Monday, 27 August 2018

बच्चों को महामानव बनाएं

समापन भाग - ११
जब हम छोटे थे, तब लोग देखते थे कि हम किसे देख रहे हैं। यदि हमारा लडक़ा सयाना है और जिसे नहीं देखना चाहिए, उसे देख रहा है, तो बड़े लोग टोकते थे कि क्या देख रहे हो। मुझे गुरुजी का ध्यान है कि मेरे कमरे में खिडक़ी थी, खिडक़ी के पार एक परिवार के लोग रहते थे, बीच में गली थी। उस खिडक़ी से बाहर देखते हुए मुझे गुरुजी ने नहीं देखा, लेकिन जब वे देख लेते थे कि कभी खिडक़ी खुली है, तो वे कठोर शब्दों का प्रयोग करके मेरी भत्र्सना करते थे। पूछते थे कि उधर खिडक़ी क्यों खुली है? परिणाम यह कि पांच-पांच महीने निकल जाते, मैं खिडक़ी नहीं खोलता। 
आज भी जहां रहता हूं, वहां खिडक़ी नहीं खोलना है, आदत हो गई है। हमें बाहर क्या देखना है, कौन-सी चीज कमरे में नहीं है, बाहर किसको देखकर हम वैज्ञानिक या विरागी हो जाएंगे? तो भद्र को ही सुनना और भद्र को ही देखना और भद्र को ही छूना और यह बच्चों को शुरू से बताना चाहिए। खुद भी ऐसा करें और बच्चों से भी करवाएं। 
संत शिरोमणि डोंगरे जी का प्रवचन सुन रहा था। उन्होंने कहा, ‘हम किसी को दो पैसा दे दें, उसे जब जरूरत हो, किन्तु हम आंख और कान नहीं दें।’ 
लोग अनावश्यक बहुत बोलते हैं और अनावश्यक बहुत सुनते हैं। आदमी किसी को भी सुन लेता है। हम क्यों सुनें? हम क्यों देखें? हमें देखने से कुछ अच्छा मिले, तो देखें? क्या जो भी मिलेगा ग्रहण कर लेंगे? जीवन भर इंद्रियों का प्रयोग करना है, ईश्वर ने दिया है। यह हमारे कल्याण के संसाधनों का धाम है शरीर। जीवन को परिपूर्णता देने के लिए हमें शुरू से ही संसाधन मिले हैं। इन संसाधनों का प्रयोग भी हमें बतलाया जाए, छोटी ही आयु से। अभिभावक भी इस प्रयोग को करें। आज अभिभावक भी टीवी पर गलत देख रहे हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। हम अपने जीवन को सबके लिए लाभप्रद बनाएं। 
ध्यान दीजिए, वह कौन-सी शिक्षा होगी कि इसी संसार में अनेक महान विभूतियों ने ऋषित्व जीवन प्राप्त किया। वह कौन-सी शिक्षा होगी - व्यसन संसाधन के बिना भी सुदामा पूज्य हो गए? धनवान होना गलत नहीं है, किन्तु उसे प्राप्त करके भी जीवन विकसित हो, दूसरों के लिए उपयोगी हो। धन पाकर पशु जैसा जीवन न हो, लूटखसोट का जीवन न हो। धन पाकर पशु जैसा जीवन हो, तो कुछ ही दिनों तक लोग वाह-वाह करते हैं। 
मनु जी ने श्लोक कहा - जिसका अर्थ है -जैसे आदमी सही संसाधनों से बढ़ता है, वैसे ही गलत संसाधनों से भी बढ़ता है। जैसे पुण्य से बढ़ता है, वैसे ही पाप से भी बढ़ता है। अधर्म से भी संपन्नता और सम्मान का विस्तार होता है। सब बढ़ जाता है, रोज बढ़ता है। किन्तु वह समय भी आता है, मानो पूरा का पूरा नीचे दलदल हो, वैसे ही वह पूरा जीवन बैठ जाता है। जैसे रावण का बैठ गया। सबकुछ था, लेकिन वह जो बढ़ रहा था, लगता था कि वह बढ़ रहा है, किन्तु वह तो अधर्म से पतन की ओर बढ़ रहा था। 
गलत तरीके से जो शरीर लाल हो रहा है, मजबूत हो रहा है, वह केवल लगता है कि बढ़ रहा है, किन्तु वास्तव में वह मृत्यु की ओर जा रहा है। ऐसे अनेक लोगों ने धन अर्जित कर लिया, किन्तु धन चला जाता है। कभी मंदी में, कभी महंगाई में देश में ऐसी व्यवस्थाएं हैं, जिनमें तमाम लोग एक साथ बैठ जाते हैं। जब करोड़ों हजार का आदमी अपने जीवन में गिर जाता है। करोड़ों रुपए का व्यापार करने वाले का भी लोप हो जाता है। अधर्म से बढऩे वाला अपयश को प्राप्त हो जाता है। इसलिए हमें शुरू से यह शिक्षा मिलनी चाहिए कि हमें गलत रास्ते से शरीर, प्रतिष्ठा, परिवार, पद, विद्या को नहीं बढ़ाना है। केवल यह नहीं सिखलाइए कि कैसे पेट भरेगा-बढ़ेगा। बताइए कि अच्छी शिक्षा नहीं होगी, तो परिवार नहीं चलेगा, समाज नहीं चलेगा, राष्ट्र नहीं चलेगा। भारत में तो अनादि काल से सही सार्थक परिपूर्ण चिंतन की परंपरा प्रवाहित हो रही है। आइए, इस प्रवाह से सीखें। 
जय सियाराम

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - १०
मैं इंदौर में था गीता पर प्रवचन करने के लिए एक विद्वान आए। बहुत दूर से आए। मोह-शोक भगाने वाली चर्चा चल रही थी, किन्तु उन्होंने भी अपना बाल आगे कर लिया। यह तो हमें छोटी आयु में ही सिखलाया गया था, जब घर से आ गए कि आदमी बाहरी संसाधनों से सुंदर नहीं होता, कपड़ा और जूता और तमाम तरह के जो आभूषण हैं, जो बाल हैं, उनसे हमारा व्यक्तित्व नहीं बढ़ता, व्यक्तित्व तो अपने श्रेष्ठ संस्कारों के आधार पर बढ़ता है। सभी लोगों को शुरू से ही यह शिक्षा दी जाए कि हम कैसे बड़े आदमी हो सकते हैं। 
दान देने से दूसरों की मदद करने से हमारे हाथों की सुुंदरता है, केवल स्वर्ण का कड़ा पहनने से हाथों की सुंदरता नहीं है। हमारी वाणी की मधुरता से, सत्यता से, मर्यादित शब्दों के उच्चारण से हमारी वाणी की सफलता है, उपयोगिता है। जैसे-तैसे बोलकर हाव-भाव बनाकर तमाम अश्लील बातों को परोस कर, विनोदी बातें करके, हम बहुत अच्छे हो जाएंगे, यह सही नहीं है। 
