Monday, 27 August 2018

बच्चों को महामानव बनाएं

 भाग - 7
अभी तो हम केवल रोटी की भी शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, किसी के सम्मान की भी शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं। सोचना होगा कि कैसे हमारा बेटा बहुत ज्ञानी हो जाए, सुसंस्कृत हो जाए, तो इसकी शिक्षा शुरू से देनी पड़ेगी। 
तुलसीदास जी ने कलयुग के वर्णन में लिखा है कि माता-पिता कलयुग में बच्चों को अपने पास बुलाएंगे और बुलाकर ही शिक्षा देंगे कि बेटा तुम्हें ऐसे करना है, तब तुम्हारा पेट भरपूर होगा। ऐसे करोगे, तो तुम धनवान हो जाओगे। गांव में अड़ोस-पड़ोस में तुम्हारी प्रशंसा होने लगेगी। कलयुग में माता-पिता केवल अर्थ और भोग की शिक्षा देते हैं। 
उत्तरकांड की चौपाई है -
मातु-पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।ï
माता-पिता वही अध्याय पढ़ाते हैं, जिससे बच्चों का पेट बढ़े। मात्र यही शिक्षा शुरू से होने लगी कि तुम्हें बड़ा बनना है, गाड़ी होनी चाहिए, तुम्हारा मकान बड़ा हो, तुम्हारी दुकान बड़ी होनी चाहिए। और कैसे भी यह होना चाहिए। यह नहीं बतला रहे मां-बाप कि ये कैसे हो। जब हम जैसे-तैसे धन से गाड़ी लेंगे, मकान अच्छा बना लेंगे, तो क्या होगा, यह नहीं बतला रहे हैं। बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाएंगे, उन पर खूब धन खर्च करेंगे, किन्तु उन्हें सही मार्ग नहीं दिखाएंगे, तो कैसे चलेगा? आज की शिक्षा में यह तो बतलाया जा रहा है कि हमें स्वस्थ्य रहना है, लेकिन हम स्वस्थ कैसे रहें, यह नहीं बतलाया जा रहा। हम फास्ट फूड खाकर स्वस्थ रह सकेंगे क्या? जो भी मिले, उसे खाकर स्वस्थ रहेंगे क्या? प्रामाणिक धारा ज्ञान के आधार पर हमें क्या खाना है, कैसे स्वस्थ रहना है, यह बतलाना पड़ेगा। बच्चे टीवी पर लगे हुए हैं, आंखों की रोशनी जा रही है, देख रहे हैं कि कैसे मुंह बना रहा है, कैसे नाच रहा है, कैसे नंगापन का प्रदर्शन हो रहा है।
भगवान की दया से सारी शिक्षाएं होती थीं, लेकिन उसका आधार होता था, जो हमें परिपूर्ण जीवन देता था। यदि किसी को बड़ों के आने के बाद हाथ नहीं जोडऩे आया, स्वागत करने नहीं आया, तो वह क्या बड़ा आदमी होगा? बड़ों के सम्मान की अनादि पंरपरा है, आज की परंपरा नहीं है। पशु-पक्षी भी सम्मान चाहते हैं, नहीं मिलेगा, तो दंडित करते हैं, नाराज होते हैं। मैंने सुना है, हाथियों का झुंड जा रहा हो, तो उसमें जो मुख्य हाथी होता है, वही आगे-आगे चलता है। यदि एक कदम भी किसी दूसरे हाथी ने उससे आगे बढऩे का प्रयास किया, तो उसे दंडित कर देता है, सूंड, दांतों से प्रहार करता है कि  तू आगे क्यों जा रहा है, ‘प्रोटोकॉल’ तो ‘मेंटेन’ करो, तुम कौन हो, पीछे चलो। तो अभिप्राय कि लोक समाज बढ़ा, व्यवहार बढ़ा, यहीं बैठे-बैठे आदमी अमरीका के आदमी से बात कर लेता है, सबकुछ बढ़ा, लेकिन प्रोटोकॉल का ज्ञान नहीं होगा, तो आदमी कैसे किसी अनुभवी या सयाने आदमी को प्रभावित करेगा। 
मानो हि महतां धनम्। 
बड़े लोगों के लिए मान ही सबसे बड़ा धन है। और लोगों का धन अलग होता है। समाज में जो ऊंचाई वाले लोग हैं, उन्हें तो मान ही चाहिए। कैसे मान दिया जाए, इसका प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। मान देना ही है। हर आदमी आपके यहां पैसा लेने नहीं आया है, भोजन करने नहीं आया है, चाय पीने नहीं आया है, तो आप कैसे उसे प्रभावित करेंगे, आपके यहां धर्म करने नहीं आया है, आप उसे मोक्ष देंगे क्या, आप उसे मान देंगे क्या, कैसे मान देंगे। तो किसी को मान देना अवश्य सीखिए।
घर में यह नहीं बताया जा रहा है कि कोई आए, तो उसे कैसे मान देना चाहिए। कैसे उसे लगे कि वह हमें श्रेष्ठ मान रहा है। कैसे लगे कि हमें अपना मान रहा है, इसकी शिक्षा शुरू से ही देनी चाहिए। जैसे मैं देखता हूं, जब लोग आते हैं, तो बोलते हैं बच्चों को कि महाराज को प्रणाम करो। मुझे एक बड़े परिवार का छोटा बच्चा मिला, दो साल का भी नहीं हुआ है, दादा ने कहा कि महाराज को प्रणाम करो। दादी ने भी कहा, उसने हाथ जोड़ा। क्या बात है, कितना सुंदर हाथ जोड़ा, दो साल पूरे नहीं हुए हैं, मेरा रोम रोम पिघल गया। अद्भुत संस्कृति है कि दो साल का बच्चा इतना अच्छा हाथ जोड़ा। इस बात को आगे बढ़ाया कि महाराज का पैर दबाओ, तो संकोच कर रहा था, पहचान नहीं रहा था, दूसरी बार मिला था, दादा ने कहा कि मेरा दबाव, तो दादी की गोद में था, तो कैसे पैर दबाते हैं, वैसा करने लग गया। यह संस्कृति या प्रशिक्षण का प्रभाव है, जिसका छोटा ज्ञान व्यवहार है, लेकिन वह जानता है कि हाथ जोडऩा चाहिए। और अभी तो लडक़े बाय-बाय कह देते हैं। एक डॉक्टर पति-पत्नी दस साल विदेश रहकर आए थे, उनके घर गया, तो उन्होंने अपने बेटे से कहा, महाराज को प्रणाम करो, उसने कहा, बाय-बाय। मैंने पूछा उससे, बाय-बाय माने क्या होता है। तो वह क्या बतलाता?
क्रमश: 

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