ज्ञानेश उपाध्याय
प्राक्कथन के लिए कुछ लिखने बैठा हूं, तो आभार जताने की अनंत आकांक्षाओं के सिवा मन-हृदय में कुछ आ ही नहीं रहा है। कंप्यूटर के की-बोर्ड पर अचंभित व संकोच भार से ठिठकी हुई हैं अंगुलियां, मस्तिष्क के आदेश के लिए प्रतीक्षारत कि मस्तिष्क किसी रसायन को भाव रूप में प्रेषित करे, किन्तु मस्तिष्क संभवत: स्वयं स्तब्ध है, इतने तरह के रसायन बन रहे हैं कि जो सिद्धांत में ही कहीं उल्लिखित नहीं हैं, तो उनके व्यवहार में प्रकट होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अब आगे बढऩे के दो मार्ग हैं। पहला यह कि प्राक्कथन लेखन रोक दिया जाए और केवल रस में डूबा जाए, केवल निहारा जाए या नेत्र बंदकर केवल अनहद आंतरिक आनंद को अनुभूत किया जाए। दूसरा मार्ग यह है कि कुछ परिश्रम से रसायन का कोई टुकड़ा उठाकर प्रस्तुत किया जाए, अंदर के सागर से एक चम्मच निकाल लाया जाए, ताकि पता तो लगे कि अंदर क्या चल रहा है, किन्तु इसमें एक अन्याय भी है, जो ईश्वरीय भाव रसायन मस्तिष्क में अभिन्न और अखंड है, उसको सम्पूर्णता में प्रकट नहीं किया जा सकता, अभिन्न को भिन्न करके या अखंड को खंडित करके ही कोई प्रगटीकरण संभव है, तो हुआ न अन्याय! यह एक तर्क होता है, संभवत: जिसके कारण संसार के अनेक आम लोग और संत-महात्मा मौन रहने का मार्ग चुनते हैं। यह अत्यंत स्वाभाविक भी है।
मैं आम व्यक्ति हूं, पत्रकार हूं, हम लोगों का कार्य ही है विखंडित को सुविधा अनुसार खंडित करके अध्ययन करना, प्रस्तुत करना। हम लोग काफी सारा बनावटी काम करते हैं, क्योंकि बनाए बिना काम नहीं चलता। कई बार सच्चाइयां ऐसी कुरूप होती हैं कि कुछ न कुछ बनाना ही पड़ता है, ताकि प्रस्तुत करने के अनुकूल किया जा सके। हम लोग समाचार बनाते हैं, आलेख-लेख बनाते हैं, पृष्ठ योजना बनाते हैं, पृष्ठ बनाते हैं - यह सब हम पत्रकारों के मन में चल रहे सम्पूर्ण अभिन्न और अखंड का हिस्सा होता है। वह जो पृष्ठ या भाव रसायन मूल रूप से मस्तिष्क में बनता है, वास्तव में वह कभी सम्पूर्णता में पृष्ठ पर प्रकट नहीं हो पाता। कुछ न कुछ छूट जाता है, कोई न कोई आकांक्षा या योजना का कोई न कोई भाग क्रियान्वित होने से वंचित रह जाता है, उस वंचित की भरपाई का प्रयास हम अगले पृष्ठ या अगले पत्रकारीय कर्म में करने की चेष्टा करते हैं। वैसे वास्तव में हम पत्रकार महात्मा गांधी से लेकर आजतक अभिन्नता और अखंडता का पीछा कर रहे हैं, हम सत्य का पीछा कर रहे हैं। अच्छी पत्रकारिता सदैव ही असत्य के पीछे दौडक़र उसका सत्य खोजती है। हर असत्य का भी अपना सत्य होता है, जिसे प्रकट करना सर्वथा समाज हित में होता है। राम जी की कृपा से, आइए, अन्यायपूर्ण ही सही, कुछ अधूरा-सा, टूटा हुआ-सा, खंडित ही सही, क्षमा के अग्रिम निवेदन के साथ कुछ प्रकट होने देते हैं ...