व्यक्तित्व व व्यवहार में यह सुधार अचानक नहीं होगा। मैंने पहले बतलाया कि मां के गर्भ से ही शिक्षा शुरू हो जाती है। अभी हमने एक परंपरा की शुरुआत की है। समर्पित भक्तों के यहां जब कोई महिला गर्भवती हो जाती है, तो मैं उन्हें ९ दिनों की राम कथा सुनवाता हूं। उसमें भीड़भाड़ नहीं होती, गर्भवती महिला अपनी किसी महिला अभिभावक के साथ उपस्थित रहती है। कम से कम दो महिलाएं परिपूर्ण ९ दिनों में अधिक से अधिक घंटे कथा सुनती हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है, जो बच्चे जन्म ले रहे हैं, उनमें उत्कृष्ट राम भाव दिख रहा है। मैंने भी कई जगह कहा कि इस आयु में मेरा ऐसा भाव नहीं था, जबकि मैं धार्मिक आध्यात्मिक जीवन में एक स्वरूप को प्राप्त कर चुका हूं, लोग कहते हैं कि आपका जीवन प्रेरित करता है, लेकिन मैं हाथ खड़ा कर देता हूं, जब उन बच्चों को देखता हूं, जिन्हें ९ दिन रामचरितमानस सुनवाया था। 
एक बच्ची जन्म ली, सर्दी के दिनों में, घर वाले रात्रि भर गोद में लेकर जाप करते थे, लेकिन जहां जाप बंद कर दें, तो रोने लगती थी, राम राम कहें, तो गोद में लेटी रहती थी, निद्रा में रहती थी, लोग बोलते रहते थे सीताराम सीताराम राधे श्याम राधे श्याम। चमत्कार है, जो बच्चा सर्दी से पीडि़त है, रोने लगता है, वह केवल राम-राम से चुप होता है। तो अभिप्राय यह कि हम शुरू से ही केवल अर्थ प्राप्ति की शिक्षा नहीं दें, केवल भोग की शिक्षा नहीं दें, शिक्षा हम धर्म और मोक्ष की भी दें। 
कई लोग अपने बच्चों को चोरी की शिक्षा देते हैं। मुझे अनुभव है कि कैसे मां अपने बच्चे को व्याभिचारी बनाती है, चोरी करना सिखाती है, कैसे मां अपने बच्चे को आतंकवादी बनाती है, कैसे दूसरों को तिरस्कार करना सिखाती है। शुरू से ही बच्चों को गलत ढंग से पालती है। सुधार करना होगा। हम बच्चों को शब्द व्यवहार सिखाएं, साथ-साथ जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों से परिचय कराना चाहिए। केवल यहीं हमारा गांव नहीं है, ऊपर भी गांव है, जहां भगवान रहते हैं, वहां चोर, बदमाश, झूठ बोलने वाले नहीं जाते, अपमानित करने वाले, हत्या करने वाले, ठगने वाले नहीं जाते। वहां अच्छे लोग ही जाते हैं। 
ये जो बातें हम कर रहे हैं, उन बातों को तमाम आयु बीतने के बाद आदमी सीखता है, किन्तु हमें शिशु या बाल्यकाल से ही यह सीख लेना चाहिए।
बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो - गांधी जी की यह शिक्षा - ये वेदों ने भी कहा। हम केवल भद्र को ही सुनेंगे। दूसरों की निंदा सुनकर आदमी राक्षस हो जाता है। कान भी बुरी बातों को सुनने का आदी हो जाता है। चरस पीने वालों को दूसरा नशा काम नहीं करता, जैसे शराब पीने वालों को दूसरा पेय प्रभावित नहीं करता, सुकून नहीं देता। शुरू से ही हमें गलत, असभ्य बातों पर कान नहीं देना है। वेदों ने कहा कि हमें भद्र को सुनना है - भद्र माने - जो हमें विकृत प्रेरणा नहीं दे सकता। शुरू से ही शिक्षा होनी चाहिए। भद्र को ही सुनना और भद्र को ही देखना-सीखना चाहिए। 
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ९
यह व्यवहार इतना अच्छा है कि क्या बात है, इसका कोई जोड़ नहीं है। ये सारे जो मनुष्य के प्रारंभिक ज्ञान हैं, किसी के आने पर हम कैसे उसका स्वागत करते हैं, कैसे उसे स्वीकार करते हैं, कैसे शुरुआत करते हैं, तो यह बहुत ही सिखाने लायक बात है। यह बात अंतिम समय तक काम आएगी। जीवन के किसी भी क्षेत्र में होंगे, यह काम आने वाली शिक्षा है। 
लिखा है कि मनु ने कि सज्जनों के यहां स्वागत के चार संसाधन सदा उपस्थित रहते हैं। सबसे पहले कोई आया, हम उसे नमस्कार करें। घर के लोग करें, बच्चे को भी कहें। देखो कि मैं नमस्कार कर रहा हूं, आप भी करो। कोई भी आया है, जो कनिष्ठ है, जो अंजान है, जान नहीं रहे हैं कि छोटा है या बड़ा है, किस भाव से आया है, जान नहीं रहे हैं, किन्तु उसे भी प्रणाम करना है। 
हां, ध्यान रहे, शाष्टांग दंडवत ईश्वर, गुरु, माता-पिता को ही किया जा सकता है। यह सबके लिए नहीं है, पंचांग दंडवत भी सबके लिए नहीं होता। सामान्य तौर पर कोई भी आपके घर में आए, तो कम से कम हाथ जोडि़ए। दोनों हथेलियों को जोडक़र सिर से लगाना है... जी प्रणाम, आइए पधारिए। 
यह स्वागत है, इतने में तो आने वाला आदमी पानी हो जाएगा, पानी कहना गलत लग रहा हो, तो गलकर दूध हो जाएगा, गंगाजल हो जाएगा। जिसे आपने सम्मान दिया, स्वागत किया। अपनी संस्कृति में जय श्रीराम, सीताराम, जय महादेव, जय श्रीकृष्णा, राधे-राधे, राधे-कृष्णा बोलकर भी स्वागत करने का चलन है। यह स्वागत बिना पैसे का है, कोई भी इस व्यवहार को कर सकता है। यह शिक्षा शुरू से नहीं होने से प्रणाम वाली बात तो समाप्त हो चुकी है। लोग घुटने में ही हाथ लगा देते हैं। बड़े-बड़े आज के विद्वान लोग भी घुटने में एक हाथ लगा देते हैं, हो गया प्रणाम, नमस्कार ? 
