भाग - २
शिक्षा और संस्कारों का एक क्रम है। सारी शिक्षा माता-पिता ही नहीं दे देते। शिक्षा की लंबी परंपरा है, आदिकाल से परंपरा प्रवाहित हो रही है। कोई शिशु जन्म लेता है, तो उसे क्या सिखलाया जाए, उसको किस तरह से परिपूर्ण मनुष्य बनाया जाए, ताकि वह राष्ट्र के लिए पूरी मानवता के लिए पूरे संसार के लिए उपयोगी हो, सुकूनदायक हो, सुंदरतादायक सिद्ध हो, इसके लिए उसे क्या सिखलाया जाए - इसकी पूरी एक परंपरा है। सभी परिवेश के लोग, परिजन, सुजन बहुत विज्ञ नहीं होते और विद्वता उनकी अपनी यदि होगी, तो उनकी अपनी विज्ञता नहीं होती कि वे उस बच्चे को परिपूर्ण जीवन दे सकें। इसके लिए हमें ध्यान रखना होगा कि हर समाज, जाति, परिवार के पीछे से जुड़ी हुई लंबी परंपरा होती है, विचारों की मजबूत परंपरा होती है। श्रेष्ठता क्या है और बच्चे को श्रेष्ठता तक पहुंचाने के लिए क्या करना चाहिए। जिसे हम परंपरा कहते हैं, जिसे हम कहेंगे - ज्ञान व्यवहार संस्कारों की जो परंपरा है, जो लंबा प्रवाह है, जो पीछे से जुड़ाव की लंबी बात है, उसे समझना-जानना होगा। आखिर क्या समझाएगा पिता, क्या समझाएगी माता, क्या समझाएंगे परिवार के लोग, हर आदमी कल्पना करके ही उसी समय ही सोच कर हर बच्चे का शिक्षण करे, तो शिक्षा अधूरी रह जाएगी। इस शिक्षा में सुनिश्चितता नहीं होगी, उसमें संदर्भ नहीं होगा। आज माता-पिता को, परिवार, जाति को और सभी को सही समझाने के लिए, सिखलाने के लिए जो ज्ञान धारा परंपरा से प्राप्त हुई है, जो ज्ञान विज्ञान के संस्कार से जुड़ी परंपरा है, ज्ञान की परंपरा, व्यवहार की परंपरा, उसके आधार पर लोग प्रारंभ करते हैं और बच्चे को सिखलाते हैं। भगवान की दया से हम सनातन धर्मावलंबियों का सौभाग्य है कि हम वेद, स्मृतियों, इतिहास पुराण से जुड़े हैं। ज्ञान परंपरा आज की नहीं है, किसी एक ऋषि या किसी एक महात्मा से प्रकट नहीं हुई है, जैसे सूर्य, चंद्रमा, आकाश, वायु हैं, ठीक उसी तरह से हमारी परंपरा की जो ज्ञान राशि है, उसके व्याख्यान वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां और इतिहास हैं। हमारी परंपरा श्रेष्ठ रूप से जीवन प्रवाह के लिए सार्वभौमिक स्वरूप में प्राप्त हुुई है, उससे लोग बच्चों को शिक्षित करते हैं और संस्कार देते हैं। एक तो दुनिया में किसी भी समाज के पास संस्कारों की इतनी लंबी परंपरा नहीं है, संस्कृति, ज्ञान, जीवन की इतनी लंबी परंपरा नहीं है, इसलिए उन्हें तत्काल ही परंपरा बनाकर काम करना पड़ता है, इसलिए दुनिया में जितनी सभ्यताएं खड़ी हुईं, किसी का लंबा इतिहास नहीं है। न भूत व्यवस्थित है, न वर्तमान व्यवस्थित है। इतिहास में पढ़ाया जाता है - रोम और मिस्र की सभ्यता का क्या हुआ।
हमारे यहां बच्चा जब जन्म लेता है, उससे भी पहले मां के गर्भ से ही कितने प्रकार के ज्ञान के प्रयास शुरू हो जाते हैं। मां को कैसे रहना है, मन को कैसे रखना है, क्या सोचना, क्या खाना है, क्या पढऩा है, क्या देखना है, कैसे सोना है, ये सारी बातें बतलाई जाती हैं। ताकि जो संतति हो, वह बहुत संस्कारी हो। मां को तकलीफ पहुंचाने से मना किया जाता है, उसे अपमानित करने से मना किया जाता है, ताकि गर्भ में पल रहे शिशु पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़े।
क्रमश:
