पांचवां अंग प्रत्याहार
महर्षि पतंजलि ने कहा -
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:।
प्रत्याहार समाधि प्राप्ति का अंग है। अपने चित्त को अपने विषयों से रहित करना चाहिए। जहां-जहां हमारा चित्त भागता है, उसे वहां जाने से रोकना है। आहारण करना आवश्यक है। अपने-अपने विषयों से इन्द्रियों को हटाना और चित्त के स्वरूप में उन्हें विलीन कर देना प्रत्याहार है। इन्द्रियां जब तक भागती रहती हैं, तब तक परम सुख नहीं मिलता। चित्त को भटकने नहीं देना, इन्द्रियों को वश में करना प्रत्याहार है। इन्द्रियों को रोकने से ही सुख मिलता है। प्रत्याहार सिद्ध होने के बाद साधक अपनी इन्द्रियों को जहां चाहे वहां लगा सकता है।
कहा गया है -
तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्।
प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में हो जाती हैं।
छठा अंग धारणा
चित्त को एक देश विशेष में बांधना धारणा है। पतंजलि जी ने कहा -
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।
जैसे पशु को बांधना पड़ता है, खुला छोड़ दें, तो वह पता नहीं कहां-कहां चला जाए। अपने चित्त को व्यक्ति बांधे एक जगह। महान जीवन के सर्वश्रेष्ठ संसाधनों को बांधना चाहिए। एक स्थान पर केन्द्रित करना चाहिए। कहां हम उनको बांधें, नाभि में बांधिए, किसी अन्य अंग में बांधिए, रोकिए। नासिका के अग्र भाग में बांधें। हृदय कमल में बांधें। हृदय कमल को देखें, इससे क्या होगा, इससे हमारा चित्त धारणा योग को प्राप्त करेगा।
सातवां अंग ध्यान
धारणा सिद्ध हो जाए, तो ध्यान सिद्ध हो जाता है। आज कोई भी पद्धति उतनी दूषित नहीं हुई है, जितना कि लोगों ने योग को दूषित किया है। योग दुनिया के सभी लोगों के लिए परमऔषधि है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ उद्धारक है, जीवन को संपूर्णता देने वाला है। इस योग को लोग सांप्रदायिक मान रहे हैं। मैं पूछता हूं, किसके जीवन में योग की जरूरत नहीं है। सबके जीवन में ध्यान की जरूरत है। जीवन की समस्या का कारण निर्बलता नहीं है, पानी का कम होना समस्या नहीं है, दवाई का अभाव समस्या नहीं है, समस्या तो यह है कि जो संसाधन हमारे पास हैं, उनका हम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। हम अपने जीवन को शांतमय और सुखमय बनाएं। ध्यान सबको करना चाहिए। ज्ञान के विषय बदलते रहते हैं, जब एक ही तरह का ज्ञान लगातार हो, जब हम चंद्रमा को देख रहे हों, तो चंद्रमा का ही ध्यान हो। गंगा को देख रहे हों, तो गंगा का ही ध्यान हो।
ध्यान का अभिप्राय है - महर्षि पतंजलि ने कहा -
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।
चित्त का एक सा बना रहना ही ध्यान है। ध्यान बदलना नहीं चाहिए। विषय के बदलने से ध्यान बदलता है। एक ही समान ध्यान बना रहना चाहिए। भटकना रुका, तो ध्यान होता है। लोग कई तरह से ध्यान करते हैं। जो चित्त बना, एक जगह लगा, वहां बंधन को प्राप्त किया, उसी का लगातार बनाए रखना, चित्त में कोई दूसरी वृत्ति नहीं आनी चाहिए, कोई शब्द नहीं आवे, कोई रूप नहीं आवे, तो यह ध्यान है।
क्रमश:
महर्षि पतंजलि ने कहा -
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:।
प्रत्याहार समाधि प्राप्ति का अंग है। अपने चित्त को अपने विषयों से रहित करना चाहिए। जहां-जहां हमारा चित्त भागता है, उसे वहां जाने से रोकना है। आहारण करना आवश्यक है। अपने-अपने विषयों से इन्द्रियों को हटाना और चित्त के स्वरूप में उन्हें विलीन कर देना प्रत्याहार है। इन्द्रियां जब तक भागती रहती हैं, तब तक परम सुख नहीं मिलता। चित्त को भटकने नहीं देना, इन्द्रियों को वश में करना प्रत्याहार है। इन्द्रियों को रोकने से ही सुख मिलता है। प्रत्याहार सिद्ध होने के बाद साधक अपनी इन्द्रियों को जहां चाहे वहां लगा सकता है।
कहा गया है -
तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्।
प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में हो जाती हैं।
छठा अंग धारणा
चित्त को एक देश विशेष में बांधना धारणा है। पतंजलि जी ने कहा -
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।
जैसे पशु को बांधना पड़ता है, खुला छोड़ दें, तो वह पता नहीं कहां-कहां चला जाए। अपने चित्त को व्यक्ति बांधे एक जगह। महान जीवन के सर्वश्रेष्ठ संसाधनों को बांधना चाहिए। एक स्थान पर केन्द्रित करना चाहिए। कहां हम उनको बांधें, नाभि में बांधिए, किसी अन्य अंग में बांधिए, रोकिए। नासिका के अग्र भाग में बांधें। हृदय कमल में बांधें। हृदय कमल को देखें, इससे क्या होगा, इससे हमारा चित्त धारणा योग को प्राप्त करेगा।
सातवां अंग ध्यान
धारणा सिद्ध हो जाए, तो ध्यान सिद्ध हो जाता है। आज कोई भी पद्धति उतनी दूषित नहीं हुई है, जितना कि लोगों ने योग को दूषित किया है। योग दुनिया के सभी लोगों के लिए परमऔषधि है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ उद्धारक है, जीवन को संपूर्णता देने वाला है। इस योग को लोग सांप्रदायिक मान रहे हैं। मैं पूछता हूं, किसके जीवन में योग की जरूरत नहीं है। सबके जीवन में ध्यान की जरूरत है। जीवन की समस्या का कारण निर्बलता नहीं है, पानी का कम होना समस्या नहीं है, दवाई का अभाव समस्या नहीं है, समस्या तो यह है कि जो संसाधन हमारे पास हैं, उनका हम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। हम अपने जीवन को शांतमय और सुखमय बनाएं। ध्यान सबको करना चाहिए। ज्ञान के विषय बदलते रहते हैं, जब एक ही तरह का ज्ञान लगातार हो, जब हम चंद्रमा को देख रहे हों, तो चंद्रमा का ही ध्यान हो। गंगा को देख रहे हों, तो गंगा का ही ध्यान हो।
ध्यान का अभिप्राय है - महर्षि पतंजलि ने कहा -
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।
चित्त का एक सा बना रहना ही ध्यान है। ध्यान बदलना नहीं चाहिए। विषय के बदलने से ध्यान बदलता है। एक ही समान ध्यान बना रहना चाहिए। भटकना रुका, तो ध्यान होता है। लोग कई तरह से ध्यान करते हैं। जो चित्त बना, एक जगह लगा, वहां बंधन को प्राप्त किया, उसी का लगातार बनाए रखना, चित्त में कोई दूसरी वृत्ति नहीं आनी चाहिए, कोई शब्द नहीं आवे, कोई रूप नहीं आवे, तो यह ध्यान है।
क्रमश:
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