एक बार एक मंत्री जी ने मुझे माला पहनाया और घुटने के पास हाथ लगा दिया। दिल्ली में सभा हो रही थी, गोविंदाचार्य जी भी थे, के.सी. त्यागी भी थे, वहीं सबके सामने एक हाथ लगा दिया, बतलाइए। मैंने प्रवचन के क्रम में कहा कि आप लोगों को क्या प्रभावित करेंगे, जब प्रभावित करने का सबसे प्रथम चरण प्रणाम ही नहीं करने आ रहा है।  
स्वागत का दूसरा संसाधन मनु जी ने बताया। ये वही मनु हैं, जिनकी बातों, वचनों को वेदों के बराबर स्तर प्राप्त है। वही लोग मनुवाद-मनुवाद कहकर आलोचना करते हैं, जिन्हें पता नहीं है कि मनु कौन हैं। 
स्वागत का दूसरा चरण - हम आगंतुक या अतिथि को आसन दें। जो भी आसन उपलब्ध हो, उस पर बैठाएं आदर के साथ। ऐसे नहीं कि केवल बोल दिया - बैठिए। हम अतिथि को ले जाएं आसन तक और कहें कि विराजिए। आसन को सुशोभित कीजिए। आसन सबको प्रिय है। आप आसन को सुुंदरता प्रदान करें। अंग्रेजी वाले बोलते हैं कि आप अपनी सीट लें, इसमें वह मर्यादा भाव नहीं है, टेक योर सीट। 
स्वागत का तीसरा चरण या संसाधन - अतिथि से कुशल क्षेम पूछना। यह स्वागत मान देने का बड़ा साधन है। पूछिए कि आप कैसे हैं, कुशल तो हैं, इधर कैसे आना हुआ? ये तीन साधन बिना धन बिना तैयारी के उपलब्ध हैं, हर परिवार में हर समय उपलब्ध हैं। 
चौथा है अतिथि को जल पिलाएं। बहुत प्यार से कहें कि जल ग्रहण करें, आप चलकर आ रहे हैं, ऐसा नहीं कि आपने लाकर रख दिया, बहुत प्यार से हाथों में जल का पात्र दीजिए। ये बात जीवन भर काम आने वाली है। सभी लोग अरबपति नहीं होंगे, सभी बड़े पद पर नहीं होंगे, सबको जीवन का बड़ा उत्कर्ष प्राप्त नहीं होगा, लेकिन ये चारों संसाधन, जो अत्यंत विकसित और प्रभावित करने वाले हैं, जो जीवात्मा के विकास के बड़े साधन हैं, उसका संपादन सब करें। यह कब होगा, जब हम जैसे माता-पिता का परिचय कराते हैं, वैसे हम अतिथि का परिचय कराएं। वेदों में लिखा है- अतिथि देवो भव:। जो बिना सूचना, बिना सम्बंध के, जो कहीं से संबद्ध नहीं है, आ गया है या संबद्ध है, किन्तु बिना सूचना के आ गया, तो हम उसका बिना प्रयोजन के, स्वार्थ के बिना, किसी बनावटीपने के बिना, किसी कुरूपता के बिना हम उसका स्वागत करें - आइए प्रणाम, बैठिए, आप कैसे हैं, और लीजिए जल ग्रहण कीजिए। जल पिलाने का भी बहुत-बहुत सकारात्मक प्रभाव है। 
तो मनु जी ने व्यवहार का वह क्रम बताया, जो जीवन भर उपयोगी रहेगा, राष्ट्रपति होकर भी हमें ये काम करने होंगे, जो अपने पास आया उसका स्वागत करना होगा। ऐसे व्यवहार और संस्कार की समाज व राष्ट्र को जरूरत है। बड़े लोगों को आदर्श स्थापित करना होगा। नेता जी को कैसे बोलना चाहिए, नेता जी को कैसे बैठना चाहिए, कैसा कपड़ा पहनना चाहिए, ऐसे सजग नेता व बड़े अधिकारी कम हैं। मुझे बहुत ही दुख होता है कि संतों को भी कपड़ा नहीं पहनने आता। अभी एक महात्मा को देखा, धनवान हैं, छोटी आयु के हैं, मेरे संपर्क में हैं। मैं हैरान हूं, लेकिन जैसे लड़कियां अपने बालों को सुंदरता बढ़ाने के लिए आगे कर लेती हैं, उनके भी बाल घुंघराले हैं, उन्होंने भी बालों को आगे कर लिया, हे भगवान।
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ८
ऐसे ही एक दिन मैं दिल्ली आ रहा था। कुछ विदेशी भी आ रहे थे, चंडीगढ़ हवाईअड्डे पर। विदेशियों ने मुझे देखकर कहा, बाय-बाय, हाथ दिखाकर। अमरीका के लगभग पच्चीस लोग थे, हमारा मजाक उड़ा रहे थे, बाबा जी हैं, बैठे हैं। मेरे साथ एक ब्रिगेडियर भी बैठे थे, मैंने उन्हें कहा, मुझे अंग्रेजी नहीं आती, आप ऐसा करें कि मैं जो पूछता हूं, वो उनसे पूछिए।
पूछिए कि बाय-बाय का अर्थ क्या है - व्हाट इज मीनिंग ऑफ बाय-बाय। तो उत्तर मिला, बाय-बाय का अर्थ बाय-बाय।
यह क्या हुआ? जैसे वाटर का मतलब वाटर होता है। शब्द अलग है, वस्तु अलग है। ऐसे ही सूर्य अलग है, जो प्रकाशित करता है और सूर्य शब्द अलग है। आपने क्यों कहा, बाय-बाय, मेरा आपसे सम्बंध है क्या? आपकी मेरे में निष्ठा है क्या, तो किस तरह से आपने बाय-बाय कहा? मैंने आपको कुछ कहा नहीं। यदि यह निरर्थक शब्द है, तो आप पागल हैं या मैं पागल हूं? 
अब तो हुआ झगड़ा। तब उन्होंने कहा, भारत में लोग संत नहीं, चोर ज्यादा होते हैं। मैंने उन्हें तमाम तरह से घेरकर कहा कि अमरीका में आयकर या इनकम टैक्स के साथ चोरी टैक्स भी लगता है। टैक्स चोर अमरीका में ज्यादा हुए या भारत में? अमरीका में अनेक राष्ट्रपतियों की हत्या हुई, यहां केवल गद्दी पर रहते इंदिरा गांधी की हत्या हुई, सुरक्षा ज्यादा कहां है? एक समय में पश्चिमी देशों में जितने समाज विरोधी कार्य करने वाले लोग थे, उन्हें देश से निकालकर अमरीका जैसे देशों में भेजा और बसाया गया था। वहां से ज्यादा भ्रष्ट कहां हैं?
