Sunday 12 June 2016

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

भाग -४
आजकल ऐसे संतों-ऋषियों का जो अभाव दिख रहा है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण जो बात है कि आजकल का जो पुरोहित है, उसे न तो पूरा ज्ञान है और लोभ वृत्ति भी बहुत बढ़ गई है। व्यावहारिक ज्ञान के अभाव की स्थिति है। जैसे तैसे पुरोहित कर्म किया और चलता बना, इसकी चिंता नहीं है कि जजमान का भला हुआ या नहीं हुआ। न उसे यह ज्ञान है कि कैसे भला होगा, यदि ज्ञान है, तो अपने जजमान के लिए समर्पण नहीं है, कृतज्ञता नहीं है कि हम जजमान से सम्मान ले रहे हैं, धन ले रहे हैं, तो हमारे जजमान का भला होना चाहिए। घातक स्वरूप पैदा हो गया है, ब्राह्मणों में, साधुओं में, कइयों को तो केवल पैसे से मतलब है, जजमान का भला हो, उससे कोई मतलब नहीं है। जैसे अपने-अपने क्षेत्र में लोग अभ्यास करते हैं, अभ्यास के बल पर आगे निकलते हैं, वैसे ही यदि कोई संत बनना चाहता है, तो उसे संयम, नियम, कठोर परिश्रम की जरूरत है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। जिस जजमान से जुड़ा है, उसके प्रति पूरी समर्पित भावना होनी चाहिए। हमारे जजमान का जरूर भला हो, विपत्ति टले, लेकिन आज के पुरोहित ऐसा करते नहीं हैंं। ज्यादातर लोगों का भाव यही है कि हमें तो पैसा मिले, नहीं हुआ, तो नहीं हुआ, हम क्या करें। संकट में जजमान हैं, तो हैं, हमें क्या लेना देना? ऐसे गुरु वशिष्ठ नहीं थे, राज्य की जो समस्याएं थीं, उसका समाधान करते थे, ठीक उसी तरह से रघुवंशियों का भी उन्होंने समाधान किया। रघुवंश उस समय दुनिया का केन्द्रीभूत वंश था, कोई छोटा-मोटा राज्य नहीं था, आज जैसे संयुक्त राष्ट्र दुनिया का केन्द्र बना हुआ है, सारी दुनिया जब उससे जुड़ी हुई है, ठीक उसी तरह से रघुवंश से बाकी वंश जुड़े हुए थे, पूरी दुनिया के लिए रघुवंश मानक था, आदर्श था, पे्ररक संस्थान था। संपूर्ण संसार को उससे प्रेरणा मिलती थी, सभी राजा-महाराजा उससे प्रेरित होते थे। ऐसे वंश को गुरु वशिष्ठ जी ने ही तैयार किया था। उनमें क्षमता थी सभी तरह की। यदि क्षमता नहीं होती, तो विश्वामित्र ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त नहीं होते।
विश्वामित्र जी एक बार वशिष्ठ जी की गऊ कामधेनु पुत्री नंदिनी का अपहरण करना चाहते थे, गऊ नहीं ले जा पाए, गऊ ने ही सैनिकों को पैदा कर दिया और विश्वामित्र जी की सेना हार गई, तब से विरोध चला और चलता रहा। ऋषि से पराजित होने के बाद विश्वामित्र जी को लगा कि सामान्य बल से तपोबल श्रेष्ठ है। परिणाम यह हुआ कि भगवान की दया से उन्होंने बहुत तप किया। भगवान शंकर से उन्हें धनुर्वेद की शिक्षा मिली, भगवान ने उन्हें दिव्यास्त्र प्रदान किए। दिव्यास्त्र लेकर विश्वामित्र जी ने फिर वशिष्ठ को मारना चाहा, लेकिन उनके आक्रमण को वशिष्ठ जी ने ब्रह्मदंड से पराजित कर दिया। विश्वामित्र जी चाहते थे कि किसी भी तरह से वशिष्ठ जी को नुकसान पहुंचाया जाए, उन्हें आत्मसमर्पित होने के लिए तैयार करा दिया जाए, उनके सौ पुत्रों को भी मार दिया, किन्तु वशिष्ठ जी ने अपने ऋषित्व को कहीं भी क्षतिग्रस्त नहीं होने दिया। विश्वामित्र ने फिर तपस्या शुरू की। बताया जाता है कि उन्होंने महाराज सुदास को शाप देकर बारह वर्ष के लिए राक्षस बना दिया, उस राक्षस ने ही वशिष्ठ जी के पुत्रों को नष्ट कर दिया था। वशिष्ठ जी में विशेषता थी कि वे कभी भी क्रोधित नहीं होते थे। उद्वेग नहीं आता था, हमेशा ही संयमित और प्रसन्न रहते थे। जो गुरु की सबसे ऊंची स्थिति है, वे संयमित रहकर सबकुछ करते थे। यही कारण था कि अंत में विश्वामित्र जी को झुकना पड़ा। विश्वामित्र जी बोलते थे, जब तक वशिष्ठ जी मुझे ब्रह्मर्षि नहीं कहेंगे, तब तक मैं मानूंगा नहीं कि मैं बह्मर्षि हो गया हूं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने ही शर्त लगाई थी कि ब्रह्मर्षि तो वशिष्ठ जी ही बना सकते हैं। जिनके सौ बच्चों को नष्ट कर दिया, उन्हीं से ब्रह्मर्षि की उपाधि लेने की कोई कल्पना नहीं कर सकता। कितनी दयालुता होगी, कल्पना कीजिए, पुत्रों को मारने वाले को माफ कर दिया। उनमें क्रोध का कितना अभाव होगा, यह सोचा जा सकता है। लिखा है कि इतना होने पर भी विश्वामित्र जी इस इरादे से आए थे कि वशिष्ठ जी को नष्ट कर दूंगा, लेकिन जब एकांत में पत्नी के साथ वार्तालाप कर रहे वशिष्ठ जी के मुख से अपने लिए प्रशंसा सुनी, तो उनको सही ज्ञान हुआ, वशिष्ठ जी के चरणों में गिर पड़े।
क्रमश:

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