शिक्षा और संस्कारों का एक क्रम है। सारी शिक्षा माता-पिता ही नहीं दे देते। शिक्षा की लंबी परंपरा है, आदिकाल से परंपरा प्रवाहित हो रही है। कोई शिशु जन्म लेता है, तो उसे क्या सिखलाया जाए, उसको किस तरह से परिपूर्ण मनुष्य बनाया जाए, ताकि वह राष्ट्र के लिए पूरी मानवता के लिए पूरे संसार के लिए उपयोगी हो, सुकूनदायक हो, सुंदरतादायक सिद्ध हो, इसके लिए उसे क्या सिखलाया जाए - इसकी पूरी एक परंपरा है। सभी परिवेश के लोग, परिजन, सुजन बहुत विज्ञ नहीं होते और विद्वता उनकी अपनी यदि होगी, तो उनकी अपनी विज्ञता नहीं होती कि वे उस बच्चे को परिपूर्ण जीवन दे सकें। इसके लिए हमें ध्यान रखना होगा कि हर समाज, जाति, परिवार के पीछे से जुड़ी हुई लंबी परंपरा होती है, विचारों की मजबूत परंपरा होती है। श्रेष्ठता क्या है और बच्चे को श्रेष्ठता तक पहुंचाने के लिए क्या करना चाहिए। जिसे हम परंपरा कहते हैं, जिसे हम कहेंगे - ज्ञान व्यवहार संस्कारों की जो परंपरा है, जो लंबा प्रवाह है, जो पीछे से जुड़ाव की लंबी बात है, उसे समझना-जानना होगा। आखिर क्या समझाएगा पिता, क्या समझाएगी माता, क्या समझाएंगे परिवार के लोग, हर आदमी कल्पना करके ही उसी समय ही सोच कर हर बच्चे का शिक्षण करे, तो शिक्षा अधूरी रह जाएगी। इस शिक्षा में सुनिश्चितता नहीं होगी, उसमें संदर्भ नहीं होगा। आज माता-पिता को, परिवार, जाति को और सभी को सही समझाने के लिए, सिखलाने के लिए जो ज्ञान धारा परंपरा से प्राप्त हुई है, जो ज्ञान विज्ञान के संस्कार से जुड़ी परंपरा है, ज्ञान की परंपरा, व्यवहार की परंपरा, उसके आधार पर लोग प्रारंभ करते हैं और बच्चे को सिखलाते हैं। भगवान की दया से हम सनातन धर्मावलंबियों का सौभाग्य है कि हम वेद, स्मृतियों, इतिहास पुराण से जुड़े हैं। ज्ञान परंपरा आज की नहीं है, किसी एक ऋषि या किसी एक महात्मा से प्रकट नहीं हुई है, जैसे सूर्य, चंद्रमा, आकाश, वायु हैं, ठीक उसी तरह से हमारी परंपरा की जो ज्ञान राशि है, उसके व्याख्यान वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां और इतिहास हैं। हमारी परंपरा श्रेष्ठ रूप से जीवन प्रवाह के लिए सार्वभौमिक स्वरूप में प्राप्त हुुई है, उससे लोग बच्चों को शिक्षित करते हैं और संस्कार देते हैं। एक तो दुनिया में किसी भी समाज के पास संस्कारों की इतनी लंबी परंपरा नहीं है, संस्कृति, ज्ञान, जीवन की इतनी लंबी परंपरा नहीं है, इसलिए उन्हें तत्काल ही परंपरा बनाकर काम करना पड़ता है, इसलिए दुनिया में जितनी सभ्यताएं खड़ी हुईं, किसी का लंबा इतिहास नहीं है। न भूत व्यवस्थित है, न वर्तमान व्यवस्थित है। इतिहास में पढ़ाया जाता है - रोम और मिस्र की सभ्यता का क्या हुआ।
हमारे यहां बच्चा जब जन्म लेता है, उससे भी पहले मां के गर्भ से ही कितने प्रकार के ज्ञान के प्रयास शुरू हो जाते हैं। मां को कैसे रहना है, मन को कैसे रखना है, क्या सोचना, क्या खाना है, क्या पढऩा है, क्या देखना है, कैसे सोना है, ये सारी बातें बतलाई जाती हैं। ताकि जो संतति हो, वह बहुत संस्कारी हो। मां को तकलीफ पहुंचाने से मना किया जाता है, उसे अपमानित करने से मना किया जाता है, ताकि गर्भ में पल रहे शिशु पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़े।
क्रमश:
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