सही प्रशिक्षण नहीं होने के कारण ही लोग एक दूसरे से गलत व्यवहार करते हैं। किसी से भी मिलें, तो नमस्कार करें। उन्हें बतलाएं कि आप हमारे यहां आए, हम धन्य हो रहे हैं। बहुत आनंद हो रहा है, आपकी श्रेष्ठता को हम प्रणाम करते हैं। दर्शनशास्त्र में भी पढ़ाया जाता है कि कोई भी आए, तो हम सबसे पहले उसे प्रणाम करें। प्रणाम इसलिए कि आप हमसे श्रेष्ठ हैं, आप सम्मानित हैं, आप वरिष्ठ हैं, यह बतलाने का जो व्यापार है, उसे ही प्रणाम कहते हैं। हममें जो छोटापन है, उससे निरूपित बड़प्पन आपमें है, इसका ज्ञान हम जिस व्यापार से करा दें, उस व्यापार का नाम नमस्कार है। कोई आया है, तो यह न मानें कि दरिद्र है, इसलिए आया है। हमसे कुछ चाहता है, उत्कर्ष वाला नहीं है, इसलिए आया है। वह आए, तो हम उसे यह कहें कि आप बड़े हैं, आइए नमस्कार, हाथ जोडक़र कहें। नमस्कार, प्रणाम के तमाम विधान हैं। शाष्टांग दंडवत से लेकर सामान्य नमस्कार तक। जोडक़र दोनों हथेलियों को अपने सिर से सटाएं, इसे नमस्कार कहते हैं। सबका एक ही अभिप्राय है, यहां तक कि जो अचानक आया है, जिसे हम नहीं जानते, उसे भी अतिथि मानकर देवता जैसा सम्मान देने की परंपरा है। आप आए, तो कोई परिचय नहीं था, रिश्ता नहीं था, फिर भी आए, कितने उदार हैं आप, आइए-आइए नमस्कार। 
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

 भाग - 7
अभी तो हम केवल रोटी की भी शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, किसी के सम्मान की भी शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं। सोचना होगा कि कैसे हमारा बेटा बहुत ज्ञानी हो जाए, सुसंस्कृत हो जाए, तो इसकी शिक्षा शुरू से देनी पड़ेगी। 
तुलसीदास जी ने कलयुग के वर्णन में लिखा है कि माता-पिता कलयुग में बच्चों को अपने पास बुलाएंगे और बुलाकर ही शिक्षा देंगे कि बेटा तुम्हें ऐसे करना है, तब तुम्हारा पेट भरपूर होगा। ऐसे करोगे, तो तुम धनवान हो जाओगे। गांव में अड़ोस-पड़ोस में तुम्हारी प्रशंसा होने लगेगी। कलयुग में माता-पिता केवल अर्थ और भोग की शिक्षा देते हैं। 
उत्तरकांड की चौपाई है -
मातु-पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।ï
माता-पिता वही अध्याय पढ़ाते हैं, जिससे बच्चों का पेट बढ़े। मात्र यही शिक्षा शुरू से होने लगी कि तुम्हें बड़ा बनना है, गाड़ी होनी चाहिए, तुम्हारा मकान बड़ा हो, तुम्हारी दुकान बड़ी होनी चाहिए। और कैसे भी यह होना चाहिए। यह नहीं बतला रहे मां-बाप कि ये कैसे हो। जब हम जैसे-तैसे धन से गाड़ी लेंगे, मकान अच्छा बना लेंगे, तो क्या होगा, यह नहीं बतला रहे हैं। बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाएंगे, उन पर खूब धन खर्च करेंगे, किन्तु उन्हें सही मार्ग नहीं दिखाएंगे, तो कैसे चलेगा? आज की शिक्षा में यह तो बतलाया जा रहा है कि हमें स्वस्थ्य रहना है, लेकिन हम स्वस्थ कैसे रहें, यह नहीं बतलाया जा रहा। हम फास्ट फूड खाकर स्वस्थ रह सकेंगे क्या? जो भी मिले, उसे खाकर स्वस्थ रहेंगे क्या? प्रामाणिक धारा ज्ञान के आधार पर हमें क्या खाना है, कैसे स्वस्थ रहना है, यह बतलाना पड़ेगा। बच्चे टीवी पर लगे हुए हैं, आंखों की रोशनी जा रही है, देख रहे हैं कि कैसे मुंह बना रहा है, कैसे नाच रहा है, कैसे नंगापन का प्रदर्शन हो रहा है।
भगवान की दया से सारी शिक्षाएं होती थीं, लेकिन उसका आधार होता था, जो हमें परिपूर्ण जीवन देता था। यदि किसी को बड़ों के आने के बाद हाथ नहीं जोडऩे आया, स्वागत करने नहीं आया, तो वह क्या बड़ा आदमी होगा? बड़ों के सम्मान की अनादि पंरपरा है, आज की परंपरा नहीं है। पशु-पक्षी भी सम्मान चाहते हैं, नहीं मिलेगा, तो दंडित करते हैं, नाराज होते हैं। मैंने सुना है, हाथियों का झुंड जा रहा हो, तो उसमें जो मुख्य हाथी होता है, वही आगे-आगे चलता है। यदि एक कदम भी किसी दूसरे हाथी ने उससे आगे बढऩे का प्रयास किया, तो उसे दंडित कर देता है, सूंड, दांतों से प्रहार करता है कि  तू आगे क्यों जा रहा है, ‘प्रोटोकॉल’ तो ‘मेंटेन’ करो, तुम कौन हो, पीछे चलो। तो अभिप्राय कि लोक समाज बढ़ा, व्यवहार बढ़ा, यहीं बैठे-बैठे आदमी अमरीका के आदमी से बात कर लेता है, सबकुछ बढ़ा, लेकिन प्रोटोकॉल का ज्ञान नहीं होगा, तो आदमी कैसे किसी अनुभवी या सयाने आदमी को प्रभावित करेगा। 
मानो हि महतां धनम्। 
बड़े लोगों के लिए मान ही सबसे बड़ा धन है। और लोगों का धन अलग होता है। समाज में जो ऊंचाई वाले लोग हैं, उन्हें तो मान ही चाहिए। कैसे मान दिया जाए, इसका प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। मान देना ही है। हर आदमी आपके यहां पैसा लेने नहीं आया है, भोजन करने नहीं आया है, चाय पीने नहीं आया है, तो आप कैसे उसे प्रभावित करेंगे, आपके यहां धर्म करने नहीं आया है, आप उसे मोक्ष देंगे क्या, आप उसे मान देंगे क्या, कैसे मान देंगे। तो किसी को मान देना अवश्य सीखिए।
घर में यह नहीं बताया जा रहा है कि कोई आए, तो उसे कैसे मान देना चाहिए। कैसे उसे लगे कि वह हमें श्रेष्ठ मान रहा है। कैसे लगे कि हमें अपना मान रहा है, इसकी शिक्षा शुरू से ही देनी चाहिए। जैसे मैं देखता हूं, जब लोग आते हैं, तो बोलते हैं बच्चों को कि महाराज को प्रणाम करो। मुझे एक बड़े परिवार का छोटा बच्चा मिला, दो साल का भी नहीं हुआ है, दादा ने कहा कि महाराज को प्रणाम करो। दादी ने भी कहा, उसने हाथ जोड़ा। क्या बात है, कितना सुंदर हाथ जोड़ा, दो साल पूरे नहीं हुए हैं, मेरा रोम रोम पिघल गया। अद्भुत संस्कृति है कि दो साल का बच्चा इतना अच्छा हाथ जोड़ा। इस बात को आगे बढ़ाया कि महाराज का पैर दबाओ, तो संकोच कर रहा था, पहचान नहीं रहा था, दूसरी बार मिला था, दादा ने कहा कि मेरा दबाव, तो दादी की गोद में था, तो कैसे पैर दबाते हैं, वैसा करने लग गया। यह संस्कृति या प्रशिक्षण का प्रभाव है, जिसका छोटा ज्ञान व्यवहार है, लेकिन वह जानता है कि हाथ जोडऩा चाहिए। और अभी तो लडक़े बाय-बाय कह देते हैं। एक डॉक्टर पति-पत्नी दस साल विदेश रहकर आए थे, उनके घर गया, तो उन्होंने अपने बेटे से कहा, महाराज को प्रणाम करो, उसने कहा, बाय-बाय। मैंने पूछा उससे, बाय-बाय माने क्या होता है। तो वह क्या बतलाता?
