Saturday 4 November 2017

महर्षि मनु, भाग - 3

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
वर्षों वर्ष बीत गए। उनको अपने जीवन के परम सार्थकता की चिंता हुई, तो उन्होंने राजपाट अपने संतानों को संभलाकर तप करने निकल गए। आदमी हजारों हजारों साल तक भोग कर ले, सभी भोग के साधन उसके पास हों, कहीं किसी तरह का अभाव नहीं, कहीं किसी तरह का अवरोध नहीं, भोग से कभी शांति नहीं मिलती। यह बड़ी विडंबना है कि अनादिकाल से लोग इसी क्रम में जीवन जीते हैं, कैसे भी धन आए और कैसे भी धन से हम जीवन जीएं। हमारे भोग की शक्ति कम नहीं हो, हम दिन भर खाएं, हम दिन भर देखें, लेकिन आंखों में कष्ट न हो, भोग करें, हम दिन भर चलें, लेकिन पैरों में दिक्कत नहीं हो। कभी हममें किसी तरह का अवरोध नहीं आए। इन बातों को ध्यान में रखकर ही ज्यादातर लोग जीवन जी रहे हैं। लगे हैं कि भोग में कहीं से भी कोई न्यूनता नहीं आए। इन बातों को ध्यान में रखकर जो लोग जीवन जी रहे हैं, उनके सामने मनु जी ने अपने जीवन और अभिव्यक्ति के बल पर सर्वोच्च जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया। इसे भी परम विश्राम या मोक्ष कहते हैं। 
संसार में जो आप देख रहे हैं ईश्वर को ही देख रहे हैं। जल देख रहे हैं, वायु के रूप में अनुभव करते हैं, लेकिन ईश्वर के साक्षात रूप में हम नहीं देखते। मनु ने वन में घूम-घूमकर संयम नियम व्रत किया। भगवान की दया से उन्होंने मांगा कि जो परम भगवान हैं, जो सबका पालन करते हैं, जिनके कारण सूर्य और चंद्रमा हैं, जो समय से उगते-डूबते हैं। जिनके प्रभाव से वायु नियंत्रित है, जिनके कारण समुद्र मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, जिनसे वह नियंत्रित होता है। शास्त्रों ने जिन्हें कहा कि वह सर्वत्र व्यापक है, वही बनाते, पालन करते, संहार करते हैं, कर्म फल वही देते हैं। सबकी आत्मा हैं जो, आत्मा की भी आत्मा हैं जो। 
मनु को पूरा ज्ञान था, उनके मन में यह बात आई कि भगवान का दर्शन हो जाता। आंखों से दर्शन। संसार में जहां आप देख रहे हैं, ईश्वर को ही देख रहे हैं। जल, पृथ्वी, वायु, समुद्र के रूप में देखते हैं, किन्तु ईश्वर को साक्षात रूप में हम नहीं देख पाते हैं। ईश्वर के दूसरे रूपों को देखते हैं, साक्षात नहीं देखते। जो माया निर्मित है, उसे देखते हैं। मन में आना चाहिए कि हम भगवान को देखें, जैसे हमारे मन में आता है कि किसी कलाकार को देखें, विभिन्न क्षेत्रों के बड़े लोगों को देखें। 
उन्हें देखने का मन जो है, वह ईश्वर को देखने का ही मन है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है, यह जीवन की परम सार्थकता का साधन नहीं बन पाएगा। जब तक हम उसे ईश्वर के रूप में नहीं देखें। हमारी दृष्टि जब व्यापक होगी, संपूर्ण संयम-नियम से सज्जित होगी, तभी हम उन्हें देखने की योग्यता वाले हो सकेंगे। तुलसीदास जी ने लिखा है - सियाराम मय सब जग जानी 
मनु को इच्छा हुई कि भगवान का साक्षात दर्शन करें। आकाशवाणी हुई, भगवान ने कहा, हम आएंगे। बड़े लोग कहते हैं कि मांगो, भगवान जब प्रसन्न होते हैं, तो कहते हैं कि मांगो। श्रेष्ठतम जीवन वालों को ही यह अवसर मिलता है भगवान से सीधे कुछ मांगने का। 
मनु जी ने कहा कि हमने संसार को खूब नजदीक से देखा है, सब हमको मिला, लेकिन स्थायी शांति, परम शांति, परम उद्देश्य नहीं प्राप्त हुआ। सब भोग प्राप्त हुए, लेकिन आप प्राप्त नहीं हुए। भक्ति मार्ग में संत भगवान से अर्थ, काम, मोक्ष से नहीं मांगता, वो भगवान से कहता है कि हमें और कुछ नहीं चाहिए, केवल आपकी प्रसन्नता व प्रेम चाहिए, भक्ति चाहिए। भक्त लोग भगवान से केवल उनकी भक्ति को चाहते हैं। क्रमश:

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