Saturday 27 April 2019

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

(दुख, पाप का समाधान और इच्छाओं पर नियंत्रण की शिक्षा)
(जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन के संपादित अंश)

मनुष्य जीवन प्राप्ति के बाद संपूर्ण जीवन व्यवहारमय है, उस व्यवहार को कैसा होना चाहिए, उसका स्वरूप, उसका उद्देश्य, उसकी बारीकियां, उसका मूल, उसका विस्तार, उसकी प्रेरणा, इन सब बातों की पहले चर्चा हुई। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हैं। दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि पहले हम जानते हैं, ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान से इच्छा उत्पन्न होती है कि ये हमें मिल जाता, ये मेरा हो जाता, इसी का नाम इच्छा है। और फिर हम इच्छा से एक कदम आगे बढ़ते हैं, प्रयत्न करते हैं, व्यापार करते हैं, उसको प्राप्त करने के लिए। ज्ञान से उत्पन्न, इच्छा से उत्पन्न क्रिया द्वारा जो वस्तु प्राप्ति का प्रयास करते हैं, ये जो क्रिया है वही व्यवहार है। ये समस्त क्रियाएं जो मनुष्य जीवन में प्राप्त होती हैं, इन्हीं को व्यवहार कहते हैं। क्रिया का नाम ही व्यवहार है। उस क्रिया का मूल इच्छा और इच्छा का मूल ज्ञान। मनुष्य क्रिया से कभी दूर नहीं रह सकता, क्योंकि शरीर जिसको मिला है, उसको तो क्रिया करनी ही पड़ती है। वो कभी उससे वंचित नहीं रह सकता है, ये बड़ी ही स्वाभाविक बात है और दर्शनशास्त्र का भी इसमें पूरा समर्थन है। चिंतन की सबसे सूक्ष्म विधा है कि हम क्रिया से कभी भी रहित नहीं हो सकते। 
भगवान ने गीता में कहा - 
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठ्यत्यकर्मकृत्। 
कर्म से रहित होकर कोई शरीरधारी एक क्षण भी नहीं रह सकता। शरीर है, तो क्रिया करनी ही पड़ेगी। बैठना भी क्रिया, सोना भी क्रिया, सांस लेना भी क्रिया, रक्तों का प्रवाह भी क्रिया, शरीर में तमाम नाडिय़ां काम कर रही हैं। लगता तो है कि कुछ कर नहीं रही हैं, लेकिन वो सब क्रियाशील हैं। कोई जीवन ही नहीं है क्रिया के बिना, तो ऐसी स्थिति में क्रिया का परिष्कार किया ऋषियों, विद्वानों ने, महामनिषियों ने। तो मनमानी नहीं चलेगी। जैसे भोजन में मनमानी नहीं चलेगी। जो व्यवस्था है, उसमें या ऑक्सीजन में मनमानी नहीं चलेगी, नाक से ही लेना है, चाहे सिलेंडर से लीजिए, चाहे प्राकृतिक लीजिए। 
इस क्रम में जिन लोगों ने इन क्रियाओं को मनमानी नहीं किया, वे देवता हो गए। जो दिव्य दृष्टि संपन्न हुआ ऋषियों द्वारा, उनको भी शक्ति देने वाले शास्त्रों द्वारा, वे सर्वोच्च जीवन को, सर्वोत्कृष्ट जीवन को, सफल जीवन को प्राप्त हुए, क्योंकि उनका व्यवहार बहुत व्यवस्थित हुआ। तो इसी क्रम में बहुत अच्छा उदाहरण है प्रह्लाद जी का, जिनका सारा वातावरण ही विपरीत है, जहां उनका जन्म हुआ है, जो उनके पिताश्री हैं हिरण्यकश्यप, वो आसुरी भाव की पराकाष्ठा के हैं। उन्हें कोई विश्वास नहीं शास्त्रों में, उन्हें कोई विश्वास नहीं परलोक में, उन्हें कोई विश्वास नहीं परंपरा में, उन्हें कोई विश्वास नहीं पुण्य में, ऋषियों के जीवन में, संतों के जीवन में, ब्राह्मणों के जीवन में। जो इस सृष्टि के श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं ईश्वर की, उनमें गाय है, तुलसी जी हैं और तमाम ग्रह, नक्षत्र तारे हैं। वे शिक्षित होने के लिए प्रह्लाद जी को भेज तो देते हैं कि आप अच्छा पढि़ए। हर पिता-माता का मन होता है कि उनके बच्चे पढ़ें, किन्तु हिरण्यकश्यप उस शिक्षा को नहीं शिक्षा मान रहे हैं, जिसमें ईश्वर का अस्तित्व हो। जबकि इस सृष्टि की परिकल्पना, इसका चिंतन, इसके साथ संबद्धता, इसके माध्यम से जीवन का उत्कर्ष तब तक संभव नहीं है, जब तक इसमें यह भाव नहीं जोड़ा जाए कि ये सृष्टि किसी मनुष्य की रचना नहीं है। किसी शासन की, किसी धनपति की, किसी कलाकार शिरोमणि की, किसी की नहीं है। ये हम सब लोगों द्वारा आज और कल कभी संभव नहीं है कि हम संसार को बना सकें, जबकि आदमी घिरा हुआ है कार्यों से, निर्माण से, वो वैसे ही समझता है कि मैंने इसको बनाया है। इसी को तो इतिहास कहते हैं कि उन्होंने इसको तोड़ा है, इसको बनया है, यही तो इतिहास है। इन्होंने नागासाकी को तोड़ा, लेकिन ये भी है कि इन्होंने इतनी बड़ी मंजिल बनाई, सडक़ बनाई। बम बनाया और तमाम जीवन के लिए उपयोगी चीजें बनाईं। यही तो बात होती है कि ये इसका लडक़ा है और उन्होंने इसके लडक़े को मारा। ये विद्वान है, ये मूर्ख है। इन्होंने विद्वान बनाया, किन्तु जहां पर मनुष्य की गति नहीं है, वहां आम आदमी चिंतन नहीं कर पाता है।  
क्रमश:

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