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ६
हम बच्चों को अच्छी चीजों का संग्रह करना भी सिखाएं। शिशु कुछ भी उठाकर मुंह में डालने की कोशिश करता है, उसे हम रोकते हैं। उसे हम सिखाते हैं - यह बिल्कुल खराब है, इससे आप राजा बेटा नहीं बनेंगे, इससे सुंदर नहीं बनेंगे, यह दूसरे का है, थू थू थू। यह बहुत गलत है।
जैसेे हम बिजली, अत्यधिक पानी से बच्चों को बचाते हैं, ठीक उसी तरह से उन चीजों से भी बच्चों को बचाएं, जो गलत दिशा में ले जाती हैं। हमें क्या संग्रह करना है और क्या नहीं करना है। ऐसा आहार संग्रहित नहीं करना, जो दूषित है। हम अपने घर में मांगलिक पशु-पक्षी ही पालें। शुरू से अभ्यास करा दिया जाए कि इन्हीं रंगों को पहनना है, जिसे ऋषियों ने पहना, जिसे पूर्वजों ने पहना। 
अभी समस्या है बच्चों में, जवानों में, यह बात समझ नहीं आती कि हमारा भोजन कैसा हो, हमारा वस्त्र कैसा हो, कैसे बोलें, कैसे नमस्कार करें, कैसे किसी के लिए प्रस्तुत हों। जो हमारे आदर्श हैं, अनादि काल से जिन संस्कारों और व्यवहारों के आधार पर हमने दुनिया को चमत्कृत किया है, दुनिया को आगे बढ़ाया है, श्रेष्ठ बनाया है, जीवन को पूर्ण विकसित स्वरूप दिया है, उसकी शिक्षा के लिए शुरू से ही तैयारी होनी चाहिए। 
मैंने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की जीवनी में पढ़ा था कि जब उनकी दादी जी का शरीर अंतिम सांसें ले रहा था, तब घर वालों ने कहा कि दादी जी को गीता सुनाना है, तिलक ने गीता सुनाई। घर वालों की आज्ञा थी। ब्राह्मण परिवार था, पढऩे का अभ्यास था। अर्थ समझ में नहीं आता था, किन्तु पाठ कर दिया। बाद में उनके मन में आया, जब वयस्क हो गए, जब अच्छी आयु हो गई कि आखिर दादी जी परलोक जा रही थीं, तो क्यों गीता सुनाने के लिए कहा गया? क्या मृत्यु को गीता रोक सकती है? क्या इसको सुनाने से आगे की यात्रा अच्छी होगी? श्रेष्ठ योनि मिलेगी क्या? ये प्रश्न गूंजने लगे, तो तिलक ने गीता का अनुसंधान किया। दुनिया में जितनी भी टिकाएं हैं, हिन्दी, संस्कृत में सबको पढ़ा और एक अति उत्तम कृति प्रकट हुई। संसार में गीता पर अनेक व्याख्याएं हुई हैं। आचार्यों की व्याख्याओं को छोड़ दिया जाए, आदि शंकराचार्य जी, रामानुजाचार्य जी, रामानंदाचार्य जी, वल्लभाचार्य जी ने जो टिकाएं लिखीं, उनको छोड़ दिया जाए, किन्तु जो आधुनिक विद्वानों ने गीता पर जितना चिंतन किया, उनमें से एक भी तिलक की गीता व्याख्या के स्तर को प्राप्त नहीं कर सके। यातना झेलते हुए जेल में रहकर उन्होंने मराठी में गीता का व्याख्यान प्रस्तुत किया - गीता रहस्य - कर्मयोगशास्त्र...। अब तो इसका संसार की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। अद्भुत व्याख्या है। मेरा यह कहना है कि प्रारंभ में ही पाठ करवाया गया। दादी जी अंतिम सांसें ले रही थीं, घर के लोगों ने गीता पाठ करवाया, तो वही बालक आगे चलकर गीता का महान अध्येता-व्याख्याता बना। उनके जीवन को गीता ने ऐसा प्रकाश दिया, ऐसा मोड़ दिया कि लोकमान्य तिलक इस क्षेत्र के अमर पुरुष हो गए। 
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ५
यही प्राचीन शिक्षा है। घर में व्यवहार की जो तमाम बातें हैं, उनसे तो जुडऩा ही है। जब बच्चे को यही नहीं पता हो कि यह मां है, यह पिता हैं, तो वह कैसे समझेगा। यह तो बतलाना ही है, लेकिन इसके साथ ही स्मरण तत्व से भी जोडऩा है कि यह जो जीवन है आपका, यह आपको अपने कर्मों से मिला है। आपका पहले भी जन्म था, बाद में भी जन्म होगा, ईश्वर ने कर्म से आपको जीवन दिया है, माता-पिता मिले हैं, इतनी अच्छी भूमि दी है, इतना अच्छा धर्म दिया है, इससे सीखकर, इसमें ही रहकर, इसकी ही मजबूती से जीवन आगे बढ़ेगा। कई लोग कहते हैं कि अभी अध्यात्म से जुडऩे की आयु नहीं हुई है, तो मंदिर क्यों जाएं, भगवान का नाम क्यों जपें। लेकिन होता यह है कि आदमी जब बड़ी शिक्षा प्राप्त कर लेता है, रोटी-दाल के लिए, भौतिक विकास के लिए, तो ऐसे ही पूरा जीवन निकल जाता है, लेकिन उसे परलोक पर विश्वास नहीं हो पाता, उसे शास्त्रों पर विश्वास नहीं हो पाता, उसे राष्ट्रीयता व ऋषि परंपरा पर विश्वास नहीं होता। उसे गीता पर विश्वास नहीं होता। उसे जो हमारा उज्ज्वल इतिहास है, महाभारत व वाल्मीकि रामायण पर विश्वास नहीं होता। अब स्थिति ऐसी है कि लडक़े सयाने हो रहे हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता चलता कि देश की आजादी के लिए कितने लोगों ने कुर्बानी दी थी, किन लोगों ने अपना सर्वस्व नष्ट कर दिया, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी, परिवार सब छोड़ दिया। 
कैसे देश इतने दिनों तक गुलाम रहा, यह आज अधिकतर युवाओं को नहीं पता। इतिहास पढ़ें, तो पता चले। सभी लोग इतिहास नहीं पढ़ेंगे, उन्हें क्या पता कौन-सा राजा कैसा हुआ, राजा हरिश्चंद्र क्यों इतने बड़े व्यक्ति कहलाते हैं। तो यही सत्य है कि प्रारंभ से ही इन सभी विधाओं को अपने बच्चों को बतलाना, सिखाना पड़ेगा। उनके खान-पान को भी शुरू से ही सही रखा जाए। खाना है, तो क्या खाना है और क्या नहीं खाना है। भोज्य पदार्थ तामस है या राजस है, बतलाना पड़ेगा। 
जैसे हम लोग सुनते हैं कि यशोदा जी भगवान को दूध पीने के लिए कहती थीं। तो भगवान कहते थे दूध नहीं पीऊंगा, तो माता जी प्रलोभन देती थीं - दूध पीएगा, तो मेरा राजा बेटा बहुत बड़ा हो जाएगा, तुम्हारी चोटियां बड़ी हो जाएंगी, तू बहुत सुंदर लगने लगेगा, जब घर से बाहर निकलेगा तो लोग देखकर प्रसन्न होंगे कि कितना अच्छा है यशोदा का लाला, नंद बाबा का लाड़ला। 
शुरू से शिक्षा दी जाए कि यदि जीवन को बहुत अच्छा बनाना है, तो गाय का दूध पीना है, फलों का जूस पीना है। चाय, शराब, मांस आहार सही नहीं है। जो विकृत आहार हैं, उन्हें नहीं लेना है। भोजन शुद्ध होना चाहिए। बार-बार बैठा दिया जाए मन में कि तुम्हारा भोजन ऐसा ही होना चाहिए। बतलाना चाहिए कि कपड़ा कैसे पहनें, परिवेश कैसा हो। ऐसा कपड़ा न पहनें, जिसे पहनकर बैठा नहीं जाता, जिससे नसें रुक रही हैं। 
अपने यहां कपड़ों का भी विधान है, वस्त्र सात्विक होना चाहिए। शुरू में ही सात्विक भाव पोषित करना होगा। कोई बुढ़ौती में कहे कि प्याज, लहसून नहीं खाओ, तो आदमी समझ नहीं पाता कि मामला क्या है। जो खा रहे हैं, वो भी तो जीवित ही हैं, पश्चिमी राष्ट्रों में कोई वर्जना नहीं है, वहां भी तो आदमी ही हैं। क्या जरूरत है?
तो भगवान की दया से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष - जीवन के यही चार लक्ष्य हैं। यही विकास के साधन हैं। इन्हीं के लिए हम जन्म से मरण तक प्रयत्न करते हैं। हम विभिन्न योनियों में प्रयास करते हैं। किसी में कम, किसी में ज्यादा, इसीलिए इन्हें पुरुषार्थ बोलते हैं, व्यक्ति अपने प्रयास से जिन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, इसी का नाम पुरुषार्थ है। 
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ४
सारा जो कुरूप स्वरूप है संसार का, जो त्याज्य स्वरूप है, वह इसीलिए है कि हम अर्थ को ही अपना सबकुछ मानते हैं। कैसे भी धन आए, एटीएम तोडऩे से आए, घोटाला करने से आए, तमाम तरह के जो धन और शोषण के तरीके हैं, उससे आए। जब धन ही दूषित हो गया, तो भोग भी दूषित होगा। शुद्ध आहार, आधार नहीं मिलेगा। हम ऐसे में कहीं से भी व्यवस्थित भोग नहीं कर सकते। न भोजन, न कपड़े में, न सुनने में, न देखने में, न धर्मपत्नी के मामले में - हमारा सबकुछ दूषित हो जाएगा। फिर धर्म की कहीं बात नहीं होगी। मोक्ष की बात नहीं होगी। इसलिए शिशु को सबसे पहले बतलाया जाए कि ये तुम्हारी माता हैं, ये पिता हैं, ये तुम्हारे चाचा हैं, दादा हैं, दादी हैं, धीरे धीरे बतलाते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ उन व्यवहारों भोजनों, वचनों, क्रिया-कलापों को प्रस्तुत किया जाए कि जिनके आधार पर जीवन परिपूर्णता को प्राप्त करे। सभी लोगों को उन श्रेष्ठ भावों को बच्चों को समझाना है। पहले अर्थ बतलाना है, संस्कार सुदृढ़ करना है। इस सम्बंध में एक स्पष्ट पे्ररणादायक घटना प्रस्तुत कर रहा हूं। 
एक बड़े संत हुए, संत करपात्री जी महाराज, परम विद्वान, विरागी थे, उन्हें धर्म सम्राट भी कहा जाता था। सभी तरह के व्यसन से दूर रहने वाले। वे वेदांत के विद्वान थे, पुराणों के भी, संत साहित्य के भी, अद्भुत वक्ता भी थे, जब उनका शरीर पूरा होने लगा, जब लगता था कि जीवन नहीं बचेगा, तब उन्हें एक विद्वान, जो पुरी शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ थे, उनके आग्रह पर उन्हें उपनिषदों को सुनाते थे, और रामानंद संप्रदाय के बड़े संत थे सीताराम सैन जी, जो अयोध्या जी में रहते थे, उन्हें वाल्मीकि रामायण सुनाते थे, दोनों विश्वास प्राप्त थे। दोनों करपात्री जी के शिष्य थे। 
एक दिन दोनों ने पूछा कि महाराज, ‘आप भागवत की कथा करते हैं और वेदांत का भी प्रवचन करते हैं, श्रीयंत्र की भी पूजा करते हैं, आप अपने प्रवचन से पहले भगवान राम का कीर्तन भी करते हैं - श्री राम जय राम जय जय राम। शिव जी की भी उपासना करते हैं, इससे यह पता नहीं चलता कि आपका सबसे अधिक विश्वास किस मंत्र या किस शास्त्र या किस देवता पर है। आपका परम श्रद्धेय देवता कौन है?’
करपात्री जी महाराज ने टालने की कोशिश की और कहा, ‘यह नहीं बतलाया जाता।’ 
दोनों बड़े विख्यात शिष्यों ने बार-बार आग्रह किया, प्रिय शिष्य थे। बहुत आग्रह था। कुछ रुककर करपात्री जी महाराज ने पूछा, ‘कोई प्रिया अपने प्रियतम का नाम बतलाती है क्या, कि मैं बतला दूं?’
तो शिष्यों ने फिर पूछा, ‘हम जानना चाहते हैं। आप सबकी पूजा करते हैं, किन्तु आपका सबसे प्रिय देवता कौन है, कौन-सा मंत्र है, किस भगवान का विग्रह है?’ 
करपात्री जी महाराज ने उत्तर दिया, ‘मेरे राम जी सबसे ज्यादा प्रेरक-प्रेरणास्पद हैं।’ 
यह सुनकर शिष्य चकित हुए, फिर प्रश्न किया, ‘आप तो संन्यासी हैं, वहां महादेव जी सबसे बड़े देवता हैं, आप भागवत करते हैं, तो कृष्ण जी भी आपको प्रिय हैं, यह क्या हुआ?’ 
करपात्री जी महाराज ने बताया, ‘यह हमारी माता जी की कृपा का चमत्कार है। जब मैं जन्म लिया, तब मुझे तेल लगाते हुए, गोद में झुलाते हुए, काजल लगाते हुए, जब भी मां के साथ मैं होता था, तब मेरी मां और कुछ नहीं बोलती थीं, केवल एक ही बात बोलती थीं - श्री राम जय राम जय जय राम. . .। मैंने संसार में आते ही सबसे ज्यादा यही शब्द सुना। सबसे पहले इसी शब्द को सुना। मैं बड़ा हो गया, खूब पढ़ता रहा, संतों में आ गया, शास्त्र पढ़ता रहा, तमाम लोगों को सुनने लगा, व्यवहार परिष्कृत होता गया, सबकुछ विस्तृत होता गया, लेकिन श्री राम जय राम जय जय राम, जो मेरे कानों में गूंजते थे, वो भूले नहीं। फिर मेरा जीवन परम शक्ति राम जी के लिए समर्पित हो गया। मैंने अपने संपूर्ण जीवन को तमाम विधाओं से जोडक़र राम जी के जैसा जीवन बिताने, वनवासी जीवन बिताने का संकल्प किया। मैंने संकल्प किया कि अब धन संग्रह नहीं करना है। किसी को भोग के लिए उपयोग नहीं करना है। संपूर्ण जीवन केवल राम जी को अर्पित करके, अपनों का भी उद्धार और दूसरों का भी उद्धार करना है।’ 
क्रमश: 

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ३
सनातन धर्म में ऐसे विवरण आते हैं कि शिशु ने मां के गर्भ में ही वातावरण को, विचारों-संस्कारों को दृढ़ता के साथ ग्रहण कर लिया, जिससे उसका जीवन उज्ज्वल हो गया, पूर्णता की ओर बढ़ गया। अपने लिए और समस्त संसार के लिए वह वरदान स्वरूप हो गया। हमारे यहां पहले से ही इसकी तैयारी हो जाती है। भगवान की दया से, इसीलिए पुराणों को सुनाना और हरवंश पुराण को सुनाने की परंपरा है। रामायण, भागवत सुनाने की परंपरा है। संयमित रहना, गलत लोगों के साथ उठना-बैठना बंद करके रहना, ये सारी परंपराएं हैं। 
संसार में अनेक महापुरुष गर्भाधान के समय मिले ज्ञान-संस्कार के कारण जीवन में सर्वोच्च स्थान को प्राप्त हुए हैं। जब बच्चे का जन्म हुआ, तो कहां से शुरुआत करें? सबसे मु़ख्य बात तो यह है कि उसे शब्द की शिक्षा दी जाए कि ये क्या है, वो क्या है। जैसे हमने पढ़ा था कि शब्द के अर्थ का ज्ञान कई तरह से होता है, वह शब्दकोश से भी होता है, जिसमें लिखा है किस शब्द का क्या अर्थ है। जो श्रेष्ठ जन हैं, उनके वाक्य से भी होता है, लेकिन व्यवहार से भी शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है। इसलिए कहा गया है -
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च
वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यत: सिद्धपदस्य वृद्धा:
यह बहुत महत्वपूर्ण वाक्य है, जो बतलाता है कि शब्द के अर्थ का ज्ञान कैसे होता है। घर के बड़े लोग जैसा व्यवहार करते हैं, उनको देखकर भी नवजात शिशु ग्रहण करता है कि किसको लोटा बोलते हैं, किसको थाली बोलते हैं। जैसे बोलते हैं किसी को कि लोटा लाओ, तो कोई व्यक्ति उठता है और लोटा लाता है, तो ये बच्चे ने देखा कि किस बर्तन विशेष को लोटा कहा गया। बच्चा जान लेता है कि किसको लोटा बोलते हैं। घर के लोगों के व्यवहार से वह अनेक शब्द के अर्थ सीखता है। कुछ शब्द के अर्थ बतलाते भी हैं, कि यह तुम्हारी माता हैं, ये तुम्हारे पिता हैं, ये चाचा हैं, इनको भाई बोलते हैं, इसको गाय बोलते हैं, बिल्ली बोलते हैं, इत्यादि। तो शब्द के अर्थ का ऐसे ज्ञान कराते हैं अभिभावक। 
मेरा यहां अपने शास्त्रों के आधार पर सुझाव है कि शास्त्रों के अभिप्राय का एक प्रकाशन है कि हम उन तथ्यों से भी बच्चों को शुरू में ही परिचित कराएं, जो हमारे जीवन को उन्नत बनाते हैं, जो परिपक्व जीवन देते हैं, जिनसे हमारा जीवन सभी दृष्टि से सुंदर-सुडौल व अन्य लोगों के लिए भी उपकारक, सार्थक हो। 
इसके साथ ही, हमें भगवान के नामों को बच्चों को सुनाना चाहिए। जो ईश्वरवाचक शब्द हैं, जो ईश्वर के सम्बंध को हमें बतलाते हैं, ऐसे शब्दों के अर्थ को भी प्राथमिकता के साथ बतलाना चाहिए। हमारे यहां बतलाया जाता है, वेदों में पढ़ाया जाता है, जिसका व्याख्यान आचार्यों ने किया कि जीव निरंजन है, वह भगवान का ही अंश है, तुम केवल हाड़ मांस के पुतले नहीं हो, केवल दुख के आधार नहीं हो, तुम कुरूप नहीं हो, तुम लांछित नहीं हो, तुम भी वैसे हो, जैसे ईश्वर है।  
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि 
- तुम शुद्ध हो। तुममें कहीं से कोई विकार नहीं, कहीं से कुरूपता नहीं। तुम बुद्ध हो, तुम ज्ञान के स्वरूप हो, तुम आनंद स्वरूप हो, तुम सत्य स्वरूप हो और ऐसा ही ईश्वर है। तुम ईश्वर के अंश हो। तुम वही हो, इसलिए ब्रह्म का अंश हो। इसका परिणाम यह होगा कि बच्चा प्रारंभ से ही परिपूर्ण जीवन को पाएगा। हर माता-पिता को जिस ईश्वर के हम अंश हैं, उसे समर्पित होकर बच्चों को पालना चाहिए, जिससे जीवन पूर्णता को प्राप्त होगा। यही समाज, राष्ट्र, संपूर्ण मानवता की पूर्णता है। बच्चा ऐसा होगा, तो परिवार की परिपूर्णता का भी साधन होगा। वह संपूर्ण मानवता का प्रकाशक होगा। हम जानेंगे कि कितना अच्छा जीवन है। 
क्रमश:

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - २
शिक्षा और संस्कारों का एक क्रम है। सारी शिक्षा माता-पिता ही नहीं दे देते। शिक्षा की लंबी परंपरा है, आदिकाल से परंपरा प्रवाहित हो रही है। कोई शिशु जन्म लेता है, तो उसे क्या सिखलाया जाए, उसको किस तरह से परिपूर्ण मनुष्य बनाया जाए, ताकि वह राष्ट्र के लिए पूरी मानवता के लिए पूरे संसार के लिए उपयोगी हो, सुकूनदायक हो, सुंदरतादायक सिद्ध हो, इसके लिए उसे क्या सिखलाया जाए - इसकी पूरी एक परंपरा है। सभी परिवेश के लोग, परिजन, सुजन बहुत विज्ञ नहीं होते और विद्वता उनकी अपनी यदि होगी, तो उनकी अपनी विज्ञता नहीं होती कि वे उस बच्चे को परिपूर्ण जीवन दे सकें। इसके लिए हमें ध्यान रखना होगा कि हर समाज, जाति, परिवार के पीछे से जुड़ी हुई लंबी परंपरा होती है, विचारों की मजबूत परंपरा होती है। श्रेष्ठता क्या है और बच्चे को श्रेष्ठता तक पहुंचाने के लिए क्या करना चाहिए। जिसे हम परंपरा कहते हैं, जिसे हम कहेंगे - ज्ञान व्यवहार संस्कारों की जो परंपरा है, जो लंबा प्रवाह है, जो पीछे से जुड़ाव की लंबी बात है, उसे समझना-जानना होगा। आखिर क्या समझाएगा पिता, क्या समझाएगी माता, क्या समझाएंगे परिवार के लोग, हर आदमी कल्पना करके ही उसी समय ही सोच कर हर बच्चे का शिक्षण करे, तो शिक्षा अधूरी रह जाएगी। इस शिक्षा में सुनिश्चितता नहीं होगी, उसमें संदर्भ नहीं होगा। आज माता-पिता को, परिवार, जाति को और सभी को सही समझाने के लिए, सिखलाने के लिए जो ज्ञान धारा परंपरा से प्राप्त हुई है, जो ज्ञान विज्ञान के संस्कार से जुड़ी परंपरा है, ज्ञान की परंपरा, व्यवहार की परंपरा, उसके आधार पर लोग प्रारंभ करते हैं और बच्चे को सिखलाते हैं। भगवान की दया से हम सनातन धर्मावलंबियों का सौभाग्य है कि हम वेद, स्मृतियों, इतिहास पुराण से जुड़े हैं। ज्ञान परंपरा आज की नहीं है, किसी एक ऋषि या किसी एक महात्मा से प्रकट नहीं हुई है, जैसे सूर्य, चंद्रमा, आकाश, वायु हैं, ठीक उसी तरह से हमारी परंपरा की जो ज्ञान राशि है, उसके व्याख्यान वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां और इतिहास हैं। हमारी परंपरा श्रेष्ठ रूप से जीवन प्रवाह के लिए सार्वभौमिक स्वरूप में प्राप्त हुुई है, उससे लोग बच्चों को शिक्षित करते हैं और संस्कार देते हैं। एक तो दुनिया में किसी भी समाज के पास संस्कारों की इतनी लंबी परंपरा नहीं है, संस्कृति, ज्ञान, जीवन की इतनी लंबी परंपरा नहीं है, इसलिए उन्हें तत्काल ही परंपरा बनाकर काम करना पड़ता है, इसलिए दुनिया में जितनी सभ्यताएं खड़ी हुईं, किसी का लंबा इतिहास नहीं है। न भूत व्यवस्थित है, न वर्तमान व्यवस्थित है। इतिहास में पढ़ाया जाता है - रोम और मिस्र की सभ्यता का क्या हुआ। 
हमारे यहां बच्चा जब जन्म लेता है, उससे भी पहले मां के गर्भ से ही कितने प्रकार के ज्ञान के प्रयास शुरू हो जाते हैं। मां को कैसे रहना है, मन को कैसे रखना है, क्या सोचना, क्या खाना है, क्या पढऩा है, क्या देखना है, कैसे सोना है, ये सारी बातें बतलाई जाती हैं। ताकि जो संतति हो, वह बहुत संस्कारी हो। मां को तकलीफ पहुंचाने से मना किया जाता है, उसे अपमानित करने से मना किया जाता है, ताकि गर्भ में पल रहे शिशु पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़े। 
क्रमश:

बच्चों को महामानव बनाएं

जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के नए प्रवचन संग्रह - आओ, जीवन सिखा दूं

(गर्भ से ही शुरू हो शिक्षा, बचपन में ही दिखा दें सही राह)
वैदिक सनातन धर्म में चिंतन का जो क्रम है, उसमें तमाम विश्वासों के साथ पुनर्जन्म पर भी विश्वास है। अभी जो जीवन मिला है, पहले भी जीवन मिला था और बाद में भी मिलेगा। चाहे वो जीवन किसी भी योनि का हो, किसी भी शरीर का हो, किसी भी देश और भाषा का हो, उसमें अंतर आ सकता है, किन्तु यह हमें कोई पहला जीवन नहीं मिला है और न यह हमें अंतिम जीवन मिला है। दूसरी बात, यह हमें अपने ही कर्मों से मिला है। मनुष्य जीवन में समान रूप से गहराई का चिंतन, ज्ञान-विज्ञान नहीं मिलता है, तो भी मनुष्य जीवन सबसे बड़ा जीवन है। ऐसा आम व्यक्ति के भी ध्यान और विश्वास में आता है। जो विद्वान हैं, जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है, उन्हें तो इसकी बहुत गहरी जानकारी होती है कि मनुष्य जीवन सबसे श्रेष्ठ जीवन है। हमें मनुष्य जीवन को ही आधार बनाकर इस व्यवस्था को आगे बढ़ाना है। जब हमें मनुष्य जीवन प्राप्त होता है, तब इसके साथ बाहर और भीतर जो संरचना का स्वरूप है, वह भी प्राप्त होता है। भीतर के भी अंग-प्रत्यंग और बाहर के भी अंग-प्रत्यंग, और इसके आधार पर हम अपनी जीवन यात्रा शुरू करते हैं। हमें देखने के लिए आंखें मिली हैं, सुनने के लिए कान भी मिले हैं, सूंघने के लिए नासिका मिली है, रसास्वादन के लिए जिह्वा मिली है। जिह्वा या चीभ को रसना भी बोलते हैं। स्पर्श को ग्रहण करने के लिए त्वचा प्राप्त हुई है। सुख-दुख के अनुभव के लिए मन प्राप्त हुआ है। ये सभी इन्द्रियां जन्म लेते ही सक्रिय हो जाती हैं और इसमें जो हमें परिवेश मिला, माता-पिता मिले, परिवार के लोग मिले, अड़ोस-पड़ोस मिला, जहां हम जन्मे वहां का क्षेत्र मिला, भाषा मिली, व्यवहार मिले, वो सब हमारे प्राप्त संसाधन हैं, वो सब जीवन को विकसित करने में लग जाते हैं। जीवन को बढ़ाने और धार देने में लग जाते हैं। जीवन का जो परम लाभ है, जो परिपूर्ण जीवन, सभ्य जीवन, सुसंस्कृत जीवन और तमाम श्रेष्ठ संस्कारों से मंडित-समर्पित जीवन के लिए लग जाते हैं। 
पहले हमें ध्यान रखना है कि हमारे पिछले जन्मों के जो संस्कार हैं, अनुभव से उत्पन्न जो संस्कार हैं, उनके माध्यम से ही इस जन्म में भी हमें कई तरह के संस्मरण होते हैं, बुरे भी होते हैं और अच्छे भी होते हैं और इसमें हमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, ये धीरे-धीरे स्वत: होते रहते हैं। यहां बिना प्रशिक्षण के, बिना व्यापार के, बिना उद्योग के भी बहुत सारे बच्चे, जन्मजात शिशु - जिन्होंने अभी-अभी जीवन प्राप्त किया है, उनमें अत्यंत विकसित परिष्कृत स्मरण और व्यवहार दिखने लगते हैं। यह पिछले जन्म के पुण्यों के लाभ स्वरूप ही संभव होता है कि कोई बच्चा विशेष गुणों वाला सामने आ जाता है। स्पष्ट है, ये पिछले संस्कारों के आधार पर होता है। 
अभी संसार में अधिकांश लोग पुनर्जन्म को मानने लगे हैं। अपने यहां तो इसकी बड़ी मान्यता है,  पौराणिक आख्यान हैं, तर्क-वितर्क हैं। ध्यान को थोड़ा गहरा करें, तो यह समझ में आएगा। पहली बात तो यह कि पिछले जन्मों के सशक्त संस्कारों के आधार पर नवजात शिशुओं को भी अनेक स्मरण होते हैं। स्मरण के आधार पर अनेक व्यवहार भी होते हैं, जिससे उसका छोटा या प्रारंभिक जीवन भी श्रेष्ठ जीवन का संकेत देता है, श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति होगी, इसका अनुमान कराता है। कहा जाता है कि होनहार बिरवान के होत चिकने पात। ऐसे शिशु भी होते हैं, जिन्हें देखकर ही लोग कहते हैं कि पहले से ही ज्ञानी लगता है। ऐसा पिछले जन्मों के उन्नत संस्कारों से ही संभव होता है। हमारा यह जीवन केवल यहीं या वर्तमान की साधना और हमारी जो वर्तमान शिक्षा है, उससे ही विकसित नहीं होता, उसमें पिछले जन्मों के संस्कार, अनुभव, स्मरण की भी श्रेष्ठ भूमिका होती है। 
क्रमश: