Sunday, 31 December 2017

जगद्गुरू रामानन्दाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

परमात्मा के दो प्रकार के अवतार शास्त्रों में स्वीकृत हैं । नित्य एवं नैमित्तिक अवतार । किसी निमित्त अर्थात् विशेष प्रयोजन, जैसे रावण कुम्भकरण, शिशूपाल दन्तवक्र, कंस आदि दुष्टों का विनाश करने हेतु जो अवतार होता है। उसे नैमित्तिक अवतार कहते है i ये अवतार राम-कृष्ण आदि के रूप में यदाकदा होते है। जो अवतार किसी निमित्त विशेष के बिना नित्य निरन्तर संसार के जीवों पर अहैतुकि अनुकम्पा करके सभी युगों में सर्वत्र होते है, उन्हें नित्यावतार कहते हैं । ये अवतार सन्तों, आचार्यों तथा भगवत भक्तों के रूप में होते है । जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य,निम्बार्काचार्य, रामानन्दाचार्य, चैतन्य महाप्रभु आदि । इन्हीं नित्यावतारों में काशी श्रीमठ पीठाधीश्वर जगद्गुरू रामानन्दाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज एक अन्यतम ज्वलंत उदारहण है । जगद्गुरू रामानन्दाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज का अवतार पुण्यभूमि भारतवर्ष के बिहार प्रान्त के भोजपुर जिले में परसीया ग्राम में, पुण्यात्मा पंडित जगन्नाथ शर्मा के पुत्र के रूप में माघ शुक्ल पंचमी, संवत् 2008 तद्नुसार गुरूवार दिनांक 31 जनवरी सन् १९५५ ई. में हुआ ।इनका बचपन का नाम स्वभावतः श्री कृष्ण होने के कारण श्री कृष्ण शर्मा रखा गया, इनकी प्रारम्भिक शिक्षा – दीक्षा जन्मभूमि में हुई । बाल-सुलभ चापल्य से विमुक्त होकर, निरन्तर अध्ययन करना आपका स्वभाव था। संसार से विरिक्ति होने के कारण अल्पावस्था में ही मात्र (14 वर्ष) की आयु में मोह-माया का त्याग कर आप काशी आ गये । यहां सन्त प्रवर श्रीरघुवर गोपलदास जी महन्त से वैष्णवी विरक्त दीक्षा ग्रहण कर आप श्रीकृष्ण शर्मा से श्री रामनरेश दास हो गये ।

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अपने-अपने संकल्प


सबके मन में प्रतिशोध की भावना होती है, सबके मन में यह भावना होती है कि उसके हिसाब से ही सारे काम हों। सबके अपने-अपने संकल्प होते हैं। लेकिन इसके लिए जो लोग हमारे विपरीत हैं, उनका हम क्या करें? हमें बनाना है राम राज्य और हम प्रयोग कर रहे हैं रावण राज का। सरेआम सडक़ पर गलत काम हो, व्यभिचार हो, यह कदापि उचित नहीं। इस तरह से राम राज्य नहीं आएगा। रावण तो आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक हुआ। उसने तो राम जी की पत्नी का ही धोखे से अपहरण कर लिया। ब्राह्मणों की तो हत्या रोज ही होती थी, वेद ध्वनि बंद हो गई थी, यज्ञ बंद हो गए, माता-पिता का सम्मान बंद हो गया था, देवताओं का कोई सम्मान नहीं रहा। अर्थ यह कि धर्म की, श्रेष्ठता की, पवित्रता की, मर्यादाओं की, अच्छी परंपराओं की विधियां नष्ट हो गई थीं। दंड व प्रतिशोध का कोई विकल्प नहीं बच गया था। परन्तु तब भी राम जी ने हनुमान जी को भेजा, अंगद को भेजा, विभीषण, कुंभकर्ण और यहां तक कि पुलत्श्य को भी परोक्ष रूप से प्रेरित किया कि वे रावण को सुधरने के लिए समझाएं। ताकि रावण रास्ते पर आ जाए। राम जी ने रावण को पूरे मौके दिए, वे प्रतिशोध भावना के कारण अमर्यादित नहीं हुए। प्रतिशोध या किसी को दंड देने की भी एक मर्यादा होती है, एक उचित विधि होती है। हनुमान ने भी तरह-तरह से समझाया, अंगद ने भी रावण को खूब समझाया कि बिना हत्या-मारकाट, बिना युद्ध के ही सुधार हो जाए। रावण के ही कुटुंब के लोगों ने समझाया कि राम जी को उनकी धर्म पत्नी लौटा दो, धर्म का पालन करो, लेकिन जब रावण नहीं माना, तब राम जी ने अंतिम विकल्प के रूप में विधिवत व घोषित युद्ध का सहारा लिया। वे रावण की तरह छिपकर आक्रमण करने नहीं गए, उन्होंने रावण की तरह किसी को धोखा नहीं दिया। राम जी ने अमर्यादित व दुष्ट रावण को भी दंड देने के लिए युद्ध की तमाम मर्यादाओं का पालन किया। आक्रमण का वह तरीका नहीं था, जो आज दंगों के समय देखने को मिलता है या आतंककारी हमलों के समय देखने को मिलता है। राम जी की सेना ने खुलेआम सडक़ों पर मौत का तांडव नहीं मचाया। निर्दोष लोगों को नहीं मारा। लूटमार या हत्या या बलात्कार का सहारा नहीं लिया। युद्ध जीतने के बाद भी राम जी की सेना ने लंका में घुसकर कोई उत्पात नहीं मचाया। यदि सडक़ पर खुलेआम व्यभिचार होगा, अन्याय होगा, तो राम राज्य कैसे आएगा? एक हत्या करने के बाद हत्या की भावना बनी रहती है। लाखों में से कोई एक हत्यारा ही सामान्य हो पाता है। 
प्रतिशोध के लिए और श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना के लिए उन कृत्यों की जरूरत नहीं है, जिन कृत्यों की हम निंदा करते हैं। जोर-ज्यादती ठीक नहीं है। रावण जैसी तानाशाही ठीक नहीं है। जब देश स्वतंत्र हुआ, तब किसी ने गांधी जी से कहा कि देश में तानाशाही की जरूरत है। गांधी जी ने जवाब दिया, ‘यह मैं भी मानता हूं, लेकिन जो लोग दस साल तानाशाही चला लेंगे, वो फिर लोकतंत्र को नहीं आने देंगे।’ प्रतिशोध भाव होना चाहिए, लेकिन सुधार के लिए होना चाहिए। हमें यथोचित मर्यादाओं, संविधान, धर्म के हिसाब से चलना चाहिए। हमें कदापि बर्बर नहीं होना चाहिए।  


