यह आवश्यक है कि हम अपने चित्त को अनुशासित करें, इन्द्रियों को अनुशासित करें, लेकिन प्रश्न है कि हम कैसे अपने चित्त को अनुशासित करेंगेे।
उदाहरण के लिए, जब हम अपने घर से बाहर होते हैं, तो हमें वह शांति नहीं मिलती, जो घर आकर मिलती है। बाहर हमारी चंचलता बढ़ती है, अशांति बढ़ती है, अपने कमरे में भी हम जब अपने बिस्तर पर आ गए और जब हमने अपने चित्त को समाहित करके कुछ समय बिताया, तो हमें बहुत आनंद होता है। योग दर्शन के अनुसार, यह बहुत बड़ा समाधान है कि हम अपने मन के फैलाव को रोकें। भगवान की दया से यह कैसे किया जाए, यह चिंता संसार को अनादि काल से रही है कि हम अपने चित्त को कैसे समाहित या एकाग्र करें, जो मन विभिन्न विषयों-चीजों से जुड़ रहा है, जो कभी शांति को प्राप्त नहीं कर रहा है, उसे हम कैसे जोड़ें, उसे हम कैसे रोकें। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने सबसे अच्छा समाधान बताया। उन्होंने लिखा -
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाधयोष्टावंगानी।
अर्थात हम यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के माध्यम से अपनी चित्त वृत्तियों को रोकने का प्रयास करें। वास्तव में ये आठ अंग हैं योग के, इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है। यहां योग का अर्थ समाधि है। अभी अधिकतर लोग योग की शुरुआत आसन से करते हैं, लेकिन केवल आसन करने से ही चित्त वृत्तियां निरुद्ध नहीं होंगी। हमें योग के सबसे पहले अंग यम को अपनाना पड़ेगा। आज योग प्रचारकों का जो समुदाय है, वह पहली भूल यही कर रहा है कि वह लोगों से यम का परिचय नहीं करा रहा है। आज के योग प्रचारक योग के दो शुरुआती अंगों - यम, नियम को छोडक़र सीधे आसन पर आ जाते हैं। यह बहुत बड़ा धोखा है। आज यह एक बड़ी विडंबना है, यह समाज के साथ घातक प्रयोग है।
पहले यम, फिर नियम, फिर आसन, फिर प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि को प्राप्त करना होता है, यह योग के ही चरण हैं। हम धीरे-धीरे परीक्षाओं को पास करते हैं, विभिन्न चरणों से होकर विकास करते हैं, ठीक उसी प्रकार योग भी विभिन्न चरणों से बारी-बारी गुजरता है। यम, नियम को नहीं छोडऩा चाहिए। जो लोग यम, नियम को छोडक़र आगे बढऩे का प्रयास कर रहे हैं, वे गलत कर रहे हैं, समाज को भटका रहे हैं।
यम के भी पांच भाग हैं। महर्षि पतंजलि ने लिखा
- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्र्रहायमा:
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांचों यम हैं। अहिंसा कहते हैं हिंसा के अभाव को। योग के पहले अंग का पहला स्वरूप अहिंसा है। अहिंसा की प्राप्ति होगी, तो ही आदमी चित्त को एकाग्र कर पाएगा। अहिंसा का बड़ा व्यापक अर्थ है, किसी को किसी भी तरह से दुख नहीं पहुंचाना। न वाणी से न शरीर से, जब हम प्राण वायु को नष्ट करने का प्रयास करते हैं, तो इसी को हिंसा कहते हैं। लेकिन जब हम कटु वाणी का प्रयोग करते हैं, उससे भी हिंसा होती है। इसका भी प्रयोग नहीं होना चाहिए। जब हम किसी की समाप्ति का या नुकसान पहुंचाने का संकल्प करते हैं, तो यह भी हिंसा है, यह नहीं होना चाहिए।
क्रमश:
उदाहरण के लिए, जब हम अपने घर से बाहर होते हैं, तो हमें वह शांति नहीं मिलती, जो घर आकर मिलती है। बाहर हमारी चंचलता बढ़ती है, अशांति बढ़ती है, अपने कमरे में भी हम जब अपने बिस्तर पर आ गए और जब हमने अपने चित्त को समाहित करके कुछ समय बिताया, तो हमें बहुत आनंद होता है। योग दर्शन के अनुसार, यह बहुत बड़ा समाधान है कि हम अपने मन के फैलाव को रोकें। भगवान की दया से यह कैसे किया जाए, यह चिंता संसार को अनादि काल से रही है कि हम अपने चित्त को कैसे समाहित या एकाग्र करें, जो मन विभिन्न विषयों-चीजों से जुड़ रहा है, जो कभी शांति को प्राप्त नहीं कर रहा है, उसे हम कैसे जोड़ें, उसे हम कैसे रोकें। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने सबसे अच्छा समाधान बताया। उन्होंने लिखा -
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाधयोष्टावंगानी।
अर्थात हम यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के माध्यम से अपनी चित्त वृत्तियों को रोकने का प्रयास करें। वास्तव में ये आठ अंग हैं योग के, इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है। यहां योग का अर्थ समाधि है। अभी अधिकतर लोग योग की शुरुआत आसन से करते हैं, लेकिन केवल आसन करने से ही चित्त वृत्तियां निरुद्ध नहीं होंगी। हमें योग के सबसे पहले अंग यम को अपनाना पड़ेगा। आज योग प्रचारकों का जो समुदाय है, वह पहली भूल यही कर रहा है कि वह लोगों से यम का परिचय नहीं करा रहा है। आज के योग प्रचारक योग के दो शुरुआती अंगों - यम, नियम को छोडक़र सीधे आसन पर आ जाते हैं। यह बहुत बड़ा धोखा है। आज यह एक बड़ी विडंबना है, यह समाज के साथ घातक प्रयोग है।
पहले यम, फिर नियम, फिर आसन, फिर प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि को प्राप्त करना होता है, यह योग के ही चरण हैं। हम धीरे-धीरे परीक्षाओं को पास करते हैं, विभिन्न चरणों से होकर विकास करते हैं, ठीक उसी प्रकार योग भी विभिन्न चरणों से बारी-बारी गुजरता है। यम, नियम को नहीं छोडऩा चाहिए। जो लोग यम, नियम को छोडक़र आगे बढऩे का प्रयास कर रहे हैं, वे गलत कर रहे हैं, समाज को भटका रहे हैं।
यम के भी पांच भाग हैं। महर्षि पतंजलि ने लिखा
- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्र्रहायमा:
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांचों यम हैं। अहिंसा कहते हैं हिंसा के अभाव को। योग के पहले अंग का पहला स्वरूप अहिंसा है। अहिंसा की प्राप्ति होगी, तो ही आदमी चित्त को एकाग्र कर पाएगा। अहिंसा का बड़ा व्यापक अर्थ है, किसी को किसी भी तरह से दुख नहीं पहुंचाना। न वाणी से न शरीर से, जब हम प्राण वायु को नष्ट करने का प्रयास करते हैं, तो इसी को हिंसा कहते हैं। लेकिन जब हम कटु वाणी का प्रयोग करते हैं, उससे भी हिंसा होती है। इसका भी प्रयोग नहीं होना चाहिए। जब हम किसी की समाप्ति का या नुकसान पहुंचाने का संकल्प करते हैं, तो यह भी हिंसा है, यह नहीं होना चाहिए।
क्रमश:
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