समापन भाग - ११
जब हम छोटे थे, तब लोग देखते थे कि हम किसे देख रहे हैं। यदि हमारा लडक़ा सयाना है और जिसे नहीं देखना चाहिए, उसे देख रहा है, तो बड़े लोग टोकते थे कि क्या देख रहे हो। मुझे गुरुजी का ध्यान है कि मेरे कमरे में खिडक़ी थी, खिडक़ी के पार एक परिवार के लोग रहते थे, बीच में गली थी। उस खिडक़ी से बाहर देखते हुए मुझे गुरुजी ने नहीं देखा, लेकिन जब वे देख लेते थे कि कभी खिडक़ी खुली है, तो वे कठोर शब्दों का प्रयोग करके मेरी भत्र्सना करते थे। पूछते थे कि उधर खिडक़ी क्यों खुली है? परिणाम यह कि पांच-पांच महीने निकल जाते, मैं खिडक़ी नहीं खोलता।
आज भी जहां रहता हूं, वहां खिडक़ी नहीं खोलना है, आदत हो गई है। हमें बाहर क्या देखना है, कौन-सी चीज कमरे में नहीं है, बाहर किसको देखकर हम वैज्ञानिक या विरागी हो जाएंगे? तो भद्र को ही सुनना और भद्र को ही देखना और भद्र को ही छूना और यह बच्चों को शुरू से बताना चाहिए। खुद भी ऐसा करें और बच्चों से भी करवाएं।
संत शिरोमणि डोंगरे जी का प्रवचन सुन रहा था। उन्होंने कहा, ‘हम किसी को दो पैसा दे दें, उसे जब जरूरत हो, किन्तु हम आंख और कान नहीं दें।’
लोग अनावश्यक बहुत बोलते हैं और अनावश्यक बहुत सुनते हैं। आदमी किसी को भी सुन लेता है। हम क्यों सुनें? हम क्यों देखें? हमें देखने से कुछ अच्छा मिले, तो देखें? क्या जो भी मिलेगा ग्रहण कर लेंगे? जीवन भर इंद्रियों का प्रयोग करना है, ईश्वर ने दिया है। यह हमारे कल्याण के संसाधनों का धाम है शरीर। जीवन को परिपूर्णता देने के लिए हमें शुरू से ही संसाधन मिले हैं। इन संसाधनों का प्रयोग भी हमें बतलाया जाए, छोटी ही आयु से। अभिभावक भी इस प्रयोग को करें। आज अभिभावक भी टीवी पर गलत देख रहे हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। हम अपने जीवन को सबके लिए लाभप्रद बनाएं।
ध्यान दीजिए, वह कौन-सी शिक्षा होगी कि इसी संसार में अनेक महान विभूतियों ने ऋषित्व जीवन प्राप्त किया। वह कौन-सी शिक्षा होगी - व्यसन संसाधन के बिना भी सुदामा पूज्य हो गए? धनवान होना गलत नहीं है, किन्तु उसे प्राप्त करके भी जीवन विकसित हो, दूसरों के लिए उपयोगी हो। धन पाकर पशु जैसा जीवन न हो, लूटखसोट का जीवन न हो। धन पाकर पशु जैसा जीवन हो, तो कुछ ही दिनों तक लोग वाह-वाह करते हैं।
मनु जी ने श्लोक कहा - जिसका अर्थ है -जैसे आदमी सही संसाधनों से बढ़ता है, वैसे ही गलत संसाधनों से भी बढ़ता है। जैसे पुण्य से बढ़ता है, वैसे ही पाप से भी बढ़ता है। अधर्म से भी संपन्नता और सम्मान का विस्तार होता है। सब बढ़ जाता है, रोज बढ़ता है। किन्तु वह समय भी आता है, मानो पूरा का पूरा नीचे दलदल हो, वैसे ही वह पूरा जीवन बैठ जाता है। जैसे रावण का बैठ गया। सबकुछ था, लेकिन वह जो बढ़ रहा था, लगता था कि वह बढ़ रहा है, किन्तु वह तो अधर्म से पतन की ओर बढ़ रहा था।
गलत तरीके से जो शरीर लाल हो रहा है, मजबूत हो रहा है, वह केवल लगता है कि बढ़ रहा है, किन्तु वास्तव में वह मृत्यु की ओर जा रहा है। ऐसे अनेक लोगों ने धन अर्जित कर लिया, किन्तु धन चला जाता है। कभी मंदी में, कभी महंगाई में देश में ऐसी व्यवस्थाएं हैं, जिनमें तमाम लोग एक साथ बैठ जाते हैं। जब करोड़ों हजार का आदमी अपने जीवन में गिर जाता है। करोड़ों रुपए का व्यापार करने वाले का भी लोप हो जाता है। अधर्म से बढऩे वाला अपयश को प्राप्त हो जाता है। इसलिए हमें शुरू से यह शिक्षा मिलनी चाहिए कि हमें गलत रास्ते से शरीर, प्रतिष्ठा, परिवार, पद, विद्या को नहीं बढ़ाना है। केवल यह नहीं सिखलाइए कि कैसे पेट भरेगा-बढ़ेगा। बताइए कि अच्छी शिक्षा नहीं होगी, तो परिवार नहीं चलेगा, समाज नहीं चलेगा, राष्ट्र नहीं चलेगा। भारत में तो अनादि काल से सही सार्थक परिपूर्ण चिंतन की परंपरा प्रवाहित हो रही है। आइए, इस प्रवाह से सीखें।
जय सियाराम
जब हम छोटे थे, तब लोग देखते थे कि हम किसे देख रहे हैं। यदि हमारा लडक़ा सयाना है और जिसे नहीं देखना चाहिए, उसे देख रहा है, तो बड़े लोग टोकते थे कि क्या देख रहे हो। मुझे गुरुजी का ध्यान है कि मेरे कमरे में खिडक़ी थी, खिडक़ी के पार एक परिवार के लोग रहते थे, बीच में गली थी। उस खिडक़ी से बाहर देखते हुए मुझे गुरुजी ने नहीं देखा, लेकिन जब वे देख लेते थे कि कभी खिडक़ी खुली है, तो वे कठोर शब्दों का प्रयोग करके मेरी भत्र्सना करते थे। पूछते थे कि उधर खिडक़ी क्यों खुली है? परिणाम यह कि पांच-पांच महीने निकल जाते, मैं खिडक़ी नहीं खोलता।
आज भी जहां रहता हूं, वहां खिडक़ी नहीं खोलना है, आदत हो गई है। हमें बाहर क्या देखना है, कौन-सी चीज कमरे में नहीं है, बाहर किसको देखकर हम वैज्ञानिक या विरागी हो जाएंगे? तो भद्र को ही सुनना और भद्र को ही देखना और भद्र को ही छूना और यह बच्चों को शुरू से बताना चाहिए। खुद भी ऐसा करें और बच्चों से भी करवाएं।
संत शिरोमणि डोंगरे जी का प्रवचन सुन रहा था। उन्होंने कहा, ‘हम किसी को दो पैसा दे दें, उसे जब जरूरत हो, किन्तु हम आंख और कान नहीं दें।’
लोग अनावश्यक बहुत बोलते हैं और अनावश्यक बहुत सुनते हैं। आदमी किसी को भी सुन लेता है। हम क्यों सुनें? हम क्यों देखें? हमें देखने से कुछ अच्छा मिले, तो देखें? क्या जो भी मिलेगा ग्रहण कर लेंगे? जीवन भर इंद्रियों का प्रयोग करना है, ईश्वर ने दिया है। यह हमारे कल्याण के संसाधनों का धाम है शरीर। जीवन को परिपूर्णता देने के लिए हमें शुरू से ही संसाधन मिले हैं। इन संसाधनों का प्रयोग भी हमें बतलाया जाए, छोटी ही आयु से। अभिभावक भी इस प्रयोग को करें। आज अभिभावक भी टीवी पर गलत देख रहे हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। हम अपने जीवन को सबके लिए लाभप्रद बनाएं।
ध्यान दीजिए, वह कौन-सी शिक्षा होगी कि इसी संसार में अनेक महान विभूतियों ने ऋषित्व जीवन प्राप्त किया। वह कौन-सी शिक्षा होगी - व्यसन संसाधन के बिना भी सुदामा पूज्य हो गए? धनवान होना गलत नहीं है, किन्तु उसे प्राप्त करके भी जीवन विकसित हो, दूसरों के लिए उपयोगी हो। धन पाकर पशु जैसा जीवन न हो, लूटखसोट का जीवन न हो। धन पाकर पशु जैसा जीवन हो, तो कुछ ही दिनों तक लोग वाह-वाह करते हैं।
मनु जी ने श्लोक कहा - जिसका अर्थ है -जैसे आदमी सही संसाधनों से बढ़ता है, वैसे ही गलत संसाधनों से भी बढ़ता है। जैसे पुण्य से बढ़ता है, वैसे ही पाप से भी बढ़ता है। अधर्म से भी संपन्नता और सम्मान का विस्तार होता है। सब बढ़ जाता है, रोज बढ़ता है। किन्तु वह समय भी आता है, मानो पूरा का पूरा नीचे दलदल हो, वैसे ही वह पूरा जीवन बैठ जाता है। जैसे रावण का बैठ गया। सबकुछ था, लेकिन वह जो बढ़ रहा था, लगता था कि वह बढ़ रहा है, किन्तु वह तो अधर्म से पतन की ओर बढ़ रहा था।
गलत तरीके से जो शरीर लाल हो रहा है, मजबूत हो रहा है, वह केवल लगता है कि बढ़ रहा है, किन्तु वास्तव में वह मृत्यु की ओर जा रहा है। ऐसे अनेक लोगों ने धन अर्जित कर लिया, किन्तु धन चला जाता है। कभी मंदी में, कभी महंगाई में देश में ऐसी व्यवस्थाएं हैं, जिनमें तमाम लोग एक साथ बैठ जाते हैं। जब करोड़ों हजार का आदमी अपने जीवन में गिर जाता है। करोड़ों रुपए का व्यापार करने वाले का भी लोप हो जाता है। अधर्म से बढऩे वाला अपयश को प्राप्त हो जाता है। इसलिए हमें शुरू से यह शिक्षा मिलनी चाहिए कि हमें गलत रास्ते से शरीर, प्रतिष्ठा, परिवार, पद, विद्या को नहीं बढ़ाना है। केवल यह नहीं सिखलाइए कि कैसे पेट भरेगा-बढ़ेगा। बताइए कि अच्छी शिक्षा नहीं होगी, तो परिवार नहीं चलेगा, समाज नहीं चलेगा, राष्ट्र नहीं चलेगा। भारत में तो अनादि काल से सही सार्थक परिपूर्ण चिंतन की परंपरा प्रवाहित हो रही है। आइए, इस प्रवाह से सीखें।
जय सियाराम
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