Sunday 12 June 2016

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

भाग -३
जो सम्मान वशिष्ठ को राजा बने बिना प्राप्त था, जो ज्ञान प्राप्त था, जो लोगों का स्नेह प्राप्त था, जो लोगों की श्रद्धा प्राप्त थी, जो लोगों के श्रेष्ठ भाव प्राप्त थे, तो राजा का पद उनके सामने छोटा दिखता था।
ज्ञानी अपने ज्ञान के माध्यम से जो सम्मान प्राप्त करता है, वह राजा कभी नहीं प्राप्त कर सकता। हम लोगों ने पढ़ा था, अपने ही देश में राजा की पूजा होती है, दूसरे देशों में कोई राजा को पूजता नहीं है, लेकिन विद्वान तो सर्वत्र पूजा जाता है। वशिष्ठ जी का सम्मान तो सर्वोच्च था। आध्यात्मिक ऊंचाई को वे प्राप्त थे, वहां लौकिक ऐश्वर्य, भूमिका या राजा का सम्मान, तमाम तरह की उपलब्धियां, वहां वैसी ही कम महत्व की हो जाती हैं, जैसे सूर्य के उगने पर जितने प्रकाश के स्तंभ हैं शून्य हो जाते हैं, जितने तारे हैं धूमिल हो जाते हैं, उनका कोई मतलब नहीं रह जाता है, जैसे सूर्य उगते ही सर्वव्यापी हो जाता है। वैसे ही वशिष्ठ अपनी उपस्थिति से सबको प्रभावित करते हैं। जिस ज्ञान गरिमा को वे प्राप्त हैं, जिस संयम-नियम को वे प्राप्त हैं, वहां राजा बनने का कोई मतलब नहीं होता, वहां वे राजा की तुलना में असंख्य गुना ज्यादा सम्मान पाते हैं। लिखा है शास्त्रों में कि जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म के समान ही हो जाता है।
जैसे तुलसीदास जी ने भी कहा कि
जानत तुम्हही तुमही होई जाईं।
आपको जानने के बाद आपके जैसा हो जाता है। जैसे शंकराचार्य जी के अनुसार, ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है, लेकिन वैष्णव मत में ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म के समान हो जाता है। ब्रह्म नहीं होता। वशिष्ठ जी संत शिरोमणि हैं, गुरु शिरोमणि हैं, ज्ञान शिरोमणि हैं, ऐसी अवस्था में आध्यात्मिक संसार में जितने भी सोपान हो सकते हैं, उसके एवरेस्ट पर विद्यमान हैं गुरु वशिष्ठ जी। ईश्वर से बराबर का दर्जा वशिष्ठ जी के पास है। वशिष्ठ जी के मन में राजा बनने या सत्ता संभालने की इच्छा कभी नहीं होती।
राजा तो विश्वामित्र थे, लेकिन वह भी राजा का पद छोडक़र ऋषि बने, राजर्षि बने और फिर ब्रह्मर्षि बने। ऐसे तमाम राजाओं का इतिहास भारत में मिलता है, जिन्होंने राजा का पद छोडक़र फकीरों का जीवन प्राप्त किया, ज्ञानियों, संतों का जीवन प्राप्त किया। वशिष्ठ जी के पास इतनी क्षमता होने के बाद भी उन्होंने राजा बनना स्वीकार नहीं किया, वे राजाओं के राजा हैं। लौकिक दृष्टि से देखा जाए, तो संपूर्ण रघुवंश में जो सबसे बड़ा पद है, राजा भी अपने हर कार्य में सम्मति लेना चाहता है, आशीर्वाद लेना चाहता है, जिसने संपूर्ण जीवन को अपनी तपश्चर्या से पल्लवित किया है, राम जी ने कहा वशिष्ठ जी को कि आप जो कहेंगे, वही होगा, दूसरा कुछ होना ही नहीं है, आपने संपूर्ण वंश को जो ऊंचाई दी है, संपूर्ण वंश को जिस तरह से सिंचित किया है, उसका कोई ऋण त्राण नहीं सकता। आप नहीं होते, तो रघुवंश आज का रघुवंश नहीं होता। ऐसे कई वंश संसार में आए और गए, लेकिन एक भी वंश रघुवंश जैसा नहीं हुआ। जो भी विशिष्टता है इस वंश में, सबकुछ आपका दिया हुआ है, हम रोम रोम से आपके ऋणी हैं। मैं प्रफुल्लित हूं, आपके मन में मेरे भाई के लिए कितना लगाव है। वशिष्ठ जी संपूर्ण गुरु हैं। दिलीप को पुत्र देकर, गंगा को लाकर, दशरथ जी को चार पुत्र देकर, उन्होंने केवल राजा बनने के लिए ही प्रेरित नहीं किया, उनको ज्ञानी भी बनाया।
कालिदास ने लिखा है कि जो रघुवंशी थे, वे विद्या का अभ्यास करते थे छोटी आयु से ही। युवा अवस्था में विवाह करके और प्रजा के रंजन के लिए प्रजा की सेवा के लिए पुत्र की प्राप्ति करते थे, जहां वृद्धावस्था आई, वहां मुनि का जीवन जीते थे, जैसे योगी लोग अपने शरीर का परित्याग करते हैं, वैसे ही रघुवंशी लोग अपने प्राणों का त्याग करते थे। जिस वंश में राजा योगी के रूप में अपने जीवन का समापन करे, जिस वंश में राजा जहां ऋषियों के पुत्र पढ़ते थे, वहां पढ़े, ऋषियों जैसा जीवन जिए, यह कितना महान वंश है। ऐसे वंश का जिन्होंने पालन-पोषण किया, ऐसे गुरु वशिष्ठ अतुलनीय ऋषी हैं।
क्रमश:

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