आठवां अंग समाधि
समाधि क्रिया नहीं है, एक उपलब्धि है। समाधि कोई घटना नहीं है, ध्यान के स्थिर होने पर ही अपने आप समाधि घटित होती है। चित्त का कोई स्वरूप नहीं रह जाता। चित्त एक ही आकार में परिणत हो जाता है। इसके बाद आगे चलते हैं, तो भगवान की दया से अत्यंत बुद्धि का विकास हो जाता है। हमारी बुद्धि आसाधारण को भी समझने में सक्षम हो जाती है। ऋषियों के पास ऐसा ज्ञान था कि जहां आज भी वैज्ञानिक नहीं पहुंच पाए हैं। इस बुद्धि को प्रज्ञा कहा गया है। जब प्रज्ञा का प्रकाश होता है, तक सबकुछ दिखने लगता है। अध्यात्म प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है। सभी क्रियाएं छूट जाती हैं। भागदौड़ रुक जाती है, मोक्ष मिल जाता है।
लिखा महर्षि ने -
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:।
यहां केवल ध्येय मात्र का आभास होता है, स्वरूप शून्य-सा हो जाता है और समाधि लग जाती है। केवल एक ही प्रतीती होती है। चित्त का निरंतर प्रवाह एक ही दिशा में चलता रहता है, अधिक समय तक प्रवाह चलता रहेगा, तो उसका स्वरूप शून्य हो जाता है। यही अवस्था समाधि है। प्रज्ञा का उच्च स्वरूप सामने आ जाता है। यहां तक वैज्ञानिक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। प्रज्ञा का जब प्रकाश होता है, तो सब दिखने लगता है।
अंतिम समाधि में आने के बाद सत्य का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। योगी को ज्ञान हो जाता है, चित्त अलग है और पुरुष अलग है। चित्त का संपूर्ण व्यापार पुरुष के लिए होता है। चित्त जब संसार की रचना करता है, तो भोग प्राप्त करता है। चित्त जब यह समझने लगे, जब उसे परिज्ञान हो जाए, जब चित्त का पूर्णविलय हो जाए, तभी समाधि प्रज्ञा संभव है। चित्त जब समझ लेता है कि मैं पुरुष से अलग हूं। जैसे मुख्यमंत्री के परिवार के लोग भी स्वयं को मुख्यमंत्री समझकर अनर्थ कर लेते हैं, जैसे चपरासी भी स्वयं को अफसर समझने लगता है, ठीक उसी तरह चित्त और चेतन पुरुष के बीच होता है। चित्त समझता है कि मैं चेतन हूं और चेतन पुरुष समझता है कि मैं भोक्ता हूं। इसी के कारण ये सारा संसार भटक रहा है। समाधि में यह भटकना रुकता है।
कहा गया है, अंतिम समाधि में चित्त बीज का भी अभाव हो जाता है। समाधि संयम को प्राप्त हो जाती है। चित्त का ही अभाव पैदा करना पड़ता है। योगी को यह ज्ञान हो जाता है कि चित्त अलग है और पुरुष अलग है। यह योग की अंतिम सीढ़ी है। उसके बाद ही मोक्ष संभव होता है।
मोक्ष क्या है?
कैसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसके लिए पतंजलि ने लिखा। कहा कि पुरुषार्थ शून्य हो जाते है गुण। यह केवल्य है। चित्त के जो गुण हैं, सत, रज, तम, तीनों गुण बराबर हो जाते हैं, तीनों गुणों की साम्या अवस्था को प्रकृति माना गया है। जब पुरुषार्थ शून्य हो जाते हैं गुण, तो वो अपने कारण में लीन हो जाते हैं। उनको मालूम हो गया कि हमारा जो पुरुषार्थ था, वो संपन्न हो गया। अब हमें मोक्ष की प्राप्ति हो गई। हमारा जो काम था, वह हमने कर लिया। जो पुरुष है, जो जीवात्मा है, वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है, ईश्वर में समर्पित हो जाता है, पूर्ण रूप से वहां अटल भाव को प्राप्त कर लेना, इसी का नाम मोक्ष है। मूल स्वरूप सृष्टि का अव्यक्त है। उपनिषदों का वेद वाक्य है, जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था, तब केवल सत्य ही था। भगवान के संकल्प से सृष्टि का रोज फैलाव हो रहा है। एक योगी इस विस्तार को अपने भीतर रोक देता है। अविद्या का नाश हो जाता है। यह जीवन की संपूर्णता का स्वरूप है।
क्रमश:
समाधि क्रिया नहीं है, एक उपलब्धि है। समाधि कोई घटना नहीं है, ध्यान के स्थिर होने पर ही अपने आप समाधि घटित होती है। चित्त का कोई स्वरूप नहीं रह जाता। चित्त एक ही आकार में परिणत हो जाता है। इसके बाद आगे चलते हैं, तो भगवान की दया से अत्यंत बुद्धि का विकास हो जाता है। हमारी बुद्धि आसाधारण को भी समझने में सक्षम हो जाती है। ऋषियों के पास ऐसा ज्ञान था कि जहां आज भी वैज्ञानिक नहीं पहुंच पाए हैं। इस बुद्धि को प्रज्ञा कहा गया है। जब प्रज्ञा का प्रकाश होता है, तक सबकुछ दिखने लगता है। अध्यात्म प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है। सभी क्रियाएं छूट जाती हैं। भागदौड़ रुक जाती है, मोक्ष मिल जाता है।
लिखा महर्षि ने -
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:।
यहां केवल ध्येय मात्र का आभास होता है, स्वरूप शून्य-सा हो जाता है और समाधि लग जाती है। केवल एक ही प्रतीती होती है। चित्त का निरंतर प्रवाह एक ही दिशा में चलता रहता है, अधिक समय तक प्रवाह चलता रहेगा, तो उसका स्वरूप शून्य हो जाता है। यही अवस्था समाधि है। प्रज्ञा का उच्च स्वरूप सामने आ जाता है। यहां तक वैज्ञानिक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। प्रज्ञा का जब प्रकाश होता है, तो सब दिखने लगता है।
अंतिम समाधि में आने के बाद सत्य का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। योगी को ज्ञान हो जाता है, चित्त अलग है और पुरुष अलग है। चित्त का संपूर्ण व्यापार पुरुष के लिए होता है। चित्त जब संसार की रचना करता है, तो भोग प्राप्त करता है। चित्त जब यह समझने लगे, जब उसे परिज्ञान हो जाए, जब चित्त का पूर्णविलय हो जाए, तभी समाधि प्रज्ञा संभव है। चित्त जब समझ लेता है कि मैं पुरुष से अलग हूं। जैसे मुख्यमंत्री के परिवार के लोग भी स्वयं को मुख्यमंत्री समझकर अनर्थ कर लेते हैं, जैसे चपरासी भी स्वयं को अफसर समझने लगता है, ठीक उसी तरह चित्त और चेतन पुरुष के बीच होता है। चित्त समझता है कि मैं चेतन हूं और चेतन पुरुष समझता है कि मैं भोक्ता हूं। इसी के कारण ये सारा संसार भटक रहा है। समाधि में यह भटकना रुकता है।
कहा गया है, अंतिम समाधि में चित्त बीज का भी अभाव हो जाता है। समाधि संयम को प्राप्त हो जाती है। चित्त का ही अभाव पैदा करना पड़ता है। योगी को यह ज्ञान हो जाता है कि चित्त अलग है और पुरुष अलग है। यह योग की अंतिम सीढ़ी है। उसके बाद ही मोक्ष संभव होता है।
मोक्ष क्या है?
कैसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसके लिए पतंजलि ने लिखा। कहा कि पुरुषार्थ शून्य हो जाते है गुण। यह केवल्य है। चित्त के जो गुण हैं, सत, रज, तम, तीनों गुण बराबर हो जाते हैं, तीनों गुणों की साम्या अवस्था को प्रकृति माना गया है। जब पुरुषार्थ शून्य हो जाते हैं गुण, तो वो अपने कारण में लीन हो जाते हैं। उनको मालूम हो गया कि हमारा जो पुरुषार्थ था, वो संपन्न हो गया। अब हमें मोक्ष की प्राप्ति हो गई। हमारा जो काम था, वह हमने कर लिया। जो पुरुष है, जो जीवात्मा है, वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है, ईश्वर में समर्पित हो जाता है, पूर्ण रूप से वहां अटल भाव को प्राप्त कर लेना, इसी का नाम मोक्ष है। मूल स्वरूप सृष्टि का अव्यक्त है। उपनिषदों का वेद वाक्य है, जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था, तब केवल सत्य ही था। भगवान के संकल्प से सृष्टि का रोज फैलाव हो रहा है। एक योगी इस विस्तार को अपने भीतर रोक देता है। अविद्या का नाश हो जाता है। यह जीवन की संपूर्णता का स्वरूप है।
क्रमश:
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