धर्म के ज्ञान से ही व्यक्ति को जीने की कला आती है.
Friday, 19 December 2014
साधु, तुझको क्या हुआ?
समापन भाग
स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, जो गृहस्थ के रूप में रहते थे, किन्तु तब भी उन्होंने ऊंचे संतत्व को प्राप्त किया। आज संसार में संतत्व को महत्वपूर्ण रूप में देखना चाहिए। जैसे सूर्य, ग्रह नक्षत्र तारे हैं, ठीक उसी तरह से ईश्वर जो सबसे बड़े सूर्य हैं, लेकिन उनकी भावनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने का काम संतों ने हमेशा ही किया है। मैं किसी संत विशेष की बात नहीं कर रहा हूं, किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि संतत्व संसार से कभी खत्म नहीं होगा।
मैं तो मोहम्मद साहब और ईसा मसीह को भी मान देता हूं। अजमेर वाले ख्वाजा गरीबनवाज भी सूफी संत थे। सूफी संतों में अनेक ऐसे हुए हैं, जो अहं ब्रह्मास्मि कहते थे, एक ऐसे सूफी संत की हत्या कर दी गई। जब उन्हें जलाकर राख समुद्र में फेंकी गई, तो उसमें से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आई, जिसने उस जल को पिया उसके पेट से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आने लगी। उस सूफी संत ने कितना तप किया होगा, सोचकर देखिए। जिसने उन्हें मरवाया था, उसने भी जब जल पिया, तो उसके पेट से भी आवाज आने लगी अहं ब्रह्मास्मि। कितना संयम किया होगा, कितना तप किया होगा, तभी तो ऐसी शक्ति अर्जित हुई।
हम लोगों की यह भावना है कि संसार के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हुए हैं। खान-पान, चिंतन बदला है, किन्तु ऐसे परिवेश में भी संतत्व कहीं भी निखर सकता है, संतत्व लाखों-लाखों को प्रेरित करता है। लोगों को संयम के लिए प्रेरित करना, अच्छाई की ओर प्रेरित करना, दुराचार को रोकने का प्रयास करना, समाज को ईश्वर की ऊंचाई की ओर ले जाना। यहां तो तोते को भी राम राम रटवाने की परंपरा रही है। पशु-पक्षी सारा वातावरण ईश्वरीय हो। रामायण, योगदर्शन, पुराणों में लिखा है कि व्यक्ति पूर्णत: अहिंसक हो जाए, तो साक्षात विरोधी जो जीव हैं, उनमें भी अहिंसा की भावना आ जाती है। यदि आप सच्चे अहिंसक हो जाएं, तो आपके पास सांप और नेवले भी साथ-साथ आ जाएंगे, वे भी अपना परस्पर विरोध छोड़ देंगे। परस्पर शाश्वत विरोध वाले बाघ और हिरण एक साथ ऋषियों के आश्रम में रहते थे, कोई किसी को परेशान नहीं करता था। प्रेम का वातावरण संत बनाते हैं। दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओं, प्रशासनिक, वैज्ञानिक व्यवस्थाओं में उतना दम नहीं है, जितना संतों की व्यवस्था में दम है। अत: ईश्वरीय समाज का, ईश्वरीय भावना के अनुरूप समाज का निर्माण होना चाहिए।
आज नेताओं को देखिए। उनमें आवश्यक गुण नहीं हैं। संसदीय प्रणाली जैसी होनी चाहिए, लोकतंत्र के लिए, वैसी नहीं है। यदि नेताओं में लोकतांत्रिक भाव ही ठीक से नहीं है, तो ईश्वरीय भाव कहां से आएगा? ईश्वरीय संसार को ईश्वरीय शक्ति के माध्यम से ही ईश्वरीय वातावरण देने का एकमात्र जो कारण है, उसी का नाम संतत्व है। संतत्व कभी नष्ट नहीं होता। अभी अनेक संत संसार की श्रेष्ठ सेवा कर रहे हैं। देश और दुनिया में ऐसे असंख्य लोग हैं, जो ईश्वरीय जीवन को जी रहे हैं।
जय श्रीराम
स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, जो गृहस्थ के रूप में रहते थे, किन्तु तब भी उन्होंने ऊंचे संतत्व को प्राप्त किया। आज संसार में संतत्व को महत्वपूर्ण रूप में देखना चाहिए। जैसे सूर्य, ग्रह नक्षत्र तारे हैं, ठीक उसी तरह से ईश्वर जो सबसे बड़े सूर्य हैं, लेकिन उनकी भावनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने का काम संतों ने हमेशा ही किया है। मैं किसी संत विशेष की बात नहीं कर रहा हूं, किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि संतत्व संसार से कभी खत्म नहीं होगा।
मैं तो मोहम्मद साहब और ईसा मसीह को भी मान देता हूं। अजमेर वाले ख्वाजा गरीबनवाज भी सूफी संत थे। सूफी संतों में अनेक ऐसे हुए हैं, जो अहं ब्रह्मास्मि कहते थे, एक ऐसे सूफी संत की हत्या कर दी गई। जब उन्हें जलाकर राख समुद्र में फेंकी गई, तो उसमें से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आई, जिसने उस जल को पिया उसके पेट से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आने लगी। उस सूफी संत ने कितना तप किया होगा, सोचकर देखिए। जिसने उन्हें मरवाया था, उसने भी जब जल पिया, तो उसके पेट से भी आवाज आने लगी अहं ब्रह्मास्मि। कितना संयम किया होगा, कितना तप किया होगा, तभी तो ऐसी शक्ति अर्जित हुई।
हम लोगों की यह भावना है कि संसार के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हुए हैं। खान-पान, चिंतन बदला है, किन्तु ऐसे परिवेश में भी संतत्व कहीं भी निखर सकता है, संतत्व लाखों-लाखों को प्रेरित करता है। लोगों को संयम के लिए प्रेरित करना, अच्छाई की ओर प्रेरित करना, दुराचार को रोकने का प्रयास करना, समाज को ईश्वर की ऊंचाई की ओर ले जाना। यहां तो तोते को भी राम राम रटवाने की परंपरा रही है। पशु-पक्षी सारा वातावरण ईश्वरीय हो। रामायण, योगदर्शन, पुराणों में लिखा है कि व्यक्ति पूर्णत: अहिंसक हो जाए, तो साक्षात विरोधी जो जीव हैं, उनमें भी अहिंसा की भावना आ जाती है। यदि आप सच्चे अहिंसक हो जाएं, तो आपके पास सांप और नेवले भी साथ-साथ आ जाएंगे, वे भी अपना परस्पर विरोध छोड़ देंगे। परस्पर शाश्वत विरोध वाले बाघ और हिरण एक साथ ऋषियों के आश्रम में रहते थे, कोई किसी को परेशान नहीं करता था। प्रेम का वातावरण संत बनाते हैं। दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओं, प्रशासनिक, वैज्ञानिक व्यवस्थाओं में उतना दम नहीं है, जितना संतों की व्यवस्था में दम है। अत: ईश्वरीय समाज का, ईश्वरीय भावना के अनुरूप समाज का निर्माण होना चाहिए।
आज नेताओं को देखिए। उनमें आवश्यक गुण नहीं हैं। संसदीय प्रणाली जैसी होनी चाहिए, लोकतंत्र के लिए, वैसी नहीं है। यदि नेताओं में लोकतांत्रिक भाव ही ठीक से नहीं है, तो ईश्वरीय भाव कहां से आएगा? ईश्वरीय संसार को ईश्वरीय शक्ति के माध्यम से ही ईश्वरीय वातावरण देने का एकमात्र जो कारण है, उसी का नाम संतत्व है। संतत्व कभी नष्ट नहीं होता। अभी अनेक संत संसार की श्रेष्ठ सेवा कर रहे हैं। देश और दुनिया में ऐसे असंख्य लोग हैं, जो ईश्वरीय जीवन को जी रहे हैं।
जय श्रीराम
साधु, तुझको क्या हुआ?
भाग - ६
आज हमें प्रयास करना है कि इस संसार में अच्छाई को बल मिले, सभी में ईशवरीय जीवन वितरित हो, धैर्य का जीवन वितरित हो। संतों, ऋषियों को अपनी ऊर्जा का ध्यान रखना चाहिए, उन्हें पता होना चाहिए कि ऊर्जा कहां लगानी है। ताड़का, सुबाहू को तो विश्वामित्र जी भी मार सकते थे, लेकिन वे अपनी तप-जप शक्ति को नष्ट करना नहीं चाहते थे, इसलिए राम-लक्ष्मण जी को मांगकर ले गए और राक्षसों के आतंक को कम करवाया, जिससे यज्ञ संभव हुए।
तो संतों के श्रेष्ठ जीवन की बड़ी लंबी परंपरा है, इसमें अब शिथिलता आई है। युगों का परिवर्तन होता रहता है, जब कलयुग समाप्त हो जाएगा, तब पुन: सतयुग आएगा, सभी भावों में परिष्कार आ जाएगा, सही भावों में मजबूती आ जाएगी।
संतों के सम्बंध में अपने मनोबल और मनोभावों को यह सोचकर दूषित नहीं करना चाहिए कि अब संत नहीं रहे। ईश्वर की फैक्ट्री बंद होने वाली नहीं है। एक फैक्ट्री बंद होती है, तो तमाम फेक्ट्रियां खुल जाती हैं। जो ईश्वर की प्रक्रिया है, उसमें कभी भी संतत्व लुप्त नहीं होता है, क्योंकि संत तो ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। संत में गुणवत्ता की कमी आ जाना संभव है, लेकिन संतत्व पूरी तरह से कभी लुप्त नहीं होता।
लोगों को आज आशंका होती है, संतों पर प्रश्न उठते हैं। फिर भी यदि विवेचना की जाए, तो अनेक ऐसे संत मिलेंगे, जिनका जीवन पवित्र है, जो पूरा जीवन समाज के लिए लगा रहे हैं, कहीं से भी जिनमें कोई बुराई नहीं है। अनेक संत उत्तम निर्माण में लगे हैं। लोगों को परखने में अवश्य परेशानी होती है, वे गलत लोगों को भी संत मान लेते हैं। रजनीश को भी लोगों ने संत मान लिया था, जबकि उनका शास्त्रों, वेदों से लेना-देना नहीं था, जिनका संयम-नियम से लेना-देना नहीं था, जहां सच्चा साधु जीवन नहीं था, जो आदमी यह कह रहा है कि संभोग से समाधि होती है, वह वैदिक सनातन धर्म का कैसे हो सकता है? हमारे चिंतन में यह बात कहीं नहीं दिखाई देती। परिणाम सामने है, आज उन्हें संत के रूप में कम ही लोग याद करते हैं।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि संपूर्ण संतत्व लांछित हो गया है। जैसे कभी मंदी आ जाती है, मजबूती गायब हो जाती है, तो कभी मंदी दूर हो जाती है, मजबूती आ जाती है। परिवर्तन चलता रहता है, ठीक इसी तरह से संतत्व समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। संत के रूप में हमें ईश्वर प्रतिनिधि रूप में प्राप्त हैं।
संत और ईश्वर में अभेद भावना का भी उल्लेख किया गया है। देवर्षि नारद जी स्वयं भी एक संत हैं, हर युग में उनकी उपस्थिति मानी जाती है, वे हमेशा ही रहते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि संत में और भगवान में कोई भेद नहीं होता। भगवान की जो भावना होती है, जो उसके गुण होते हैं, जो उसकी प्रक्रिया होती है, जिस तरह से परिवर्तन होते हैं, वे सभी संतों में भी होते हैं। रामानंद संप्रदाय में एक संत हुए नाभादास जी, उन्होंने संत चरित्र की रचना की, वे राजस्थान के सीकर में रैवासा पीठ में रहे। उन्होंने भी यही कहा कि भक्त और भगवान में भेद नहीं होता।
सारे वेदों में संत तत्व एक ही है। सारा संसार ईश्वर स्वरूप ही है। जेट चलाने वाले से लेकर रिक्शा चलाने वाले तक ईश्वर की व्याप्ति है, किन्तु सभी लोग एक ऊंचाई के नहीं होते हैं। सबकी अपनी-अपनी ऊंचाई होती है, ठीक उसी तरह से संत एक जैसे नहीं होते, लेकिन संतत्व का जो सही परिमार्जित स्वरूप है, वह ईश्वर की भावना का स्वरूप है। इन्हीं भावों को ईश्वरों ने शास्त्रों के रूप में प्रस्तुत किया। संतों ने ईश्वर के लिए समर्पित होकर शास्त्र ज्ञान को संसार के लिए समर्पित किया।
जो वेद तत्व हैं, वो अनादि है और उसका जो परिष्कार हुआ, वेदों, इतिहासों पुराणों के रूप में। कबीरदास हुए, संत ज्ञानेश्वर जी हुए, तुकाराम जी हुए, भारत के हर प्रांत में एक से बढ़कर एक संत हुए। ईश्वर में कितनी शक्ति है कि उसकी ऊर्जा ने अनेक संतों को उत्पन्न कर दिया।
क्रमशः
आज हमें प्रयास करना है कि इस संसार में अच्छाई को बल मिले, सभी में ईशवरीय जीवन वितरित हो, धैर्य का जीवन वितरित हो। संतों, ऋषियों को अपनी ऊर्जा का ध्यान रखना चाहिए, उन्हें पता होना चाहिए कि ऊर्जा कहां लगानी है। ताड़का, सुबाहू को तो विश्वामित्र जी भी मार सकते थे, लेकिन वे अपनी तप-जप शक्ति को नष्ट करना नहीं चाहते थे, इसलिए राम-लक्ष्मण जी को मांगकर ले गए और राक्षसों के आतंक को कम करवाया, जिससे यज्ञ संभव हुए।
तो संतों के श्रेष्ठ जीवन की बड़ी लंबी परंपरा है, इसमें अब शिथिलता आई है। युगों का परिवर्तन होता रहता है, जब कलयुग समाप्त हो जाएगा, तब पुन: सतयुग आएगा, सभी भावों में परिष्कार आ जाएगा, सही भावों में मजबूती आ जाएगी।
संतों के सम्बंध में अपने मनोबल और मनोभावों को यह सोचकर दूषित नहीं करना चाहिए कि अब संत नहीं रहे। ईश्वर की फैक्ट्री बंद होने वाली नहीं है। एक फैक्ट्री बंद होती है, तो तमाम फेक्ट्रियां खुल जाती हैं। जो ईश्वर की प्रक्रिया है, उसमें कभी भी संतत्व लुप्त नहीं होता है, क्योंकि संत तो ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। संत में गुणवत्ता की कमी आ जाना संभव है, लेकिन संतत्व पूरी तरह से कभी लुप्त नहीं होता।
लोगों को आज आशंका होती है, संतों पर प्रश्न उठते हैं। फिर भी यदि विवेचना की जाए, तो अनेक ऐसे संत मिलेंगे, जिनका जीवन पवित्र है, जो पूरा जीवन समाज के लिए लगा रहे हैं, कहीं से भी जिनमें कोई बुराई नहीं है। अनेक संत उत्तम निर्माण में लगे हैं। लोगों को परखने में अवश्य परेशानी होती है, वे गलत लोगों को भी संत मान लेते हैं। रजनीश को भी लोगों ने संत मान लिया था, जबकि उनका शास्त्रों, वेदों से लेना-देना नहीं था, जिनका संयम-नियम से लेना-देना नहीं था, जहां सच्चा साधु जीवन नहीं था, जो आदमी यह कह रहा है कि संभोग से समाधि होती है, वह वैदिक सनातन धर्म का कैसे हो सकता है? हमारे चिंतन में यह बात कहीं नहीं दिखाई देती। परिणाम सामने है, आज उन्हें संत के रूप में कम ही लोग याद करते हैं।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि संपूर्ण संतत्व लांछित हो गया है। जैसे कभी मंदी आ जाती है, मजबूती गायब हो जाती है, तो कभी मंदी दूर हो जाती है, मजबूती आ जाती है। परिवर्तन चलता रहता है, ठीक इसी तरह से संतत्व समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। संत के रूप में हमें ईश्वर प्रतिनिधि रूप में प्राप्त हैं।
संत और ईश्वर में अभेद भावना का भी उल्लेख किया गया है। देवर्षि नारद जी स्वयं भी एक संत हैं, हर युग में उनकी उपस्थिति मानी जाती है, वे हमेशा ही रहते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि संत में और भगवान में कोई भेद नहीं होता। भगवान की जो भावना होती है, जो उसके गुण होते हैं, जो उसकी प्रक्रिया होती है, जिस तरह से परिवर्तन होते हैं, वे सभी संतों में भी होते हैं। रामानंद संप्रदाय में एक संत हुए नाभादास जी, उन्होंने संत चरित्र की रचना की, वे राजस्थान के सीकर में रैवासा पीठ में रहे। उन्होंने भी यही कहा कि भक्त और भगवान में भेद नहीं होता।
सारे वेदों में संत तत्व एक ही है। सारा संसार ईश्वर स्वरूप ही है। जेट चलाने वाले से लेकर रिक्शा चलाने वाले तक ईश्वर की व्याप्ति है, किन्तु सभी लोग एक ऊंचाई के नहीं होते हैं। सबकी अपनी-अपनी ऊंचाई होती है, ठीक उसी तरह से संत एक जैसे नहीं होते, लेकिन संतत्व का जो सही परिमार्जित स्वरूप है, वह ईश्वर की भावना का स्वरूप है। इन्हीं भावों को ईश्वरों ने शास्त्रों के रूप में प्रस्तुत किया। संतों ने ईश्वर के लिए समर्पित होकर शास्त्र ज्ञान को संसार के लिए समर्पित किया।
जो वेद तत्व हैं, वो अनादि है और उसका जो परिष्कार हुआ, वेदों, इतिहासों पुराणों के रूप में। कबीरदास हुए, संत ज्ञानेश्वर जी हुए, तुकाराम जी हुए, भारत के हर प्रांत में एक से बढ़कर एक संत हुए। ईश्वर में कितनी शक्ति है कि उसकी ऊर्जा ने अनेक संतों को उत्पन्न कर दिया।
क्रमशः
साधु, तुझको क्या हुआ?
भाग - ५
कौन कितना बड़ा संत है, यह कैसे तय होगा? संत ने ईश्वरीयता को कहां तक प्राप्त किया है और कहां तक प्राप्त नहीं किया है, इससे ही संत के बड़े या छोटे होने का निर्धारण होगा। जिसको ज्ञान नहीं है, वैराग्य, निष्ठा, प्रेम नहीं है, वो संत कैसे बनेगा? कभी भी किसी भी काल में सभी लोग पूर्णत: संतत्व को प्राप्प्त नहीं होते हैं। जो ईश्वरीय कण है, वह सभी में नहीं आता। जैसे सभी लोग वैज्ञानिक नहीं होते, सभी लोग अच्छे खिलाड़ी नहीं होते, सभी लोग बड़े विद्वान नहीं होते, जैसे सभी लोग बलशाली नहीं होते, जैसे सारे लोग योग्य नहीं होते, वैसे ही सभी संतत्व की प्राप्ति में लगे हुए लोग पूर्ण संत नहीं होते। संतत्व आंशिक रूप से आता है, कुछ मात्रा में आता है, आंशिक रूप से आ जाता है, तो भी संत सम्मानित हो जाते हैं।
आजकल संतत्व लांछित हो रहा है, संतों को जो काम करना चाहिए, नित्य अनुष्ठान, संयम, नियम, तप का जो उपक्रम होना चाहिए, वह अब नहीं हो रहा है। संतों को जो काम करने चाहिए, उसमें काफी गिरावट आई है। त्रेता में भी गिरावट आई, कुछ द्वापर में आई और कलयुग में भी गिरावट हुई। इसलिए समाज भी लांछित हो रहे हैं, क्योंकि संतत्व कम हुआ है। संतत्व की प्राप्ति में लगे हर व्यक्ति को देखकर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। अनेक प्रयासरत संतों को देखकर लोगों को लगता है कि अब संत नहीं होते, अब संतों का जीवन सात्विक नहीं रहता। आज ऐसे संत बहुत कम हैं, जिन्हें खाने-पीने, धन की चिंता नहीं है, जिन्हें परिवार और अपनी जाति की चिंता नहीं है। ऐसे संत कम हैं, जिन्होंने स्वयं को संसार को समर्पित कर रखा है।
फिर भी आज समाज में संत की बड़ी उपयोगिता है। आम आदमी में विकार होता है, अपनी कमाई का थोड़ा धर्म पर खर्च करता है, लेकिन सच्चा संत जो भी कमाता है, उसे पूरा का पूरा समाज पर खर्च कर देता है। संत और आम आदमी में यही फर्क है, संत जो भी कमाता है, उसे पूरा खर्च कर सकता है, लेकिन आम आदमी बचत के बारे में सोचता है। कई संत तो कर्ज लेकर भी समाज का भला करते हैं, क्योंकि समाज के कार्य जरूरी हैं। अच्छे संत अपने ऊपर पैसे खर्च नहीं करते। आम आदमी जो भी बल हो, ज्ञान हो, प्रभाव हो, उसका उपयोग अपने लिए, अपने लोगों, अपने परिवार के लिए, अपने सम्बंधियों के लिए करता है और संत का जो स्वभाव है, संत की जो आंतरिक कमाई है, उसे वह संपूर्ण समाज के लिए खर्च करता है। कहीं से उसमें यह भावना नहीं होती कि ये हमारी जाति के हैं, हमारे संपर्क वाले हैं, हमारे सम्बंधी हैं, हमारी भाषा के हैं। जितने जुड़ाव हैं, उन सबसे अलग हटकर संत अपने जीवन को समाज-संसार के लिए अर्पित कर देता है। निश्चित रूप से संसार की जो स्थिति आज है, यदि संतों को घटा दिया जाए, तो लोगों को अच्छा जीवन जीने की कला ही नहीं आएगी।
संत प्रयोगशाला भी होते थे और कारखाना भी। संत लेबोरेटरी भी होते थे और फैक्ट्री भी। संत श्रेष्ठ भावों की प्रयोगशाला होते थे, वे स्वयं में अच्छे मूल्यों का प्रयोग करते थे और दूसरों को भी इसके लिए तैयार करते थे। दूसरों में भी सफल प्रयुक्त-उपयोगी भावों को डालना संतों का ही काम होता है।
महर्षि विश्वामित्र जी के जीवन में ऐसा प्रसंग आता है कि वे जब राजा थे, तब वशिष्ठ जी से पवित्र गऊ कामधेनु पुत्री नन्दिनी मांग रहे थे। जब वे सेना के माध्यम से गाय ले जाने लगे, तब नन्दिनी ने वशिष्ठ से पूछा कि क्या मैं बचने-छूटने का प्रयास करूं। वशिष्ठ जी ने कहा कि करो। नन्दिनी ने तत्काल विशाल सेना को जन्म दिया और विश्वामित्र की सेना पराजित होकर लौटने को मजबूर हो गई। विश्वामित्र ने अनेक प्रकार से वशिष्ठ को कष्ट दिए, उनके पुत्रों को भी मार दिया, लेकिन वशिष्ठ जी कुछ नहीं बोले, कहीं कोई आक्रोष नहीं, विद्वेष नहीं। साधु ऐसे ही होते हैं। इसका प्रभाव विश्वामित्र जी पर पड़ा, वे समझ गए कि राजाओं से भी अधिक शक्ति व महानता साधुओं-ऋषियों के पास है और उन्होंने भी तप-जप-नियम से स्वयं को ब्रह्मर्षि बना लिया। क्रमशः
कौन कितना बड़ा संत है, यह कैसे तय होगा? संत ने ईश्वरीयता को कहां तक प्राप्त किया है और कहां तक प्राप्त नहीं किया है, इससे ही संत के बड़े या छोटे होने का निर्धारण होगा। जिसको ज्ञान नहीं है, वैराग्य, निष्ठा, प्रेम नहीं है, वो संत कैसे बनेगा? कभी भी किसी भी काल में सभी लोग पूर्णत: संतत्व को प्राप्प्त नहीं होते हैं। जो ईश्वरीय कण है, वह सभी में नहीं आता। जैसे सभी लोग वैज्ञानिक नहीं होते, सभी लोग अच्छे खिलाड़ी नहीं होते, सभी लोग बड़े विद्वान नहीं होते, जैसे सभी लोग बलशाली नहीं होते, जैसे सारे लोग योग्य नहीं होते, वैसे ही सभी संतत्व की प्राप्ति में लगे हुए लोग पूर्ण संत नहीं होते। संतत्व आंशिक रूप से आता है, कुछ मात्रा में आता है, आंशिक रूप से आ जाता है, तो भी संत सम्मानित हो जाते हैं।
आजकल संतत्व लांछित हो रहा है, संतों को जो काम करना चाहिए, नित्य अनुष्ठान, संयम, नियम, तप का जो उपक्रम होना चाहिए, वह अब नहीं हो रहा है। संतों को जो काम करने चाहिए, उसमें काफी गिरावट आई है। त्रेता में भी गिरावट आई, कुछ द्वापर में आई और कलयुग में भी गिरावट हुई। इसलिए समाज भी लांछित हो रहे हैं, क्योंकि संतत्व कम हुआ है। संतत्व की प्राप्ति में लगे हर व्यक्ति को देखकर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। अनेक प्रयासरत संतों को देखकर लोगों को लगता है कि अब संत नहीं होते, अब संतों का जीवन सात्विक नहीं रहता। आज ऐसे संत बहुत कम हैं, जिन्हें खाने-पीने, धन की चिंता नहीं है, जिन्हें परिवार और अपनी जाति की चिंता नहीं है। ऐसे संत कम हैं, जिन्होंने स्वयं को संसार को समर्पित कर रखा है।
फिर भी आज समाज में संत की बड़ी उपयोगिता है। आम आदमी में विकार होता है, अपनी कमाई का थोड़ा धर्म पर खर्च करता है, लेकिन सच्चा संत जो भी कमाता है, उसे पूरा का पूरा समाज पर खर्च कर देता है। संत और आम आदमी में यही फर्क है, संत जो भी कमाता है, उसे पूरा खर्च कर सकता है, लेकिन आम आदमी बचत के बारे में सोचता है। कई संत तो कर्ज लेकर भी समाज का भला करते हैं, क्योंकि समाज के कार्य जरूरी हैं। अच्छे संत अपने ऊपर पैसे खर्च नहीं करते। आम आदमी जो भी बल हो, ज्ञान हो, प्रभाव हो, उसका उपयोग अपने लिए, अपने लोगों, अपने परिवार के लिए, अपने सम्बंधियों के लिए करता है और संत का जो स्वभाव है, संत की जो आंतरिक कमाई है, उसे वह संपूर्ण समाज के लिए खर्च करता है। कहीं से उसमें यह भावना नहीं होती कि ये हमारी जाति के हैं, हमारे संपर्क वाले हैं, हमारे सम्बंधी हैं, हमारी भाषा के हैं। जितने जुड़ाव हैं, उन सबसे अलग हटकर संत अपने जीवन को समाज-संसार के लिए अर्पित कर देता है। निश्चित रूप से संसार की जो स्थिति आज है, यदि संतों को घटा दिया जाए, तो लोगों को अच्छा जीवन जीने की कला ही नहीं आएगी।
संत प्रयोगशाला भी होते थे और कारखाना भी। संत लेबोरेटरी भी होते थे और फैक्ट्री भी। संत श्रेष्ठ भावों की प्रयोगशाला होते थे, वे स्वयं में अच्छे मूल्यों का प्रयोग करते थे और दूसरों को भी इसके लिए तैयार करते थे। दूसरों में भी सफल प्रयुक्त-उपयोगी भावों को डालना संतों का ही काम होता है।
महर्षि विश्वामित्र जी के जीवन में ऐसा प्रसंग आता है कि वे जब राजा थे, तब वशिष्ठ जी से पवित्र गऊ कामधेनु पुत्री नन्दिनी मांग रहे थे। जब वे सेना के माध्यम से गाय ले जाने लगे, तब नन्दिनी ने वशिष्ठ से पूछा कि क्या मैं बचने-छूटने का प्रयास करूं। वशिष्ठ जी ने कहा कि करो। नन्दिनी ने तत्काल विशाल सेना को जन्म दिया और विश्वामित्र की सेना पराजित होकर लौटने को मजबूर हो गई। विश्वामित्र ने अनेक प्रकार से वशिष्ठ को कष्ट दिए, उनके पुत्रों को भी मार दिया, लेकिन वशिष्ठ जी कुछ नहीं बोले, कहीं कोई आक्रोष नहीं, विद्वेष नहीं। साधु ऐसे ही होते हैं। इसका प्रभाव विश्वामित्र जी पर पड़ा, वे समझ गए कि राजाओं से भी अधिक शक्ति व महानता साधुओं-ऋषियों के पास है और उन्होंने भी तप-जप-नियम से स्वयं को ब्रह्मर्षि बना लिया। क्रमशः
साधु, तुझको क्या हुआ?
