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Friday, 7 April 2017

नैवेद्यम्

महामहोपाध्याय देवर्षि कलानाथ शास्त्री
राष्ट्रपति सम्मानित संस्कृत विद्वान
अनेक सहस्राब्दियों के सांस्कृतिक इतिहास वाले भारत देश में मध्यकाल में जो भक्ति की भागीरथी बही उसने समस्त देश को ऐसे माधुर्य में भिगोया कि सदियाँ बीत जाने पर भी उसी रस में देश रचा-बसा है आज भी। भक्ति की भागीरथी दक्षिण से उद्गत हुई और उत्तर भारत में उसे स्वामी रामानन्द लाए, यह जानकारी प्रसारित करने वाला एक दोहा लोककण्ठ में रचा-बसा है-
भक्ती द्राविड ऊपजी ल्याए रामानंद।
परगट करी कबीर ने सप्त द्वीप नव खंड॥
मैं इस दोहे की इस प्रकार व्याख्या करता हूँ कि भक्ति आन्दोलन के सूत्रधार प्रमुख आचार्य दक्षिण भारत में हुए - रामानुजाचार्य तमिळनाडुु में, मध्वाचार्य कर्नाटक में, निम्बार्काचार्य महाराष्ट्र में। वल्लभाचार्य तैलङ्ग कुल के थे। अद्वैत दर्शन के प्रवर्तक शङ्कराचार्य केरल के। हिन्दीभाषी क्षेत्र में भक्ति भागीरथी को लाने वाले वाराणसी के रत्न रामानन्दाचार्य थे जिनके कारण भक्ति ने हिन्दी भाषा को रससिक्त किया, कबीर ने उसी भाषा में लिखा। उत्तर भारत में आते ही यहाँ के समूचे जनजीवन को अपने रंग में रँग लिया। अपार-साहित्य की सृष्टि ब्रज, अवधी, भोजपुरी, हिन्दी, उर्दू आदि भाषाओं में हुई। इस प्रकार ही तो रामानन्द द्रविड में उपजी भक्ति को उत्तर में लाए। 
तबसे इतिहास ही बदल गया। रामानन्दाचार्यजी का मुख्य पीठ पञ्चगङ्गाघाट, काशी में रहा जो आज भी फल-फूल रहा है। उनके संप्रदाय के अनेक द्वाराचार्य हुए जो सारे भारत में फैल गए। राजस्थान के अग्रदासजी (रैवासा) के शिष्य नाभादासजी ने जो ‘भक्तमाल’ लिखी उसने भक्तों का इतिहास अभिलिखित कर भक्ति को अमर कर दिया। स्वामी रामानन्दाचार्य का मूल पीठ ‘श्रीमठ’ गङ्गा के घाट पर पाँच-छह सदियों से रहा है जिसे पञ्चगङ्गा घाट के नाम से जाना जाता है। सदियों से इसका आकार और कलेवर संक्षिप्त ही था। बीसवीं सदी के आखिर में इसके कर्णधार जब स्वामी रामनरेशाचार्यजी बने तो कुछ दशकों में ही इन्होंने उसके कलेवर को भी विशाल बनाया, अनेक योजनाएँ चलाकर इसकी श्रीवृद्धि की, साथ ही संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में रामानन्दाचार्यजी के जीवन और सन्देश पर अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन करवाकर समस्त देश में इसकी दुन्दुभि बजा दी। हरिद्वार में श्रीराममन्दिर की एक विशाल योजना द्वारा इतिहास बनाने का उपक्रम प्रारंभ कर दिया। 
कालजयी कीर्ति के धनी जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजी के मुख्य पीठ पर दर्शन के मनीषी, वक्तृत्व के कुशल सामथ्र्य के धनी, गुणग्राहक, विद्वानों के पारखी स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी का आना एक नए इतिहास का प्रारंभ जैसा लगने लगा। दो दशकों से मैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का आकलन करता रहा हूँ। 
