Monday 27 August 2018

बच्चों को महामानव बनाएं

जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के नए प्रवचन संग्रह - आओ, जीवन सिखा दूं

(गर्भ से ही शुरू हो शिक्षा, बचपन में ही दिखा दें सही राह)
वैदिक सनातन धर्म में चिंतन का जो क्रम है, उसमें तमाम विश्वासों के साथ पुनर्जन्म पर भी विश्वास है। अभी जो जीवन मिला है, पहले भी जीवन मिला था और बाद में भी मिलेगा। चाहे वो जीवन किसी भी योनि का हो, किसी भी शरीर का हो, किसी भी देश और भाषा का हो, उसमें अंतर आ सकता है, किन्तु यह हमें कोई पहला जीवन नहीं मिला है और न यह हमें अंतिम जीवन मिला है। दूसरी बात, यह हमें अपने ही कर्मों से मिला है। मनुष्य जीवन में समान रूप से गहराई का चिंतन, ज्ञान-विज्ञान नहीं मिलता है, तो भी मनुष्य जीवन सबसे बड़ा जीवन है। ऐसा आम व्यक्ति के भी ध्यान और विश्वास में आता है। जो विद्वान हैं, जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है, उन्हें तो इसकी बहुत गहरी जानकारी होती है कि मनुष्य जीवन सबसे श्रेष्ठ जीवन है। हमें मनुष्य जीवन को ही आधार बनाकर इस व्यवस्था को आगे बढ़ाना है। जब हमें मनुष्य जीवन प्राप्त होता है, तब इसके साथ बाहर और भीतर जो संरचना का स्वरूप है, वह भी प्राप्त होता है। भीतर के भी अंग-प्रत्यंग और बाहर के भी अंग-प्रत्यंग, और इसके आधार पर हम अपनी जीवन यात्रा शुरू करते हैं। हमें देखने के लिए आंखें मिली हैं, सुनने के लिए कान भी मिले हैं, सूंघने के लिए नासिका मिली है, रसास्वादन के लिए जिह्वा मिली है। जिह्वा या चीभ को रसना भी बोलते हैं। स्पर्श को ग्रहण करने के लिए त्वचा प्राप्त हुई है। सुख-दुख के अनुभव के लिए मन प्राप्त हुआ है। ये सभी इन्द्रियां जन्म लेते ही सक्रिय हो जाती हैं और इसमें जो हमें परिवेश मिला, माता-पिता मिले, परिवार के लोग मिले, अड़ोस-पड़ोस मिला, जहां हम जन्मे वहां का क्षेत्र मिला, भाषा मिली, व्यवहार मिले, वो सब हमारे प्राप्त संसाधन हैं, वो सब जीवन को विकसित करने में लग जाते हैं। जीवन को बढ़ाने और धार देने में लग जाते हैं। जीवन का जो परम लाभ है, जो परिपूर्ण जीवन, सभ्य जीवन, सुसंस्कृत जीवन और तमाम श्रेष्ठ संस्कारों से मंडित-समर्पित जीवन के लिए लग जाते हैं। 
पहले हमें ध्यान रखना है कि हमारे पिछले जन्मों के जो संस्कार हैं, अनुभव से उत्पन्न जो संस्कार हैं, उनके माध्यम से ही इस जन्म में भी हमें कई तरह के संस्मरण होते हैं, बुरे भी होते हैं और अच्छे भी होते हैं और इसमें हमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, ये धीरे-धीरे स्वत: होते रहते हैं। यहां बिना प्रशिक्षण के, बिना व्यापार के, बिना उद्योग के भी बहुत सारे बच्चे, जन्मजात शिशु - जिन्होंने अभी-अभी जीवन प्राप्त किया है, उनमें अत्यंत विकसित परिष्कृत स्मरण और व्यवहार दिखने लगते हैं। यह पिछले जन्म के पुण्यों के लाभ स्वरूप ही संभव होता है कि कोई बच्चा विशेष गुणों वाला सामने आ जाता है। स्पष्ट है, ये पिछले संस्कारों के आधार पर होता है। 
अभी संसार में अधिकांश लोग पुनर्जन्म को मानने लगे हैं। अपने यहां तो इसकी बड़ी मान्यता है,  पौराणिक आख्यान हैं, तर्क-वितर्क हैं। ध्यान को थोड़ा गहरा करें, तो यह समझ में आएगा। पहली बात तो यह कि पिछले जन्मों के सशक्त संस्कारों के आधार पर नवजात शिशुओं को भी अनेक स्मरण होते हैं। स्मरण के आधार पर अनेक व्यवहार भी होते हैं, जिससे उसका छोटा या प्रारंभिक जीवन भी श्रेष्ठ जीवन का संकेत देता है, श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति होगी, इसका अनुमान कराता है। कहा जाता है कि होनहार बिरवान के होत चिकने पात। ऐसे शिशु भी होते हैं, जिन्हें देखकर ही लोग कहते हैं कि पहले से ही ज्ञानी लगता है। ऐसा पिछले जन्मों के उन्नत संस्कारों से ही संभव होता है। हमारा यह जीवन केवल यहीं या वर्तमान की साधना और हमारी जो वर्तमान शिक्षा है, उससे ही विकसित नहीं होता, उसमें पिछले जन्मों के संस्कार, अनुभव, स्मरण की भी श्रेष्ठ भूमिका होती है। 
क्रमश: 

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