिंसा के बिना भी दुनिया नहीं चल सकती। मान लीजिए, किसी के शरीर में बड़ा फोड़ा हो जाए, तो क्या किया जाएगा, उसे जीवन रक्षा के लिए फोडऩा ही पड़ेगा, कोई अंग खराब हो जाए, तो उसे काटना ही पड़ता है। जब कोई समाज, देश, संविधान की मर्यादा में चलता है, तो उसे लाड़-प्यार मिलता है, किन्तु यदि कोई मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है, तो उसे सुधारने या दंड देने के लिए शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। शक्ति से नानाविध कार्य होते हैं, जैसे बिजली से पंखा भी चलता है और रोशनी भी मिलती है और अन्य कई तरह के काम भी होते हैं।
तो हमारे यहां पूजन की परंपरा, शक्ति के सम्मान की परंपरा प्रारंभ से थी। शक्ति के बिना भोग नहीं होगा, मनुष्य का जीवन व्यर्थ हो जाएगा। जो प्रजनन क्षमता है, वहां भी शक्ति चाहिए। शक्ति से ही परम विकास संभव है। किन्तु यहां ध्यान रखने की बात यह है कि सम्पूर्ण शक्ति यदि भोग में ही लग जाए, तो खेती कैसे होगी, जीवनयापन कैसे होगा। जीविका कैसे अर्जित होगी?
संसार में कोई भी व्यक्ति बहुत दिनों तक अपनी सम्पूर्ण शक्ति को भोग में नहीं लगा सकता। यदि ऐसा किया जाए, तो जीवन व्यर्थ और समाप्त हो जाएगा। शक्ति को स्वनिर्माण में लगाना चाहिए। परिवार, देश, समाज के निर्माण में लगाना चाहिए।
क्रमश:

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