Friday, 8 December 2017

योग का उद्देश्य समझिए - 3

मां हिंस्यात सर्वाभूताणि। 
हमें किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी है। इसलिए सनातन धर्म में लिखा है कि मच्छरों, कीट-पतंगों को भी मारने, वृक्ष-लताओं को काटने से भी पाप उत्पन्न होता है। यज्ञ में लकड़ी की जरूरत होती है, पेड़़ काटे जाते हैं, तो जैसे यज्ञ से पुण्य मिलता है, ठीक उसी प्रकार हरा भरा पेड़ काटने से पाप भी मिलता है। यदि हम हिंसा से नहीं बचते हैं, तो हमारा चित्त कभी एकाग्र नहीं होगा। कभी जीवन में पूर्णता की प्राप्त नहीं होगी। 
पूरी दुनिया में अहिंसा की भावना का अस्तित्व है, इसके लिए कोर्ट है, पुलिस है। इतना ही नहीं, लोग मनुष्यों की ही नहीं, किसी भी तरह से हिंसा नहीं करें। कौन-सा संप्रदाय होगा, कौन-सी ऐसी जाति होगी, जिसे हिंसा पसंद है, जो हिंसा का अभिशाप नहीं मानती। योग के पहले अंग यम का पहला स्वरूप अहिंसा है। जिसे वेदों ने सबसे पहली बार समाज में प्रकट किया था। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। 
ऐसे आख्यान भी आए हैं, तितली के पंख में कांटे को छुआ दिया, तो दंड स्वरूप सूली पर बैठना पड़ा। शास्त्रों में वर्णित हैं ऐसे प्रसंग। कितना बड़ा चिंतन है महर्षि पतंजली का। अहिंसा की प्राप्ति होगी, तो ही आदमी चित्त को एकाग्र कर पाएगा। क्या खूब लिखा है महर्षि पतंजलि ने - 
अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।
अर्थात जब योगी का अहिंसा भाव स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर त्याग देते हैं।

सत्य -  यम का दूसरा अंग है सत्य। वेदों ने कहा - सत्यम वद। यह किसी एक जाति या काल के लोगों के लिए नहीं कहा था, सबके लिए कहा था। सत्य सभी को बोलना चाहिए। इसका उदाहरण है, जहां लोग गोमांस खाते हैं, जहां लोग अत्यंत अमर्यादित जीवन जीते हैं, जिनका जीवन बड़े रूप में पशुता के समीप है। कहीं भी उनको देवत्व देने वाला नहीं है, वहां के लोग भी सत्य के पक्षधर हैं। इसलिए वाटरगेट कांड में निक्सन को झूठ बोलने के कारण पद छोडऩा पड़ा। कहा महर्षि पतंजलि ने कि सत्य में भी प्रतिष्ठित होना पड़ेगा। जो जैसा है, उसका वैसा ही ज्ञान करना और उसी तरह प्रकट करना, यह सत्य की प्रतिष्ठा है। 
महर्षि पतंजलि ने कहा - 
सत्य प्रतिष्ठायां क्रिया फलाश्रयत्वम।
पतंजलि ने लिखा है कि सत्य में यदि कोई प्रतिष्ठित है, तो उसकी वाणी में संपूर्ण क्रियाओं के फल आ जाएंगे। सत्य बोलने वाला यदि कह देगा, तो पापी भी स्वर्ग चला जाएगा। सत्य की आवश्यकता पूरे संसार को है। सत्य बोलने से सच्ची शक्ति उत्पन्न होती है।

अस्तेय - यम का तीसरा अंग है अस्तेय। महर्षि ने लिखा है - 
अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्। 
चोरी के अभाव के स्थिर होने पर योगी के सामने हर प्रकार के रत्न उपस्थित हो जाते हैं। हमें चोरी नहीं करना चाहिए। बेईमानी से दूसरे का हक हम ले लें, यह चोरी है। हेराफेरी भी चोरी है। पूरी दुनिया की समस्या है, लोग छल कपट अनेक तरह के गलत हथकंडों से दूसरे की वस्तु, जमीन, संसाधनों को अपना बना लेते हैं, संपूर्ण मानव जाति चोरी से त्रस्त है। योग और यम के लिए अस्तेय आवश्यक है।

ब्रह्मचर्य - योग के लिए ब्रह्मचर्य बहुत आवश्यक है। महर्षि पतंजलि ने कहा कि आपको मन को काबू में करना है, तो ब्रह्मचारी बनना पड़ेगा। ब्रह्मचर्य धर्म का मूल है। आज इतनी बीमारियां हो रही हैं, लोग दुर्बल होते जा रहे हैं, इसका कारण है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहा है। आपको तन से मन से वचन से मैथुन का परित्याग करना होगा। मनुष्यों की क्षमता कम होती जा रही है, जो दुर्बलता हो रही है, उसका कारण है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहा है। 

अपरिग्रह - महर्षि पतंजलि ने लिखा - 
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। 
आज योग के प्रचार का एक बड़ा विकृत स्वरूप आ गया है, धन कमाना। लोग शुल्क ले रहे हैं। उपनिषदों में लिखा है संग्रह उतना ही करना चाहिए, जितने में जीवन का निर्वाह हो जाए। नहीं तो आदमी इसी चिंता में मरता रहता है कि धन की रक्षा कैसे होगी। अपरिग्रह होना चाहिए। आज जो लोग योग के प्रचार में लगे हैं, उनमें से ज्यादातर बड़े परिग्रही लोग हैं। उनमें धन जुटाने की प्रबल भावनाएं हैं। कथित योगियों को पता ही नहीं कि यम क्या होगा, नियम क्या होगा, समाधि कैसे लगेगी। जो योग के अच्छे विद्यार्थी भी नहीं हैं, आज ऐसे लोग योग के प्रचारक बन बैठे हैं। योगी को अपने साथ आवश्यकता भर का सामान ही रखना चाहिए। जिन ऋषियों ने योग का प्रचार किया वे सर्वथा अपरिग्रही थी, आज भी ऐसे लोग हैं, लेकिन कम हैं। यदि संग्रह में आप पड़े रहेंगे, तो योग नहीं कर सकते, यम नहीं कर सकते। स्पष्ट लिखा है पतंजलि ने - अपरिग्रही को सभी तरह के फल की प्राप्ति होगी, उसे बैठे-बैठे ही सभी रत्नों की प्राप्ति होगी।
क्रमश: 

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