Friday, 8 December 2017

हरिद्वार में निर्माणाधीन भव्य श्री राम मंदिर



हरिद्वार में निर्माणाधीन भव्य श्री राम मंदिर
रामानंद संप्रदाय के पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्री रामनरेशाचार्य जी के महाराज के नेतृत्व में हरिद्वार-ऋषिकेश मार्ग पर शांतिकुंज के करीब सप्त ऋषि घाट मार्ग पर निर्मित हो रहा भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण फिर से गति पकडऩे जा रहा है। यहां भूमि पर अतिक्रमण की वजह से मंदिर निर्माण में बाधा आ रही थी, लेकिन गत १८ नवंबर को हरिद्वार में इस कार्य को फिर गति मिली है। यह दुनिया का एक अद्वितीय श्रीराममंदिर होगा। भगवान श्री राम जी की कृपा से यह मंदिर इतना अद्भुत बनेगा कि हरिद्वार के आकर्षण में चार चांद लगा देगा। जय सियाराम

योग का उद्देश्य समझिए - 8 - समापन भाग

परमसुख के लिए योग 
यदि किसी को जीवन का परमसुख लेना है, पूर्णता लेनी है, तो महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का अवलंबन करके। यम से लेकर समाधि पर्यंत योग का संपादन करें। आज देखिए, व्यक्ति चाहता है कि मैं अपने चित्त को अधिक से अधिक फैलाऊं। यह अज्ञान का विस्तार है। यह जितना बढ़ेगा, संसार में उतनी ही अशांति बढ़ेगी। इसलिए संसार के सभी लोगों को योग का अवलंबन करके अन्य संसाधनों को गौण करके, साधनों का उतना ही उपयोग किया जाए, जितना जीवन जीने के लिए आवश्यक है। अभी तो इतनी बीमारियां हैं, तमाम समाज में अमानवीय कृत्य हो रहे हैं। जब संपूर्ण संसार को योग का आनंद मिल जाएगा, तो क्यों आदमी बुराई में लगेगा, क्यों आदमी आतंककारी बनेगा। जिसे उत्तम रूप मिल जाएगा, वह दूसरे छोटे रूपों को क्यों देखेगा? 

गलत प्रचार न हो
यह दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज जो लोग योग प्रचारक के रूप में प्रचलित हैं, वे केवल धन और प्रतिष्ठा कमाने के लिए कर रहे हैं। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के बारे में लोग मानते थे कि उन्हें योग का बड़ा ज्ञान था, सरकार से नजदीकी के कारण लोग स्वीकारने लगे थे, लेकिन अंत में क्या हुआ। उन्हें इंदिरा गांधी का परिवार ही सम्मान नहीं दे सका। इंदिरा गांधी की पार्टी सम्मान नहीं दे सकी। वे कैसे योगी थे? आज उनका नाम लेने वाला कोई नहीं है। 
आज मैं किसी का नाम लेना नहीं चाहता, लेकिन बहुत से लोग योग का प्रचार कर रहे हैं। आश्रम नहीं, होटल खुल रहे हैं, दुकानें खुल रही हैं। अब कैसे लोग विश्वास करेंगे कि योग से व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है?
अब योग का सरकार में विभाग होना चाहिए और उस विभाग को अत्यंत विशुद्ध रूप से प्रचारित किया जाए। अधिकारी, नेता सभी इसमें भाग लें, तभी भ्रष्टाचार, अनियमितताएं, व्याधियां मिटेंगी। बड़े-बड़े जो घोटाले हो रहे हैं, न्यायपालिका और विधायिका में जो व्याधियां हो रही हैं, उन सबका समाधान योग के जरिये हो सकता है। 
केवल रोग निवारण नहीं
जिसे देखो, वही योगासान कर रहा है। आज का योग केवल रोग निवारण का साधन बनकर रह गया है। यह योग का अत्यंत गौण फल है। केवल रोग निवारण के लिए प्रयासरत होने से सच्चा सुख नहीं मिल सकता। मैं मानता हूं, आसनों से रोग निवारण होता है, लेकिन यह योग का अंतिम फल नहीं है। यह योग का पूरा सत्य नहीं है। लोगों को योग के पूर्ण सत्य से साक्षात्कार करना चाहिए, तभी जीवन को संपूर्णता मिलेगी। सच्चे योगी में तो इतनी शक्ति आ जाती है कि वो जो चाहे, वैसा कर सकता है। वह पिछले जन्मों और आगे के जन्मों को देख सकता है। केवल घुटने का दर्द कम करने के प्रयास बंद हों और योग की सही प्रक्रिया की स्थापना समाज में हो। पतंजलि के ज्ञान का पूरा लाभ लिया जाए। योग ने असंख्य लोगों को परम जीवन दिया है, आज भी देने में समर्थ है, योग की सभी क्रियाओं का संपूर्ण संसार में अवलंबन होना चाहिए। 
जयसियाराम