भाग - ४
कबीरदास जी की एक कथा है। वे एक दिन बैठकर राम-राम भजन कर रहे थे, तभी एक आदमी भागता हुआ आया और बोला, 'मुझे बचाओ, कोई मुझे हथियार लेकर मारने के लिए दौड़ा रहा है। बोल रहा है कि मार दूंगा, आप मुझे बचाओ।
पास ही रुई का ढेर था, कबीरदास जी ने कहा, 'जाओ, उसमें छिप जाओ।
वह व्यक्ति बहुत डरा हुआ था, बिना विचार किये वह तत्काल जाकर रुई के ढेर में छिप गया। इसके कुछ ही पल बाद तलवार लिए एक आदमी आया, उसने पूछा, 'यहां एक आदमी दौड़ता हुआ आया था क्या?
कबीरदास जी ने कहा, 'हां, इसी ढेर में छिपा हुआ है।
हमला करने आए व्यक्ति ने कहा, 'मुझे मूर्ख बना रहे हो, जिसे मौत का भय होगा, वह रुई के ढेर में छिपेगा क्या? उसमें तो मारना बहुत आसान है, रुई में तो कोई आग लगा देगा, तो छिपा बैठा आदमी मर जाएगा। तलवार से बचना है, तो व्यक्ति कहीं और छिपेगा। वह सोचेगा कि किसी भी तरह से सुरक्षा हो जाए, यह संभव नहीं है कि कोई रुई में छिपे।
कबीरदास जी ने कहा, 'मैं कह रहा हूं कि वह यहीं छिपा है।
हमलावर व्यक्ति को विश्वास नहीं हुआ, वह बुरा-भला कहते आगे बढ़ गया। उसके जाने के कुछ देर बाद रुई में छिपा व्यक्ति बाहर निकला। उसने कबीरदास जी से कहा, 'आप बाबा बड़े ढोंगी हो, आपने मुझे छिपाया और वह आया, तो आपने उसे भी बता दिया कि इसी में छिपा है, आप तो ढोंगी हैं, आप तो जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, मैं तो भाग्य से बच गया।
कबीरदास जी ने कहा, 'मैंने तुम्हें रुई से नहीं ढका था, मैंने तुम्हें सत्य से ढका था, सत्य पर कोई तलवार काम नहीं करती। तुम छिपे थे, मैं संत हूं, मैंने ही छिपाया था, मैंने ही कहा कि आप मार दीजिए, लेकिन सत्य इतना मजबूत है कि उस हमलावर को विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे रुई समझ रहा था और मैं सत्य समझ रहा था।
तो संत लोग अपने प्रत्येक व्यवहार को सत्यतापूर्वक चलाते हैं। संयम, वैराग्य की इच्छा से अपना पूरा जीवन चलाते हैं और समाज में ऐसे श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करते हैं, जिन मूल्यों के कारण मनुष्य मनुष्यता वाला बन जाता है, जिसके कारण मनुष्य देवता तक बन जाता है, चंद्रमा बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र बन जाता है।
दुनिया के दूसरे देशों में भी संत हुए, लेकिन जितनी समृद्ध परंपरा संतों की भारत में रही है, वैसी कहीं नहीं रही। कल भी नहीं थी और आज भी नहीं है और कल भी नहीं रहेगी। यहां संतत्व की प्राप्ति का बड़ा राजमार्ग था, इस राजमार्ग पर चलकर असंख्य लोग संतत्व को प्राप्त करते थे। इस मार्ग पर चलना है, यह ईश्वरीय मार्ग है, यह खाने-कमाने का मार्ग नहीं है। कहीं भी रहकर संतत्व को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी कमरे में किसी भी क्षेत्र में, भाषा, जाति, समाज, आयु में रहकर संत बना जा सकता है।
रोम-रोम से जैसे ईश्वर का जीवन होता है, वैसे ही संत का जीवन होना चाहिए, कहीं कोई बुराई नहीं, वासना नहीं, कहीं कोई राग, विद्वेष नहीं। कोई दुर्गण उनमें नहीं है, ये लोग घूम-घूमकर संस्कारों का प्रचार करते हैं, असंख्य लोगों को मंगलमय जीवन देते हैं, पूर्ण विश्राम का जीवन देते हैं। अद्भुत जीवन है उनका। ऐसी ही देश में एक लंबी परंपरा चली है, संतत्व जो है, वह सतयुग में भी वैसा ही था, त्रेता में भी और द्वापर में भी ऐसा ही और कलयुग में भी ऐसा ही है। क्रमशः
कबीरदास जी की एक कथा है। वे एक दिन बैठकर राम-राम भजन कर रहे थे, तभी एक आदमी भागता हुआ आया और बोला, 'मुझे बचाओ, कोई मुझे हथियार लेकर मारने के लिए दौड़ा रहा है। बोल रहा है कि मार दूंगा, आप मुझे बचाओ।
पास ही रुई का ढेर था, कबीरदास जी ने कहा, 'जाओ, उसमें छिप जाओ।
वह व्यक्ति बहुत डरा हुआ था, बिना विचार किये वह तत्काल जाकर रुई के ढेर में छिप गया। इसके कुछ ही पल बाद तलवार लिए एक आदमी आया, उसने पूछा, 'यहां एक आदमी दौड़ता हुआ आया था क्या?
कबीरदास जी ने कहा, 'हां, इसी ढेर में छिपा हुआ है।
हमला करने आए व्यक्ति ने कहा, 'मुझे मूर्ख बना रहे हो, जिसे मौत का भय होगा, वह रुई के ढेर में छिपेगा क्या? उसमें तो मारना बहुत आसान है, रुई में तो कोई आग लगा देगा, तो छिपा बैठा आदमी मर जाएगा। तलवार से बचना है, तो व्यक्ति कहीं और छिपेगा। वह सोचेगा कि किसी भी तरह से सुरक्षा हो जाए, यह संभव नहीं है कि कोई रुई में छिपे।
कबीरदास जी ने कहा, 'मैं कह रहा हूं कि वह यहीं छिपा है।
हमलावर व्यक्ति को विश्वास नहीं हुआ, वह बुरा-भला कहते आगे बढ़ गया। उसके जाने के कुछ देर बाद रुई में छिपा व्यक्ति बाहर निकला। उसने कबीरदास जी से कहा, 'आप बाबा बड़े ढोंगी हो, आपने मुझे छिपाया और वह आया, तो आपने उसे भी बता दिया कि इसी में छिपा है, आप तो ढोंगी हैं, आप तो जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, मैं तो भाग्य से बच गया।
कबीरदास जी ने कहा, 'मैंने तुम्हें रुई से नहीं ढका था, मैंने तुम्हें सत्य से ढका था, सत्य पर कोई तलवार काम नहीं करती। तुम छिपे थे, मैं संत हूं, मैंने ही छिपाया था, मैंने ही कहा कि आप मार दीजिए, लेकिन सत्य इतना मजबूत है कि उस हमलावर को विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे रुई समझ रहा था और मैं सत्य समझ रहा था।
तो संत लोग अपने प्रत्येक व्यवहार को सत्यतापूर्वक चलाते हैं। संयम, वैराग्य की इच्छा से अपना पूरा जीवन चलाते हैं और समाज में ऐसे श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करते हैं, जिन मूल्यों के कारण मनुष्य मनुष्यता वाला बन जाता है, जिसके कारण मनुष्य देवता तक बन जाता है, चंद्रमा बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र बन जाता है।
दुनिया के दूसरे देशों में भी संत हुए, लेकिन जितनी समृद्ध परंपरा संतों की भारत में रही है, वैसी कहीं नहीं रही। कल भी नहीं थी और आज भी नहीं है और कल भी नहीं रहेगी। यहां संतत्व की प्राप्ति का बड़ा राजमार्ग था, इस राजमार्ग पर चलकर असंख्य लोग संतत्व को प्राप्त करते थे। इस मार्ग पर चलना है, यह ईश्वरीय मार्ग है, यह खाने-कमाने का मार्ग नहीं है। कहीं भी रहकर संतत्व को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी कमरे में किसी भी क्षेत्र में, भाषा, जाति, समाज, आयु में रहकर संत बना जा सकता है।
रोम-रोम से जैसे ईश्वर का जीवन होता है, वैसे ही संत का जीवन होना चाहिए, कहीं कोई बुराई नहीं, वासना नहीं, कहीं कोई राग, विद्वेष नहीं। कोई दुर्गण उनमें नहीं है, ये लोग घूम-घूमकर संस्कारों का प्रचार करते हैं, असंख्य लोगों को मंगलमय जीवन देते हैं, पूर्ण विश्राम का जीवन देते हैं। अद्भुत जीवन है उनका। ऐसी ही देश में एक लंबी परंपरा चली है, संतत्व जो है, वह सतयुग में भी वैसा ही था, त्रेता में भी और द्वापर में भी ऐसा ही और कलयुग में भी ऐसा ही है। क्रमशः
साधु, तुझको क्या हुआ?
भाग - ३
ईसा मसीह को भी संत का दर्जा प्राप्त है, उन्होंने भी संसार को अपने जीवन से धन्य बनाया। यह परंपरा संसार में अनादि है, जैसे संसार अनादि है, जैसे ईश्वरीय व्यवस्था, उसके संस्कार अनादि हैं। इस संसार का तो यह पता ही नहीं है कि यह कब बना। कर्मों के आधार पर लोगों ने उसे विकसित किया है। केवल बच्चा जन्म देने से बच्चा पवित्र जीवन का नहीं हो जाता, उसके पालन-पोषण में उच्चता होनी चाहिए, उसे पढ़ाना, शब्दों का ज्ञान कराना, ज्ञान देना, यह प्रक्रिया लंबी चलती है और जीवन भर चलती रहती है।
ईश्वर ने संसार को बनाकर छोड़ दिया होता, यदि ऋषियों, संतों, विद्वानों का सृजन नहीं हुआ होता, तो संसार वहीं का वहीं पड़ा रहता। जैसे वेदों ने कहा कि सत्य बोलना चाहिए, सत्यम वद्। वेदों के माध्यम से ईश्वर ने यह बोल दिया, लेकिन वह हर व्यक्ति के पास आकर यह नहीं बोल सकता कि आप सत्य बोलिए, भगवान कितना समय कितने लोगों के साथ बिता सकते हैं, इसीलिए शास्त्रों की रचना हुई, शास्त्रों का अनुसरण करके संतों ने अपने जीवन को अच्छा व धन्य बनाया। संसार में अनेक संतों का प्रादिर्भाव हुआ, न जाने कितने संतों ने संतत्व के विकास के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। संयम, नियम से सज्जित जीवन के माध्यम से ऊंचाई को प्राप्त किया। उन्होंने बार-बार बताया कि मेरा जीवन अपने लिए ही नहीं है, संपूर्ण संसार के लिए है। जैसे सूर्य अपने लिए नहीं उगता, जैसे चांद अपने लिए नहीं उगता, जैसे नदियां अपने लिए नहीं बहतीं, आकाश अपने लिए ही आवागमन की सुविधा नहीं देता, ठीक उसी तरह से संत का जीवन भी दूसरों के लिए है। संत, मुनि जीवन के लोग अपने जीवन को समाज के लिए पूर्णत: समर्पित कर देते हैं, उनमें अपना स्व कुछ नहीं होता, उनमें अपने भोग की भावना नहीं होती। कहीं भी वे शक्ति नष्ट नहीं करते, मन में कटुता नहीं आती। एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, संपूर्ण जीवन वे ऐसा ही करते चलते हैं। केवल ईश्वरीय भावों को, सर्वश्रेष्ठ भावों को सबको बांटना है। सर्वश्रेष्ठ भावों को अपने जीवन में उतारकर उसका प्रयोग सबको बताना है। कोई भेदभाव नहीं करना है, न जाति का भेदभाव, न क्षेत्र का, न भाषा का, हमें तो बस अच्छी बातें बतलाना है, लोगों को सुशिक्षित बनाना है, सत्य बोलना है और लोगों से बोलवाना है।
सत्य में जो प्रतिष्ठित होता है, वह यदि किसी पापी को भी बोल दे कि तुम स्वर्ग जाओगे, तो पापी को स्वर्ग मिल जाता है, ऐसा योग दर्शन में कहा गया है।
इसमें पैसा नहीं लगता, इसके लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय में डिग्री लेने की जरूरत नहीं है, अखाड़े में जाने की जरूरत नहीं, मैदान में जाने की जरूरत नहीं है, जो जहां पर है, वहीं पर जो ज्ञान हुआ है, जो वस्तु जैसी है, उसका ध्यान करे और उसी के अनुरूप बोले। संसार की बहुत बड़ी समस्या का समाधान केवल सत्य बोलने से हो जाएगा और यही काम संत लोग सदा से करते रहे हैं। क्रमशः
ईसा मसीह को भी संत का दर्जा प्राप्त है, उन्होंने भी संसार को अपने जीवन से धन्य बनाया। यह परंपरा संसार में अनादि है, जैसे संसार अनादि है, जैसे ईश्वरीय व्यवस्था, उसके संस्कार अनादि हैं। इस संसार का तो यह पता ही नहीं है कि यह कब बना। कर्मों के आधार पर लोगों ने उसे विकसित किया है। केवल बच्चा जन्म देने से बच्चा पवित्र जीवन का नहीं हो जाता, उसके पालन-पोषण में उच्चता होनी चाहिए, उसे पढ़ाना, शब्दों का ज्ञान कराना, ज्ञान देना, यह प्रक्रिया लंबी चलती है और जीवन भर चलती रहती है।
ईश्वर ने संसार को बनाकर छोड़ दिया होता, यदि ऋषियों, संतों, विद्वानों का सृजन नहीं हुआ होता, तो संसार वहीं का वहीं पड़ा रहता। जैसे वेदों ने कहा कि सत्य बोलना चाहिए, सत्यम वद्। वेदों के माध्यम से ईश्वर ने यह बोल दिया, लेकिन वह हर व्यक्ति के पास आकर यह नहीं बोल सकता कि आप सत्य बोलिए, भगवान कितना समय कितने लोगों के साथ बिता सकते हैं, इसीलिए शास्त्रों की रचना हुई, शास्त्रों का अनुसरण करके संतों ने अपने जीवन को अच्छा व धन्य बनाया। संसार में अनेक संतों का प्रादिर्भाव हुआ, न जाने कितने संतों ने संतत्व के विकास के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। संयम, नियम से सज्जित जीवन के माध्यम से ऊंचाई को प्राप्त किया। उन्होंने बार-बार बताया कि मेरा जीवन अपने लिए ही नहीं है, संपूर्ण संसार के लिए है। जैसे सूर्य अपने लिए नहीं उगता, जैसे चांद अपने लिए नहीं उगता, जैसे नदियां अपने लिए नहीं बहतीं, आकाश अपने लिए ही आवागमन की सुविधा नहीं देता, ठीक उसी तरह से संत का जीवन भी दूसरों के लिए है। संत, मुनि जीवन के लोग अपने जीवन को समाज के लिए पूर्णत: समर्पित कर देते हैं, उनमें अपना स्व कुछ नहीं होता, उनमें अपने भोग की भावना नहीं होती। कहीं भी वे शक्ति नष्ट नहीं करते, मन में कटुता नहीं आती। एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, संपूर्ण जीवन वे ऐसा ही करते चलते हैं। केवल ईश्वरीय भावों को, सर्वश्रेष्ठ भावों को सबको बांटना है। सर्वश्रेष्ठ भावों को अपने जीवन में उतारकर उसका प्रयोग सबको बताना है। कोई भेदभाव नहीं करना है, न जाति का भेदभाव, न क्षेत्र का, न भाषा का, हमें तो बस अच्छी बातें बतलाना है, लोगों को सुशिक्षित बनाना है, सत्य बोलना है और लोगों से बोलवाना है।
सत्य में जो प्रतिष्ठित होता है, वह यदि किसी पापी को भी बोल दे कि तुम स्वर्ग जाओगे, तो पापी को स्वर्ग मिल जाता है, ऐसा योग दर्शन में कहा गया है।
इसमें पैसा नहीं लगता, इसके लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय में डिग्री लेने की जरूरत नहीं है, अखाड़े में जाने की जरूरत नहीं, मैदान में जाने की जरूरत नहीं है, जो जहां पर है, वहीं पर जो ज्ञान हुआ है, जो वस्तु जैसी है, उसका ध्यान करे और उसी के अनुरूप बोले। संसार की बहुत बड़ी समस्या का समाधान केवल सत्य बोलने से हो जाएगा और यही काम संत लोग सदा से करते रहे हैं। क्रमशः
साधु, तुझको क्या हुआ?