उन्होंने प्रतिवर्ष एक विद्वान् को बड़ा शिखर पुरस्कार (जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पुरस्कार) देकर सम्मानित करने की जो योजना चलाई उसके कारण सन्तों की जमात के साथ ही विद्वानों के जमघट का भी नया इतिहास बनने लगा। रामनरेशाचार्यजी स्वयं काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय से न्याय-वैशेषिक दर्शन की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं, विद्वानों की परख इन्हें खूब आती है। कौन नहीं जानता कि पिछले दशकों में जहाँ भी ये जाते थे, विद्वत्सङ्गम होता रहता था। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (अब स्वर्गीय), आचार्य रामकरण शर्मा, श्री रामबहादुर राय, आचार्य रामयत्न शुक्ल, आचार्य शिवजी उपाध्याय, आचार्य प्रभुनाथ द्विवेदी, आचार्य नरोत्तम सेनापति, आचार्य जयकान्त शर्मा, प्रो. सतीश राय आदि अनेक मूर्धन्य विद्वानों का जमघट सदा इनके चारों ओर रहा है। जहाँ भी इनका चातुर्मास्य अनुष्ठान होता है, किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचारगोष्ठी-व्याख्यानमाला आदि कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं, यह मैं दो दशकों से देखता आया हूँ। आज भी वही स्थिति है। इनकी प्रेरणा से प्रकाशित ग्रन्थों (जैसे स्वामी रामानन्दाचार्य के जीवन पर लिखे अनेक हिन्दी उपन्यास, उनके अंग्रेजी अनुवाद, लेख संग्रह आदि) के बारे में मैं संकेत कर ही चुका हूँ। 
जो लोग विद्वत्प्रवर स्वामी रामनरेशाचार्यजी के प्रवचन सुन चुके हैं वे भलीभाँति जानते हैं कि इनके चिन्तन और मार्गदर्शन में हमारी सांस्कृतिक परम्परा के मूल सिद्धान्त पूरी तरह समाहित रहते हैं किन्तु उनमें पुराणपंथी पूर्वाग्रह या लकीर पीटने मात्र का धर्मोपदेश नहीं रहता अपितु वर्तमान परिवेश में देश के लिए, मानव के लिए, आज के समाज के लिए क्या वांछनीय है, क्या हितकर है उसकी अकृत्रिम, सहज और शालीन प्रस्तुति होती है। मैंने इनके विचारों पर आधारित कुछ विषयों के विवेचन करने वाली पुस्तिकाएँ भी देखी हैं। वे किसी कट्टरपंथी धर्मगुरु के उपदेशों का आभास नहीं देती, सामयिक महत्त्व के चिन्तन का प्रमाण देती हैं। ऐसा ही यह प्रवचन संग्रह है ‘अबलौं नसानी, अब न नसैहौं’। इसकी अवतारणा के लिए प्रबुद्ध चिन्तक, लेखक, पत्रकार और सम्पादक श्री ज्ञानेश उपाध्याय जी बधाइयों के पात्र हैं। 
इस प्रवचन संग्रह को देखकर आज के बुद्धिजीवी का मानस, आज के प्रबुद्ध समाज का मन भगवान् श्रीराम के चरणों में यही प्रार्थना करेगा कि श्रीमठ के कर्णधार विद्वत्प्रवर स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी की वाणी का प्रसाद हमें अनन्त काल तक इसी प्रकार मिलता रहे, इनकी जनहितकारी योजनाएँ इसी प्रकार फलती-फूलती रहे। 

प्रधान सम्पादक, ‘भारती’ संस्कृत पत्रिका
सदस्य - संस्कृत आयोग, भारत सरकार
पूर्व अध्यक्ष, आधुनिक संस्कृत पीठ, ज.रा.राजस्थान संस्कृत विवि 
तथा राजस्थान संस्कृत अकादमी
पूर्व निदेशक-संस्कृत शिक्षा एवं भाषा विभाग, राजस्थान सरकार


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