योग का उद्देश्य समझिए - 7

आठवां अंग समाधि
समाधि क्रिया नहीं है, एक उपलब्धि है। समाधि कोई घटना नहीं है, ध्यान के स्थिर होने पर ही अपने आप समाधि घटित होती है। चित्त का कोई स्वरूप नहीं रह जाता। चित्त एक ही आकार में परिणत हो जाता है। इसके बाद आगे चलते हैं, तो भगवान की दया से अत्यंत बुद्धि का विकास हो जाता है। हमारी बुद्धि आसाधारण को भी समझने में सक्षम हो जाती है। ऋषियों के पास ऐसा ज्ञान था कि जहां आज भी वैज्ञानिक नहीं पहुंच पाए हैं। इस बुद्धि को प्रज्ञा कहा गया है। जब प्रज्ञा का प्रकाश होता है, तक सबकुछ दिखने लगता है। अध्यात्म प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है। सभी क्रियाएं छूट जाती हैं। भागदौड़ रुक जाती है, मोक्ष मिल जाता है। 
लिखा महर्षि ने - 
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:।
यहां केवल ध्येय मात्र का आभास होता है, स्वरूप शून्य-सा हो जाता है और समाधि लग जाती है। केवल एक ही प्रतीती होती है। चित्त का निरंतर प्रवाह एक ही दिशा में चलता रहता है, अधिक समय तक प्रवाह चलता रहेगा, तो उसका स्वरूप शून्य हो जाता है। यही अवस्था समाधि है। प्रज्ञा का उच्च स्वरूप सामने आ जाता है। यहां तक वैज्ञानिक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। प्रज्ञा का जब प्रकाश होता है, तो सब दिखने लगता है।   
अंतिम समाधि में आने के बाद सत्य का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। योगी को ज्ञान हो जाता है, चित्त अलग है और पुरुष अलग है। चित्त का संपूर्ण व्यापार पुरुष के लिए होता है। चित्त जब संसार की रचना करता है, तो भोग प्राप्त करता है। चित्त जब यह समझने लगे, जब उसे परिज्ञान हो जाए, जब चित्त का पूर्णविलय हो जाए, तभी समाधि प्रज्ञा संभव है। चित्त जब समझ लेता है कि मैं पुरुष से अलग हूं। जैसे मुख्यमंत्री के परिवार के लोग भी स्वयं को मुख्यमंत्री समझकर अनर्थ कर लेते हैं, जैसे चपरासी भी स्वयं को अफसर समझने लगता है, ठीक उसी तरह चित्त और चेतन पुरुष के बीच होता है। चित्त समझता है कि मैं चेतन हूं और चेतन पुरुष समझता है कि मैं भोक्ता हूं। इसी के कारण ये सारा संसार भटक रहा है। समाधि में यह भटकना रुकता है।
कहा गया है, अंतिम समाधि में चित्त बीज का भी अभाव हो जाता है। समाधि संयम को प्राप्त हो जाती है। चित्त का ही अभाव पैदा करना पड़ता है। योगी को यह ज्ञान हो जाता है कि चित्त अलग है और पुरुष अलग है। यह योग की अंतिम सीढ़ी है। उसके बाद ही मोक्ष संभव होता है।
मोक्ष क्या है? 
कैसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसके लिए पतंजलि ने लिखा। कहा कि पुरुषार्थ शून्य हो जाते है गुण। यह केवल्य है। चित्त के जो गुण हैं, सत, रज, तम, तीनों गुण बराबर हो जाते हैं, तीनों गुणों की साम्या अवस्था को प्रकृति माना गया है। जब पुरुषार्थ शून्य हो जाते हैं गुण, तो वो अपने कारण में लीन हो जाते हैं। उनको मालूम हो गया कि हमारा जो पुरुषार्थ था, वो संपन्न हो गया। अब हमें मोक्ष की प्राप्ति हो गई। हमारा जो काम था, वह हमने कर लिया। जो पुरुष है, जो जीवात्मा है, वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है, ईश्वर में समर्पित हो जाता है, पूर्ण रूप से वहां अटल भाव को प्राप्त कर लेना, इसी का नाम मोक्ष है। मूल स्वरूप सृष्टि का अव्यक्त है। उपनिषदों का वेद वाक्य है, जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था, तब केवल सत्य ही था। भगवान के संकल्प से सृष्टि का रोज फैलाव हो रहा है। एक योगी इस विस्तार को अपने भीतर रोक देता है। अविद्या का नाश हो जाता है। यह जीवन की संपूर्णता का स्वरूप है। 
क्रमश: 

योग का उद्देश्य समझिए - 6

पांचवां अंग प्रत्याहार 
महर्षि पतंजलि ने कहा - 
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:। 
प्रत्याहार समाधि प्राप्ति का अंग है। अपने चित्त को अपने विषयों से रहित करना चाहिए। जहां-जहां हमारा चित्त भागता है, उसे वहां जाने से रोकना है। आहारण करना आवश्यक है। अपने-अपने विषयों से इन्द्रियों को हटाना और चित्त के स्वरूप में उन्हें विलीन कर देना प्रत्याहार है। इन्द्रियां जब तक भागती रहती हैं, तब तक परम सुख नहीं मिलता। चित्त को भटकने नहीं देना, इन्द्रियों को वश में करना प्रत्याहार है। इन्द्रियों को रोकने से ही सुख मिलता है। प्रत्याहार सिद्ध होने के बाद साधक अपनी इन्द्रियों को जहां चाहे वहां लगा सकता है।
कहा गया है - 
तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्। 
प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में हो जाती हैं। 

छठा अंग धारणा 
चित्त को एक देश विशेष में बांधना धारणा है। पतंजलि जी ने कहा -
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। 
जैसे पशु को बांधना पड़ता है, खुला छोड़ दें, तो वह पता नहीं कहां-कहां चला जाए। अपने चित्त को व्यक्ति बांधे एक जगह। महान जीवन के सर्वश्रेष्ठ संसाधनों को बांधना चाहिए। एक स्थान पर केन्द्रित करना चाहिए। कहां हम उनको बांधें, नाभि में बांधिए, किसी अन्य अंग में बांधिए, रोकिए। नासिका के अग्र भाग में बांधें। हृदय कमल में बांधें। हृदय कमल को देखें, इससे क्या होगा, इससे हमारा चित्त धारणा योग को प्राप्त करेगा। 