भाग - २
ईश्वर ने अपने प्रतिनिधि के रूप में संतों को भेजा है। जैसे लोकतंत्र प्रतिनिधि तंत्र है, ठीक उसी तरह से संतों का समाज भी ईश्वर का प्रतिनिधि तंत्र है। उसके सभी उद्देश्यों, सभी इच्छाओं, सभी लीलाओं, क्रियाओं, सभी व्यवस्थाओं को संत जन समाज कल्याण के लिए प्रयुक्त करते हैं। संत स्वयं को केवल समाज के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए, केवल मानवता के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण प्राणियों के लिए समर्पित कर सबके विकास को गति देते हैं।
संसार में साधुओं, संतों का बड़ा काम है। संतों ने मानव समाजों को ईश्वरीय ज्ञान से जोड़ा, संस्कारों से जोड़ा, जीवन जीने की कला से जोड़ा है। विकास की तमाम क्रियाओं से जोड़ा है और सबकुछ इतना अच्छा किया कि पूरा संसार उनकी ओर देखता है। ऐसे बड़े कामों के लिए, लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए संत का बड़ा अच्छा और वैसा ही सही स्वरूप होना चाहिए, जैसे ईश्वर के किसी प्रतिनिधि का होना चाहिए।
आज यह हमें जानना होगा कि संत का सही स्वरूप क्या होता है। जब वह अपने ज्ञान द्वारा ईश्वर को समझ लेता है, अपनी भक्ति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, अपनी शरणागति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है और उसके गुणों से युक्त हो जाता है, जब उसी तरह से अपने संपूर्ण जीवन को संसार का जीवन बना लेता है, जब अपनी संपूर्ण इच्छाओं को संसार की इच्छाओं में डालकर विकास के लिए प्रयास करता है, तमाम उपयोगी विविधिताओं में गुणों को डालकर उनके विकास के लिए प्रयास करता है, तब उसको सही संत का दर्जा प्राप्त होता है। तभी वह संसार में संत के रूप में सार्थक होता है। उसका सम्बंध केवल वस्त्र-आभूषण से नहीं है, किसी एक पंथ या संप्रदाय से नहीं है, बाहरी आडंबरों से नहीं है। वास्तव में आंतरिक उत्कर्ष ही संतत्व का लक्षण है। यह उत्कर्ष उसकी क्रियाओं में प्रकट होता है, यह संत की सबसे बड़ी पहचान है। संत का कर्म कभी स्वार्थ के अनुरूप नहीं होता, हमेशा परमार्थ के अनुरूप होता है।
आज लोगों को भी यह देखना होगा कि संत का केन्द्रीकरण कहाँ है, कहां के लिए वह अपने जीवन को लगा रहा है, किसी काम के लिए स्वयं को थका रहा है, किस उद्देश्य के लिए जीवन व्यतीत कर रहा है, उसके जीवन का परम लक्ष्य कहां है। निस्संदेह, संत का उद्देश्य सम्पूर्ण संसार के लिए होना चाहिए। वह यह चाहता है कि सभी लोगों को महा-आनंद मिल जाए, सभी लोग सुखी हो जाएं, यदि कोई ऐसा चाहता है और इसके लिए प्रयास करता है, तो वैदिक सनातन धर्म में उसे संत कहा गया है।
केवल सनातन धर्म में ही नहीं, दूसरी परंपराओं में भी अच्छे संत हुए हैं। हम कभी यह नहीं मानते की संत केवल भारतीय समाज में हुए। मुसलमानों में भी एक बड़ी धारा सूफियों की रही, जिनका जीवन बहुत अच्छा था, जिनमें सत्ता लोभ नहीं था, भोग नहीं था, जो तपस्या से रहते थे, बहुत त्याग से रहते थे, उनमें दान पाने के लिए उतावलापन नहीं था। ऐसे ज्ञान से प्रेरित होकर मुस्लिम धर्म में भी अनेक संत हुए। अपूर्व शक्ति और स्थान उन्होंने प्राप्त किया। न जाने कितने लोगों के जीवन को सुधारा। जो सही मायने में जीवन का चरम है, वे वहां पहुंच गए। क्रमशः
ईश्वर ने अपने प्रतिनिधि के रूप में संतों को भेजा है। जैसे लोकतंत्र प्रतिनिधि तंत्र है, ठीक उसी तरह से संतों का समाज भी ईश्वर का प्रतिनिधि तंत्र है। उसके सभी उद्देश्यों, सभी इच्छाओं, सभी लीलाओं, क्रियाओं, सभी व्यवस्थाओं को संत जन समाज कल्याण के लिए प्रयुक्त करते हैं। संत स्वयं को केवल समाज के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए, केवल मानवता के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण प्राणियों के लिए समर्पित कर सबके विकास को गति देते हैं।
संसार में साधुओं, संतों का बड़ा काम है। संतों ने मानव समाजों को ईश्वरीय ज्ञान से जोड़ा, संस्कारों से जोड़ा, जीवन जीने की कला से जोड़ा है। विकास की तमाम क्रियाओं से जोड़ा है और सबकुछ इतना अच्छा किया कि पूरा संसार उनकी ओर देखता है। ऐसे बड़े कामों के लिए, लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए संत का बड़ा अच्छा और वैसा ही सही स्वरूप होना चाहिए, जैसे ईश्वर के किसी प्रतिनिधि का होना चाहिए।
आज यह हमें जानना होगा कि संत का सही स्वरूप क्या होता है। जब वह अपने ज्ञान द्वारा ईश्वर को समझ लेता है, अपनी भक्ति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, अपनी शरणागति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है और उसके गुणों से युक्त हो जाता है, जब उसी तरह से अपने संपूर्ण जीवन को संसार का जीवन बना लेता है, जब अपनी संपूर्ण इच्छाओं को संसार की इच्छाओं में डालकर विकास के लिए प्रयास करता है, तमाम उपयोगी विविधिताओं में गुणों को डालकर उनके विकास के लिए प्रयास करता है, तब उसको सही संत का दर्जा प्राप्त होता है। तभी वह संसार में संत के रूप में सार्थक होता है। उसका सम्बंध केवल वस्त्र-आभूषण से नहीं है, किसी एक पंथ या संप्रदाय से नहीं है, बाहरी आडंबरों से नहीं है। वास्तव में आंतरिक उत्कर्ष ही संतत्व का लक्षण है। यह उत्कर्ष उसकी क्रियाओं में प्रकट होता है, यह संत की सबसे बड़ी पहचान है। संत का कर्म कभी स्वार्थ के अनुरूप नहीं होता, हमेशा परमार्थ के अनुरूप होता है।
आज लोगों को भी यह देखना होगा कि संत का केन्द्रीकरण कहाँ है, कहां के लिए वह अपने जीवन को लगा रहा है, किसी काम के लिए स्वयं को थका रहा है, किस उद्देश्य के लिए जीवन व्यतीत कर रहा है, उसके जीवन का परम लक्ष्य कहां है। निस्संदेह, संत का उद्देश्य सम्पूर्ण संसार के लिए होना चाहिए। वह यह चाहता है कि सभी लोगों को महा-आनंद मिल जाए, सभी लोग सुखी हो जाएं, यदि कोई ऐसा चाहता है और इसके लिए प्रयास करता है, तो वैदिक सनातन धर्म में उसे संत कहा गया है।
केवल सनातन धर्म में ही नहीं, दूसरी परंपराओं में भी अच्छे संत हुए हैं। हम कभी यह नहीं मानते की संत केवल भारतीय समाज में हुए। मुसलमानों में भी एक बड़ी धारा सूफियों की रही, जिनका जीवन बहुत अच्छा था, जिनमें सत्ता लोभ नहीं था, भोग नहीं था, जो तपस्या से रहते थे, बहुत त्याग से रहते थे, उनमें दान पाने के लिए उतावलापन नहीं था। ऐसे ज्ञान से प्रेरित होकर मुस्लिम धर्म में भी अनेक संत हुए। अपूर्व शक्ति और स्थान उन्होंने प्राप्त किया। न जाने कितने लोगों के जीवन को सुधारा। जो सही मायने में जीवन का चरम है, वे वहां पहुंच गए। क्रमशः
Sunday, 9 November 2014
साधु, तुझको क्या हुआ?
(जगदगुरु महाराज के प्रवचन से)
संसार में आकार, प्रकार, स्वभाव की अथाह विविधता है, जहां चौरासी लाख योनियों की चर्चा की जाती है। चौरासी लाख योनियों के संपूर्ण निर्माण का जो श्रेय है, सनातन धर्म के अनुसार, सृष्टि जहां भी हो, जैसी भी हो, इस संपूर्ण सृष्टि का निर्माता ईश्वर ही है। ईश्वर द्वारा ही संसार में सारे निर्माण हो रहे हैं। जिन्हें आज के आधुनिक निर्माण कहा जाता है, वो निर्माण भी उसी ईश्वर के बनाए हुए पदार्थों को ही जोड़-तोड़कर हो रहे हैं। अनुसंधान हो रहे हैं, वस्तुएं बन रही हैं, उपयोगी पदार्थ बन रहे हैं, लेकिन उसक जो मूल है, उसक जो प्रारंभ है, वह तो ईश्वर ही है। इतनी बड़ी सृष्टि का संपादन कोई मनुष्य नहीं कर सकता - न समुद्र का, न हिमालय का, न आकाश का, न पृथ्वी का, न वायु का, न ग्रह-नक्षत्र का। इसलिए यह माना गया है और इसको बार-बार वेदों ने, पुराणों ने, स्मृतियों में दोहराया गया है कि संसार को ईश्वर ही बनाता है और वही उसका पालन करता है, वही उसका पोषण करता है। उसको सुन्दर बनाता है, उपयोगी बनाता है, उसे सुदृढ़ बनाता है और जब कभी उसे लगता है कि अनिवार्य है, तो उस चीज को अपने में समाहित कर लेना है, इसी को संहार कहते हैं। ईश्वर अपनी तरह से सुधार करता है। जैसे राज प्रथा की जो विकृतियां थीं, उनमें से बहुत-सी विकृतियों से समाज को छुटकारा मिला। उसकी तुलना में लोकतंत्र में बहुत-सी अच्छाइयां हैं, जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। वैसे ही संसार को बनाकर ईश्वर ने वेदों, शास्त्रों के रूप में नियम-कानून भी बनाए कि जीवन में कैसे चलना है, कैसे रहना है, किस तरह से विकास होगा, किस तरह से व्यक्ति सही रहेगा। संपूर्ण नियम-कानून उसने बनाए और उसी आधार पर संसार को अच्छाई की ओर ले जाने का सही मार्गदर्शन किया।
कहीं कोई आदमी भटक रहा है, तो उसके दोषों को दूर करके सही रास्ते पर लाने का, कोई और अधिक उन्नति करना चाहता है, तो उसका भी मार्गदर्शन करने का। सहायक साधनों को देकर आगे बढ़ाने का, इस तरह हर सही उपाय किये गए। प्रेरित किया कि अपने दायरे में सभी परम शक्ति या सुप्रीम पावर से जुड़ें। आज यह होना कठिन लगता है, लेकिन राजतंत्र हो या लोकतंत्र या कोई अन्य तंत्र हो, परम शक्ति से सभी लोग सीधे जुड़कर अपना संरक्षण प्राप्त करें, अपना विकास प्राप्त करें। अपने जीवन की अच्छाइयों को प्राप्त करें, अपना जो भी कुछ जीवन के लिए अनुकूल है, उसे प्राप्त करें, यह कठिन काम है, इसलिए आज की दुनिया में लोकतंत्र की महत्ता अत्यंत सात्विक दृष्टि से सभी लोग स्वीकार करते हैं कि यह अच्छा तंत्र है। वैसे ही ईश्वर ने अपनी बातों को लोगों को समझाने के लिए, सही रास्ते पर लाने के लिए कि कैसे लोगों का विकास हो, चिंतन, शरीर, धन, ज्ञान का कैसे विकास हो, कैसे लोगों की गतिविधियों का विकास हो, उसके लिए एक प्रतिनिधि परंपरा का प्रारंभ किया, यही संत परंपरा है। जो ईश्वर की भावनाएं होती हैं, जो ईश्वर की स्थापनाएं होती हैं, जो ईश्वर के सारे उद्देश्य होते हैं, ईश्वर जिन भावनाओं से जुड़ा होता है, जिन गुणों से जुड़ा होता है, जिन अच्छाइयों से जुड़ा होता है, वो सब संतों में होती हैं। संत के जीवन में समाज भी यही खोजता है कि संत में लोभ नहीं हो, कामना-हीनता हो। समाज संत में यह देखता है कि उसमें श्रेष्ठता है या नहीं, संयम है या नहीं। संत में दूसरों की भलाई करने की भावना है या नहीं। लोग संत में सभी गुण खोजते हैं। संतों को परखा जाता है। लोग यह नहीं देखते कि संत को गाड़ी चलाना आता है या नहीं, कप्यूटर चलाना आता है या नहीं, संत को प्रबंधन चलाना आता है या नहीं। संत हैं, तो संतत्व होना चाहिए। जो गुण, जो भाव, जो उत्कर्ष, जो ग्रहणशीलता, जो विशिष्टता ईश्वर में पाई जाती है, उन सभी भावों को लोग लोकतंत्र में खोजते हैं और संतों में भी खोजते हैं। लोग जब किसी में इन गुणों को नहीं पाते हैं, तब उसे ढोंगी कहते हैं। क्रमशः
संसार में आकार, प्रकार, स्वभाव की अथाह विविधता है, जहां चौरासी लाख योनियों की चर्चा की जाती है। चौरासी लाख योनियों के संपूर्ण निर्माण का जो श्रेय है, सनातन धर्म के अनुसार, सृष्टि जहां भी हो, जैसी भी हो, इस संपूर्ण सृष्टि का निर्माता ईश्वर ही है। ईश्वर द्वारा ही संसार में सारे निर्माण हो रहे हैं। जिन्हें आज के आधुनिक निर्माण कहा जाता है, वो निर्माण भी उसी ईश्वर के बनाए हुए पदार्थों को ही जोड़-तोड़कर हो रहे हैं। अनुसंधान हो रहे हैं, वस्तुएं बन रही हैं, उपयोगी पदार्थ बन रहे हैं, लेकिन उसक जो मूल है, उसक जो प्रारंभ है, वह तो ईश्वर ही है। इतनी बड़ी सृष्टि का संपादन कोई मनुष्य नहीं कर सकता - न समुद्र का, न हिमालय का, न आकाश का, न पृथ्वी का, न वायु का, न ग्रह-नक्षत्र का। इसलिए यह माना गया है और इसको बार-बार वेदों ने, पुराणों ने, स्मृतियों में दोहराया गया है कि संसार को ईश्वर ही बनाता है और वही उसका पालन करता है, वही उसका पोषण करता है। उसको सुन्दर बनाता है, उपयोगी बनाता है, उसे सुदृढ़ बनाता है और जब कभी उसे लगता है कि अनिवार्य है, तो उस चीज को अपने में समाहित कर लेना है, इसी को संहार कहते हैं। ईश्वर अपनी तरह से सुधार करता है। जैसे राज प्रथा की जो विकृतियां थीं, उनमें से बहुत-सी विकृतियों से समाज को छुटकारा मिला। उसकी तुलना में लोकतंत्र में बहुत-सी अच्छाइयां हैं, जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। वैसे ही संसार को बनाकर ईश्वर ने वेदों, शास्त्रों के रूप में नियम-कानून भी बनाए कि जीवन में कैसे चलना है, कैसे रहना है, किस तरह से विकास होगा, किस तरह से व्यक्ति सही रहेगा। संपूर्ण नियम-कानून उसने बनाए और उसी आधार पर संसार को अच्छाई की ओर ले जाने का सही मार्गदर्शन किया।
कहीं कोई आदमी भटक रहा है, तो उसके दोषों को दूर करके सही रास्ते पर लाने का, कोई और अधिक उन्नति करना चाहता है, तो उसका भी मार्गदर्शन करने का। सहायक साधनों को देकर आगे बढ़ाने का, इस तरह हर सही उपाय किये गए। प्रेरित किया कि अपने दायरे में सभी परम शक्ति या सुप्रीम पावर से जुड़ें। आज यह होना कठिन लगता है, लेकिन राजतंत्र हो या लोकतंत्र या कोई अन्य तंत्र हो, परम शक्ति से सभी लोग सीधे जुड़कर अपना संरक्षण प्राप्त करें, अपना विकास प्राप्त करें। अपने जीवन की अच्छाइयों को प्राप्त करें, अपना जो भी कुछ जीवन के लिए अनुकूल है, उसे प्राप्त करें, यह कठिन काम है, इसलिए आज की दुनिया में लोकतंत्र की महत्ता अत्यंत सात्विक दृष्टि से सभी लोग स्वीकार करते हैं कि यह अच्छा तंत्र है। वैसे ही ईश्वर ने अपनी बातों को लोगों को समझाने के लिए, सही रास्ते पर लाने के लिए कि कैसे लोगों का विकास हो, चिंतन, शरीर, धन, ज्ञान का कैसे विकास हो, कैसे लोगों की गतिविधियों का विकास हो, उसके लिए एक प्रतिनिधि परंपरा का प्रारंभ किया, यही संत परंपरा है। जो ईश्वर की भावनाएं होती हैं, जो ईश्वर की स्थापनाएं होती हैं, जो ईश्वर के सारे उद्देश्य होते हैं, ईश्वर जिन भावनाओं से जुड़ा होता है, जिन गुणों से जुड़ा होता है, जिन अच्छाइयों से जुड़ा होता है, वो सब संतों में होती हैं। संत के जीवन में समाज भी यही खोजता है कि संत में लोभ नहीं हो, कामना-हीनता हो। समाज संत में यह देखता है कि उसमें श्रेष्ठता है या नहीं, संयम है या नहीं। संत में दूसरों की भलाई करने की भावना है या नहीं। लोग संत में सभी गुण खोजते हैं। संतों को परखा जाता है। लोग यह नहीं देखते कि संत को गाड़ी चलाना आता है या नहीं, कप्यूटर चलाना आता है या नहीं, संत को प्रबंधन चलाना आता है या नहीं। संत हैं, तो संतत्व होना चाहिए। जो गुण, जो भाव, जो उत्कर्ष, जो ग्रहणशीलता, जो विशिष्टता ईश्वर में पाई जाती है, उन सभी भावों को लोग लोकतंत्र में खोजते हैं और संतों में भी खोजते हैं। लोग जब किसी में इन गुणों को नहीं पाते हैं, तब उसे ढोंगी कहते हैं। क्रमशः
Saturday, 29 March 2014
नमोsस्तु रामाय
जगदगुरु रामानन्दाचार्य पद प्रतिष्ठा रजत जयंती महोत्सव
चैत्रीय शुक्ल प्रतिपदा से रामनवमी पर्यन्त - ३१ मार्च से ८ अप्रैल तक विशेष आयोजन। शीर्षस्थ धाम अयोध्या में बधाईगान समारोह। कार्यक्रम स्थल - श्रीरामवल्लभा कुंज, जानकी घाट, अयोध्या।
इस वृहद व पावन आयोजन में देश के नामी गायक-वादक कलाकार शामिल होंगे। राम जी की सेवा में प्रस्तुत होने वाले कलाकारों के नाम इस प्रकार हैं - रोनू मजुमदार- बांसुरी वादन, कल्पना जोगारकर-गायन, अर्णव चटर्जी - गायन, राजेश्वर आचार्य- गायन, स्वामी जीसीडी भारता- गायन, अखिलेश चतुर्वेदी-कत्थक नृत्य, देवाशीश डे-गायन, श्रीमती मालनी अवस्थी-गायन, श्रीमती कंकना बनर्जी-गायन और प्रसिद्ध संगीतकार गायक रविन्द्र जैन।
चैत्रीय शुक्ल प्रतिपदा से रामनवमी पर्यन्त - ३१ मार्च से ८ अप्रैल तक विशेष आयोजन। शीर्षस्थ धाम अयोध्या में बधाईगान समारोह। कार्यक्रम स्थल - श्रीरामवल्लभा कुंज, जानकी घाट, अयोध्या।
इस वृहद व पावन आयोजन में देश के नामी गायक-वादक कलाकार शामिल होंगे। राम जी की सेवा में प्रस्तुत होने वाले कलाकारों के नाम इस प्रकार हैं - रोनू मजुमदार- बांसुरी वादन, कल्पना जोगारकर-गायन, अर्णव चटर्जी - गायन, राजेश्वर आचार्य- गायन, स्वामी जीसीडी भारता- गायन, अखिलेश चतुर्वेदी-कत्थक नृत्य, देवाशीश डे-गायन, श्रीमती मालनी अवस्थी-गायन, श्रीमती कंकना बनर्जी-गायन और प्रसिद्ध संगीतकार गायक रविन्द्र जैन।
जय गंगा, जय नर्मदा - ७
समापन भाग
नर्मदा में मेरी आस्था का विकास हुआ, धन्यता बोध हुआ और धर्म में धारणा का विकास हुआ। सबलोग अलग-अलग होने पर किसी को कोई शिकायत नहीं थी, आरोप नहीं था, किसी ने कोई भी गलत बात नहीं की और नर्मदा परिक्रमा में लोग पैसा भी कमाते हैं, मैंने कहा था कि श्रीमठ के दो पैसे लग जाएंगे, किन्तु अपने को परिक्रमा कराकर दो रुपए भी नहीं चाहिए। जबकि हम चाहते, तो लाखों-लाखों रुपया मिल जाता। उस समय बड़ा आनंद हुआ। स्वामी रामानन्दाचार्य जी के दोनों तट पर आश्रम थे, इतने आश्रम नर्मदा के तट पर किसी दूसरी परंपरा के नहीं थे। उन सभी समूहों ने मेरी और मेरे लोगों के लिए पलक पांवड़े बिछा दिए। उत्तराधिकारी होने का मुझे लाभ मिला। स्वामी रामानन्दाचार्य का मैं उत्तराधिकारी हूं और उन्हीं की तपस्या का, उनकी परंपरा का जो प्रयास है, उसका फल हम लोगों को मिला, जो सामान हम ले गए थे, वैसे ही लेकर लौट आए। कहीं हमारी पोटली गेहूं, चावल इत्यादि की नहीं खुली। गद्दी संभालते हुए पांच प्रतिशत जो हमने भी प्रयास किया है इतने दिनों तक, इसके लिए भी जो स्वागत लोगों ने किया, मैं धन्य हो गया। यदि मेरा कोई योगदान नहीं होता, तो लोग कहते कि आप रामानन्दाचार्य हो गए, किन्तु आपने कुछ नहीं किया, किन्तु मेरा योगदान मात्र ५ प्रतिशत है। ९५ प्रतिशत से स्वामी जी का ही काम है। उनके आश्रम नर्मदा परिक्रमा के मार्ग में बिछे हुए हैं। जैसा स्वागत उन्होंने किया, वैसा स्वागत आजतक मेरा हुआ ही नहीं। जहां मैं जाता था, लगता था जैसे वनवासियों के यहां राम जी आ गए हैं और वनवासी धन्य हो रहे हैं। नर्मदा जी की कृपा से मैं भी धन्य हो गया।
महाराज के चरण में विद्वान श्री राधेश्याम धूत जी और ज्ञानेश उपाध्याय, चित्र - श्री हिमांशु व्यास जी ने लिए हैं. |
नर्मदा में मेरी आस्था का विकास हुआ, धन्यता बोध हुआ और धर्म में धारणा का विकास हुआ। सबलोग अलग-अलग होने पर किसी को कोई शिकायत नहीं थी, आरोप नहीं था, किसी ने कोई भी गलत बात नहीं की और नर्मदा परिक्रमा में लोग पैसा भी कमाते हैं, मैंने कहा था कि श्रीमठ के दो पैसे लग जाएंगे, किन्तु अपने को परिक्रमा कराकर दो रुपए भी नहीं चाहिए। जबकि हम चाहते, तो लाखों-लाखों रुपया मिल जाता। उस समय बड़ा आनंद हुआ। स्वामी रामानन्दाचार्य जी के दोनों तट पर आश्रम थे, इतने आश्रम नर्मदा के तट पर किसी दूसरी परंपरा के नहीं थे। उन सभी समूहों ने मेरी और मेरे लोगों के लिए पलक पांवड़े बिछा दिए। उत्तराधिकारी होने का मुझे लाभ मिला। स्वामी रामानन्दाचार्य का मैं उत्तराधिकारी हूं और उन्हीं की तपस्या का, उनकी परंपरा का जो प्रयास है, उसका फल हम लोगों को मिला, जो सामान हम ले गए थे, वैसे ही लेकर लौट आए। कहीं हमारी पोटली गेहूं, चावल इत्यादि की नहीं खुली। गद्दी संभालते हुए पांच प्रतिशत जो हमने भी प्रयास किया है इतने दिनों तक, इसके लिए भी जो स्वागत लोगों ने किया, मैं धन्य हो गया। यदि मेरा कोई योगदान नहीं होता, तो लोग कहते कि आप रामानन्दाचार्य हो गए, किन्तु आपने कुछ नहीं किया, किन्तु मेरा योगदान मात्र ५ प्रतिशत है। ९५ प्रतिशत से स्वामी जी का ही काम है। उनके आश्रम नर्मदा परिक्रमा के मार्ग में बिछे हुए हैं। जैसा स्वागत उन्होंने किया, वैसा स्वागत आजतक मेरा हुआ ही नहीं। जहां मैं जाता था, लगता था जैसे वनवासियों के यहां राम जी आ गए हैं और वनवासी धन्य हो रहे हैं। नर्मदा जी की कृपा से मैं भी धन्य हो गया।
जय गंगा, जय नर्मदा - ६
भाग - ६
यह जो कहा गया कि नर्मदा जी पुण्यशालिनी हैं, अद्भुत नदी हैं, यह कोई सामान्य लोगों ने नहीं कहां, महात्माओं ने कहा, जिनको दिव्य दृष्टि थी, जैसे अर्जुन को कृष्ण ने दी थी। जिन लोगों को सम्पूर्ण संयम-नियम करके गुरुकृपा, पितरों की कृपा से, ईश्वर की कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई थी, उन लोगों ने कहा। तभी तो कबीर कहते हैं - और कहें कागज की लेखी, कबीरा कहे आंखों की देखी। जो दृष्टि दी थी कृष्ण ने अर्जुन को, वही कबीर को भी उनके गुरु ने दी। सत्संग किया, पुण्य मिला। इसलिए नर्मदा और यमुना, सरस्वती, कावेरी और सरयू इत्यादि जो नदियां हैं, जिनको हम लोग पुण्य नदी कहते हैं, ये पुण्य नदियां आराध्यस्वरूपा हैं। उनका जो लौकिक पक्ष है, उसकी भी समालोचना होनी चाहिए और उनकी आध्यात्मिक समालोचना भी होनी चाहिए।
मैं आपको जीवन से जुड़ी एक घटना सुनाता हूं। मैं ऐसे ही ठहरा हुआ था, कोई सत्संग था जबलपुर में, पुलिस का पहरा लगा हुआ था, शौकिया लोगों ने पुलिस लगा रखी थी, पुलिस वाले राइफल लेकर ड्यूटी देते थे। हालांकि मुझे कोई भय नहीं था। एक रात पहरे पर लगे पुलिस वाले ने देखा कि जटा जिसकी जमीन में लग रही है, लंगोटी पहना है, हाथ में कमंडल है, एक हाथ में कुल्हाड़ी है, ऐसा एक संत आ रहा है, प्रकाश था, बड़ी-बड़ी लाइटें लगी थीं आश्रम के घाट तक, बीच में कोई मकान, दुकान नहीं था। पुलिस वाले ने सोचा कि कोई नहाने आया होगा, लेकिन समय तो २ बजे रात का था, पर नर्मदा जी में देर तक लोग नहाते हैं, जैसे-जैसे वह संत पास आते गए, उनका तेजस्वी स्वरूप पुलिस वाले को ध्वस्त करता गया, जब वो संत मेरे कमरे के करीब आ गए, तो पुलिस वाला सहन नहीं कर पाया, तेजस्वी स्वरूप को, जाकर बिस्तर पर लेट गया, बेहोश हो गया, जब ड्यूटी बदली, तो उसे उठाया गया, चार बजे ड्यूटी बदलनी थी, पांच बज गए, उसे हिलाया, जगाया, तो वह बेहोश था। पैर दबाया, पानी दिया मुंह में, अंत में उस पुलिस वाले ने आंख खोला, होश संभाला, तो कहा कि ये-ये घटना हुई, मैं सहन नहीं कर पाया, उस संत के तेज को, महाराज के कमरे के पास तक जब वो संत आ गए, तो मैंने समझा कि खड़ा रहना कठिन है, अब बिस्तर पर लेट जाना चाहिए।
यह घटना मुझे सुनाई गई। उसका चिकित्सकीय परीक्षण हुआ, वह डर गया था। आ गए महाराज जी, आ गए, वह बोलता रहता था।
नर्मदा जी के किनारे कहा जाता है कि इतने सिद्ध हैं, जिनके कमंडल भी आपस में टकराते हैं। इतने सिद्ध चलते हैं परिक्रमा में, जरा सोचिए। मैंने कहा, यह तो अद्भुत हो गया। बाद में मैंने बहुत आभार व्यक्त किया कि मैं छोटा आदमी हूं, आपकी कृपा हुई कि आपने इस तरह के महात्मा को मेरे पास भेजा। यह आभार आपका कभी नहीं भूलूंगा। ऐसी ही कृपा बनी रहे।
आपको ध्यान होगा, जबलपुर में भूकंप आया था। हम एक भंडारा करते है, वैशाख पूर्णिमा पर १२ घंटा चलता है, मैं वहां था। ३६ घंटे तक भंडार बनता रहता है, एक दिन पहले ही बनना शुरू हो जाएगा, रात्रि भर बनेगा, दिन भर बनेगा। उसका आयोजन हो रहा था, तब मैं कमरे में सो रहा था, पहले कमरा बंद नहीं किया था, बाद में लोगों ने बाहर से ताला बंद कर दिया। बीच में मैं उठा, आंख खुली, मैंने भीतर से दरवाजा बंद कर दिया। कमरा बंद करने के बाद मैं साधु वाले छोटे वेश में ही सो गया। भू-कंपन होने लगा, चौकी हिल रही थी, खूब तीव्रता के साथ, मैं समझ गया, भूकंप आ गया, प्रलयंकारी आवाज हो रही थी, मैंने सोचा, बाहर जाऊं, यदि वहीं जमीन फट जाए, तो निश्चित है मर जाऊंगा। जाने की क्या आवश्यकता है, यहीं लेटा रहता हूं, राम-राम कहता हूं, देखूंगा कि भगवान को सेवा की आवश्यकता हो तो मुझे रखें, वरना नहीं तो छत गिरे और यहीं मर जाऊं। भगवान दुखद भी हैं और सुखद भी हैं। विष्णु सहस्रनाम में भगवान के दोनों स्वरूपों का वर्णन है, दुखद भी, सुखद भी। सुख भी देते हैं, दुख भी देते हैं, मारने वाले वही हैं, बचाने वाले भी वही हैं। मैंने सोचा लेटे रहता हूं और स्वयं को राम जी पर छोड़ दिया। मंत्र जपने लगा - श्रीराम: शरणं मम।
मैं प्रसन्न था कि मैं सबसे बड़ी परीक्षा देने जा रहा हूं कि भगवान को रामनरेशाचार्य की आवश्यकता है या नहीं, नहीं हो, तो ले चलें। करवट भी नहीं बदला। खुश था। जब पूरी तैयारी हो, तो क्या डरना, पूरी तैयारी थी, सही काम वही होगा, जो राम जी को मंजूर होगा। जबलपुर के आश्रम में नर्मदा तट की यह घटना है।
बाद में लोगों को मेरी याद आई, लोगों ने बाहर से कमरे का ताला खोला, दरवाजा भीतर से बंद था, तो लोगों ने कहा कि खोला जाए, कहा लोगों ने कि क्षमा चाहते हैं। सुरक्षा के लिए हमने ताला लगवा दिया था।
तब जन हानि तो कम हुई थी, लेकिन माल हानि बहुत हुई थी, भूकंप बहुत बड़ा था। इन सभी चमत्कारों के आधार पर नर्मदा जी में हमारी निष्ठा का विकास हुआ और हमने भरपूर निष्ठा के साथ उनकी परिक्रमा की। नर्मदा जी से जो हमारी उपलब्धि हुई, उस पर हम इतना ही कह सकते हैं कि जीवन धन्य हो गया। जो लोग भी नर्मदा परिक्रमा में मेरे साथ गए, वे कह सकते हैं कि मेरा जीवन तो अब धन्य होगा, अब कुछ करें या नहीं करें, इस तरह का भाव मुझमें भी आया। लेकिन सबसे बड़ी बात, नर्मदा परिक्रमा का एक जो स्वरूप है, जो निर्मित हुई, जो लोग गए थे, १२५ के करीब लोग थे, सभी लोगों को धन्यता का बोध हुआ। किसी ने नहीं कहा साथ चलने वाले को कि हटिएगा हमें आगे चलना है, कोई महिला औैर पुरुष लंगड़ा रहा है, तो लोग पीछे ही रहते थे, सभी लोगों ने नंगे पांव यात्रा की। मेरे पांव में कांटे भी गड़ गए थे, लोग बोलते थे कि निकाल दिए जाएं, मैं कहता था, इनकी भी परिक्रमा करा देता हूं, न जाने कौन से जीव हैं।
क्रमश:
यह जो कहा गया कि नर्मदा जी पुण्यशालिनी हैं, अद्भुत नदी हैं, यह कोई सामान्य लोगों ने नहीं कहां, महात्माओं ने कहा, जिनको दिव्य दृष्टि थी, जैसे अर्जुन को कृष्ण ने दी थी। जिन लोगों को सम्पूर्ण संयम-नियम करके गुरुकृपा, पितरों की कृपा से, ईश्वर की कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई थी, उन लोगों ने कहा। तभी तो कबीर कहते हैं - और कहें कागज की लेखी, कबीरा कहे आंखों की देखी। जो दृष्टि दी थी कृष्ण ने अर्जुन को, वही कबीर को भी उनके गुरु ने दी। सत्संग किया, पुण्य मिला। इसलिए नर्मदा और यमुना, सरस्वती, कावेरी और सरयू इत्यादि जो नदियां हैं, जिनको हम लोग पुण्य नदी कहते हैं, ये पुण्य नदियां आराध्यस्वरूपा हैं। उनका जो लौकिक पक्ष है, उसकी भी समालोचना होनी चाहिए और उनकी आध्यात्मिक समालोचना भी होनी चाहिए।
मैं आपको जीवन से जुड़ी एक घटना सुनाता हूं। मैं ऐसे ही ठहरा हुआ था, कोई सत्संग था जबलपुर में, पुलिस का पहरा लगा हुआ था, शौकिया लोगों ने पुलिस लगा रखी थी, पुलिस वाले राइफल लेकर ड्यूटी देते थे। हालांकि मुझे कोई भय नहीं था। एक रात पहरे पर लगे पुलिस वाले ने देखा कि जटा जिसकी जमीन में लग रही है, लंगोटी पहना है, हाथ में कमंडल है, एक हाथ में कुल्हाड़ी है, ऐसा एक संत आ रहा है, प्रकाश था, बड़ी-बड़ी लाइटें लगी थीं आश्रम के घाट तक, बीच में कोई मकान, दुकान नहीं था। पुलिस वाले ने सोचा कि कोई नहाने आया होगा, लेकिन समय तो २ बजे रात का था, पर नर्मदा जी में देर तक लोग नहाते हैं, जैसे-जैसे वह संत पास आते गए, उनका तेजस्वी स्वरूप पुलिस वाले को ध्वस्त करता गया, जब वो संत मेरे कमरे के करीब आ गए, तो पुलिस वाला सहन नहीं कर पाया, तेजस्वी स्वरूप को, जाकर बिस्तर पर लेट गया, बेहोश हो गया, जब ड्यूटी बदली, तो उसे उठाया गया, चार बजे ड्यूटी बदलनी थी, पांच बज गए, उसे हिलाया, जगाया, तो वह बेहोश था। पैर दबाया, पानी दिया मुंह में, अंत में उस पुलिस वाले ने आंख खोला, होश संभाला, तो कहा कि ये-ये घटना हुई, मैं सहन नहीं कर पाया, उस संत के तेज को, महाराज के कमरे के पास तक जब वो संत आ गए, तो मैंने समझा कि खड़ा रहना कठिन है, अब बिस्तर पर लेट जाना चाहिए।
यह घटना मुझे सुनाई गई। उसका चिकित्सकीय परीक्षण हुआ, वह डर गया था। आ गए महाराज जी, आ गए, वह बोलता रहता था।
नर्मदा जी के किनारे कहा जाता है कि इतने सिद्ध हैं, जिनके कमंडल भी आपस में टकराते हैं। इतने सिद्ध चलते हैं परिक्रमा में, जरा सोचिए। मैंने कहा, यह तो अद्भुत हो गया। बाद में मैंने बहुत आभार व्यक्त किया कि मैं छोटा आदमी हूं, आपकी कृपा हुई कि आपने इस तरह के महात्मा को मेरे पास भेजा। यह आभार आपका कभी नहीं भूलूंगा। ऐसी ही कृपा बनी रहे।
आपको ध्यान होगा, जबलपुर में भूकंप आया था। हम एक भंडारा करते है, वैशाख पूर्णिमा पर १२ घंटा चलता है, मैं वहां था। ३६ घंटे तक भंडार बनता रहता है, एक दिन पहले ही बनना शुरू हो जाएगा, रात्रि भर बनेगा, दिन भर बनेगा। उसका आयोजन हो रहा था, तब मैं कमरे में सो रहा था, पहले कमरा बंद नहीं किया था, बाद में लोगों ने बाहर से ताला बंद कर दिया। बीच में मैं उठा, आंख खुली, मैंने भीतर से दरवाजा बंद कर दिया। कमरा बंद करने के बाद मैं साधु वाले छोटे वेश में ही सो गया। भू-कंपन होने लगा, चौकी हिल रही थी, खूब तीव्रता के साथ, मैं समझ गया, भूकंप आ गया, प्रलयंकारी आवाज हो रही थी, मैंने सोचा, बाहर जाऊं, यदि वहीं जमीन फट जाए, तो निश्चित है मर जाऊंगा। जाने की क्या आवश्यकता है, यहीं लेटा रहता हूं, राम-राम कहता हूं, देखूंगा कि भगवान को सेवा की आवश्यकता हो तो मुझे रखें, वरना नहीं तो छत गिरे और यहीं मर जाऊं। भगवान दुखद भी हैं और सुखद भी हैं। विष्णु सहस्रनाम में भगवान के दोनों स्वरूपों का वर्णन है, दुखद भी, सुखद भी। सुख भी देते हैं, दुख भी देते हैं, मारने वाले वही हैं, बचाने वाले भी वही हैं। मैंने सोचा लेटे रहता हूं और स्वयं को राम जी पर छोड़ दिया। मंत्र जपने लगा - श्रीराम: शरणं मम।
मैं प्रसन्न था कि मैं सबसे बड़ी परीक्षा देने जा रहा हूं कि भगवान को रामनरेशाचार्य की आवश्यकता है या नहीं, नहीं हो, तो ले चलें। करवट भी नहीं बदला। खुश था। जब पूरी तैयारी हो, तो क्या डरना, पूरी तैयारी थी, सही काम वही होगा, जो राम जी को मंजूर होगा। जबलपुर के आश्रम में नर्मदा तट की यह घटना है।
बाद में लोगों को मेरी याद आई, लोगों ने बाहर से कमरे का ताला खोला, दरवाजा भीतर से बंद था, तो लोगों ने कहा कि खोला जाए, कहा लोगों ने कि क्षमा चाहते हैं। सुरक्षा के लिए हमने ताला लगवा दिया था।
तब जन हानि तो कम हुई थी, लेकिन माल हानि बहुत हुई थी, भूकंप बहुत बड़ा था। इन सभी चमत्कारों के आधार पर नर्मदा जी में हमारी निष्ठा का विकास हुआ और हमने भरपूर निष्ठा के साथ उनकी परिक्रमा की। नर्मदा जी से जो हमारी उपलब्धि हुई, उस पर हम इतना ही कह सकते हैं कि जीवन धन्य हो गया। जो लोग भी नर्मदा परिक्रमा में मेरे साथ गए, वे कह सकते हैं कि मेरा जीवन तो अब धन्य होगा, अब कुछ करें या नहीं करें, इस तरह का भाव मुझमें भी आया। लेकिन सबसे बड़ी बात, नर्मदा परिक्रमा का एक जो स्वरूप है, जो निर्मित हुई, जो लोग गए थे, १२५ के करीब लोग थे, सभी लोगों को धन्यता का बोध हुआ। किसी ने नहीं कहा साथ चलने वाले को कि हटिएगा हमें आगे चलना है, कोई महिला औैर पुरुष लंगड़ा रहा है, तो लोग पीछे ही रहते थे, सभी लोगों ने नंगे पांव यात्रा की। मेरे पांव में कांटे भी गड़ गए थे, लोग बोलते थे कि निकाल दिए जाएं, मैं कहता था, इनकी भी परिक्रमा करा देता हूं, न जाने कौन से जीव हैं।
क्रमश:
जय गंगा, जय नर्मदा - ५
भाग - ५
मैं कहता हूं, आंशिक समर्पण से काम नहीं चलेगा। पत्नी यदि पति के लिए सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो जाए और पति यदि पत्नी के लिए सम्पूर्ण समर्पित हो जाए, तो राम राज्य आ जाएगा। ईश्वर के लिए सम्पूर्ण रूप से समर्पित होने की भी प्रक्रिया है कि हम उसका पैर भी धोएं, भोग लगाएं, वस्त्र दें, दक्षिणा भी दें, इत्र भी लगाएं और परिक्रमा भी करें। सम्पूर्ण प्रेम-भक्ति भाव व्यक्त करें।
जो ऊर्जावान पदार्थ होता है, वह प्रभावित करता है। दर्शन शास्त्र में पढ़ाया जाता है, वस्तु शक्ति को ज्ञान की जरूरत नहीं है। जैसे यह प्रकाश है, इसका आपको ज्ञान हो या नहीं हो, आपका अंधेरा तो दूर होगा। जो भी परिवर्तन स्वत: होने हैं, वो तो होंगे ही। वैसी ही ऊर्जावान नर्मदा जी ने असंख्य लोगों को धन्य जीवन दिया, जब उनके अगल-बगल में घूमेंगे, पूजन करेंगे, तो हमें भी पुण्य की प्राप्ति होगी, हमारे पाप नष्ट होंगे।
अब थोड़ी वेदांत की बात कर दूं। यहां सब कुछ ब्रह्म है, लेकिन ब्रह्म प्रकट नहीं है। एक बड़ा प्रसिद्ध वाक्य पढ़ाया जाता है शास्त्रों में - सर्वं खल्विदं ब्रह्म, सबकुछ ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही निर्मित है। जो कारण होता है, वह कार्य का व्यापक होता है। जहां-जहां कार्य रहेगा, कारण रहेगा ही। जहां-जहां घड़ा रहेगा, वहां-वहां मिट्टी रहेगी ही रहेगी।
न्याय शास्त्र की पहली पुस्तक - तर्कसंग्रह में लिखा है :-
कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम् ।
भगवान से ही यह संसार बना है। सब ब्रह्ममय है, लेकिन ब्रह्म कहीं-कहीं उद्भुत है, प्रकट है। जैसे सब्जी में, चावल में। आम वही था, जो छोटा था, वही था, जब मंजर के रूप में था, आम वही था, जो वृक्ष में रस के रूप में था, लेकिन जब पक गया, बड़ा हो गया, आकर्षक आम हो गया। जैसे कोई आदमी जन्म लेता है बच्चा, तो द्विज नहीं है, ब्राह्मण नहीं है, उसका जो संस्कार हुआ, वह द्विज हो गया। उससे भी काम नहीं चलेगा, वह वेदाध्ययन करे, शास्त्रों को पढ़े, तब जाकर वह विद्वान होगा। ब्राह्मणत्व उद्भुत हो गया। तिल में तेल है, लेकिन उससे काम नहीं चलेगा। पकौड़ी बनेगी, तो सीधे सरसों से नहीं बनेगी। पकौड़ी तब बनेगी, जब सरसों से तेल उद्भुत हो जाएगा। सरसों को पेरा जाएगा, तभी तेल प्रकट होगा। वैसे ही ब्रह्म कहीं-कहीं उद्भुत है, बाकी सब जगह अनुद्भुत है।
नर्मदा इत्यादि नदियां भगवान का शरीर हैं। उपनिषद में लिखा है, जैसे भगवान हम लोगों की आत्मा का शरीर हैं, वैसे ही पूरा संसार भगवान का शरीर है, जल भी भगवान का शरीर है। किन्तु जल तो वह भी है, जो नाला में बह रहा है, जल तो वह भी है, जो भोजन बन रहे बर्तन में है, जल तो वह भी है, जिससे हम स्नान करते हैं और जल वह भी है, जो हमारे स्नान करके बाद बहता है। कुआं, तालाब इत्यादि में भी जल है, लेकिन जो जल कुछ नदियों में है, उन्हें ऋषियों ने देखा। इन नदियों का ब्रह्मत्व पूर्ण है, इनमें पाप नाशकत्व है, विलक्षण शक्ति है, शक्ति उद्भुत है, प्रकट है, इन्हीं नदियों को हम लोग पुण्य नदी कहते हैं। जिनमें पुण्यदायकता प्रकट हो गई है। ऋषियों ने देखा अनुभव किया, पुराणों में नदियों का वर्णन हुआ, यह कोई आम आदमी का चिंतन नहीं है। आम आदमी का चिंतन होता, तो कोई मानता क्या? अभी कोई रिक्शा चलाने वाला बोले कि बराक ओबामा ने सम्पूर्ण अमरीका ही भारत को दे दिया, तो लोग उसकी पिटाई ही कर देंगे।
एक साधु को झूठ बोलने का अभ्यास था, उन्होंने अपने भक्तों से एक दिन कहा, 'गाड़ी कोलकाता में उलट गई, बहुत लोग मर गए।
शिष्यों-भक्तों ने पूछा, 'अखबार कहां है?
तो वो साधु अखबार दिए कि इसमें लिखा है, किन्तु देते समय अखबार भी उलटा ही थमाए। अंग्रेजी का अखबार था, उस साधु को यही नहीं पता था कि सीधी लाइन कौन-सी है। झूठ बोल रहे थे।
भक्तों ने कहा, 'आप हमारे गुरु हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए। आपको पता है कि सीधी लाइन कौन-सी है?
उत्तर मिला, 'मुझे नहीं पता, मैं अंग्रेजी पढ़ा हूं क्या, बेवकूफ कहीं का।
क्रमश:
मैं कहता हूं, आंशिक समर्पण से काम नहीं चलेगा। पत्नी यदि पति के लिए सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो जाए और पति यदि पत्नी के लिए सम्पूर्ण समर्पित हो जाए, तो राम राज्य आ जाएगा। ईश्वर के लिए सम्पूर्ण रूप से समर्पित होने की भी प्रक्रिया है कि हम उसका पैर भी धोएं, भोग लगाएं, वस्त्र दें, दक्षिणा भी दें, इत्र भी लगाएं और परिक्रमा भी करें। सम्पूर्ण प्रेम-भक्ति भाव व्यक्त करें।
जो ऊर्जावान पदार्थ होता है, वह प्रभावित करता है। दर्शन शास्त्र में पढ़ाया जाता है, वस्तु शक्ति को ज्ञान की जरूरत नहीं है। जैसे यह प्रकाश है, इसका आपको ज्ञान हो या नहीं हो, आपका अंधेरा तो दूर होगा। जो भी परिवर्तन स्वत: होने हैं, वो तो होंगे ही। वैसी ही ऊर्जावान नर्मदा जी ने असंख्य लोगों को धन्य जीवन दिया, जब उनके अगल-बगल में घूमेंगे, पूजन करेंगे, तो हमें भी पुण्य की प्राप्ति होगी, हमारे पाप नष्ट होंगे।
अब थोड़ी वेदांत की बात कर दूं। यहां सब कुछ ब्रह्म है, लेकिन ब्रह्म प्रकट नहीं है। एक बड़ा प्रसिद्ध वाक्य पढ़ाया जाता है शास्त्रों में - सर्वं खल्विदं ब्रह्म, सबकुछ ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही निर्मित है। जो कारण होता है, वह कार्य का व्यापक होता है। जहां-जहां कार्य रहेगा, कारण रहेगा ही। जहां-जहां घड़ा रहेगा, वहां-वहां मिट्टी रहेगी ही रहेगी।
न्याय शास्त्र की पहली पुस्तक - तर्कसंग्रह में लिखा है :-
कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम् ।
भगवान से ही यह संसार बना है। सब ब्रह्ममय है, लेकिन ब्रह्म कहीं-कहीं उद्भुत है, प्रकट है। जैसे सब्जी में, चावल में। आम वही था, जो छोटा था, वही था, जब मंजर के रूप में था, आम वही था, जो वृक्ष में रस के रूप में था, लेकिन जब पक गया, बड़ा हो गया, आकर्षक आम हो गया। जैसे कोई आदमी जन्म लेता है बच्चा, तो द्विज नहीं है, ब्राह्मण नहीं है, उसका जो संस्कार हुआ, वह द्विज हो गया। उससे भी काम नहीं चलेगा, वह वेदाध्ययन करे, शास्त्रों को पढ़े, तब जाकर वह विद्वान होगा। ब्राह्मणत्व उद्भुत हो गया। तिल में तेल है, लेकिन उससे काम नहीं चलेगा। पकौड़ी बनेगी, तो सीधे सरसों से नहीं बनेगी। पकौड़ी तब बनेगी, जब सरसों से तेल उद्भुत हो जाएगा। सरसों को पेरा जाएगा, तभी तेल प्रकट होगा। वैसे ही ब्रह्म कहीं-कहीं उद्भुत है, बाकी सब जगह अनुद्भुत है।
नर्मदा इत्यादि नदियां भगवान का शरीर हैं। उपनिषद में लिखा है, जैसे भगवान हम लोगों की आत्मा का शरीर हैं, वैसे ही पूरा संसार भगवान का शरीर है, जल भी भगवान का शरीर है। किन्तु जल तो वह भी है, जो नाला में बह रहा है, जल तो वह भी है, जो भोजन बन रहे बर्तन में है, जल तो वह भी है, जिससे हम स्नान करते हैं और जल वह भी है, जो हमारे स्नान करके बाद बहता है। कुआं, तालाब इत्यादि में भी जल है, लेकिन जो जल कुछ नदियों में है, उन्हें ऋषियों ने देखा। इन नदियों का ब्रह्मत्व पूर्ण है, इनमें पाप नाशकत्व है, विलक्षण शक्ति है, शक्ति उद्भुत है, प्रकट है, इन्हीं नदियों को हम लोग पुण्य नदी कहते हैं। जिनमें पुण्यदायकता प्रकट हो गई है। ऋषियों ने देखा अनुभव किया, पुराणों में नदियों का वर्णन हुआ, यह कोई आम आदमी का चिंतन नहीं है। आम आदमी का चिंतन होता, तो कोई मानता क्या? अभी कोई रिक्शा चलाने वाला बोले कि बराक ओबामा ने सम्पूर्ण अमरीका ही भारत को दे दिया, तो लोग उसकी पिटाई ही कर देंगे।
एक साधु को झूठ बोलने का अभ्यास था, उन्होंने अपने भक्तों से एक दिन कहा, 'गाड़ी कोलकाता में उलट गई, बहुत लोग मर गए।
शिष्यों-भक्तों ने पूछा, 'अखबार कहां है?
तो वो साधु अखबार दिए कि इसमें लिखा है, किन्तु देते समय अखबार भी उलटा ही थमाए। अंग्रेजी का अखबार था, उस साधु को यही नहीं पता था कि सीधी लाइन कौन-सी है। झूठ बोल रहे थे।
भक्तों ने कहा, 'आप हमारे गुरु हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए। आपको पता है कि सीधी लाइन कौन-सी है?
