भाग - १०
मैं इंदौर में था गीता पर प्रवचन करने के लिए एक विद्वान आए। बहुत दूर से आए। मोह-शोक भगाने वाली चर्चा चल रही थी, किन्तु उन्होंने भी अपना बाल आगे कर लिया। यह तो हमें छोटी आयु में ही सिखलाया गया था, जब घर से आ गए कि आदमी बाहरी संसाधनों से सुंदर नहीं होता, कपड़ा और जूता और तमाम तरह के जो आभूषण हैं, जो बाल हैं, उनसे हमारा व्यक्तित्व नहीं बढ़ता, व्यक्तित्व तो अपने श्रेष्ठ संस्कारों के आधार पर बढ़ता है। सभी लोगों को शुरू से ही यह शिक्षा दी जाए कि हम कैसे बड़े आदमी हो सकते हैं।
दान देने से दूसरों की मदद करने से हमारे हाथों की सुुंदरता है, केवल स्वर्ण का कड़ा पहनने से हाथों की सुंदरता नहीं है। हमारी वाणी की मधुरता से, सत्यता से, मर्यादित शब्दों के उच्चारण से हमारी वाणी की सफलता है, उपयोगिता है। जैसे-तैसे बोलकर हाव-भाव बनाकर तमाम अश्लील बातों को परोस कर, विनोदी बातें करके, हम बहुत अच्छे हो जाएंगे, यह सही नहीं है।
व्यक्तित्व व व्यवहार में यह सुधार अचानक नहीं होगा। मैंने पहले बतलाया कि मां के गर्भ से ही शिक्षा शुरू हो जाती है। अभी हमने एक परंपरा की शुरुआत की है। समर्पित भक्तों के यहां जब कोई महिला गर्भवती हो जाती है, तो मैं उन्हें ९ दिनों की राम कथा सुनवाता हूं। उसमें भीड़भाड़ नहीं होती, गर्भवती महिला अपनी किसी महिला अभिभावक के साथ उपस्थित रहती है। कम से कम दो महिलाएं परिपूर्ण ९ दिनों में अधिक से अधिक घंटे कथा सुनती हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है, जो बच्चे जन्म ले रहे हैं, उनमें उत्कृष्ट राम भाव दिख रहा है। मैंने भी कई जगह कहा कि इस आयु में मेरा ऐसा भाव नहीं था, जबकि मैं धार्मिक आध्यात्मिक जीवन में एक स्वरूप को प्राप्त कर चुका हूं, लोग कहते हैं कि आपका जीवन प्रेरित करता है, लेकिन मैं हाथ खड़ा कर देता हूं, जब उन बच्चों को देखता हूं, जिन्हें ९ दिन रामचरितमानस सुनवाया था।
एक बच्ची जन्म ली, सर्दी के दिनों में, घर वाले रात्रि भर गोद में लेकर जाप करते थे, लेकिन जहां जाप बंद कर दें, तो रोने लगती थी, राम राम कहें, तो गोद में लेटी रहती थी, निद्रा में रहती थी, लोग बोलते रहते थे सीताराम सीताराम राधे श्याम राधे श्याम। चमत्कार है, जो बच्चा सर्दी से पीडि़त है, रोने लगता है, वह केवल राम-राम से चुप होता है। तो अभिप्राय यह कि हम शुरू से ही केवल अर्थ प्राप्ति की शिक्षा नहीं दें, केवल भोग की शिक्षा नहीं दें, शिक्षा हम धर्म और मोक्ष की भी दें।
कई लोग अपने बच्चों को चोरी की शिक्षा देते हैं। मुझे अनुभव है कि कैसे मां अपने बच्चे को व्याभिचारी बनाती है, चोरी करना सिखाती है, कैसे मां अपने बच्चे को आतंकवादी बनाती है, कैसे दूसरों को तिरस्कार करना सिखाती है। शुरू से ही बच्चों को गलत ढंग से पालती है। सुधार करना होगा। हम बच्चों को शब्द व्यवहार सिखाएं, साथ-साथ जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों से परिचय कराना चाहिए। केवल यहीं हमारा गांव नहीं है, ऊपर भी गांव है, जहां भगवान रहते हैं, वहां चोर, बदमाश, झूठ बोलने वाले नहीं जाते, अपमानित करने वाले, हत्या करने वाले, ठगने वाले नहीं जाते। वहां अच्छे लोग ही जाते हैं।
ये जो बातें हम कर रहे हैं, उन बातों को तमाम आयु बीतने के बाद आदमी सीखता है, किन्तु हमें शिशु या बाल्यकाल से ही यह सीख लेना चाहिए।
बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो - गांधी जी की यह शिक्षा - ये वेदों ने भी कहा। हम केवल भद्र को ही सुनेंगे। दूसरों की निंदा सुनकर आदमी राक्षस हो जाता है। कान भी बुरी बातों को सुनने का आदी हो जाता है। चरस पीने वालों को दूसरा नशा काम नहीं करता, जैसे शराब पीने वालों को दूसरा पेय प्रभावित नहीं करता, सुकून नहीं देता। शुरू से ही हमें गलत, असभ्य बातों पर कान नहीं देना है। वेदों ने कहा कि हमें भद्र को सुनना है - भद्र माने - जो हमें विकृत प्रेरणा नहीं दे सकता। शुरू से ही शिक्षा होनी चाहिए। भद्र को ही सुनना और भद्र को ही देखना-सीखना चाहिए।
क्रमश:
मैं इंदौर में था गीता पर प्रवचन करने के लिए एक विद्वान आए। बहुत दूर से आए। मोह-शोक भगाने वाली चर्चा चल रही थी, किन्तु उन्होंने भी अपना बाल आगे कर लिया। यह तो हमें छोटी आयु में ही सिखलाया गया था, जब घर से आ गए कि आदमी बाहरी संसाधनों से सुंदर नहीं होता, कपड़ा और जूता और तमाम तरह के जो आभूषण हैं, जो बाल हैं, उनसे हमारा व्यक्तित्व नहीं बढ़ता, व्यक्तित्व तो अपने श्रेष्ठ संस्कारों के आधार पर बढ़ता है। सभी लोगों को शुरू से ही यह शिक्षा दी जाए कि हम कैसे बड़े आदमी हो सकते हैं।
दान देने से दूसरों की मदद करने से हमारे हाथों की सुुंदरता है, केवल स्वर्ण का कड़ा पहनने से हाथों की सुंदरता नहीं है। हमारी वाणी की मधुरता से, सत्यता से, मर्यादित शब्दों के उच्चारण से हमारी वाणी की सफलता है, उपयोगिता है। जैसे-तैसे बोलकर हाव-भाव बनाकर तमाम अश्लील बातों को परोस कर, विनोदी बातें करके, हम बहुत अच्छे हो जाएंगे, यह सही नहीं है।
व्यक्तित्व व व्यवहार में यह सुधार अचानक नहीं होगा। मैंने पहले बतलाया कि मां के गर्भ से ही शिक्षा शुरू हो जाती है। अभी हमने एक परंपरा की शुरुआत की है। समर्पित भक्तों के यहां जब कोई महिला गर्भवती हो जाती है, तो मैं उन्हें ९ दिनों की राम कथा सुनवाता हूं। उसमें भीड़भाड़ नहीं होती, गर्भवती महिला अपनी किसी महिला अभिभावक के साथ उपस्थित रहती है। कम से कम दो महिलाएं परिपूर्ण ९ दिनों में अधिक से अधिक घंटे कथा सुनती हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है, जो बच्चे जन्म ले रहे हैं, उनमें उत्कृष्ट राम भाव दिख रहा है। मैंने भी कई जगह कहा कि इस आयु में मेरा ऐसा भाव नहीं था, जबकि मैं धार्मिक आध्यात्मिक जीवन में एक स्वरूप को प्राप्त कर चुका हूं, लोग कहते हैं कि आपका जीवन प्रेरित करता है, लेकिन मैं हाथ खड़ा कर देता हूं, जब उन बच्चों को देखता हूं, जिन्हें ९ दिन रामचरितमानस सुनवाया था।
एक बच्ची जन्म ली, सर्दी के दिनों में, घर वाले रात्रि भर गोद में लेकर जाप करते थे, लेकिन जहां जाप बंद कर दें, तो रोने लगती थी, राम राम कहें, तो गोद में लेटी रहती थी, निद्रा में रहती थी, लोग बोलते रहते थे सीताराम सीताराम राधे श्याम राधे श्याम। चमत्कार है, जो बच्चा सर्दी से पीडि़त है, रोने लगता है, वह केवल राम-राम से चुप होता है। तो अभिप्राय यह कि हम शुरू से ही केवल अर्थ प्राप्ति की शिक्षा नहीं दें, केवल भोग की शिक्षा नहीं दें, शिक्षा हम धर्म और मोक्ष की भी दें।
कई लोग अपने बच्चों को चोरी की शिक्षा देते हैं। मुझे अनुभव है कि कैसे मां अपने बच्चे को व्याभिचारी बनाती है, चोरी करना सिखाती है, कैसे मां अपने बच्चे को आतंकवादी बनाती है, कैसे दूसरों को तिरस्कार करना सिखाती है। शुरू से ही बच्चों को गलत ढंग से पालती है। सुधार करना होगा। हम बच्चों को शब्द व्यवहार सिखाएं, साथ-साथ जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों से परिचय कराना चाहिए। केवल यहीं हमारा गांव नहीं है, ऊपर भी गांव है, जहां भगवान रहते हैं, वहां चोर, बदमाश, झूठ बोलने वाले नहीं जाते, अपमानित करने वाले, हत्या करने वाले, ठगने वाले नहीं जाते। वहां अच्छे लोग ही जाते हैं।
ये जो बातें हम कर रहे हैं, उन बातों को तमाम आयु बीतने के बाद आदमी सीखता है, किन्तु हमें शिशु या बाल्यकाल से ही यह सीख लेना चाहिए।
बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो - गांधी जी की यह शिक्षा - ये वेदों ने भी कहा। हम केवल भद्र को ही सुनेंगे। दूसरों की निंदा सुनकर आदमी राक्षस हो जाता है। कान भी बुरी बातों को सुनने का आदी हो जाता है। चरस पीने वालों को दूसरा नशा काम नहीं करता, जैसे शराब पीने वालों को दूसरा पेय प्रभावित नहीं करता, सुकून नहीं देता। शुरू से ही हमें गलत, असभ्य बातों पर कान नहीं देना है। वेदों ने कहा कि हमें भद्र को सुनना है - भद्र माने - जो हमें विकृत प्रेरणा नहीं दे सकता। शुरू से ही शिक्षा होनी चाहिए। भद्र को ही सुनना और भद्र को ही देखना-सीखना चाहिए।
क्रमश:
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