सातवां अंग ध्यान
धारणा सिद्ध हो जाए, तो ध्यान सिद्ध हो जाता है। आज कोई भी पद्धति उतनी दूषित नहीं हुई है, जितना कि लोगों ने योग को दूषित किया है। योग दुनिया के सभी लोगों के लिए परमऔषधि है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ उद्धारक है, जीवन को संपूर्णता देने वाला है। इस योग को लोग सांप्रदायिक मान रहे हैं। मैं पूछता हूं, किसके जीवन में योग की जरूरत नहीं है। सबके जीवन में ध्यान की जरूरत है। जीवन की समस्या का कारण निर्बलता नहीं है, पानी का कम होना समस्या नहीं है, दवाई का अभाव समस्या नहीं है, समस्या तो यह है कि जो संसाधन हमारे पास हैं, उनका हम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। हम अपने जीवन को शांतमय और सुखमय बनाएं। ध्यान सबको करना चाहिए। ज्ञान के विषय बदलते रहते हैं, जब एक ही तरह का ज्ञान लगातार हो, जब हम चंद्रमा को देख रहे हों, तो चंद्रमा का ही ध्यान हो। गंगा को देख रहे हों, तो गंगा का ही ध्यान हो। 
ध्यान का अभिप्राय है - महर्षि पतंजलि ने कहा - 
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। 
चित्त का एक सा बना रहना ही ध्यान है। ध्यान बदलना नहीं चाहिए। विषय के बदलने से ध्यान बदलता है। एक ही समान ध्यान बना रहना चाहिए। भटकना रुका, तो ध्यान होता है। लोग कई तरह से ध्यान करते हैं। जो चित्त बना, एक जगह लगा, वहां बंधन को प्राप्त किया, उसी का लगातार बनाए रखना, चित्त में कोई दूसरी वृत्ति नहीं आनी चाहिए, कोई शब्द नहीं आवे, कोई रूप नहीं आवे, तो यह ध्यान है। 
क्रमश: 

योग का उद्देश्य समझिए - 5

योग का विकल्प भी बताया
यदि कोई यम-नियम नहीं करना चाहता और समाधिस्थ होना चाहता है, मोक्ष की प्राप्ति चाहता है। उसके लिए विकल्प बताया महर्षि पतंजलि ने कि ईश्वर प्रणिधान करो। ईश्वर का चिंतन करो, ईश्वर के लिए अपने जीवन को समर्पित करो, ऐसा करने से बिना किसी संसाधन के आपको मोक्ष या समाधि की प्राप्ति होगी। ईश्वर का हम प्रणिधान करें। विकल्प क्या है? इसे बहुत ध्यान से समझाना चाहिए। जैसे हम हवाई जहाज से नहीं जा सकते, तो रेल से जा सकते हैं, रेल से नहीं जा सकते, तो बस से जा सकते हैं, बस से नहीं जा सकते, तो पैदल जा सकते हैं। समाधि की प्राप्ति के लिए विकल्प बता दिया महर्षि पतंजलि ने कि ईश्वर प्रणिधान करो। यह भी नियम का भाग है। ईश्वर में हम पूरा ध्यान लगाएं, तो इससे भी सीधे समाधि की प्राप्ति संभव है। 
भगवान ने कहा कि मेरी शरण में आ जाओ। इसमें ज्ञान की विशेष जरूरत नहीं है, मेरे ऊपर पूर्ण रूप से विश्वास करके, सभी मोह, माया, प्रपंच, सभी दूसरे अवलंबों को दूसरे आश्रयों को पूर्णत: विदाई देकर तुम आ जाओ मेरी शरण में, तुम्हें मैं मोक्ष दूंगा, तुम्हारे शोक दूर करूंगा, तुम्हें तमाम प्रकार के दुखों से दूर करूंगा। यह भी मोक्ष का मार्ग है। 
यम, नियम योग दर्शन के महत्वपूर्ण सोपान हैं। आज समाज के हर व्यक्ति को जरूरत है कि वह यम, नियम का अवलंबन करे। महा चंचलता से युक्त मन को संभालना है, नियंत्रित करना है, तो यम, नियम का पालन करना होगा। 

योग का तीसरा अंग आसन 
आसन को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने लिखा -
स्थिरसुखमासनम्। 
चित्त का स्थिर होना आसन है। सुख से स्थिर बैठना आसन है। केवल हाथ पैर हिल रहे हैं, यह आसन नहीं है। हम बैठे हैं और सुख नहीं मिल रहा है, तो आसन नहीं हुआ। हम अंग संचालन बंद करें, तब भी सुख की प्राप्ति हो, यह आसन है। हम आसन का अवलंबन करें। आसन करने से क्या होगा? योग का तीसरा अंग आसन जब सिद्ध हो जाएगा, तो हमारा मन अनंत परमात्मा में लगने लग जाएगा। आसन के दो फल हैं - मन लगने लगेगा परमात्मा में और जो द्वंद्व होते हैं विपरीत भावों को, हम उन्हें झेल सकेंगे। 
ततो द्वंद्वानभिघात:।
हम भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी को झेल सकेंगे। विपरीत परिस्थितियों को झेलने की शक्ति आसन करने से ही मिलती है। हमें बेचैन करने वाले द्वंद्व दूर होंगे। हमारा ईश्वर में जो मन प्रतिष्ठित नहीं हो रहा था, उसमें उसकी प्रतिष्ठा होने लगेगी। मन को भागने से हम रोक पाएंगे। हम आसानी से अपने चित्त को ईश्वर में लगा सकेंगे, इसलिए योग दर्शन में वर्णित विभिन्न आसनों का अभ्यास करना चाहिए। आज लोग जहां जाते हैं, देखने लगते हैं कि मेरे लिए क्या आसन हैं। मेरे लिए बैठने का क्या संसाधन रखा गया है। देखने लगते हैं कि खाने के क्या संसाधन हैं। कुछ न मिले, तो व्यक्ति को विषाद होने लगता है, लेकिन आसन सही आ गया, तो हमारे ये द्वंद्व दूर हो जाएंगे। 

चौथा अंग प्राणायाम
आसन सिद्ध हो जाएं, तो प्राणायाम करना चाहिए। श्वांस-प्रश्वांस की गति को रोकने का नाम प्राणायाम है। महर्षि ने लिखा - 
तस्मिन् सतिश्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। 
इससे चित्त की एकाग्रता बढ़ती है। इसलिए सनातन धर्म में किसी भी पूजन के प्रारंभ में भी और अंत में भी कहते हैं कि अब आप प्राणायाम कीजिए। हम अपने श्वांस-प्रश्वांस की गति को रोकें। वायु को अंदर लेना श्वांस और वायु को छोडऩे को प्रश्वांस कहते हैं। योग दर्शन की भाषा में जो श्वांस भीतर ले जाते हैं, उसे पूरक बोलते हैं और जो श्वांस छोड़ते हैं, उसे रेचक कहते हैं और श्वांस रोकने को कुंभक कहते हैं। जो वायु है, उसे बाहर निकालना, धीरे-धीरे वायु को भगवान का नाम लेते हुए अंदर ले जाना, फिर श्वांस-प्रश्वांस को रोक देना और उसके बाद धीरे-धीरे प्राण वायु को निकालना, इसी का नाम प्राणायाम है। 
प्राणायाम करने से क्या होगा? प्राणायाम करने से हमारी चित्त वृत्तियां रुकेंगी। हमारा संपूर्ण समाधि का क्रम मजबूत होगा। लोगों को शांति मिलेगी, चित्त का उद्वेग रुकेगा। जीवन जीने का इतना लाभ होगा कि जिसकी परिकल्पना भी लोग नहीं कर सकते। संपूर्ण ज्ञान हममें समाहित है, ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, उस पर मल जमा हुआ है, अनेक तरह के आवरण हैं उस पर, इससे उसका प्रकाश प्रभावित हो जाता। प्राणायाम करने से प्रकाश या ज्ञान पर से आवरण हटते हैं। हमारा चित्त धुलता जाता है। प्राणायाम से हम बातों को बहुत दिनों तक याद रख सकते हैं। स्मरण व अन्य सकारात्मक शक्तियां प्राणायाम से बढ़ जाती हैं।
क्रमश: 

योग का उद्देश्य समझिए - 4

नियम का महत्व 
योग में यम के बाद नियम का महत्व है। नियम के पांच अंग हैं - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान। हम नियमों का पवित्रता से पालन करें। आज के योगियों को शौच का कितना ज्ञान है। लोग गलत काम करते हैं, हाथ नहीं धोते, कान को पकड़ा, जूता छुआ, पैर छुआ और उसके बाद आसन भी कर लेते हैं। ऐसे आसन नहीं किया जा सकता। पतंजलि ऋषि ने लिखा है कि आदमी को अपने अंगों से ही घृणा हो जाएगी। जब व्यक्ति बाहर से भी पवित्र होगा, अंदर से भी पवित्र होगा, तो दूसरे के लिए आकर्षण क्या होगा, उसे अपने से भी घृणा होने लगेगी। यह भाव आने लगेगा कि नहीं-नहीं, अब हमें किसी की जरूरत नहीं है, अब हम किसी को छुएंगे नहीं, किसी को भी प्राप्त करने की जरूरत नहीं। दूसरों से संसर्ग की इच्छा नहीं होगी। दूसरों को गले लगाने की इच्छा नहीं होगी, वह यह सदा मानेगा कि हमारे संस्कार अलग हैं, हमारे परमाणु अलग हैं, हम अपने चित्त को निरुद्ध करना चाहते हैं। हम शांति और आनंद के सागर में निमग्न होना चाहते हैं, तो किसी को छूने की भी जरूरत नहीं।
महर्षि पतंजलि ने लिखा है - शौच का सही पालन करने से अपने ही अंगों से वैराग्य उत्पन्न होता है और दूसरों को छूने की भी इच्छा नहीं होती। 
शौच के लिए जैसे सफाई आवश्यक है, उससे भी आवश्यक है कि हम पवित्रता का पालन करें। किटाणु भले आंखों से दिखाई न पड़ते हों, लेकिन वे हैं और हमें दुष्प्रभावित करते हैं। लोग समझते हैं कि अपने बालों को छूने से क्या होगा, अपने अंगों को छूने से क्या होगा, अपनी उंगलियों से आंखों को साफ करने से क्या होगा, लेकिन हर जगह किटाणु हैं, गंदगी है। योग करते हुए सजग होना चाहिए। शौच का पालन करने से ही हम पवित्र हो सकते हैं, तभी मन साफ हो जाएगा। क्या आज के योगियों को शौच का पूरा ध्यान है? क्या वे अपने शिष्यों को शौच का पाठ पढ़ा रहे हैं?
ठीक उसी तरह से हममें संतोष हो। महर्षि पतंजलि ने लिखा है - संतोषादनुत्तमसुखलाभ:। आज तमाम घोटाले संतोष के अभाव में ही हो रहे हैं। संतोष होगा, तभी सुख की प्राप्ति होगी। संतोष का मतलब हम सही काम करें, समर्पित होकर काम करें और उससे जो संसाधन प्राप्त हो, उसी से हम जीवन का निर्वाह करें। यही संतोष है। काम और व्यापार किया, तो भी संतोष होना चाहिए। 
उसके बाद तप भी आवश्यक है। तप के कारण अशुद्धियां समाप्त होती हैं। स्वाध्याय का भी अवलंबन करना चाहिए। ईश्वर के गुणों का जप करें, मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करें, यह स्वाध्याय है। आज के योग के प्रचारक स्वाध्याय नहीं करते हैं। लोग कहते हैं कि पढऩे से केवल नौकरी मिलती है, लेकिन महर्षि पतंजलि ने लिखा कि मोक्ष शास्त्रों को पढ़ो, वेदों, स्मृतियों, पुराणों, दर्शन शास्त्र को, गीता को पढ़ो, रामायण को पढ़ो, तभी तुम ईश्वर के लिए समर्पित होगे। ईश्वर के सही स्वरूप को तुम जान सकोगे, तुम्हारा उनके प्रति आकर्षण होगा। तुम्हारी समाधि हो जाएगी और मोक्ष का लाभ होगा।  
दार्शनिक प्लेटो ने कहा था कि दुनिया का शासक दार्शनिक होना चाहिए, मैं कहता हूं दुनिया के हर आदमी को दार्शनिक होना चाहिए। जो स्वाध्याय करेगा, उसे पता चलेगा कि उसे बुद्धि को कहां लगाना है, समस्या का समाधान कहां है, यह शास्त्रों के अध्ययन से ही पता चलेगा। शास्त्रों को सही पढऩे वाला कभी नहीं बिगड़ेगा। उसे जीवन के उद्देश्य का पता होगा। यह भी नियम का अंग है।
उसके बाद नियम में प्रणिधान अर्थात ईश्वर प्रणिधान आवश्यक है।
समाधिसिद्धिरीश्वर प्रणिधानात्। 
वास्तव में समाधि की सिद्धि प्रणिधान से होती है। योग के मार्ग में स्वयं को ईश्वर के लिए समर्पित कर देना चाहिए। 
क्रमश: 

योग का उद्देश्य समझिए - 3

मां हिंस्यात सर्वाभूताणि। 
हमें किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी है। इसलिए सनातन धर्म में लिखा है कि मच्छरों, कीट-पतंगों को भी मारने, वृक्ष-लताओं को काटने से भी पाप उत्पन्न होता है। यज्ञ में लकड़ी की जरूरत होती है, पेड़़ काटे जाते हैं, तो जैसे यज्ञ से पुण्य मिलता है, ठीक उसी प्रकार हरा भरा पेड़ काटने से पाप भी मिलता है। यदि हम हिंसा से नहीं बचते हैं, तो हमारा चित्त कभी एकाग्र नहीं होगा। कभी जीवन में पूर्णता की प्राप्त नहीं होगी। 
पूरी दुनिया में अहिंसा की भावना का अस्तित्व है, इसके लिए कोर्ट है, पुलिस है। इतना ही नहीं, लोग मनुष्यों की ही नहीं, किसी भी तरह से हिंसा नहीं करें। कौन-सा संप्रदाय होगा, कौन-सी ऐसी जाति होगी, जिसे हिंसा पसंद है, जो हिंसा का अभिशाप नहीं मानती। योग के पहले अंग यम का पहला स्वरूप अहिंसा है। जिसे वेदों ने सबसे पहली बार समाज में प्रकट किया था। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। 
ऐसे आख्यान भी आए हैं, तितली के पंख में कांटे को छुआ दिया, तो दंड स्वरूप सूली पर बैठना पड़ा। शास्त्रों में वर्णित हैं ऐसे प्रसंग। कितना बड़ा चिंतन है महर्षि पतंजली का। अहिंसा की प्राप्ति होगी, तो ही आदमी चित्त को एकाग्र कर पाएगा। क्या खूब लिखा है महर्षि पतंजलि ने - 
अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।
अर्थात जब योगी का अहिंसा भाव स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर त्याग देते हैं।

सत्य -  यम का दूसरा अंग है सत्य। वेदों ने कहा - सत्यम वद। यह किसी एक जाति या काल के लोगों के लिए नहीं कहा था, सबके लिए कहा था। सत्य सभी को बोलना चाहिए। इसका उदाहरण है, जहां लोग गोमांस खाते हैं, जहां लोग अत्यंत अमर्यादित जीवन जीते हैं, जिनका जीवन बड़े रूप में पशुता के समीप है। कहीं भी उनको देवत्व देने वाला नहीं है, वहां के लोग भी सत्य के पक्षधर हैं। इसलिए वाटरगेट कांड में निक्सन को झूठ बोलने के कारण पद छोडऩा पड़ा। कहा महर्षि पतंजलि ने कि सत्य में भी प्रतिष्ठित होना पड़ेगा। जो जैसा है, उसका वैसा ही ज्ञान करना और उसी तरह प्रकट करना, यह सत्य की प्रतिष्ठा है। 
महर्षि पतंजलि ने कहा - 
सत्य प्रतिष्ठायां क्रिया फलाश्रयत्वम।
पतंजलि ने लिखा है कि सत्य में यदि कोई प्रतिष्ठित है, तो उसकी वाणी में संपूर्ण क्रियाओं के फल आ जाएंगे। सत्य बोलने वाला यदि कह देगा, तो पापी भी स्वर्ग चला जाएगा। सत्य की आवश्यकता पूरे संसार को है। सत्य बोलने से सच्ची शक्ति उत्पन्न होती है।

अस्तेय - यम का तीसरा अंग है अस्तेय। महर्षि ने लिखा है - 
अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्। 
चोरी के अभाव के स्थिर होने पर योगी के सामने हर प्रकार के रत्न उपस्थित हो जाते हैं। हमें चोरी नहीं करना चाहिए। बेईमानी से दूसरे का हक हम ले लें, यह चोरी है। हेराफेरी भी चोरी है। पूरी दुनिया की समस्या है, लोग छल कपट अनेक तरह के गलत हथकंडों से दूसरे की वस्तु, जमीन, संसाधनों को अपना बना लेते हैं, संपूर्ण मानव जाति चोरी से त्रस्त है। योग और यम के लिए अस्तेय आवश्यक है।

ब्रह्मचर्य - योग के लिए ब्रह्मचर्य बहुत आवश्यक है। महर्षि पतंजलि ने कहा कि आपको मन को काबू में करना है, तो ब्रह्मचारी बनना पड़ेगा। ब्रह्मचर्य धर्म का मूल है। आज इतनी बीमारियां हो रही हैं, लोग दुर्बल होते जा रहे हैं, इसका कारण है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहा है। आपको तन से मन से वचन से मैथुन का परित्याग करना होगा। मनुष्यों की क्षमता कम होती जा रही है, जो दुर्बलता हो रही है, उसका कारण है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहा है। 

अपरिग्रह - महर्षि पतंजलि ने लिखा - 
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। 
आज योग के प्रचार का एक बड़ा विकृत स्वरूप आ गया है, धन कमाना। लोग शुल्क ले रहे हैं। उपनिषदों में लिखा है संग्रह उतना ही करना चाहिए, जितने में जीवन का निर्वाह हो जाए। नहीं तो आदमी इसी चिंता में मरता रहता है कि धन की रक्षा कैसे होगी। अपरिग्रह होना चाहिए। आज जो लोग योग के प्रचार में लगे हैं, उनमें से ज्यादातर बड़े परिग्रही लोग हैं। उनमें धन जुटाने की प्रबल भावनाएं हैं। कथित योगियों को पता ही नहीं कि यम क्या होगा, नियम क्या होगा, समाधि कैसे लगेगी। जो योग के अच्छे विद्यार्थी भी नहीं हैं, आज ऐसे लोग योग के प्रचारक बन बैठे हैं। योगी को अपने साथ आवश्यकता भर का सामान ही रखना चाहिए। जिन ऋषियों ने योग का प्रचार किया वे सर्वथा अपरिग्रही थी, आज भी ऐसे लोग हैं, लेकिन कम हैं। यदि संग्रह में आप पड़े रहेंगे, तो योग नहीं कर सकते, यम नहीं कर सकते। स्पष्ट लिखा है पतंजलि ने - अपरिग्रही को सभी तरह के फल की प्राप्ति होगी, उसे बैठे-बैठे ही सभी रत्नों की प्राप्ति होगी।
क्रमश: 

योग का उद्देश्य समझिए -2

यह आवश्यक है कि हम अपने चित्त को अनुशासित करें, इन्द्रियों को अनुशासित करें, लेकिन प्रश्न है कि हम कैसे अपने चित्त को अनुशासित करेंगेे। 
उदाहरण के लिए, जब हम अपने घर से बाहर होते हैं, तो हमें वह शांति नहीं मिलती, जो घर आकर मिलती है। बाहर हमारी चंचलता बढ़ती है, अशांति बढ़ती है, अपने कमरे में भी हम जब अपने बिस्तर पर आ गए और जब हमने अपने चित्त को समाहित करके कुछ समय बिताया, तो हमें बहुत आनंद होता है। योग दर्शन के अनुसार, यह बहुत बड़ा समाधान है कि हम अपने मन के फैलाव को रोकें। भगवान की दया से यह कैसे किया जाए, यह चिंता संसार को अनादि काल से रही है कि हम अपने चित्त को कैसे समाहित या एकाग्र करें, जो मन विभिन्न विषयों-चीजों से जुड़ रहा है, जो कभी शांति को प्राप्त नहीं कर रहा है, उसे हम कैसे जोड़ें, उसे हम कैसे रोकें। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने सबसे अच्छा समाधान बताया। उन्होंने लिखा - 
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाधयोष्टावंगानी।
अर्थात हम यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के माध्यम से अपनी चित्त वृत्तियों को रोकने का प्रयास करें। वास्तव में ये आठ अंग हैं योग के, इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है। यहां योग का अर्थ समाधि है। अभी अधिकतर लोग योग की शुरुआत आसन से करते हैं, लेकिन केवल आसन करने से ही चित्त वृत्तियां निरुद्ध नहीं होंगी। हमें योग के सबसे पहले अंग यम को अपनाना पड़ेगा। आज योग प्रचारकों का जो समुदाय है, वह पहली भूल यही कर रहा है कि वह लोगों से यम का परिचय नहीं करा रहा है। आज के योग प्रचारक योग के दो शुरुआती अंगों - यम, नियम को छोडक़र सीधे आसन पर आ जाते हैं। यह बहुत बड़ा धोखा है। आज यह एक बड़ी विडंबना है, यह समाज के साथ घातक प्रयोग है। 
पहले यम, फिर नियम, फिर आसन, फिर प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि को प्राप्त करना होता है, यह योग के ही चरण हैं। हम धीरे-धीरे परीक्षाओं को पास करते हैं, विभिन्न चरणों से होकर विकास करते हैं, ठीक उसी प्रकार योग भी विभिन्न चरणों से बारी-बारी गुजरता है। यम, नियम को नहीं छोडऩा चाहिए। जो लोग यम, नियम को छोडक़र आगे बढऩे का प्रयास कर रहे हैं, वे गलत कर रहे हैं, समाज को भटका रहे हैं।
यम के भी पांच भाग हैं। महर्षि पतंजलि ने लिखा 
- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्र्रहायमा:  
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांचों यम हैं। अहिंसा कहते हैं हिंसा के अभाव को। योग के पहले अंग का पहला स्वरूप अहिंसा है। अहिंसा की प्राप्ति होगी, तो ही आदमी चित्त को एकाग्र कर पाएगा। अहिंसा का बड़ा व्यापक अर्थ है, किसी को किसी भी तरह से दुख नहीं पहुंचाना। न वाणी से न शरीर से, जब हम प्राण वायु को नष्ट करने का प्रयास करते हैं, तो इसी को हिंसा कहते हैं। लेकिन जब हम कटु वाणी का प्रयोग करते हैं, उससे भी हिंसा होती है। इसका भी प्रयोग नहीं होना चाहिए। जब हम किसी की समाप्ति का या नुकसान पहुंचाने का संकल्प करते हैं, तो यह भी हिंसा है, यह नहीं होना चाहिए।
क्रमश: 