उत्तर मिला, 'मुझे नहीं पता, मैं अंग्रेजी पढ़ा हूं क्या, बेवकूफ कहीं का।
क्रमश:
जय गंगा, जय नर्मदा - ४
भाग - ४
एक आख्यान आपको सुनाऊंगा - उस आश्रम को प्रेमानन्द आश्रम कहते हैं। जब उस आश्रम का स्वरूप उतना चमका नहीं था, तब वहां महात्मा प्रेमानन्द जी रहते थे, जूना अखाड़े के महात्मा थे। जिनसे मुझे आश्रम मिला है, उनके ये गुरुदेव थे। उनके समय यह आश्रम जबलपुर शहर से दूर माना जाता था। महात्मा जी वहां जमने जा रहे थे, किन्तु वहां कुछ अराजक तत्व थे, जो पीछे पड़े हुए थे। उन अराजक तत्व का षड्यंत्र आश्रम की भूमि हड़पने का था। स्वामी प्रेमानन्द राम भक्त थे, बड़े संत थे, एक बार राम कहकर उन्हें चुप कराने में आधा घंटा लगता था, इतना रोते थे, संन्यासी होकर राम मंदिर उन्होंने बनवाया, रामायण गाते थे। अराजक तत्व जमीन खाली करवाने के लिए उन्हें निरंतर परेशान कर रहे थे, तंग होकर उन्होंने निर्णय लिया कि कल चला जाऊंगा। उसी रात्रि में एक बूढ़ी महिला आई, सफेद कपड़ा पहनकर और अभिवादन किया, 'स्वामी जी प्रणाम, ओम नमो नारायण।Ó स्वामी प्रेमानन्द जी ने भी अभिवादन किया।
उस महिला ने पूछा, 'आप रो रहे हैं?
स्वामी जी ने जवाब दिया, 'अब मुझे यहां से जाना है, लोग मुझे बहुत तंग कर रहे हैं, जमीन पर कब्जा करने के लिए।
अभी आश्रम का परिसर १५ एकड़ में है, तब तो और ज्यादा था।
बूढ़ी महिला ने कहा, 'नहीं अब कोई तंग नहीं करेगा, आप यहीं रहें और राम मंदिर बनवाएं।
स्वामी प्रेमानन्द जी के मन में पहले से ही राम मंदिर का विचार चल रहा था। स्वामी जी भाव विह्वल थे, 'नहीं, मैं अब तंग हो गया हूं, अब जाऊंगा...।
किन्तु जब वह महिला चली गई, तो स्वामी जी को होश आया कि देखें समय क्या हो रहा है, तो रात्रि के २ बज रहे थे। वह स्थान शहर से १० से १२ किलोमीटर दूर था, उस समय संध्या को भी वहां कोई नहीं आता था। वे घूमकर खोजने लगे, कहां है वह महिला, किन्तु कहीं भी वह नहीं मिली।
प्रेरणा मिली, तो स्वामी प्रेमानन्द जी ने वहीं रुकने का निर्णय किया। उन्होंने राम मंदिर बनवाया। इस बात को अब ७० साल के करीब हो गए हैं। यह सब कथा मुझे वहां जाने पर सुनाई गई। यह नर्मदा जी का ही आश्रम है, तो मैंने निर्णय लिया, हम प्रयोग करें। मैंने भी श्रद्धा भक्ति से शुरुआत की और नर्मदा जी की पूजा में एक महीने का उत्सव किया। वैशाख मास में और रोज नर्मदा जी का पूजन, रोज साड़ी चढ़ाना, रोज देशी घी का हलवा, वहां दरिद्र नारायण भी बैठते हैं, अब तो उनका भोजन भी वहां होता है, प्रति दिन दरिद्र नारायण की सेवा होती है।
पहले भी नियम था आश्रम में कोई भी आए, तो चाय पिलाना है, भोजन देना है, तो वहां हमने बड़ा भंडार शुरू कर दिया, जो आए भोजन कराया जाए, इस देश में जहां भी हम भोजन की व्यवस्था करते हैं, सबसे बड़ा भोजनालय जबलपुर में ही है। नर्मदा जी के लिए मेरे अंदर गंगा जी के समान ही निष्ठा है, उसी निष्ठा के अनुरूप मैंने नर्मदा परिक्रमा की। परिक्रमा या प्रदक्षिणा भी पूजन का ही अंग है। पूजन जब होता है, तो ब्राह्मण यह वंदना करते हैं :
ú यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।
जो हमारे यहां पूजन की विधि है, उसका एक भाग प्रदक्षिणा है। इसका अर्थ है हमने सम्पूर्ण जीवन आपको अर्पित कर दिया, तभी आपके आगे-पीछे घूम रहे हैं। कहा जाता है कि वह उनके आगे पीछे घूमता है, इसका मतलब है कि पूर्ण समर्पित है। प्रदक्षिणा का अर्थ है पूर्ण सम्मान देना, पूर्ण रूप से उसके लिए समाहित हो जाना। भगवान की दया से हम लोग नर्मदा जी की पूजा परिक्रमा के लिए गए थे। इस परिक्रमा का अर्थ है, नर्मदा जी के लिए सम्पूर्ण समर्पण का भाव।
परिक्रमा के मार्ग पर प्रवचन भी होते थे, मैं रोज कुछ कहता था, यह भी कहता था कि परिक्रमा का अर्थ किसी के समग्र स्वरूप का दर्शन करना है। जैसे मैं आपको अभी एक कोण से देख रहा हूं, लेकिन जब परिक्रमा करने लगूंगा, तो आपकी बांह को भी देखूंगा, पीठ को भी देखूंगा, बालों को देखूंगा और जो भी अंग प्रत्यंग हैं, मतलब समग्रता दर्शन का एक प्रयास परिक्रमा है। समग्रता के साथ एक प्रयास परिक्रमा है। परिक्रमा का निवेदन है कि आप हम पर कृपा करें।
वैसे संसार में बहुधा आंशिक ही समर्पण हो पाता है। जैसे बीस-तीस प्रतिशत वोट पाकर भी नेता जीत जाता है, राजनीतिक दल सरकार बना लेते हैं, अब कभी किसी को सौ प्रतिशत वोट नहीं मिलता है। यह बात भी सच है कि सौ प्रतिशत लोग वोट भी नहीं डालते। वैसे मैं कहूंगा, लोगों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में वोट डालना चाहिए, ताकि सम्पूर्ण भाव या मानस का पता लगे। अभी अखबार वालों ने वोट के लिए बहुत प्रयास किए, वोट प्रतिशत राज्यों में भी बढ़ा और लोकसभा चुनाव में भी बढ़ा है। वोट का अर्थ समझना चाहिए। अंग्रेज जब थे, तो आपको कोई पूछता था क्या, लेकिन अब वोट का महत्व है, उससे आप सरकार चुनते हैं। जिसका चुनाव करना है, पूरा चुनाव कीजिए। सम्पूर्णता के साथ जब तक चयन नहीं होगा, तब तक बात नहीं बनेगी।
क्रमश:
एक आख्यान आपको सुनाऊंगा - उस आश्रम को प्रेमानन्द आश्रम कहते हैं। जब उस आश्रम का स्वरूप उतना चमका नहीं था, तब वहां महात्मा प्रेमानन्द जी रहते थे, जूना अखाड़े के महात्मा थे। जिनसे मुझे आश्रम मिला है, उनके ये गुरुदेव थे। उनके समय यह आश्रम जबलपुर शहर से दूर माना जाता था। महात्मा जी वहां जमने जा रहे थे, किन्तु वहां कुछ अराजक तत्व थे, जो पीछे पड़े हुए थे। उन अराजक तत्व का षड्यंत्र आश्रम की भूमि हड़पने का था। स्वामी प्रेमानन्द राम भक्त थे, बड़े संत थे, एक बार राम कहकर उन्हें चुप कराने में आधा घंटा लगता था, इतना रोते थे, संन्यासी होकर राम मंदिर उन्होंने बनवाया, रामायण गाते थे। अराजक तत्व जमीन खाली करवाने के लिए उन्हें निरंतर परेशान कर रहे थे, तंग होकर उन्होंने निर्णय लिया कि कल चला जाऊंगा। उसी रात्रि में एक बूढ़ी महिला आई, सफेद कपड़ा पहनकर और अभिवादन किया, 'स्वामी जी प्रणाम, ओम नमो नारायण।Ó स्वामी प्रेमानन्द जी ने भी अभिवादन किया।
उस महिला ने पूछा, 'आप रो रहे हैं?
स्वामी जी ने जवाब दिया, 'अब मुझे यहां से जाना है, लोग मुझे बहुत तंग कर रहे हैं, जमीन पर कब्जा करने के लिए।
अभी आश्रम का परिसर १५ एकड़ में है, तब तो और ज्यादा था।
बूढ़ी महिला ने कहा, 'नहीं अब कोई तंग नहीं करेगा, आप यहीं रहें और राम मंदिर बनवाएं।
स्वामी प्रेमानन्द जी के मन में पहले से ही राम मंदिर का विचार चल रहा था। स्वामी जी भाव विह्वल थे, 'नहीं, मैं अब तंग हो गया हूं, अब जाऊंगा...।
किन्तु जब वह महिला चली गई, तो स्वामी जी को होश आया कि देखें समय क्या हो रहा है, तो रात्रि के २ बज रहे थे। वह स्थान शहर से १० से १२ किलोमीटर दूर था, उस समय संध्या को भी वहां कोई नहीं आता था। वे घूमकर खोजने लगे, कहां है वह महिला, किन्तु कहीं भी वह नहीं मिली।
प्रेरणा मिली, तो स्वामी प्रेमानन्द जी ने वहीं रुकने का निर्णय किया। उन्होंने राम मंदिर बनवाया। इस बात को अब ७० साल के करीब हो गए हैं। यह सब कथा मुझे वहां जाने पर सुनाई गई। यह नर्मदा जी का ही आश्रम है, तो मैंने निर्णय लिया, हम प्रयोग करें। मैंने भी श्रद्धा भक्ति से शुरुआत की और नर्मदा जी की पूजा में एक महीने का उत्सव किया। वैशाख मास में और रोज नर्मदा जी का पूजन, रोज साड़ी चढ़ाना, रोज देशी घी का हलवा, वहां दरिद्र नारायण भी बैठते हैं, अब तो उनका भोजन भी वहां होता है, प्रति दिन दरिद्र नारायण की सेवा होती है।
पहले भी नियम था आश्रम में कोई भी आए, तो चाय पिलाना है, भोजन देना है, तो वहां हमने बड़ा भंडार शुरू कर दिया, जो आए भोजन कराया जाए, इस देश में जहां भी हम भोजन की व्यवस्था करते हैं, सबसे बड़ा भोजनालय जबलपुर में ही है। नर्मदा जी के लिए मेरे अंदर गंगा जी के समान ही निष्ठा है, उसी निष्ठा के अनुरूप मैंने नर्मदा परिक्रमा की। परिक्रमा या प्रदक्षिणा भी पूजन का ही अंग है। पूजन जब होता है, तो ब्राह्मण यह वंदना करते हैं :
ú यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।
जो हमारे यहां पूजन की विधि है, उसका एक भाग प्रदक्षिणा है। इसका अर्थ है हमने सम्पूर्ण जीवन आपको अर्पित कर दिया, तभी आपके आगे-पीछे घूम रहे हैं। कहा जाता है कि वह उनके आगे पीछे घूमता है, इसका मतलब है कि पूर्ण समर्पित है। प्रदक्षिणा का अर्थ है पूर्ण सम्मान देना, पूर्ण रूप से उसके लिए समाहित हो जाना। भगवान की दया से हम लोग नर्मदा जी की पूजा परिक्रमा के लिए गए थे। इस परिक्रमा का अर्थ है, नर्मदा जी के लिए सम्पूर्ण समर्पण का भाव।
परिक्रमा के मार्ग पर प्रवचन भी होते थे, मैं रोज कुछ कहता था, यह भी कहता था कि परिक्रमा का अर्थ किसी के समग्र स्वरूप का दर्शन करना है। जैसे मैं आपको अभी एक कोण से देख रहा हूं, लेकिन जब परिक्रमा करने लगूंगा, तो आपकी बांह को भी देखूंगा, पीठ को भी देखूंगा, बालों को देखूंगा और जो भी अंग प्रत्यंग हैं, मतलब समग्रता दर्शन का एक प्रयास परिक्रमा है। समग्रता के साथ एक प्रयास परिक्रमा है। परिक्रमा का निवेदन है कि आप हम पर कृपा करें।
वैसे संसार में बहुधा आंशिक ही समर्पण हो पाता है। जैसे बीस-तीस प्रतिशत वोट पाकर भी नेता जीत जाता है, राजनीतिक दल सरकार बना लेते हैं, अब कभी किसी को सौ प्रतिशत वोट नहीं मिलता है। यह बात भी सच है कि सौ प्रतिशत लोग वोट भी नहीं डालते। वैसे मैं कहूंगा, लोगों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में वोट डालना चाहिए, ताकि सम्पूर्ण भाव या मानस का पता लगे। अभी अखबार वालों ने वोट के लिए बहुत प्रयास किए, वोट प्रतिशत राज्यों में भी बढ़ा और लोकसभा चुनाव में भी बढ़ा है। वोट का अर्थ समझना चाहिए। अंग्रेज जब थे, तो आपको कोई पूछता था क्या, लेकिन अब वोट का महत्व है, उससे आप सरकार चुनते हैं। जिसका चुनाव करना है, पूरा चुनाव कीजिए। सम्पूर्णता के साथ जब तक चयन नहीं होगा, तब तक बात नहीं बनेगी।
क्रमश:
जय गंगा, जय नर्मदा - ३
भाग - ३
एक गुजराती भाई सपरिवार नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे। पत्नी और अपनी पुत्रियों के साथ। मैंने उनसे पूछा, 'परिक्रमा लंबी चलेगी, तो लड़कियां तो इसी दौरान सयानी हो जाएंगी? आप क्या करेंगे?
उन्होंने कहा, 'सयानी हो जाएंगी, तो अच्छा होगा, इनकी शादी नर्मदा परिक्रमा के दौरान ही कर दूंगा।
मैंने पूछा, 'कोई वर नहीं मिला तो? लोग कहेंगे, बाप नर्मदा परिक्रमा में लगा है, ऐसे बाप की बेटी से कौन विवाह करे?
उसने उत्तर दिया, 'तब नर्मदा जी जैसी ये भी कुंवारी रहेंगी।
क्या बात है! आस्था के मामले में जैसे गंगा का कोई जोड़ नहीं, उसी तरह से नर्मदा का भी कोई जोड़ नहीं है। मेरा अधिकांश समय गंगा तट पर बीता है, काशी में शिक्षा हुई, दीक्षा हुई, अध्यापन के लिए हरिद्वार, ऋषिकेश आ गया, वह भी गंगा तट पर था, रामानन्दाचार्य जी की सेवा मिली, तो पुन: काशी आ गया, फिर गंगा तट पर। बाद में रामानन्दाचार्य जी का प्राकट्य धाम स्थल इलाहाबाद में मिला, तो वह भी बिल्कुल गंगातट पर ही है। गंगा मां ने अपनी ज्यादा कुछ ज्यादा ही गोद और छाया मुझे प्रदान की है।
इसका एक कारण, मुझे ध्यान आता है। मैं सुनाता हूं।
मैं छोटा था, घूमने-फिरने काशी आया था। सुबह के चार बजे गंगा तट पर गया, दशाश्वमेध घाट पर, पहली बार इस तरह के बड़े-बड़े मकान, गंगा का तट घाट, दिव्य वातावरण, बिजली जल रही है, गांव का रहने वाला बच्चा और बड़े-बड़े मकान, शांत वातावरण, आध्यात्मिक वातावरण। मुझे संकल्प नहीं होता, अभी भी नहीं होता कि किसी वस्तु को प्राप्त करना है, लेकिन तब तुरंत एक आह निकली हृदय से कि कितना अच्छा होता, मैं भी यहीं होता।
यह १९६७ की बात है और उसके एक साल बाद १९६८ में मैं भाग आया काशी। गंगा जी ने बुला लिया, अब पूरा जीवन गंगा जी में ही समाहित हो गया। १३-१४ साल की आयु से लेकर अब तक। तो ऐसी स्थिति में मेरी आवाज लगता है, सही आवाज थी। गंगा जी ने कृपा की और मुझे अपने तट पर बुला लिया।
लेकिन जब जबलपुर आश्रम नर्मदा के तट पर मिला, तो मैं बहुत निष्ठा से नर्मदा जी में भाव-भक्ति करने लगा और इसका परिणाम यह हुआ कि वह आश्रम डूब गया था, महंत जी ने विवाह कर लिया था, उनको बाहुबली स्वरूप प्राप्त हो गया था, लेकिन वो मेरे विद्यार्थी थे। मैंने कहा, शंकराचार्य जी को यह आश्रम दे दिया जाए, शंकराचार्य स्वरूपानंद जी महाराज को, उनके पास शहर में आश्रम नहीं है, जो आश्रम है, वह शहर से काफी दूर है, तो उन्होंने कहा, मेरी श्रद्धा आपमें है, आपने मुझे पढ़ाया है, मुझ में जो भी दोष है, आप क्षमा करेंगे।
तो मैंने आश्रम संभाला, जिस आश्रम को लोग घृणित रूप में देखने लगे थे, वह आज जबलपुर का सबसे चमकदार आश्रम हो गया है। मैं मानता हूं, यह रामनरेशाचार्य का उत्कर्ष नहीं है, यह नर्मदा जी का ही प्रभाव और उत्कर्ष है। मैंने भली भांति उनका सेवन किया, उनके कारण ही वह आश्रम बना।
मैं वहां नर्मदा परिक्रमा के समय निरंतर सुनता रहता था। वहां परिक्रमा करने वाले लोग इस आश्रम में भी रुकते हैं, ठहरने की व्यवस्था है, भोजन की व्यवस्था है, रहने की व्यवस्था है, साधु आए, संत आए, भिखारी रूप में आए, भक्त आएं, नागा आएं, फकीर आएं, वहां सबको भोजन मिलता है।
मैं सोचता था कि इस आश्रम के उत्कर्ष का क्या कारण हो सकता है, वहां रामजी का भी मंदिर है। जिन्होंने यहां राम मंदिर का निर्माण करवाया, वो संन्यासी महात्मा थे, यहां उनका भी प्रभाव हो सकता है, राम जी का भी प्रभाव हो सकता है, किन्तु अंत में मैंने माना कि नर्मदा जी ही इस आश्रम की संरक्षक हैं, क्योंकि मैंने कोई भेद नहीं किया। मैं गंगावासी हूं, किन्तु मैंने कभी नहीं सोचा कि नर्मदा कौन होती हैं, गंगा जी का पाट इतना चौड़ा है, इतना उत्कर्ष है, गंगा जी ने ही मुझे जीवन दिया, उनके तट पर ही पढ़ा, पढक़र दूसरों को पढ़ाया, किन्तु मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा। गंगा जी और नर्मदा जी में कभी भेदभाव नहीं किया। तभी नर्मदा जी की कृपा मुझ पर आई। जबलपुर में जो आश्रम मिला है, वहां हम १०० कुंडों का यज्ञ भी कर चुके हैं, जिसमें जयपुर के पंडित उमाशंकर शास्त्री जी मुख्य यज्ञाचार्य थे।
क्रमश:
एक गुजराती भाई सपरिवार नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे। पत्नी और अपनी पुत्रियों के साथ। मैंने उनसे पूछा, 'परिक्रमा लंबी चलेगी, तो लड़कियां तो इसी दौरान सयानी हो जाएंगी? आप क्या करेंगे?
उन्होंने कहा, 'सयानी हो जाएंगी, तो अच्छा होगा, इनकी शादी नर्मदा परिक्रमा के दौरान ही कर दूंगा।
मैंने पूछा, 'कोई वर नहीं मिला तो? लोग कहेंगे, बाप नर्मदा परिक्रमा में लगा है, ऐसे बाप की बेटी से कौन विवाह करे?
उसने उत्तर दिया, 'तब नर्मदा जी जैसी ये भी कुंवारी रहेंगी।
क्या बात है! आस्था के मामले में जैसे गंगा का कोई जोड़ नहीं, उसी तरह से नर्मदा का भी कोई जोड़ नहीं है। मेरा अधिकांश समय गंगा तट पर बीता है, काशी में शिक्षा हुई, दीक्षा हुई, अध्यापन के लिए हरिद्वार, ऋषिकेश आ गया, वह भी गंगा तट पर था, रामानन्दाचार्य जी की सेवा मिली, तो पुन: काशी आ गया, फिर गंगा तट पर। बाद में रामानन्दाचार्य जी का प्राकट्य धाम स्थल इलाहाबाद में मिला, तो वह भी बिल्कुल गंगातट पर ही है। गंगा मां ने अपनी ज्यादा कुछ ज्यादा ही गोद और छाया मुझे प्रदान की है।
इसका एक कारण, मुझे ध्यान आता है। मैं सुनाता हूं।
मैं छोटा था, घूमने-फिरने काशी आया था। सुबह के चार बजे गंगा तट पर गया, दशाश्वमेध घाट पर, पहली बार इस तरह के बड़े-बड़े मकान, गंगा का तट घाट, दिव्य वातावरण, बिजली जल रही है, गांव का रहने वाला बच्चा और बड़े-बड़े मकान, शांत वातावरण, आध्यात्मिक वातावरण। मुझे संकल्प नहीं होता, अभी भी नहीं होता कि किसी वस्तु को प्राप्त करना है, लेकिन तब तुरंत एक आह निकली हृदय से कि कितना अच्छा होता, मैं भी यहीं होता।
यह १९६७ की बात है और उसके एक साल बाद १९६८ में मैं भाग आया काशी। गंगा जी ने बुला लिया, अब पूरा जीवन गंगा जी में ही समाहित हो गया। १३-१४ साल की आयु से लेकर अब तक। तो ऐसी स्थिति में मेरी आवाज लगता है, सही आवाज थी। गंगा जी ने कृपा की और मुझे अपने तट पर बुला लिया।
लेकिन जब जबलपुर आश्रम नर्मदा के तट पर मिला, तो मैं बहुत निष्ठा से नर्मदा जी में भाव-भक्ति करने लगा और इसका परिणाम यह हुआ कि वह आश्रम डूब गया था, महंत जी ने विवाह कर लिया था, उनको बाहुबली स्वरूप प्राप्त हो गया था, लेकिन वो मेरे विद्यार्थी थे। मैंने कहा, शंकराचार्य जी को यह आश्रम दे दिया जाए, शंकराचार्य स्वरूपानंद जी महाराज को, उनके पास शहर में आश्रम नहीं है, जो आश्रम है, वह शहर से काफी दूर है, तो उन्होंने कहा, मेरी श्रद्धा आपमें है, आपने मुझे पढ़ाया है, मुझ में जो भी दोष है, आप क्षमा करेंगे।
तो मैंने आश्रम संभाला, जिस आश्रम को लोग घृणित रूप में देखने लगे थे, वह आज जबलपुर का सबसे चमकदार आश्रम हो गया है। मैं मानता हूं, यह रामनरेशाचार्य का उत्कर्ष नहीं है, यह नर्मदा जी का ही प्रभाव और उत्कर्ष है। मैंने भली भांति उनका सेवन किया, उनके कारण ही वह आश्रम बना।
मैं वहां नर्मदा परिक्रमा के समय निरंतर सुनता रहता था। वहां परिक्रमा करने वाले लोग इस आश्रम में भी रुकते हैं, ठहरने की व्यवस्था है, भोजन की व्यवस्था है, रहने की व्यवस्था है, साधु आए, संत आए, भिखारी रूप में आए, भक्त आएं, नागा आएं, फकीर आएं, वहां सबको भोजन मिलता है।
मैं सोचता था कि इस आश्रम के उत्कर्ष का क्या कारण हो सकता है, वहां रामजी का भी मंदिर है। जिन्होंने यहां राम मंदिर का निर्माण करवाया, वो संन्यासी महात्मा थे, यहां उनका भी प्रभाव हो सकता है, राम जी का भी प्रभाव हो सकता है, किन्तु अंत में मैंने माना कि नर्मदा जी ही इस आश्रम की संरक्षक हैं, क्योंकि मैंने कोई भेद नहीं किया। मैं गंगावासी हूं, किन्तु मैंने कभी नहीं सोचा कि नर्मदा कौन होती हैं, गंगा जी का पाट इतना चौड़ा है, इतना उत्कर्ष है, गंगा जी ने ही मुझे जीवन दिया, उनके तट पर ही पढ़ा, पढक़र दूसरों को पढ़ाया, किन्तु मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा। गंगा जी और नर्मदा जी में कभी भेदभाव नहीं किया। तभी नर्मदा जी की कृपा मुझ पर आई। जबलपुर में जो आश्रम मिला है, वहां हम १०० कुंडों का यज्ञ भी कर चुके हैं, जिसमें जयपुर के पंडित उमाशंकर शास्त्री जी मुख्य यज्ञाचार्य थे।
क्रमश:
जय गंगा, जय नर्मदा - २
भाग - २
गंगा में जब जल बढ़ता है, तो वह आसपास के इलाकों को डुबो देती है और उसके बाद जब आप खेतों में बीज डालेंगे, तो खूब फसल होती है। गंगा संस्कृति और समाज को भी प्रभावित करती है।
गंगा किनारे पर बसे एक आदमी से मैंने पूछा, 'आपके कितने मकान बह गए?
उसने कहा, 'आठ बह गए, यह नौवां है।
मैंने पूछा, 'तो गंगा के लिए क्या भाव हैं?
उसने उत्तर दिया, 'सर्वश्रेष्ठ भाव हैं, मां के लिए खराब भाव होता है क्या? कौन मां होगी, जो छोटी आयु में शैतानी करने पर अपने बच्चे के कान नहीं गरम करती होगी? जब मां देखती है कि बच्चे का विकास नहीं हो रहा है, बुराई की ओर जा रहा है, तब अनुशासित करती है। मां हमारी जमीन को अपने में समाहित कर लेती हैं, हमारी बुरी भावनाओं को दूर करती हैं।
उस व्यक्ति ने कहा, 'हम डंके की चोट पर कहते हैं कि गंगा के किनारे वाले लोग दूषित नहीं थे, और जगह के लोग आए, तो बुराइयां आईं, नहीं तो यह गंगा लाखों लोगों को बेघर कर देती हैं, जमीन के बिना कर देती हैं, लाखों लोगों को सडक़ पर ले आती हैं, लेकिन इसके बावजूद सबसे बड़ी आस्था का केन्द्र गंगा है।
नर्मदा का भी ऐसा ही महत्व है। नर्मदा जी ने एक बड़े भूभाग पर बसे लोगों को जल दिया। बड़ा स्वरूप हो गया, गुजरात वगैरह को पानी मिल रहा है, बड़े बांध बने हैं। फिर भी उतने बड़े महानगरों को जल नहीं दिया, जितने महानगरों को गंगा ने दिया। नर्मदा के तट पर ज्यादातर इलाका आदिवासी क्षेत्र था, शिक्षा, धार्मिकता, संस्कार, संपत्ति और जीवन जीने के संसाधन अल्प थे, उन लोगों को नर्मदा ने आस्था से भरपूर मानवीय जीवन दिया। गुजरात का समृद्ध तबका भी नर्मदा परिक्रमा कर रहा है। यहां भी दूसरे तंत्र निष्फल थे, संस्कार देने में, समृद्धि देने में, बड़े समाज को दीक्षित करने में, समाज को समाहित करने में, जहां राजकीय व्यवस्था निष्फल थीं, उन व्यवस्थाओं और लोगों को अपने साथ जोडक़र नर्मदा जी ने श्रेष्ठ संस्कार को विकसित कर प्रभावित किया। वह बहुत बड़ा इलाका जहां कुछ भी नहीं था और नर्मदा जी को ही नमस्कार कर, गोता लगाकर उनका नाम जपकर उनकी परिक्रमा करके लोगों में सांस्कृतिक विकास हुआ कि ये देवी हैं। पुराणों में जो गंगा की महिमा है, उसी तरह की महिमा नर्मदा की भी है।
हमारे यहां एक वाक्य कहा जाता है कि मरना हो, तो गंगा के तट पर और तप करना हो, तो नर्मदा के तट पर। तप करने का अर्थ है द्वंद्व झेलना। अभी बिजली चली जाए और हम तड़पने लगें, तो मतलब है, हम लोग द्वंद्व सहन नहीं कर पा रहे हैं। इसको झेल कर भी जो न तिलमिलाए, वही तपस्वी है। गर्मी के मौसम में कितनी भी भयंकर गर्मी हो, कितने लोग हिल स्टेशन पर जा पाते हैं, बहुत कम लोग। नेता गर्मी के कारण अपना क्षेत्र छोडक़र जाएगा क्या? कोई महात्मा अपने चेलों, अपनी पूजा छोडक़र गर्म स्थानों को छोडक़र पहाड़ों पर जाएगा क्या?
तो नर्मदा के तट पर तप करना चाहिए और मरना चाहिए गंगा के तट पर।
नर्मदायां तप: कुर्यात् मरणं जाह्नवीतटे।
वैसे यह बात हर जगह नहीं होती, क्योंकि मोक्ष नर्मदा के तट पर भी शरीर छोडऩे से, नर्मदा जी का नाम जपने से, उनका आचमन करने से मिलता है।
तो यह पहलू जिसको मैं उजागर कर रहा हूं, नर्मदा मां की जलधारा ने एक बहुत बड़े समुदाय को संस्कारित किया। नर्मदा जी का जो क्षेत्र है, मध्य प्रदेश का अधिकांश भाग गौड़ आदिवासियों का है, गुजरात है, दोनों प्रांत के बहुत बड़े इलाके को अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से प्रभावित किया। गंगा में नगरों के माध्यम से जो प्रदूषण आया, वैसा प्रदूषण नर्मदा में आज भी नहीं है, नाले नर्मदा में भी गिर रहे हैं, किन्तु सुधार भी हो रहा है। निस्संदेह, गंगा में नालों की मात्रा बढ़ गई है। बनारस में आबादी बढ़ रही है, पटना की आबादी बहुत बढ़ गई है। औद्योगिक शहर बढ़े हैं, राजधानियां बढ़ी हैं, तो नाले भी बढ़े हैं, इस विषय पर सोचना चाहिए। नदियों की सफाई के बारे में सोचना चाहिए और आगे बढक़र कदम उठाने चाहिए।
फिर भी कुल मिलाकर गंगा की तुलना में नर्मदा का स्वच्छ जल और पौराणिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ जो स्वरूप है, उस स्वरूप को छोटे-बड़े सभी लोगों ने प्राप्त किया। जल ने दोनों को ही संस्कारित किया। ऐसे-ऐसे लोग हैं, वर्षों तक नर्मदा की परिक्रमा करते रहते हैं, पूरे विधि-विधान से करते हैं।
क्रमश:
गंगा में जब जल बढ़ता है, तो वह आसपास के इलाकों को डुबो देती है और उसके बाद जब आप खेतों में बीज डालेंगे, तो खूब फसल होती है। गंगा संस्कृति और समाज को भी प्रभावित करती है।
गंगा किनारे पर बसे एक आदमी से मैंने पूछा, 'आपके कितने मकान बह गए?
उसने कहा, 'आठ बह गए, यह नौवां है।
मैंने पूछा, 'तो गंगा के लिए क्या भाव हैं?
उसने उत्तर दिया, 'सर्वश्रेष्ठ भाव हैं, मां के लिए खराब भाव होता है क्या? कौन मां होगी, जो छोटी आयु में शैतानी करने पर अपने बच्चे के कान नहीं गरम करती होगी? जब मां देखती है कि बच्चे का विकास नहीं हो रहा है, बुराई की ओर जा रहा है, तब अनुशासित करती है। मां हमारी जमीन को अपने में समाहित कर लेती हैं, हमारी बुरी भावनाओं को दूर करती हैं।
उस व्यक्ति ने कहा, 'हम डंके की चोट पर कहते हैं कि गंगा के किनारे वाले लोग दूषित नहीं थे, और जगह के लोग आए, तो बुराइयां आईं, नहीं तो यह गंगा लाखों लोगों को बेघर कर देती हैं, जमीन के बिना कर देती हैं, लाखों लोगों को सडक़ पर ले आती हैं, लेकिन इसके बावजूद सबसे बड़ी आस्था का केन्द्र गंगा है।
नर्मदा का भी ऐसा ही महत्व है। नर्मदा जी ने एक बड़े भूभाग पर बसे लोगों को जल दिया। बड़ा स्वरूप हो गया, गुजरात वगैरह को पानी मिल रहा है, बड़े बांध बने हैं। फिर भी उतने बड़े महानगरों को जल नहीं दिया, जितने महानगरों को गंगा ने दिया। नर्मदा के तट पर ज्यादातर इलाका आदिवासी क्षेत्र था, शिक्षा, धार्मिकता, संस्कार, संपत्ति और जीवन जीने के संसाधन अल्प थे, उन लोगों को नर्मदा ने आस्था से भरपूर मानवीय जीवन दिया। गुजरात का समृद्ध तबका भी नर्मदा परिक्रमा कर रहा है। यहां भी दूसरे तंत्र निष्फल थे, संस्कार देने में, समृद्धि देने में, बड़े समाज को दीक्षित करने में, समाज को समाहित करने में, जहां राजकीय व्यवस्था निष्फल थीं, उन व्यवस्थाओं और लोगों को अपने साथ जोडक़र नर्मदा जी ने श्रेष्ठ संस्कार को विकसित कर प्रभावित किया। वह बहुत बड़ा इलाका जहां कुछ भी नहीं था और नर्मदा जी को ही नमस्कार कर, गोता लगाकर उनका नाम जपकर उनकी परिक्रमा करके लोगों में सांस्कृतिक विकास हुआ कि ये देवी हैं। पुराणों में जो गंगा की महिमा है, उसी तरह की महिमा नर्मदा की भी है।
हमारे यहां एक वाक्य कहा जाता है कि मरना हो, तो गंगा के तट पर और तप करना हो, तो नर्मदा के तट पर। तप करने का अर्थ है द्वंद्व झेलना। अभी बिजली चली जाए और हम तड़पने लगें, तो मतलब है, हम लोग द्वंद्व सहन नहीं कर पा रहे हैं। इसको झेल कर भी जो न तिलमिलाए, वही तपस्वी है। गर्मी के मौसम में कितनी भी भयंकर गर्मी हो, कितने लोग हिल स्टेशन पर जा पाते हैं, बहुत कम लोग। नेता गर्मी के कारण अपना क्षेत्र छोडक़र जाएगा क्या? कोई महात्मा अपने चेलों, अपनी पूजा छोडक़र गर्म स्थानों को छोडक़र पहाड़ों पर जाएगा क्या?
तो नर्मदा के तट पर तप करना चाहिए और मरना चाहिए गंगा के तट पर।
नर्मदायां तप: कुर्यात् मरणं जाह्नवीतटे।
वैसे यह बात हर जगह नहीं होती, क्योंकि मोक्ष नर्मदा के तट पर भी शरीर छोडऩे से, नर्मदा जी का नाम जपने से, उनका आचमन करने से मिलता है।
तो यह पहलू जिसको मैं उजागर कर रहा हूं, नर्मदा मां की जलधारा ने एक बहुत बड़े समुदाय को संस्कारित किया। नर्मदा जी का जो क्षेत्र है, मध्य प्रदेश का अधिकांश भाग गौड़ आदिवासियों का है, गुजरात है, दोनों प्रांत के बहुत बड़े इलाके को अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से प्रभावित किया। गंगा में नगरों के माध्यम से जो प्रदूषण आया, वैसा प्रदूषण नर्मदा में आज भी नहीं है, नाले नर्मदा में भी गिर रहे हैं, किन्तु सुधार भी हो रहा है। निस्संदेह, गंगा में नालों की मात्रा बढ़ गई है। बनारस में आबादी बढ़ रही है, पटना की आबादी बहुत बढ़ गई है। औद्योगिक शहर बढ़े हैं, राजधानियां बढ़ी हैं, तो नाले भी बढ़े हैं, इस विषय पर सोचना चाहिए। नदियों की सफाई के बारे में सोचना चाहिए और आगे बढक़र कदम उठाने चाहिए।
फिर भी कुल मिलाकर गंगा की तुलना में नर्मदा का स्वच्छ जल और पौराणिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ जो स्वरूप है, उस स्वरूप को छोटे-बड़े सभी लोगों ने प्राप्त किया। जल ने दोनों को ही संस्कारित किया। ऐसे-ऐसे लोग हैं, वर्षों तक नर्मदा की परिक्रमा करते रहते हैं, पूरे विधि-विधान से करते हैं।
क्रमश:
जय गंगा, जय नर्मदा
प्रवचन - भाग - १
अद्भुत है गंगा का उद्गम स्थल, जहां से गंगा जी का प्राकट्य होता है, उनका प्रथम दर्शन होता है, जिसे हम लोग गोमुख बोलते हैं। इस जल के क्षय के युग में भी जब जल का स्वरूप संकुचित होता जा रहा है, उसके बावजूद वहां प्रवाह स्थल काफी बड़ा है, जहां से गंगा प्रकट होती है। वहां कोई मजबूत से मजबूत वस्तु टिक नहीं सकती, हाहाकार मचाती गंगा प्रकट होती हैं और उनका हाहाकार बढ़ते-बढ़ते कहां गोमुख से लेकर गंगोत्री और तमाम स्थलों को स्पर्श करते हुए, ऋषिकेश और हरिद्वार तक उसी रूप में गंगा सागर तक चलता है। नहरों के निकलने के कारण बीच-बीच में प्रवाह कुछ कम हुआ है, लेकिन बाद में गंगा बिहार पहुंचकर फिर बड़ी हो जाती हैं, उनका प्रवाह क्षेत्र बड़ा हो जाता है।
नर्मदा का जो उद्गम स्थल है, वह ऐसा हो गया है कि बूंद-बूंद जल गिरता है। लगता है, वह सूखता जा रहा है। वह सूखा पर्वत है, जहां से नर्मदा जी प्रकट हुई हैं। अमरकंटक में उस स्थल को देखकर निराशा हुई कि अगर यही स्थिति रहेगी, तो नर्मदा ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगी। जहां लोग कुंड में स्नान करते हैं, वहां भी प्रवाह का स्वरूप बहुत शिथिल था। प्रदूषण से प्रभावित था। लोगों के स्नान से प्रभावित था। भगवान ही मालिक हैं, किन्तु हम लोगों ने बिना नाक-भौं सिकोड़े स्नान किया, क्योंकि हम पूर्ण श्रद्धाभाव से गए थे। यदि किसी की मां गोबर थापने वाली ही होंगी, तो क्या हुआ, है तो मां ही। जैसे किसी धनवान मां का बच्चा मां से प्यार करता है, ठीक उसी तरह से गरीब मां का बच्चा भी मां को वैसे ही प्यार करता है, दुलारता है, संवारता है।
मुझे यह भावना नहीं हो रही थी कि जल गंदा है, किन्तु यह चिंता जरूर हुई कि जिस व्यक्ति में नर्मदा मां के प्रति पूर्ण आस्था नहीं होगी, वह तो देखकर भडक़ जाएगा।
तो गंगा का जलीय स्वरूप नर्मदा से आज भी बड़ा है। जितने बड़े शहरों का निर्माण गंगा ने किया है, उतने बड़े क्षेत्र का निर्माण नर्मदा द्वारा नहीं हुआ है। गंगा के साथ आप आगे चलेंगे, तो ऋषिकेश का बड़ा स्वरूप है, हरिद्वार कुंभ क्षेत्र है। शुकताल एक बड़ा तीर्थ है, जहां शुकदेव जी ने परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी। आगे कानपुर है, विशाल उद्योग नगरी है, आगे तीर्थराज प्रयाग है, काशी है, बक्सर है, जहां वाल्मीकि जी जैसे ऋषि थे, गौतम जी का आश्रम था, जहां अहल्या का राम जी ने उद्धार किया। आगे बढ़ते हुए गंगा पटना को आबाद कर रही हैं, बिहार का बड़ा शहर है, उसके बाद भागलपुर को आबाद करते हुए गंगा आगे बढ़ रही हैं। गंगा का जो मैदान है, वह एशिया का सबसे बड़ा उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। मध्य प्रदेश में चना-गेहूं अच्छे होने लगे, लेकिन जिस समृद्धि का निर्माण और भौतिक दृष्टि से संरक्षण देने का स्वरूप गंगा के माध्यम से हुआ, वह नर्मदा के माध्यम से नहीं हुआ है।
पहले मैं बाह्य स्वरूप में चर्चा कर रहा हूं। जितनी गंगा से नहरें निकलती हैं हरिद्वार से लेकर आगे तक। यदि काशी ज्ञान की बड़ी नगरी है, तो उसमें गंगा का बड़ा योगदान है, भगवान शंकर की जटा से वह निकली हैं, ऐसा विश्वास है हमारा। प्रयाग या इलाहाबाद में भगवान माधव, बक्सर में महा तीर्थ, पटना के तीर्थ। काशी यदि संसार की प्राचीनतम नगरी है, तो पाटलीपुत्र भी ऐतिहासिक नगरी है, जहां का राजा अशोक इतिहास का सबसे बड़ा राजा है। पाटलीपुत्र का ज्ञान जिसको नहीं है, वह मुंह बिचका लेता है कि पटना क्या होता है, लेकिन भारत का जो स्वर्ण युग है, मोर्य वंश, गुप्त वंश की राजधानी वहां थी। उन सभी अच्छाइयों में गंगा का योगदान है। चाणक्य की वह भूमि है, चाणक्य आधुनिक राजनीति को प्रेरणा देने वाले महापुरुष हैं। निश्चित रूप से गंगा की हवा, गंगा के अपने जलीय स्वरूप ने चाणक्य को भी प्रभावित किया होगा, गौतम बुद्ध को भी प्रभावित किया होगा, जैन धर्म के तीर्थंकरों को और आदि शंकराचार्य को भी प्रभावित किया होगा। शंकराचार्य को भी यहां आकर मंडन मिश्र जैसे शिष्य मिले। ज्ञान विज्ञान का जो विकास हुआ, वह बिहार में ही हुआ है और उसमें गंगा का योगदान है। सिख धर्म की शक्ति में भी गंगा का बड़ा योगदान रहा। पटना साहिब गंगा के किनारे ही स्थित है।
क्रमश:
अद्भुत है गंगा का उद्गम स्थल, जहां से गंगा जी का प्राकट्य होता है, उनका प्रथम दर्शन होता है, जिसे हम लोग गोमुख बोलते हैं। इस जल के क्षय के युग में भी जब जल का स्वरूप संकुचित होता जा रहा है, उसके बावजूद वहां प्रवाह स्थल काफी बड़ा है, जहां से गंगा प्रकट होती है। वहां कोई मजबूत से मजबूत वस्तु टिक नहीं सकती, हाहाकार मचाती गंगा प्रकट होती हैं और उनका हाहाकार बढ़ते-बढ़ते कहां गोमुख से लेकर गंगोत्री और तमाम स्थलों को स्पर्श करते हुए, ऋषिकेश और हरिद्वार तक उसी रूप में गंगा सागर तक चलता है। नहरों के निकलने के कारण बीच-बीच में प्रवाह कुछ कम हुआ है, लेकिन बाद में गंगा बिहार पहुंचकर फिर बड़ी हो जाती हैं, उनका प्रवाह क्षेत्र बड़ा हो जाता है।
नर्मदा का जो उद्गम स्थल है, वह ऐसा हो गया है कि बूंद-बूंद जल गिरता है। लगता है, वह सूखता जा रहा है। वह सूखा पर्वत है, जहां से नर्मदा जी प्रकट हुई हैं। अमरकंटक में उस स्थल को देखकर निराशा हुई कि अगर यही स्थिति रहेगी, तो नर्मदा ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगी। जहां लोग कुंड में स्नान करते हैं, वहां भी प्रवाह का स्वरूप बहुत शिथिल था। प्रदूषण से प्रभावित था। लोगों के स्नान से प्रभावित था। भगवान ही मालिक हैं, किन्तु हम लोगों ने बिना नाक-भौं सिकोड़े स्नान किया, क्योंकि हम पूर्ण श्रद्धाभाव से गए थे। यदि किसी की मां गोबर थापने वाली ही होंगी, तो क्या हुआ, है तो मां ही। जैसे किसी धनवान मां का बच्चा मां से प्यार करता है, ठीक उसी तरह से गरीब मां का बच्चा भी मां को वैसे ही प्यार करता है, दुलारता है, संवारता है।
मुझे यह भावना नहीं हो रही थी कि जल गंदा है, किन्तु यह चिंता जरूर हुई कि जिस व्यक्ति में नर्मदा मां के प्रति पूर्ण आस्था नहीं होगी, वह तो देखकर भडक़ जाएगा।
तो गंगा का जलीय स्वरूप नर्मदा से आज भी बड़ा है। जितने बड़े शहरों का निर्माण गंगा ने किया है, उतने बड़े क्षेत्र का निर्माण नर्मदा द्वारा नहीं हुआ है। गंगा के साथ आप आगे चलेंगे, तो ऋषिकेश का बड़ा स्वरूप है, हरिद्वार कुंभ क्षेत्र है। शुकताल एक बड़ा तीर्थ है, जहां शुकदेव जी ने परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी। आगे कानपुर है, विशाल उद्योग नगरी है, आगे तीर्थराज प्रयाग है, काशी है, बक्सर है, जहां वाल्मीकि जी जैसे ऋषि थे, गौतम जी का आश्रम था, जहां अहल्या का राम जी ने उद्धार किया। आगे बढ़ते हुए गंगा पटना को आबाद कर रही हैं, बिहार का बड़ा शहर है, उसके बाद भागलपुर को आबाद करते हुए गंगा आगे बढ़ रही हैं। गंगा का जो मैदान है, वह एशिया का सबसे बड़ा उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। मध्य प्रदेश में चना-गेहूं अच्छे होने लगे, लेकिन जिस समृद्धि का निर्माण और भौतिक दृष्टि से संरक्षण देने का स्वरूप गंगा के माध्यम से हुआ, वह नर्मदा के माध्यम से नहीं हुआ है।
पहले मैं बाह्य स्वरूप में चर्चा कर रहा हूं। जितनी गंगा से नहरें निकलती हैं हरिद्वार से लेकर आगे तक। यदि काशी ज्ञान की बड़ी नगरी है, तो उसमें गंगा का बड़ा योगदान है, भगवान शंकर की जटा से वह निकली हैं, ऐसा विश्वास है हमारा। प्रयाग या इलाहाबाद में भगवान माधव, बक्सर में महा तीर्थ, पटना के तीर्थ। काशी यदि संसार की प्राचीनतम नगरी है, तो पाटलीपुत्र भी ऐतिहासिक नगरी है, जहां का राजा अशोक इतिहास का सबसे बड़ा राजा है। पाटलीपुत्र का ज्ञान जिसको नहीं है, वह मुंह बिचका लेता है कि पटना क्या होता है, लेकिन भारत का जो स्वर्ण युग है, मोर्य वंश, गुप्त वंश की राजधानी वहां थी। उन सभी अच्छाइयों में गंगा का योगदान है। चाणक्य की वह भूमि है, चाणक्य आधुनिक राजनीति को प्रेरणा देने वाले महापुरुष हैं। निश्चित रूप से गंगा की हवा, गंगा के अपने जलीय स्वरूप ने चाणक्य को भी प्रभावित किया होगा, गौतम बुद्ध को भी प्रभावित किया होगा, जैन धर्म के तीर्थंकरों को और आदि शंकराचार्य को भी प्रभावित किया होगा। शंकराचार्य को भी यहां आकर मंडन मिश्र जैसे शिष्य मिले। ज्ञान विज्ञान का जो विकास हुआ, वह बिहार में ही हुआ है और उसमें गंगा का योगदान है। सिख धर्म की शक्ति में भी गंगा का बड़ा योगदान रहा। पटना साहिब गंगा के किनारे ही स्थित है।
क्रमश:
प्राक्कथन- प्रवचन पुस्तिका
ज्ञानेश उपाध्याय
प्राक्कथन के लिए कुछ लिखने बैठा हूं, तो आभार जताने की अनंत आकांक्षाओं के सिवा मन-हृदय में कुछ आ ही नहीं रहा है। कंप्यूटर के की-बोर्ड पर अचंभित व संकोच भार से ठिठकी हुई हैं अंगुलियां, मस्तिष्क के आदेश के लिए प्रतीक्षारत कि मस्तिष्क किसी रसायन को भाव रूप में प्रेषित करे, किन्तु मस्तिष्क संभवत: स्वयं स्तब्ध है, इतने तरह के रसायन बन रहे हैं कि जो सिद्धांत में ही कहीं उल्लिखित नहीं हैं, तो उनके व्यवहार में प्रकट होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अब आगे बढऩे के दो मार्ग हैं। पहला यह कि प्राक्कथन लेखन रोक दिया जाए और केवल रस में डूबा जाए, केवल निहारा जाए या नेत्र बंदकर केवल अनहद आंतरिक आनंद को अनुभूत किया जाए। दूसरा मार्ग यह है कि कुछ परिश्रम से रसायन का कोई टुकड़ा उठाकर प्रस्तुत किया जाए, अंदर के सागर से एक चम्मच निकाल लाया जाए, ताकि पता तो लगे कि अंदर क्या चल रहा है, किन्तु इसमें एक अन्याय भी है, जो ईश्वरीय भाव रसायन मस्तिष्क में अभिन्न और अखंड है, उसको सम्पूर्णता में प्रकट नहीं किया जा सकता, अभिन्न को भिन्न करके या अखंड को खंडित करके ही कोई प्रगटीकरण संभव है, तो हुआ न अन्याय! यह एक तर्क होता है, संभवत: जिसके कारण संसार के अनेक आम लोग और संत-महात्मा मौन रहने का मार्ग चुनते हैं। यह अत्यंत स्वाभाविक भी है।
मैं आम व्यक्ति हूं, पत्रकार हूं, हम लोगों का कार्य ही है विखंडित को सुविधा अनुसार खंडित करके अध्ययन करना, प्रस्तुत करना। हम लोग काफी सारा बनावटी काम करते हैं, क्योंकि बनाए बिना काम नहीं चलता। कई बार सच्चाइयां ऐसी कुरूप होती हैं कि कुछ न कुछ बनाना ही पड़ता है, ताकि प्रस्तुत करने के अनुकूल किया जा सके। हम लोग समाचार बनाते हैं, आलेख-लेख बनाते हैं, पृष्ठ योजना बनाते हैं, पृष्ठ बनाते हैं - यह सब हम पत्रकारों के मन में चल रहे सम्पूर्ण अभिन्न और अखंड का हिस्सा होता है। वह जो पृष्ठ या भाव रसायन मूल रूप से मस्तिष्क में बनता है, वास्तव में वह कभी सम्पूर्णता में पृष्ठ पर प्रकट नहीं हो पाता। कुछ न कुछ छूट जाता है, कोई न कोई आकांक्षा या योजना का कोई न कोई भाग क्रियान्वित होने से वंचित रह जाता है, उस वंचित की भरपाई का प्रयास हम अगले पृष्ठ या अगले पत्रकारीय कर्म में करने की चेष्टा करते हैं। वैसे वास्तव में हम पत्रकार महात्मा गांधी से लेकर आजतक अभिन्नता और अखंडता का पीछा कर रहे हैं, हम सत्य का पीछा कर रहे हैं। अच्छी पत्रकारिता सदैव ही असत्य के पीछे दौडक़र उसका सत्य खोजती है। हर असत्य का भी अपना सत्य होता है, जिसे प्रकट करना सर्वथा समाज हित में होता है। राम जी की कृपा से, आइए, अन्यायपूर्ण ही सही, कुछ अधूरा-सा, टूटा हुआ-सा, खंडित ही सही, क्षमा के अग्रिम निवेदन के साथ कुछ प्रकट होने देते हैं ...