मैं जब जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी को अनुभूत करता हूं, तो मुझे अनायास यह लगता है कि वे भी निरंतर सत्य के पीछे भाग रहे हैं, सच्चे-उजले धन और सच्चे-उजले लोगों के पीछे भाग रहे हैं। संत रूपी असंतों के आधुनिक-धनमुखी-इलेक्ट्रॉनिक महा-कोलाहल और महा अंधकार में कोई यदि सच्चे और उजले धन और मन को तन्मयता के साथ खोजता हुआ दिखता है, तो रोम अनायास हर्षित हो जाते हैं। एक दिन महाराज ने बताया, 'अनेक पवित्र शिष्य हैं, जिनमें से किसी ऐसे को खोज रहा हूं, जिसके धन से राम जी की प्रतिमा बनवाई जाए। राम जी की प्रतिमा तो किसी पवित्र व्यक्ति के पवित्र धन से ही निर्मित होनी चाहिए। तभी तो सहज रामभाव उत्पन्न होगा।Ó इनका ऐसा दुर्लभ दरबार है, जहां से काले धन की मोटी थैलियां यह कहकर लौटा दी जाती हैं कि ये दो नंबर का धन रखिए अपने पास, यह राम काज में लगने योग्य नहीं है। हम ऐसे कालखंड में रह रहे हैं, जब बड़े से बड़ा पापी धनिक बाहुबली धार्मिक उपक्रम में १० से २० प्रतिशत कमाई खर्च करके स्वयं को ईश्वरीय आपदा से सुरक्षित समझने लगता है। धार्मिक उपक्रम या उद्यम चलाकर ज्यादातर असंत प्रवचनकर्ता दान की काली थैलियों की प्रतीक्षा में दिन-रात द्वार खुले रखते हैं। आज के समय में काले धन की मोटी-मोटी थैलियों से निर्लिप्त होकर यदि कोई सीताराममय संत बैठा है, तो वह सहज ही प्रेरित करता है। न सत्ता मोह, न आडंबर, न टोटका, न काला जादू, न ज्योतिष का जोर, केवल राम भाव। कोई अंध विश्वास नहीं, केवल विश्वास। अंध श्रद्धा का कोई तांडव नहीं, केवल श्रद्धा की अनुपम सजावट। इनके पास मीठी गोलियां नहीं हैं, क्योंकि वे कड़वी गोलियों का मोल जानते हैं, वे जानते हैं कि कड़वी गोलियां सशक्त करेंगी और मीठी गोलियां अंदर से खोखला कर देंगी। इनके यहां गरीब भी अच्छे व्यवहार से खूब प्रशंसा पाता है और गलती पर धन्नासेठों को भी डांट खाते सुना जा सकता है। इस देश में धर्म क्षेत्र में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो अपने दानदाता को ही फटकार देते हों। लाखों की हानि हो जाए, किन्तु राम भाव में एक आना की हानि भी स्वीकार्य नहीं। कई अध्यात्म-व्यवसायी तो अपने बड़े दानदाताओं को ईश्वर से भी ज्यादा समय और सम्मान देते होंगे।
महाराज का निर्भय होना भी बहुत आकर्षित करता है। जो भी हो जाए, सत्य बोलेंगे। उन्होंने एक बार सत्य कह दिया, समाचार पत्र में छप गया और एक घोषित महात्मा को चुभ गया। उस घोषित महात्मा के चेलों ने लिखित में भी आपत्ति की, समाचार पत्र को निशाना बनाया, समाचार पत्र ने केवल यह स्पष्ट किया कि उसका लक्ष्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं था। समाचार पत्र को लचीला देखकर घोषित महात्मा के चेले और आक्रामक हो गए, तर्क करने लगे, दावे करने लगे। इस स्थिति में मैंने महाराज को कुछ नहीं कहा, किन्तु मेरी चर्चा गुरुतुल्य पत्रकार रामबहादुर राय जी के साथ हुई, तो उन्होंने सलाह दी, यदि आप घोषित महात्मा का पक्ष छापते हैं, तो स्वामी रामनरेशाचार्य जी का भी पक्ष छापिए, दोनों को आमने-सामने कर दीजिए, न्याय दर्शन के विद्वान स्वामी जी अपना मुकदमा लडऩे में इतने सक्षम हैं कि उनके सामने कोई टिक नहीं सकता।
तो ऐसे हैं हमारे महाराज जी कि महाराज जी की तुलना केवल महाराज जी से ही संभव है। अथाह बल का अनुभव कराते हुए वे ऐसे अभिभावक संत हैं, जो निरंतर सजग और अडिग हैं। उन्हीं की कृपा से प्रवचन की यह दूसरी पुस्तिका लिखित और प्रकाशित हो रही है। एक भी प्रवचन हवाई नहीं है, सारे प्रवचन ठेठ जीवन से सम्बंधित हैं, अनगिनत प्रकार के सुधारों के लिए प्रेरित करते इन प्रवचनों में उपदेश का भाव नहीं है। मैंने आज की समस्याओं को सामने रखकर महाराज से ये प्रवचन लिए हैं, मुझे पता है, उनका मन इस समाज और देश के लिए रोता है। वे निरंतर राम जी को याद करते हैं कि राम जी होते, तो कैसे सुधार करते। बोलते-बोलते वे कई बार इतने सजल हो जाते हैं कि सैकड़ों किलोमीटर दूर फोन पर उनकी आवाज सुन रहा मैं भावविभोर हो जाता हूं। उनकी राममय संवेदना उनके स्वर में न्यस्त होकर दूर तक प्रेषित हो जाती है। सजलता विस्तार पा जाती है। निस्संदेह, उन्हें सुनते हुए कई बार बहुत रोने का मन करता है, किन्तु क्यों रोया जाए? इनके यहां तो विलाप या प्रलाप के लिए कोई स्थान नहीं है, स्वयं को सही मार्ग पर बनाए रखना है, अडिग रखना है और बढ़ते चलना है। ऐसा नहीं कि बड़ी-बड़ी बातों को केवल सुन रहे हैं, अपने जीवन में नहीं उतार रहे और आशा कर रहे हैं कि सुधार के लिए पड़ोसी के यहां ही भगत सिंह पैदा हो, तो भूल जाइए, आपका सुधार संभव नहीं। आज का संसार युद्ध समान है, युद्ध में दो ही मार्ग होते हैं, या तो समर्पण कर दीजिए, किन्तु समर्पण करने का अर्थ है - वैसे ही हो जाइए, जैसी आज की अधकचरी दुनिया हो गई है, मुंह में राम बगल में छुरी, या फिर युद्ध लडि़ए, अपने अंदर, बाहर और संसार को बताइए कि राम भाव में जीना क्या होता है। महाराज जी युद्ध ही तो लड़ रहे हैं, राम जी की कृपा से आज भी विजयी हैं और सदैव विजयी रहेंगे।
मैं सोचता रहता हूं और आज हर किसी को यह सोचना चाहिए, मान लीजिए, राम और रावण के बीच पुन: युद्ध छिडऩे वाला हो और दोनों तरफ की सेनाओं में बहाली या निुयक्ति चल रही हो, संसार को दो भाग में बांटा जा रहा हो, एक राम की ओर, दूसरा रावण की ओर, तो किसकी बहाली किधर होगी? हर किसी को सोचना चाहिए कि उसने स्वयं को कहां बहाल होने योग्य बनाया है, अपनी कथनी-करनी से अपने को रावण के योग्य बनाया है या रामजी के योग्य बनाया है। यह व्यावहारिक चिंतन हर किसी को करना चाहिए। महाराज जी के पीछे चलने की चेष्टा में मेरा यह पुरजोर प्रयास रहा है कि मैं योग्यता के मापदण्ड पर खरा उतरूं और राम जी की सेना की ओर सहायक समाहित किया जाऊं, अपनी करनी की वजह से ऐसा हल्का व अयोग्य न हो जाऊं कि रावण की सेना में बहाल होने योग्य हो जाऊं।
मेरे इस प्रयास में अनेक अग्रजों और अनुजों का हाथ रहा है। मेरे माता-पिता और सम्पूर्ण परिवार का आभार। मैं अनुज मित्र शास्त्री कोसलेन्द्रदास का योगदान कभी भुला नहीं सकता। राम जी की कृपा से हम यों ही संभलकर चलते रहें, ताकि हमसे किसी को अन्यथा कोई रत्ती भर भी हानि न हो। और जब महाराज जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी हमारे साथ हैं, तो फिर पीछ़े मुडक़र क्या देखना, आइए, चले चलते हैं बोलते हुए... सीताराम सीताराम...
२५ अगस्त २०१३, जयपुर