Monday 29 April 2019

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

भाग - 3
वैदिक सनातन धर्म की परंपरा में पुनर्जन्म पर परम विश्वास है। अब तो दुनिया की तमाम परंपराएं, संप्रदाय, पंथ और लोग पुनर्जन्म में विश्वास करने लगे हैं। बड़ी लंबी विवेचना है पुनर्जन्म के सम्बंध में। 
प्रह्लाद जी का चिंतन देखिए, अरे... ईश्वर के बिना कौन-सा संसार। हम तमाम लोगों को सुनते हैं, देखते हैं, उनके लिए करते हैं, तमाम विषयों से हम अपनी इन्द्रियों को जोड़ते हैं, स्मरण करते हैं, चिंतन करते हैं, निश्चय करते हैं, अहंकार करते हैं कि ये मेरा है, ये मेरा है, यही अहंकार है। किन्तु इन सभी संसाधनों का जो मुख्य व्यवहार है, वह ईश्वर है। हम सुनेंगे, तो ईश्वर को सुनेंगे। हम देखेंगे, तो ईश्वर को देखेंगे। 
वेदों ने कहा - आत्मा वा रे द्रष्टव्य:।  
आत्मा का ही दर्शन करो, देखो उसको, देखने योग्य है वो, उसका साक्षात्कार करो, उसकी अपरोक्षानुभूति करो, जो ज्ञान की अनुभूति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है, वही है देखने योग्य, उसको देखो। सिनेमा देख करके, क्रिकेट देखकर जीवन किसी का बड़ा नहीं हुआ है और न कभी होगा। सफल वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जितना समय लगाते हैं, उतना समय वे सिनेमा देखने में नहीं लगाते। सिनेमा, क्रिकेट में थोड़ी देर के लिए आनंद मिलता है, ताली बजा दिए और बस हो गया। संसार जिनसे अपेक्षा करता है और गौरवान्वित होता है, वो तो प्रयोगशाला में रहकर साधना करते हैं, जंगल में रहकर साधना करते हैं, विकास के क्रम में लगकर साधना करते हैं।
तो प्रह्लाद जी ने कहा, यह तो आत्मा ही देखने योग्य है... ईश्वर । आत्मा का एक अर्थ जीवात्मा भी होता है। हमें अपने को देखना चाहिए, किन्तु लोग व्यवहार में दूसरों को ही देख रहे हैं। अपना भी तो देखो। मन कैसा है, क्रिया कैसी है, तुम्हारी इच्छाएं कैसी हैं, तुम्हारे संकल्प कैसे हैं, उसको भी देखो। दूसरे को देख रहे हैं कि ये पतित है और तू क्या है। अपना देख ही नहीं रहा है, तो आत्मा-परमात्मा, दोनों को देखें, जिसमें परमात्मा मुख्य हुआ, उसी को हमें देखना है। उसी को हमें सुनना है। ऐसा नहीं है कि हम रास्ता किसी से पूछ रहे हैं और वो बतलावे, तो हम नहीं सुनें। ऐसा नहीं है कि जो हमारी जिम्मेदारियां हैं, उनको हम नहीं सुनें, उनको सुनना ही होगा। किन्तु संसार के जो लौकिक व्यवहार और जिम्मेदारियां हैं, उनको भी उसका साधन बनाना है, इसका मुख्य लक्ष्य वहीं पहुंचने का है। तो प्रह्लाद जी ने कहा, 
श्रवणं कीर्तनम विष्णो: - हमें सुनना भी उसी को है, जो वेदों ने कहा था, आत्मा वा रे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।  
ईश्वर को देखना है, तो आप कैसे देखेंगे, उसके प्रतिपादक शास्त्रों को सुनिए। ईश्वर को यदि आपको जानना है, तो ज्ञान का सबसे बड़ा साधन तो श्रवण है। श्रवण माने शब्दों को कानों से ग्रहण करना और उनके अर्थों के माध्यम से पूरे वाक्य के अर्थ का ज्ञान करना, इसको शब्द बोध कहते हैं। पहले हम शब्दों को सुनते हैं, यह प्रत्यक्ष हुआ, पद ज्ञान हुआ, शब्द ज्ञान हुआ, फिर उन शब्दों के अर्थ जो होते हैं, उनका ज्ञान हुआ कि इस शब्द का अर्थ क्या है। फिर उन सभी शब्दों के अर्थ जुड़ जाते हैं रेल के डिब्बों की तरह और उनका एक बोध तैयार होता है, उसको ही बोलते हैं शब्दबोध। वाक्यार्थबोध। तो ईश्वर को सुनना चाहिए। नहीं सुनने के कारण ही आज पतन हो रहा है। जब विद्यार्थी नहीं सुनेगा अपने अध्यापक के वचनों को, तो न परीक्षा में अच्छी श्रेणी से उत्तीर्ण होगा और न वो विद्वान हो पाएगा, उसको समझ नहीं हो पाएगी। तो भगवान को सुनना है। वेदों के, पुराणों के, इतिहासों के माध्यम से सुनना है। ईश्वर प्रतिपादन की जो विधा हमें अनादि काल से प्राप्त हुई, वो दुनिया में कहीं नहीं है। जैसे अरबपति के सामने दूसरे व्यवसायी लगता है कि ये तो भिखमंगे हैं। लोग पढ़ते हैं अखबारों में कि मात्र डेढ़ सौ या दो सौ उद्यमी घरानों के पास अपने देश की ७५ प्रतिशत संपदा है। बाकी लोग तो हो गए सीताराम, उनके पास क्या है, कुछ भी नहीं है।
क्रमश:

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