मैं जब जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी को अनुभूत करता हूं, तो मुझे अनायास यह लगता है कि वे भी निरंतर सत्य के पीछे भाग रहे हैं, सच्चे-उजले धन और सच्चे-उजले लोगों के पीछे भाग रहे हैं। संत रूपी असंतों के आधुनिक-धनमुखी-इलेक्ट्रॉनिक महा-कोलाहल और महा अंधकार में कोई यदि सच्चे और उजले धन और मन को तन्मयता के साथ खोजता हुआ दिखता है, तो रोम अनायास हर्षित हो जाते हैं। एक दिन महाराज ने बताया, 'अनेक पवित्र शिष्य हैं, जिनमें से किसी ऐसे को खोज रहा हूं, जिसके धन से राम जी की प्रतिमा बनवाई जाए। राम जी की प्रतिमा तो किसी पवित्र व्यक्ति के पवित्र धन से ही निर्मित होनी चाहिए। तभी तो सहज रामभाव उत्पन्न होगा।Ó इनका ऐसा दुर्लभ दरबार है, जहां से काले धन की मोटी थैलियां यह कहकर लौटा दी जाती हैं कि ये दो नंबर का धन रखिए अपने पास, यह राम काज में लगने योग्य नहीं है। हम ऐसे कालखंड में रह रहे हैं, जब बड़े से बड़ा पापी धनिक बाहुबली धार्मिक उपक्रम में १० से २० प्रतिशत कमाई खर्च करके स्वयं को ईश्वरीय आपदा से सुरक्षित समझने लगता है। धार्मिक उपक्रम या उद्यम चलाकर ज्यादातर असंत प्रवचनकर्ता दान की काली थैलियों की प्रतीक्षा में दिन-रात द्वार खुले रखते हैं। आज के समय में काले धन की मोटी-मोटी थैलियों से निर्लिप्त होकर यदि कोई सीताराममय संत बैठा है, तो वह सहज ही प्रेरित करता है। न सत्ता मोह, न आडंबर, न टोटका, न काला जादू, न ज्योतिष का जोर, केवल राम भाव। कोई अंध विश्वास नहीं, केवल विश्वास। अंध श्रद्धा का कोई तांडव नहीं, केवल श्रद्धा की अनुपम सजावट। इनके पास मीठी गोलियां नहीं हैं, क्योंकि वे कड़वी गोलियों का मोल जानते हैं, वे जानते हैं कि कड़वी गोलियां सशक्त करेंगी और मीठी गोलियां अंदर से खोखला कर देंगी। इनके यहां गरीब भी अच्छे व्यवहार से खूब प्रशंसा पाता है और गलती पर धन्नासेठों को भी डांट खाते सुना जा सकता है। इस देश में धर्म क्षेत्र में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो अपने दानदाता को ही फटकार देते हों। लाखों की हानि हो जाए, किन्तु राम भाव में एक आना की हानि भी स्वीकार्य नहीं। कई अध्यात्म-व्यवसायी तो अपने बड़े दानदाताओं को ईश्वर से भी ज्यादा समय और सम्मान देते होंगे।
महाराज का निर्भय होना भी बहुत आकर्षित करता है। जो भी हो जाए, सत्य बोलेंगे। उन्होंने एक बार सत्य कह दिया, समाचार पत्र में छप गया और एक घोषित महात्मा को चुभ गया। उस घोषित महात्मा के चेलों ने लिखित में भी आपत्ति की, समाचार पत्र को निशाना बनाया, समाचार पत्र ने केवल यह स्पष्ट किया कि उसका लक्ष्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं था। समाचार पत्र को लचीला देखकर घोषित महात्मा के चेले और आक्रामक हो गए, तर्क करने लगे, दावे करने लगे। इस स्थिति में मैंने महाराज को कुछ नहीं कहा, किन्तु मेरी चर्चा गुरुतुल्य पत्रकार रामबहादुर राय जी के साथ हुई, तो उन्होंने सलाह दी, यदि आप घोषित महात्मा का पक्ष छापते हैं, तो स्वामी रामनरेशाचार्य जी का भी पक्ष छापिए, दोनों को आमने-सामने कर दीजिए, न्याय दर्शन के विद्वान स्वामी जी अपना मुकदमा लडऩे में इतने सक्षम हैं कि उनके सामने कोई टिक नहीं सकता।
तो ऐसे हैं हमारे महाराज जी कि महाराज जी की तुलना केवल महाराज जी से ही संभव है। अथाह बल का अनुभव कराते हुए वे ऐसे अभिभावक संत हैं, जो निरंतर सजग और अडिग हैं। उन्हीं की कृपा से प्रवचन की यह दूसरी पुस्तिका लिखित और प्रकाशित हो रही है। एक भी प्रवचन हवाई नहीं है, सारे प्रवचन ठेठ जीवन से सम्बंधित हैं, अनगिनत प्रकार के सुधारों के लिए प्रेरित करते इन प्रवचनों में उपदेश का भाव नहीं है। मैंने आज की समस्याओं को सामने रखकर महाराज से ये प्रवचन लिए हैं, मुझे पता है, उनका मन इस समाज और देश के लिए रोता है। वे निरंतर राम जी को याद करते हैं कि राम जी होते, तो कैसे सुधार करते। बोलते-बोलते वे कई बार इतने सजल हो जाते हैं कि सैकड़ों किलोमीटर दूर फोन पर उनकी आवाज सुन रहा मैं भावविभोर हो जाता हूं। उनकी राममय संवेदना उनके स्वर में न्यस्त होकर दूर तक प्रेषित हो जाती है। सजलता विस्तार पा जाती है। निस्संदेह, उन्हें सुनते हुए कई बार बहुत रोने का मन करता है, किन्तु क्यों रोया जाए? इनके यहां तो विलाप या प्रलाप के लिए कोई स्थान नहीं है, स्वयं को सही मार्ग पर बनाए रखना है, अडिग रखना है और बढ़ते चलना है। ऐसा नहीं कि बड़ी-बड़ी बातों को केवल सुन रहे हैं, अपने जीवन में नहीं उतार रहे और आशा कर रहे हैं कि सुधार के लिए पड़ोसी के यहां ही भगत सिंह पैदा हो, तो भूल जाइए, आपका सुधार संभव नहीं। आज का संसार युद्ध समान है, युद्ध में दो ही मार्ग होते हैं, या तो समर्पण कर दीजिए, किन्तु समर्पण करने का अर्थ है - वैसे ही हो जाइए, जैसी आज की अधकचरी दुनिया हो गई है, मुंह में राम बगल में छुरी, या फिर युद्ध लडि़ए, अपने अंदर, बाहर और संसार को बताइए कि राम भाव में जीना क्या होता है। महाराज जी युद्ध ही तो लड़ रहे हैं, राम जी की कृपा से आज भी विजयी हैं और सदैव विजयी रहेंगे।
मैं सोचता रहता हूं और आज हर किसी को यह सोचना चाहिए, मान लीजिए, राम और रावण के बीच पुन: युद्ध छिडऩे वाला हो और दोनों तरफ की सेनाओं में बहाली या निुयक्ति चल रही हो, संसार को दो भाग में बांटा जा रहा हो, एक राम की ओर, दूसरा रावण की ओर, तो किसकी बहाली किधर होगी? हर किसी को सोचना चाहिए कि उसने स्वयं को कहां बहाल होने योग्य बनाया है, अपनी कथनी-करनी से अपने को रावण के योग्य बनाया है या रामजी के योग्य बनाया है। यह व्यावहारिक चिंतन हर किसी को करना चाहिए। महाराज जी के पीछे चलने की चेष्टा में मेरा यह पुरजोर प्रयास रहा है कि मैं योग्यता के मापदण्ड पर खरा उतरूं और राम जी की सेना की ओर सहायक समाहित किया जाऊं, अपनी करनी की वजह से ऐसा हल्का व अयोग्य न हो जाऊं कि रावण की सेना में बहाल होने योग्य हो जाऊं।
मेरे इस प्रयास में अनेक अग्रजों और अनुजों का हाथ रहा है। मेरे माता-पिता और सम्पूर्ण परिवार का आभार। मैं अनुज मित्र शास्त्री कोसलेन्द्रदास का योगदान कभी भुला नहीं सकता। राम जी की कृपा से हम यों ही संभलकर चलते रहें, ताकि हमसे किसी को अन्यथा कोई रत्ती भर भी हानि न हो। और जब महाराज जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी हमारे साथ हैं, तो फिर पीछ़े मुडक़र क्या देखना, आइए, चले चलते हैं बोलते हुए... सीताराम सीताराम...
२५ अगस्त २०१३, जयपुर
प्राक्कथन के लिए कुछ लिखने बैठा हूं, तो आभार जताने की अनंत आकांक्षाओं के सिवा मन-हृदय में कुछ आ ही नहीं रहा है। कंप्यूटर के की-बोर्ड पर अचंभित व संकोच भार से ठिठकी हुई हैं अंगुलियां, मस्तिष्क के आदेश के लिए प्रतीक्षारत कि मस्तिष्क किसी रसायन को भाव रूप में प्रेषित करे, किन्तु मस्तिष्क संभवत: स्वयं स्तब्ध है, इतने तरह के रसायन बन रहे हैं कि जो सिद्धांत में ही कहीं उल्लिखित नहीं हैं, तो उनके व्यवहार में प्रकट होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अब आगे बढऩे के दो मार्ग हैं। पहला यह कि प्राक्कथन लेखन रोक दिया जाए और केवल रस में डूबा जाए, केवल निहारा जाए या नेत्र बंदकर केवल अनहद आंतरिक आनंद को अनुभूत किया जाए। दूसरा मार्ग यह है कि कुछ परिश्रम से रसायन का कोई टुकड़ा उठाकर प्रस्तुत किया जाए, अंदर के सागर से एक चम्मच निकाल लाया जाए, ताकि पता तो लगे कि अंदर क्या चल रहा है, किन्तु इसमें एक अन्याय भी है, जो ईश्वरीय भाव रसायन मस्तिष्क में अभिन्न और अखंड है, उसको सम्पूर्णता में प्रकट नहीं किया जा सकता, अभिन्न को भिन्न करके या अखंड को खंडित करके ही कोई प्रगटीकरण संभव है, तो हुआ न अन्याय! यह एक तर्क होता है, संभवत: जिसके कारण संसार के अनेक आम लोग और संत-महात्मा मौन रहने का मार्ग चुनते हैं। यह अत्यंत स्वाभाविक भी है।
मैं आम व्यक्ति हूं, पत्रकार हूं, हम लोगों का कार्य ही है विखंडित को सुविधा अनुसार खंडित करके अध्ययन करना, प्रस्तुत करना। हम लोग काफी सारा बनावटी काम करते हैं, क्योंकि बनाए बिना काम नहीं चलता। कई बार सच्चाइयां ऐसी कुरूप होती हैं कि कुछ न कुछ बनाना ही पड़ता है, ताकि प्रस्तुत करने के अनुकूल किया जा सके। हम लोग समाचार बनाते हैं, आलेख-लेख बनाते हैं, पृष्ठ योजना बनाते हैं, पृष्ठ बनाते हैं - यह सब हम पत्रकारों के मन में चल रहे सम्पूर्ण अभिन्न और अखंड का हिस्सा होता है। वह जो पृष्ठ या भाव रसायन मूल रूप से मस्तिष्क में बनता है, वास्तव में वह कभी सम्पूर्णता में पृष्ठ पर प्रकट नहीं हो पाता। कुछ न कुछ छूट जाता है, कोई न कोई आकांक्षा या योजना का कोई न कोई भाग क्रियान्वित होने से वंचित रह जाता है, उस वंचित की भरपाई का प्रयास हम अगले पृष्ठ या अगले पत्रकारीय कर्म में करने की चेष्टा करते हैं। वैसे वास्तव में हम पत्रकार महात्मा गांधी से लेकर आजतक अभिन्नता और अखंडता का पीछा कर रहे हैं, हम सत्य का पीछा कर रहे हैं। अच्छी पत्रकारिता सदैव ही असत्य के पीछे दौडक़र उसका सत्य खोजती है। हर असत्य का भी अपना सत्य होता है, जिसे प्रकट करना सर्वथा समाज हित में होता है। राम जी की कृपा से, आइए, अन्यायपूर्ण ही सही, कुछ अधूरा-सा, टूटा हुआ-सा, खंडित ही सही, क्षमा के अग्रिम निवेदन के साथ कुछ प्रकट होने देते हैं ...
मैं जब जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी को अनुभूत करता हूं, तो मुझे अनायास यह लगता है कि वे भी निरंतर सत्य के पीछे भाग रहे हैं, सच्चे-उजले धन और सच्चे-उजले लोगों के पीछे भाग रहे हैं। संत रूपी असंतों के आधुनिक-धनमुखी-इलेक्ट्रॉनिक महा-कोलाहल और महा अंधकार में कोई यदि सच्चे और उजले धन और मन को तन्मयता के साथ खोजता हुआ दिखता है, तो रोम अनायास हर्षित हो जाते हैं। एक दिन महाराज ने बताया, 'अनेक पवित्र शिष्य हैं, जिनमें से किसी ऐसे को खोज रहा हूं, जिसके धन से राम जी की प्रतिमा बनवाई जाए। राम जी की प्रतिमा तो किसी पवित्र व्यक्ति के पवित्र धन से ही निर्मित होनी चाहिए। तभी तो सहज रामभाव उत्पन्न होगा।Ó इनका ऐसा दुर्लभ दरबार है, जहां से काले धन की मोटी थैलियां यह कहकर लौटा दी जाती हैं कि ये दो नंबर का धन रखिए अपने पास, यह राम काज में लगने योग्य नहीं है। हम ऐसे कालखंड में रह रहे हैं, जब बड़े से बड़ा पापी धनिक बाहुबली धार्मिक उपक्रम में १० से २० प्रतिशत कमाई खर्च करके स्वयं को ईश्वरीय आपदा से सुरक्षित समझने लगता है। धार्मिक उपक्रम या उद्यम चलाकर ज्यादातर असंत प्रवचनकर्ता दान की काली थैलियों की प्रतीक्षा में दिन-रात द्वार खुले रखते हैं। आज के समय में काले धन की मोटी-मोटी थैलियों से निर्लिप्त होकर यदि कोई सीताराममय संत बैठा है, तो वह सहज ही प्रेरित करता है। न सत्ता मोह, न आडंबर, न टोटका, न काला जादू, न ज्योतिष का जोर, केवल राम भाव। कोई अंध विश्वास नहीं, केवल विश्वास। अंध श्रद्धा का कोई तांडव नहीं, केवल श्रद्धा की अनुपम सजावट। इनके पास मीठी गोलियां नहीं हैं, क्योंकि वे कड़वी गोलियों का मोल जानते हैं, वे जानते हैं कि कड़वी गोलियां सशक्त करेंगी और मीठी गोलियां अंदर से खोखला कर देंगी। इनके यहां गरीब भी अच्छे व्यवहार से खूब प्रशंसा पाता है और गलती पर धन्नासेठों को भी डांट खाते सुना जा सकता है। इस देश में धर्म क्षेत्र में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो अपने दानदाता को ही फटकार देते हों। लाखों की हानि हो जाए, किन्तु राम भाव में एक आना की हानि भी स्वीकार्य नहीं। कई अध्यात्म-व्यवसायी तो अपने बड़े दानदाताओं को ईश्वर से भी ज्यादा समय और सम्मान देते होंगे।
महाराज का निर्भय होना भी बहुत आकर्षित करता है। जो भी हो जाए, सत्य बोलेंगे। उन्होंने एक बार सत्य कह दिया, समाचार पत्र में छप गया और एक घोषित महात्मा को चुभ गया। उस घोषित महात्मा के चेलों ने लिखित में भी आपत्ति की, समाचार पत्र को निशाना बनाया, समाचार पत्र ने केवल यह स्पष्ट किया कि उसका लक्ष्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं था। समाचार पत्र को लचीला देखकर घोषित महात्मा के चेले और आक्रामक हो गए, तर्क करने लगे, दावे करने लगे। इस स्थिति में मैंने महाराज को कुछ नहीं कहा, किन्तु मेरी चर्चा गुरुतुल्य पत्रकार रामबहादुर राय जी के साथ हुई, तो उन्होंने सलाह दी, यदि आप घोषित महात्मा का पक्ष छापते हैं, तो स्वामी रामनरेशाचार्य जी का भी पक्ष छापिए, दोनों को आमने-सामने कर दीजिए, न्याय दर्शन के विद्वान स्वामी जी अपना मुकदमा लडऩे में इतने सक्षम हैं कि उनके सामने कोई टिक नहीं सकता।
तो ऐसे हैं हमारे महाराज जी कि महाराज जी की तुलना केवल महाराज जी से ही संभव है। अथाह बल का अनुभव कराते हुए वे ऐसे अभिभावक संत हैं, जो निरंतर सजग और अडिग हैं। उन्हीं की कृपा से प्रवचन की यह दूसरी पुस्तिका लिखित और प्रकाशित हो रही है। एक भी प्रवचन हवाई नहीं है, सारे प्रवचन ठेठ जीवन से सम्बंधित हैं, अनगिनत प्रकार के सुधारों के लिए प्रेरित करते इन प्रवचनों में उपदेश का भाव नहीं है। मैंने आज की समस्याओं को सामने रखकर महाराज से ये प्रवचन लिए हैं, मुझे पता है, उनका मन इस समाज और देश के लिए रोता है। वे निरंतर राम जी को याद करते हैं कि राम जी होते, तो कैसे सुधार करते। बोलते-बोलते वे कई बार इतने सजल हो जाते हैं कि सैकड़ों किलोमीटर दूर फोन पर उनकी आवाज सुन रहा मैं भावविभोर हो जाता हूं। उनकी राममय संवेदना उनके स्वर में न्यस्त होकर दूर तक प्रेषित हो जाती है। सजलता विस्तार पा जाती है। निस्संदेह, उन्हें सुनते हुए कई बार बहुत रोने का मन करता है, किन्तु क्यों रोया जाए? इनके यहां तो विलाप या प्रलाप के लिए कोई स्थान नहीं है, स्वयं को सही मार्ग पर बनाए रखना है, अडिग रखना है और बढ़ते चलना है। ऐसा नहीं कि बड़ी-बड़ी बातों को केवल सुन रहे हैं, अपने जीवन में नहीं उतार रहे और आशा कर रहे हैं कि सुधार के लिए पड़ोसी के यहां ही भगत सिंह पैदा हो, तो भूल जाइए, आपका सुधार संभव नहीं। आज का संसार युद्ध समान है, युद्ध में दो ही मार्ग होते हैं, या तो समर्पण कर दीजिए, किन्तु समर्पण करने का अर्थ है - वैसे ही हो जाइए, जैसी आज की अधकचरी दुनिया हो गई है, मुंह में राम बगल में छुरी, या फिर युद्ध लडि़ए, अपने अंदर, बाहर और संसार को बताइए कि राम भाव में जीना क्या होता है। महाराज जी युद्ध ही तो लड़ रहे हैं, राम जी की कृपा से आज भी विजयी हैं और सदैव विजयी रहेंगे।
मैं सोचता रहता हूं और आज हर किसी को यह सोचना चाहिए, मान लीजिए, राम और रावण के बीच पुन: युद्ध छिडऩे वाला हो और दोनों तरफ की सेनाओं में बहाली या निुयक्ति चल रही हो, संसार को दो भाग में बांटा जा रहा हो, एक राम की ओर, दूसरा रावण की ओर, तो किसकी बहाली किधर होगी? हर किसी को सोचना चाहिए कि उसने स्वयं को कहां बहाल होने योग्य बनाया है, अपनी कथनी-करनी से अपने को रावण के योग्य बनाया है या रामजी के योग्य बनाया है। यह व्यावहारिक चिंतन हर किसी को करना चाहिए। महाराज जी के पीछे चलने की चेष्टा में मेरा यह पुरजोर प्रयास रहा है कि मैं योग्यता के मापदण्ड पर खरा उतरूं और राम जी की सेना की ओर सहायक समाहित किया जाऊं, अपनी करनी की वजह से ऐसा हल्का व अयोग्य न हो जाऊं कि रावण की सेना में बहाल होने योग्य हो जाऊं।
मेरे इस प्रयास में अनेक अग्रजों और अनुजों का हाथ रहा है। मेरे माता-पिता और सम्पूर्ण परिवार का आभार। मैं अनुज मित्र शास्त्री कोसलेन्द्रदास का योगदान कभी भुला नहीं सकता। राम जी की कृपा से हम यों ही संभलकर चलते रहें, ताकि हमसे किसी को अन्यथा कोई रत्ती भर भी हानि न हो। और जब महाराज जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी हमारे साथ हैं, तो फिर पीछ़े मुडक़र क्या देखना, आइए, चले चलते हैं बोलते हुए... सीताराम सीताराम...
२५ अगस्त २०१३, जयपुर
मङ्गलाशासन
(महाराज की प्रवचन पुस्तिका में उनका परिचय मुनि समान आचार्य रामानुज देवनाथन जी की कलम से)
किं कारणं ब्रह्म कुतस्मजाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा: ।
अधिष् िठता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्।।
ते घ्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढ़ाम्।
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृंहते तस्मिन्हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।
इस वेदवाक्य का तात्पर्य है कि ब्रह्मविदों के द्वारा यह संशय प्रकट किया गया था कि इस जगत के कारण ब्रह्म क्या देवतारूप है? किस ब्रह्म से हमारे जन्म और स्थिति है? कहां पर हमारी प्रतिष्ठा है? किस ब्रह्म के अधीन होकर हम लोग कष्ट से भरा हुआ इस जन्म और सुव्यवस्था के अनुसार चलते हैं? वे ही ब्रह्मविद् लोग अपने ध्यानयोग से यह समाधान भी पाए हुए हैं कि अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायण: इति श्रुतिप्रसिद्ध देव कहे गए नारायण रूपी शक्ति जो कि ब्रह्म है, वही इन सबका अर्थात पूर्वोक्त प्रश्नों के कारण और समाधान है। इसी ब्रह्मचक्र में संसार में पर्यटन करने वाला हंस कहा गया यह जीव भी भ्रमण करता है। ऐसा ब्रह्म से भ्रमित होनेवाला अर्थात संसार में भ्रमित होने वाला जीव उसी ब्रह्म यानि परमात्मा से जुड़े रहने का प्रयास करता हुआ उस ब्रह्म से भक्ति के द्वारा युक्त होकर मुक्ति पाता है। यह श्वेताश्वतरोपनिषद् में दर्शाया गया जीवन्मुक्ति का मार्ग है। और छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि सत्यं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति। सत्यं भगवो विजिज्ञास इति। . . . मतिं भगवो विजिज्ञास इति। . . . श्रद्धा भगवो विजिज्ञात इति।। तात्पर्य है कि सत्य पर अटल रहें, विज्ञान को जानें, ताकि सत्य पर अटल रह सकें, विज्ञान के लिए मति को जानें, इस मति को जानने के लिए श्रद्धा की आवश्यकता है। श्रद्धा के लिए निष्ठा की आवश्यकता है। निष्ठा के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। कार्य करने से ही सुख मिलता है। इस प्रकार छान्दोग्य उपनिषद् आगे बढ़ता है।
इन उपनिषदों में कहे गए सत्य मार्ग पर उपदेश हमें कौन देगा? कौन हमें अच्छे मनुष्य बनाकर हमारा उद्धार करेगा? हम लोग कुमार्ग पर चलते हों, तो कौन हमें सच्चा मार्ग दिखाएगा? इन प्रश्नों का उत्तर है कि साधु और संन्यासी लोग हैं। इन संतों के उपदेश से ही हमारी प्रवृत्ति और हमारे व्यवहार में परिवर्तन सम्भव है। उन अच्छे और सच्चे संतों में अग्रगण्य हैं जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज। आप हैं संन्यास आश्रम के सही अनुपालना करने वाले संत शिरोमणि। शास्त्र पूर्ण उद्भट विद्वत्ता के साथ समझाने की उनकी विधि अतुलनीय है। अपनी रहस्यमयी और बोधगम्य वाणी से जब आप किसी भी विषय को समझाने लगते हैं, तो लगता है कि साक्षात व्यास जी हमारे सामने उपस्थित हो गए हैं। संन्यास आश्रम के अनुकूल शान्त और गुरु के अनुकूल गम्भीर होकर जब आप बोलते लगते हैं, तो सभी का इन के प्रति आकृष्ट होना स्वाभाविक है। ऐसे जगद्गुरु के कतिपय प्रवचनों के संग्रह के रूप में यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। इससे जो लोग स्वामी जी के प्रवचन नहीं सुन पाए हैं, वे भी लाभान्वित होंगे। मेरा विश्वास है कि इस ग्रन्थ को पढक़र सभी लोग अच्छे और सच्चे मार्ग पर चलने लगेंगे।
इस ग्रन्थ के संपादक वरिष्ठ पत्रकार, चरित्र के धनी, धर्म के अनुयायी, मृदु और साधु भाषी, विद्या विनय संपन्न, संस्कार के आदर्श और सर्वोपरि श्री स्वामी जी के परम भक्त श्री ज्ञानेश उपाध्याय हैं। जिन्हें अकिंचन होते हुए भी वेदाध्ययन किया हूं कि अधिकार से आशीर्वाद देता हूं कि ये चिर काल इसी प्रकार धर्म, आध्यात्मिकता, गुरुसेवा और उत्तम राष्ट्र सेवा करते रहें। श्रीस्वामी जी के आशीर्वाद के पात्र होकर इसी विनय के साथ सीताराम की सेवा में लगे रहें।
अशेषविघ्नशमन अनीकेश्वर सबकी रक्षा करें।
इत्थं विदां वचनकर:
- रामानुजदेवनाथ:
(श्री रामानुज देवनाथन्, कुलपति, जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय)
श्रीविजय-कटक-कृष्ण-एकादशी
रोहिणयुक्त शुक्रवार (२-८-२०१३)
आचार्य रामानुज देवनाथन जी |
किं कारणं ब्रह्म कुतस्मजाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा: ।
अधिष् िठता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्।।
ते घ्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढ़ाम्।
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृंहते तस्मिन्हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।
इस वेदवाक्य का तात्पर्य है कि ब्रह्मविदों के द्वारा यह संशय प्रकट किया गया था कि इस जगत के कारण ब्रह्म क्या देवतारूप है? किस ब्रह्म से हमारे जन्म और स्थिति है? कहां पर हमारी प्रतिष्ठा है? किस ब्रह्म के अधीन होकर हम लोग कष्ट से भरा हुआ इस जन्म और सुव्यवस्था के अनुसार चलते हैं? वे ही ब्रह्मविद् लोग अपने ध्यानयोग से यह समाधान भी पाए हुए हैं कि अपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायण: इति श्रुतिप्रसिद्ध देव कहे गए नारायण रूपी शक्ति जो कि ब्रह्म है, वही इन सबका अर्थात पूर्वोक्त प्रश्नों के कारण और समाधान है। इसी ब्रह्मचक्र में संसार में पर्यटन करने वाला हंस कहा गया यह जीव भी भ्रमण करता है। ऐसा ब्रह्म से भ्रमित होनेवाला अर्थात संसार में भ्रमित होने वाला जीव उसी ब्रह्म यानि परमात्मा से जुड़े रहने का प्रयास करता हुआ उस ब्रह्म से भक्ति के द्वारा युक्त होकर मुक्ति पाता है। यह श्वेताश्वतरोपनिषद् में दर्शाया गया जीवन्मुक्ति का मार्ग है। और छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि सत्यं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति। सत्यं भगवो विजिज्ञास इति। . . . मतिं भगवो विजिज्ञास इति। . . . श्रद्धा भगवो विजिज्ञात इति।। तात्पर्य है कि सत्य पर अटल रहें, विज्ञान को जानें, ताकि सत्य पर अटल रह सकें, विज्ञान के लिए मति को जानें, इस मति को जानने के लिए श्रद्धा की आवश्यकता है। श्रद्धा के लिए निष्ठा की आवश्यकता है। निष्ठा के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। कार्य करने से ही सुख मिलता है। इस प्रकार छान्दोग्य उपनिषद् आगे बढ़ता है।
इन उपनिषदों में कहे गए सत्य मार्ग पर उपदेश हमें कौन देगा? कौन हमें अच्छे मनुष्य बनाकर हमारा उद्धार करेगा? हम लोग कुमार्ग पर चलते हों, तो कौन हमें सच्चा मार्ग दिखाएगा? इन प्रश्नों का उत्तर है कि साधु और संन्यासी लोग हैं। इन संतों के उपदेश से ही हमारी प्रवृत्ति और हमारे व्यवहार में परिवर्तन सम्भव है। उन अच्छे और सच्चे संतों में अग्रगण्य हैं जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज। आप हैं संन्यास आश्रम के सही अनुपालना करने वाले संत शिरोमणि। शास्त्र पूर्ण उद्भट विद्वत्ता के साथ समझाने की उनकी विधि अतुलनीय है। अपनी रहस्यमयी और बोधगम्य वाणी से जब आप किसी भी विषय को समझाने लगते हैं, तो लगता है कि साक्षात व्यास जी हमारे सामने उपस्थित हो गए हैं। संन्यास आश्रम के अनुकूल शान्त और गुरु के अनुकूल गम्भीर होकर जब आप बोलते लगते हैं, तो सभी का इन के प्रति आकृष्ट होना स्वाभाविक है। ऐसे जगद्गुरु के कतिपय प्रवचनों के संग्रह के रूप में यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। इससे जो लोग स्वामी जी के प्रवचन नहीं सुन पाए हैं, वे भी लाभान्वित होंगे। मेरा विश्वास है कि इस ग्रन्थ को पढक़र सभी लोग अच्छे और सच्चे मार्ग पर चलने लगेंगे।
इस ग्रन्थ के संपादक वरिष्ठ पत्रकार, चरित्र के धनी, धर्म के अनुयायी, मृदु और साधु भाषी, विद्या विनय संपन्न, संस्कार के आदर्श और सर्वोपरि श्री स्वामी जी के परम भक्त श्री ज्ञानेश उपाध्याय हैं। जिन्हें अकिंचन होते हुए भी वेदाध्ययन किया हूं कि अधिकार से आशीर्वाद देता हूं कि ये चिर काल इसी प्रकार धर्म, आध्यात्मिकता, गुरुसेवा और उत्तम राष्ट्र सेवा करते रहें। श्रीस्वामी जी के आशीर्वाद के पात्र होकर इसी विनय के साथ सीताराम की सेवा में लगे रहें।
अशेषविघ्नशमन अनीकेश्वर सबकी रक्षा करें।
इत्थं विदां वचनकर:
- रामानुजदेवनाथ:
(श्री रामानुज देवनाथन्, कुलपति, जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय)
श्रीविजय-कटक-कृष्ण-एकादशी
रोहिणयुक्त शुक्रवार (२-८-२०१३)
शक्ति का दुरुपयोग न हो - ६
प्रवचन : समापन भाग
तो हम लौटकर फिर अपनी बात पर आते हैं। दुनिया का कोई भी अमीर बताए कि वह पत्नी के साथ कितना समय बिताता है और उसे किसमें ज्यादा सुख मिलता है। अभी कोई अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से पूछे तो सही कि आपको किसमें ज्यादा आनंद आता है। आपको पत्नी के साथ ज्यादा आनंद आता है या अमरीका की समस्याओं के समाधान में? पत्नी के साथ भ्रमण में ज्यादा मजा आता है या चुनाव जीतने में या चुनाव जीतने के प्रयास करने में? ओबामा का उत्तर यही होगा कि मुझे ज्यादा आनंद अमरीका की सेवा में आता है। वह तो यही चाहेंगे कि वे अमरीका की अच्छी सेवा करें, ताकि लोग उन्हें फिर सेवा का मौका दें। स्त्री या पत्नी का सुख तो बहुत छोटा सुख है। कोई पूछे कि सुख किसमें मिलता है, तो बेहिचक कहना चाहिए कि सुख अपने कत्र्तव्य को निभाने में मिलता है। सचिन तेंदुलकर को छक्का लगाने में जो सुख मिलता होगा, वह कभी उनको अपनी पत्नी में नहीं मिलता होगा। यह जो लोग लड़कियों को छेडक़र सुख ले रहे हैं, स्वयं अपने साथ गलत कर रहे हैं, अपनी शक्ति का निर्लज्ज अपव्यय कर रहे हैं।
अभी पिछले दिनों में एक लडक़े को समझा रहा था। बहुत पहले जब वह मिला था, युवा था, पढ़ रहा था, उसने मुझसे कहा, मैं फलां लडक़ी से शादी करना चाहता हूं, तो मैंने कहा, मैं बतला दूंगा, किन्तु तुम पढ़ाई पर ध्यान लगाओ। वह सीए कर रहा था, मैंने समझाया कि पहले पढ़ाई करो, शादी के लिए सोचने का समय नहीं है, शादी इससे भी अच्छी लडक़ी से मैं करवा दूंगा, किन्तु अभी यदि शादी के चक्कर में पढ़ाई का क्रम टूट गया, तो जीवन बिगड़ जाएगा। समाज-परिवार में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, केवल अपने सुख के लिए शादी करोगे, तो परिवार की दृष्टि से बाहर हो जाओगे, समाज से अलग हो जाओगे, सीए कैसे बनोगे? बाद में वह युवक सीए बना, शादी भी हुई। बाद में पता चला कि वह लडक़ा बिगड़ गया। बर्बाद हो गया। शेयर बाजार में बहुत पैसा बर्बाद कर दिया। पीने लगा, चरित्र का पतन हो गया, पत्नी से सम्बंध बिगड़ गया। उसके परिवार वालों ने फिर मुझसे गुहार लगाई, महाराज, इसे सही मार्ग पर लाइए, पहले भी आपने इसे सही मार्ग दिखाया था। १५ साल बीत चुके थे, इस बीच वह युवक मुझसे मिला नहीं था। फिर भी मैंने मिलने से मना नहीं किया, कोई भी अच्छा डॉक्टर कभी मरीज पर नाराज नहीं होता। यह नहीं कहता कि बीच में इतने दिन कहां थे, जाओ, अब तुम्हारी चिकित्सा नहीं करूंगा। वह मुझसे मिला। दुख जताया कि मैं आपसे मिल नहीं पाया। बीमार हो गया था, कई तरह की समस्याएं हैं। पैसे का बहुत नुकसान हुआ। पत्नी से झगड़ा हो गया।
पैसे और पत्नी से उपजी परेशानियों की बजाय मैंने तीसरी परेशानी के चर्चा की। मैंने कहा, तुम पहले स्वयं को संभालो, शरीर खराब हो रहा है, जीवित रहोगे, स्वस्थ रहोगे, तभी आनंद ले पाओगे। पैसा और पत्नी का उतना महत्व नहीं है, पहले तुम अपने चरित्र, मान-सम्मान को संभालो। तुम पहले पीना बंद करो, शुगर बढ़ रहा है, संभलो, नहीं तो मर जाओगे।
उसने कहा कि पत्नी के साथ नहीं रहूंगा। मैंने कहा, मैं गृहस्थ धर्म बिगाडऩे वाला व्यक्ति नहीं हूं। यह सलाह मैं नहीं दूंगा, पहले तुम स्वयं को संभालो, तलाक भी हो गया, तो हमारा संतों वाला विभाग तो है ही, चेला-गुरु साथ हो लेंगे।
उसने कहा, आज से मैं दौड़ंूगा, अपना ध्यान रखूंगा, समय पर दवाई लूंगा, स्वयं में सुधार लाऊंगा, किन्तु आप मुझे कभी मत छोडऩा।
तो मैं कहता हूं, चरित्र और अपना मान-सम्मान तो मूल धन है। लोग करोड़ों रुपया बैंक में रखते हैं, बैंक डूब जाते हैं, तो लोग यही गुहार लगाते हैं कि ब्याज नहीं चाहिए, मूल धन तो लौटा दो। मूल धन बहुत प्यारा होता है, क्योंकि वही आधार होता है। सच्चा मूल धन तो अपना चरित्र है, अगर वही नहीं है, तो फिर पैसे और पत्नी का क्या अर्थ?
मैं शादी का विरोधी नहीं हूं। शादी बहुत अच्छी चीज है। जिस व्यक्ति ने शादी का आविष्कार किया होगा, वह अपने समय में संसार का सबसे बड़ा वैज्ञानिक होगा, हम ईश्वर को ही वह वैज्ञानिक मानते हैं। जरा सोचिए, शादी न होती, तो क्या होता? कहां कौन उलझ जाता, चारों तरफ अपराध होता, नैतिकता का पतन होता, समाज में कितनी अराजकता होती, पता ही नहीं चलता कि कौन किसका पुत्र है, किसकी पुत्री है, कौन किसके साथ है, आदमी पशुओं की तरह घूमता रहता, किन्तु विवाह ने बांध दिया। सबको मर्यादा और अनुशासन में बांध दिया। परिवार बने, समाज बना। शादी से जीवन में सहारा मिलता है। सुख-दुख में साथ मिलता है। अकेले में वैसे ही डर लगता है। कहा जाता है कि भगवान का भी अकेले में मन नहीं लगता, किन्तु कोई व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से स्त्री को ही उद्देश्य बना ले, तो वह संसार का सबसे बड़ा मूर्ख है। शक्ति का विनियोग मूर्खताओं में नहीं, विद्वता में होना चाहिए, निर्माण, सृजन में होना चाहिए।
राम जी ने यदि केवल पत्नी को ही महत्व दिया होता, तो उन्हें लंका मिलती क्या, पुष्पक विमान मिलता क्या? राक्षसों का विनाश नहीं होता, संभवत: किसी मर्यादा का पालन नहीं हो पाता, किन्तु राम जी को तो राजनीति, राज्य, परिवार, समाज को चलाना आता था, क्योंकि वह शक्ति का सही विनियोग जानते थे। उन्होंने विवेक सहित शक्ति का ऐसा विनियोग किया कि मर्यादा पुरुषोत्तम बन गए। उनके जैसा संसार में दूसरा कोई चरित्र नहीं। आइए, हम उनसे सीखें।
जय सियाराम...
तो हम लौटकर फिर अपनी बात पर आते हैं। दुनिया का कोई भी अमीर बताए कि वह पत्नी के साथ कितना समय बिताता है और उसे किसमें ज्यादा सुख मिलता है। अभी कोई अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से पूछे तो सही कि आपको किसमें ज्यादा आनंद आता है। आपको पत्नी के साथ ज्यादा आनंद आता है या अमरीका की समस्याओं के समाधान में? पत्नी के साथ भ्रमण में ज्यादा मजा आता है या चुनाव जीतने में या चुनाव जीतने के प्रयास करने में? ओबामा का उत्तर यही होगा कि मुझे ज्यादा आनंद अमरीका की सेवा में आता है। वह तो यही चाहेंगे कि वे अमरीका की अच्छी सेवा करें, ताकि लोग उन्हें फिर सेवा का मौका दें। स्त्री या पत्नी का सुख तो बहुत छोटा सुख है। कोई पूछे कि सुख किसमें मिलता है, तो बेहिचक कहना चाहिए कि सुख अपने कत्र्तव्य को निभाने में मिलता है। सचिन तेंदुलकर को छक्का लगाने में जो सुख मिलता होगा, वह कभी उनको अपनी पत्नी में नहीं मिलता होगा। यह जो लोग लड़कियों को छेडक़र सुख ले रहे हैं, स्वयं अपने साथ गलत कर रहे हैं, अपनी शक्ति का निर्लज्ज अपव्यय कर रहे हैं।
अभी पिछले दिनों में एक लडक़े को समझा रहा था। बहुत पहले जब वह मिला था, युवा था, पढ़ रहा था, उसने मुझसे कहा, मैं फलां लडक़ी से शादी करना चाहता हूं, तो मैंने कहा, मैं बतला दूंगा, किन्तु तुम पढ़ाई पर ध्यान लगाओ। वह सीए कर रहा था, मैंने समझाया कि पहले पढ़ाई करो, शादी के लिए सोचने का समय नहीं है, शादी इससे भी अच्छी लडक़ी से मैं करवा दूंगा, किन्तु अभी यदि शादी के चक्कर में पढ़ाई का क्रम टूट गया, तो जीवन बिगड़ जाएगा। समाज-परिवार में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, केवल अपने सुख के लिए शादी करोगे, तो परिवार की दृष्टि से बाहर हो जाओगे, समाज से अलग हो जाओगे, सीए कैसे बनोगे? बाद में वह युवक सीए बना, शादी भी हुई। बाद में पता चला कि वह लडक़ा बिगड़ गया। बर्बाद हो गया। शेयर बाजार में बहुत पैसा बर्बाद कर दिया। पीने लगा, चरित्र का पतन हो गया, पत्नी से सम्बंध बिगड़ गया। उसके परिवार वालों ने फिर मुझसे गुहार लगाई, महाराज, इसे सही मार्ग पर लाइए, पहले भी आपने इसे सही मार्ग दिखाया था। १५ साल बीत चुके थे, इस बीच वह युवक मुझसे मिला नहीं था। फिर भी मैंने मिलने से मना नहीं किया, कोई भी अच्छा डॉक्टर कभी मरीज पर नाराज नहीं होता। यह नहीं कहता कि बीच में इतने दिन कहां थे, जाओ, अब तुम्हारी चिकित्सा नहीं करूंगा। वह मुझसे मिला। दुख जताया कि मैं आपसे मिल नहीं पाया। बीमार हो गया था, कई तरह की समस्याएं हैं। पैसे का बहुत नुकसान हुआ। पत्नी से झगड़ा हो गया।
पैसे और पत्नी से उपजी परेशानियों की बजाय मैंने तीसरी परेशानी के चर्चा की। मैंने कहा, तुम पहले स्वयं को संभालो, शरीर खराब हो रहा है, जीवित रहोगे, स्वस्थ रहोगे, तभी आनंद ले पाओगे। पैसा और पत्नी का उतना महत्व नहीं है, पहले तुम अपने चरित्र, मान-सम्मान को संभालो। तुम पहले पीना बंद करो, शुगर बढ़ रहा है, संभलो, नहीं तो मर जाओगे।
उसने कहा कि पत्नी के साथ नहीं रहूंगा। मैंने कहा, मैं गृहस्थ धर्म बिगाडऩे वाला व्यक्ति नहीं हूं। यह सलाह मैं नहीं दूंगा, पहले तुम स्वयं को संभालो, तलाक भी हो गया, तो हमारा संतों वाला विभाग तो है ही, चेला-गुरु साथ हो लेंगे।
उसने कहा, आज से मैं दौड़ंूगा, अपना ध्यान रखूंगा, समय पर दवाई लूंगा, स्वयं में सुधार लाऊंगा, किन्तु आप मुझे कभी मत छोडऩा।
तो मैं कहता हूं, चरित्र और अपना मान-सम्मान तो मूल धन है। लोग करोड़ों रुपया बैंक में रखते हैं, बैंक डूब जाते हैं, तो लोग यही गुहार लगाते हैं कि ब्याज नहीं चाहिए, मूल धन तो लौटा दो। मूल धन बहुत प्यारा होता है, क्योंकि वही आधार होता है। सच्चा मूल धन तो अपना चरित्र है, अगर वही नहीं है, तो फिर पैसे और पत्नी का क्या अर्थ?
मैं शादी का विरोधी नहीं हूं। शादी बहुत अच्छी चीज है। जिस व्यक्ति ने शादी का आविष्कार किया होगा, वह अपने समय में संसार का सबसे बड़ा वैज्ञानिक होगा, हम ईश्वर को ही वह वैज्ञानिक मानते हैं। जरा सोचिए, शादी न होती, तो क्या होता? कहां कौन उलझ जाता, चारों तरफ अपराध होता, नैतिकता का पतन होता, समाज में कितनी अराजकता होती, पता ही नहीं चलता कि कौन किसका पुत्र है, किसकी पुत्री है, कौन किसके साथ है, आदमी पशुओं की तरह घूमता रहता, किन्तु विवाह ने बांध दिया। सबको मर्यादा और अनुशासन में बांध दिया। परिवार बने, समाज बना। शादी से जीवन में सहारा मिलता है। सुख-दुख में साथ मिलता है। अकेले में वैसे ही डर लगता है। कहा जाता है कि भगवान का भी अकेले में मन नहीं लगता, किन्तु कोई व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से स्त्री को ही उद्देश्य बना ले, तो वह संसार का सबसे बड़ा मूर्ख है। शक्ति का विनियोग मूर्खताओं में नहीं, विद्वता में होना चाहिए, निर्माण, सृजन में होना चाहिए।
राम जी ने यदि केवल पत्नी को ही महत्व दिया होता, तो उन्हें लंका मिलती क्या, पुष्पक विमान मिलता क्या? राक्षसों का विनाश नहीं होता, संभवत: किसी मर्यादा का पालन नहीं हो पाता, किन्तु राम जी को तो राजनीति, राज्य, परिवार, समाज को चलाना आता था, क्योंकि वह शक्ति का सही विनियोग जानते थे। उन्होंने विवेक सहित शक्ति का ऐसा विनियोग किया कि मर्यादा पुरुषोत्तम बन गए। उनके जैसा संसार में दूसरा कोई चरित्र नहीं। आइए, हम उनसे सीखें।
जय सियाराम...
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