चंचल चित्त की चिंता - योग का उद्देश्य समझिए

(स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से, जो उनकी नई प्रवचन पुस्तिका में शामिल है)
शास्त्रीय चिंतन परंपरा के जो अत्यंत उत्कृष्ट स्वरूप हैं, उनमें वेद, उपनिषद, स्मृतियां, पुराण, दर्शन इत्यादि समाहित हैं। मूलभूत वेदों के जो मानवोपयोगी अत्यंत श्रेष्ठ विचार हैं, जो मनुष्य जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाले हैं, वेदों में ही उनका मूल है। उनको ऋषियों ने समझा, उनका साक्षात्कार किया और उनको लोगों को देने के लिए विभिन्न दर्शनों के रूप में निर्मित करके, उस परंपरा को, उस ज्ञान निधि को समाज को प्रदान किया, उसमें योग दर्शन भी एक है। वेदों को लोगों तक पहुंचाने के लिए यह ऋषियों का प्रयास था। जैसे योग अनादि हैं, सृष्टि अनादि है, उसी तरह से दर्शन शास्त्रों के चिंतन भी अनादि हैं। ऋषियों ने उन्हें जैसा देखा, समझा और वैसा ही लोगों को दिया। यह कोई आम लोक का चिंतन-विचार नहीं है, जो तत्वदर्शी नहीं होते। भारतीय परंपरा में योग दर्शन एक अत्यंत महत्वपूर्ण दर्शन है। यह कोई ऐसा ज्ञान नहीं था, जिसे यहां-वहां से लिया, यहां-वहां से देखकर लिखा, जो भी उल्टा-सीधा समझ में आया, उसे अनेक उद्देश्यों से लोगों तक पहुंचाया। इसी तरह आजकल अपरिपक्व ज्ञान के लोग ही ग्रंथ लिखते हैं, जो संपूर्ण स्वरूप को नहीं समझते। आज ऐसे अनेक लोग होने लगे हैं, जो ज्ञान की उच्चा अवस्था को प्राप्त नहीं करते, वे भी अध्यापन करते हैं, दूसरों को सिखाने की चेष्टा करते हैं। लेकिन ऋषियों ने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने योग को पहले स्वयं के जीवन में उतारा और उसके बाद ही व्यापक लोक कल्याण के लिए पूरे संसार को प्रदान किया।
जीवन को पूर्णता देने के लिए जीवन को प्रकाशित करने के लिए जीवन को बाहर-भीतर से उज्ज्वल बनाने के लिए योग आवश्यक है। योग संसार के सभी लोगों के लिए ऑक्सीजन के समान, प्राण वायु के समान नितांत आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि केवल भारत के ही लोगों के लिए योग का ज्ञान आवश्यक है या सनातन धर्म के लोगों के लिए ही आवश्यक है, अपितु यह ऐसा जीवनोपयोगी संसाधन है या ऐसी व्यवस्था है, ऐसी चिंतन प्रक्रिया है, जो ईश्वर के वरदान स्वरूप ऐसा आशीर्वाद है, ऐसा अवदान है कि जिसकी संसार में सभी लोगों को आवश्यकता है। योग से सभी को जुडऩा चाहिए और अपने जीवन को आगे बढ़ाना चाहिए।
योग दर्शन को महर्षि पतंजलि ने संसार के सामने लिखकर उद्घाटित किया था। महर्षि पतंजलि ने योग व्याख्यान की जब प्रतिज्ञा की कि मैं योग का व्याख्यान करूंगा। योग का एक अर्थ होता है जोडऩा। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी शक्ति, अपने संसाधनों को जोडऩे से ही हमें जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति होती है। हम श्रेष्ठ फल से जुड़ें, श्रेष्ठ लोगों से जुड़ें, श्रेष्ठ समाज से जुड़ें, श्रेष्ठ कर्म और ज्ञान से जुड़ें, श्रेष्ठ साधनों से जुड़ें। यहां योग दर्शन में योग का अर्थ समाधि है। महर्षि पतंजलि ने व्याख्यान किया कि संसार में जितनी भी कठिनाइयां हैं, जितनी भी क्रियाएं हैं, उन सबका मूल चंचलता ही है। जितना संसार दिख रहा है, वहां बड़ी चंचलता है। चित्त जब जड़ पदार्थों से जुड़ता है, तो भटकता है। कष्टों का एक ही कारण है - हमारा चित्त चंचल है। जैसे पशु-पक्षी भटकते रहते हैं कहीं भी उन्हें संतोष नहीं होता, कहीं भी उन्हें सुकून नहीं मिलता। ठीक उसी तरह से हम भी भटकते हैं, तरह-तरह की चीजों से अपने चित्त को जोड़ते हैं, उसी अनुरूप चित्त का आकार बढ़ाते-बनाते हैं। चित्त भटकता ही रहता है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने कहा कि चित्त के भटकाव का निरोध होना चाहिए। योग का यही अर्थ है। चित्त वृत्तियों का थमना जरूरी है। चित्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाएंगी, तो हमारे जीवन की कठिनाइयां नष्ट हो जाएंगी और हमें पूर्ण जीवन प्राप्त होगा। यह सबके लिए जरूरी है, यह केवल हिन्दू के लिए नहीं है। संपूर्ण काल के लिए संपूर्ण संप्रदाय के लोगों के लिए है, यह सबके लिए परमोपयोगी है। क्रमश: