Monday, 27 August 2018

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ४
सारा जो कुरूप स्वरूप है संसार का, जो त्याज्य स्वरूप है, वह इसीलिए है कि हम अर्थ को ही अपना सबकुछ मानते हैं। कैसे भी धन आए, एटीएम तोडऩे से आए, घोटाला करने से आए, तमाम तरह के जो धन और शोषण के तरीके हैं, उससे आए। जब धन ही दूषित हो गया, तो भोग भी दूषित होगा। शुद्ध आहार, आधार नहीं मिलेगा। हम ऐसे में कहीं से भी व्यवस्थित भोग नहीं कर सकते। न भोजन, न कपड़े में, न सुनने में, न देखने में, न धर्मपत्नी के मामले में - हमारा सबकुछ दूषित हो जाएगा। फिर धर्म की कहीं बात नहीं होगी। मोक्ष की बात नहीं होगी। इसलिए शिशु को सबसे पहले बतलाया जाए कि ये तुम्हारी माता हैं, ये पिता हैं, ये तुम्हारे चाचा हैं, दादा हैं, दादी हैं, धीरे धीरे बतलाते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ उन व्यवहारों भोजनों, वचनों, क्रिया-कलापों को प्रस्तुत किया जाए कि जिनके आधार पर जीवन परिपूर्णता को प्राप्त करे। सभी लोगों को उन श्रेष्ठ भावों को बच्चों को समझाना है। पहले अर्थ बतलाना है, संस्कार सुदृढ़ करना है। इस सम्बंध में एक स्पष्ट पे्ररणादायक घटना प्रस्तुत कर रहा हूं। 
एक बड़े संत हुए, संत करपात्री जी महाराज, परम विद्वान, विरागी थे, उन्हें धर्म सम्राट भी कहा जाता था। सभी तरह के व्यसन से दूर रहने वाले। वे वेदांत के विद्वान थे, पुराणों के भी, संत साहित्य के भी, अद्भुत वक्ता भी थे, जब उनका शरीर पूरा होने लगा, जब लगता था कि जीवन नहीं बचेगा, तब उन्हें एक विद्वान, जो पुरी शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ थे, उनके आग्रह पर उन्हें उपनिषदों को सुनाते थे, और रामानंद संप्रदाय के बड़े संत थे सीताराम सैन जी, जो अयोध्या जी में रहते थे, उन्हें वाल्मीकि रामायण सुनाते थे, दोनों विश्वास प्राप्त थे। दोनों करपात्री जी के शिष्य थे। 
एक दिन दोनों ने पूछा कि महाराज, ‘आप भागवत की कथा करते हैं और वेदांत का भी प्रवचन करते हैं, श्रीयंत्र की भी पूजा करते हैं, आप अपने प्रवचन से पहले भगवान राम का कीर्तन भी करते हैं - श्री राम जय राम जय जय राम। शिव जी की भी उपासना करते हैं, इससे यह पता नहीं चलता कि आपका सबसे अधिक विश्वास किस मंत्र या किस शास्त्र या किस देवता पर है। आपका परम श्रद्धेय देवता कौन है?’
करपात्री जी महाराज ने टालने की कोशिश की और कहा, ‘यह नहीं बतलाया जाता।’ 
दोनों बड़े विख्यात शिष्यों ने बार-बार आग्रह किया, प्रिय शिष्य थे। बहुत आग्रह था। कुछ रुककर करपात्री जी महाराज ने पूछा, ‘कोई प्रिया अपने प्रियतम का नाम बतलाती है क्या, कि मैं बतला दूं?’
तो शिष्यों ने फिर पूछा, ‘हम जानना चाहते हैं। आप सबकी पूजा करते हैं, किन्तु आपका सबसे प्रिय देवता कौन है, कौन-सा मंत्र है, किस भगवान का विग्रह है?’ 
करपात्री जी महाराज ने उत्तर दिया, ‘मेरे राम जी सबसे ज्यादा प्रेरक-प्रेरणास्पद हैं।’ 
यह सुनकर शिष्य चकित हुए, फिर प्रश्न किया, ‘आप तो संन्यासी हैं, वहां महादेव जी सबसे बड़े देवता हैं, आप भागवत करते हैं, तो कृष्ण जी भी आपको प्रिय हैं, यह क्या हुआ?’ 
करपात्री जी महाराज ने बताया, ‘यह हमारी माता जी की कृपा का चमत्कार है। जब मैं जन्म लिया, तब मुझे तेल लगाते हुए, गोद में झुलाते हुए, काजल लगाते हुए, जब भी मां के साथ मैं होता था, तब मेरी मां और कुछ नहीं बोलती थीं, केवल एक ही बात बोलती थीं - श्री राम जय राम जय जय राम. . .। मैंने संसार में आते ही सबसे ज्यादा यही शब्द सुना। सबसे पहले इसी शब्द को सुना। मैं बड़ा हो गया, खूब पढ़ता रहा, संतों में आ गया, शास्त्र पढ़ता रहा, तमाम लोगों को सुनने लगा, व्यवहार परिष्कृत होता गया, सबकुछ विस्तृत होता गया, लेकिन श्री राम जय राम जय जय राम, जो मेरे कानों में गूंजते थे, वो भूले नहीं। फिर मेरा जीवन परम शक्ति राम जी के लिए समर्पित हो गया। मैंने अपने संपूर्ण जीवन को तमाम विधाओं से जोडक़र राम जी के जैसा जीवन बिताने, वनवासी जीवन बिताने का संकल्प किया। मैंने संकल्प किया कि अब धन संग्रह नहीं करना है। किसी को भोग के लिए उपयोग नहीं करना है। संपूर्ण जीवन केवल राम जी को अर्पित करके, अपनों का भी उद्धार और दूसरों का भी उद्धार करना है।’ 
क्रमश: 

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