Saturday 29 March 2014

जय गंगा, जय नर्मदा - ६

भाग - ६

यह जो कहा गया कि नर्मदा जी पुण्यशालिनी हैं, अद्भुत नदी हैं, यह कोई सामान्य लोगों ने नहीं कहां, महात्माओं ने कहा, जिनको दिव्य दृष्टि थी, जैसे अर्जुन को कृष्ण ने दी थी। जिन लोगों को सम्पूर्ण संयम-नियम करके गुरुकृपा, पितरों की कृपा से, ईश्वर की कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई थी, उन लोगों ने कहा। तभी तो कबीर कहते हैं - और कहें कागज की लेखी, कबीरा कहे आंखों की देखी। जो दृष्टि दी थी कृष्ण ने अर्जुन को, वही कबीर को भी उनके गुरु ने दी। सत्संग किया, पुण्य मिला। इसलिए नर्मदा और यमुना, सरस्वती, कावेरी और सरयू इत्यादि जो नदियां हैं, जिनको हम लोग पुण्य नदी कहते हैं, ये पुण्य नदियां आराध्यस्वरूपा हैं। उनका जो लौकिक पक्ष है, उसकी भी समालोचना होनी चाहिए और उनकी आध्यात्मिक समालोचना भी होनी चाहिए।
मैं आपको जीवन से जुड़ी एक घटना सुनाता हूं। मैं ऐसे ही ठहरा हुआ था, कोई सत्संग था जबलपुर में, पुलिस का पहरा लगा हुआ था, शौकिया लोगों ने पुलिस लगा रखी थी, पुलिस वाले राइफल लेकर ड्यूटी देते थे। हालांकि मुझे कोई भय नहीं था। एक रात पहरे पर लगे पुलिस वाले ने देखा कि जटा जिसकी जमीन में लग रही है, लंगोटी पहना है, हाथ में कमंडल है, एक हाथ में कुल्हाड़ी है, ऐसा एक संत आ रहा है, प्रकाश था, बड़ी-बड़ी लाइटें लगी थीं आश्रम के घाट तक, बीच में कोई मकान, दुकान नहीं था। पुलिस वाले ने सोचा कि कोई नहाने आया होगा, लेकिन समय तो २ बजे रात का था, पर नर्मदा जी में देर तक लोग नहाते हैं, जैसे-जैसे वह संत पास आते गए, उनका तेजस्वी स्वरूप पुलिस वाले को ध्वस्त करता गया, जब वो संत मेरे कमरे के करीब आ गए, तो पुलिस वाला सहन नहीं कर पाया, तेजस्वी स्वरूप को, जाकर बिस्तर पर लेट गया, बेहोश हो गया, जब ड्यूटी बदली, तो उसे उठाया गया, चार बजे ड्यूटी बदलनी थी, पांच बज गए, उसे हिलाया, जगाया, तो वह बेहोश था। पैर दबाया, पानी दिया मुंह में, अंत में उस पुलिस वाले ने आंख खोला, होश संभाला, तो कहा कि ये-ये घटना हुई, मैं सहन नहीं कर पाया, उस संत के तेज को, महाराज के कमरे के पास तक जब वो संत आ गए, तो मैंने समझा कि खड़ा रहना कठिन है, अब बिस्तर पर लेट जाना चाहिए।
यह घटना मुझे सुनाई गई। उसका चिकित्सकीय परीक्षण हुआ, वह डर गया था। आ गए महाराज जी, आ गए, वह बोलता रहता था।
नर्मदा जी के किनारे कहा जाता है कि इतने सिद्ध हैं, जिनके कमंडल भी आपस में टकराते हैं। इतने सिद्ध चलते हैं परिक्रमा में, जरा सोचिए। मैंने कहा, यह तो अद्भुत हो गया। बाद में मैंने बहुत आभार व्यक्त किया कि मैं छोटा आदमी हूं, आपकी कृपा हुई कि आपने इस तरह के महात्मा को मेरे पास भेजा। यह आभार आपका कभी नहीं भूलूंगा। ऐसी ही कृपा बनी रहे।
आपको ध्यान होगा, जबलपुर में भूकंप आया था। हम एक भंडारा करते है, वैशाख पूर्णिमा पर १२ घंटा चलता है, मैं वहां था। ३६ घंटे तक भंडार बनता रहता है, एक दिन पहले ही बनना शुरू हो जाएगा, रात्रि भर बनेगा, दिन भर बनेगा। उसका आयोजन हो रहा था, तब मैं कमरे में सो रहा था, पहले कमरा बंद नहीं किया था, बाद में लोगों ने बाहर से ताला बंद कर दिया। बीच में मैं उठा, आंख खुली, मैंने भीतर से दरवाजा बंद कर दिया। कमरा बंद करने के बाद मैं साधु वाले छोटे वेश में ही सो गया। भू-कंपन होने लगा, चौकी हिल रही थी, खूब तीव्रता के साथ, मैं समझ गया, भूकंप आ गया, प्रलयंकारी आवाज हो रही थी, मैंने सोचा, बाहर जाऊं, यदि वहीं जमीन फट जाए, तो निश्चित है मर जाऊंगा। जाने की क्या आवश्यकता है, यहीं लेटा रहता हूं, राम-राम कहता हूं, देखूंगा कि भगवान को सेवा की आवश्यकता हो तो मुझे रखें, वरना नहीं तो छत गिरे और यहीं मर जाऊं। भगवान दुखद भी हैं और सुखद भी हैं। विष्णु सहस्रनाम में भगवान के दोनों स्वरूपों का वर्णन है, दुखद भी, सुखद भी। सुख भी देते हैं, दुख भी देते हैं, मारने वाले वही हैं, बचाने वाले भी वही हैं। मैंने सोचा लेटे रहता हूं और स्वयं को राम जी पर छोड़ दिया। मंत्र जपने लगा - श्रीराम: शरणं मम।
मैं प्रसन्न था कि मैं सबसे बड़ी परीक्षा देने जा रहा हूं कि भगवान को रामनरेशाचार्य की आवश्यकता है या नहीं, नहीं हो, तो ले चलें। करवट भी नहीं बदला। खुश था। जब पूरी तैयारी हो, तो क्या डरना, पूरी तैयारी थी, सही काम वही होगा, जो राम जी को मंजूर होगा। जबलपुर के आश्रम में नर्मदा तट की यह घटना है।
बाद में लोगों को मेरी याद आई, लोगों ने बाहर से कमरे का ताला खोला, दरवाजा भीतर से बंद था, तो लोगों ने कहा कि खोला जाए, कहा लोगों ने कि क्षमा चाहते हैं। सुरक्षा के लिए हमने ताला लगवा दिया था।
तब जन हानि तो कम हुई थी, लेकिन माल हानि बहुत हुई थी, भूकंप बहुत बड़ा था। इन सभी चमत्कारों के आधार पर नर्मदा जी में हमारी निष्ठा का विकास हुआ और हमने भरपूर निष्ठा के साथ उनकी परिक्रमा की। नर्मदा जी से जो हमारी उपलब्धि हुई, उस पर हम इतना ही कह सकते हैं कि जीवन धन्य हो गया। जो लोग भी नर्मदा परिक्रमा में मेरे  साथ गए, वे कह सकते हैं कि मेरा जीवन तो अब धन्य होगा, अब कुछ करें या नहीं करें, इस तरह का भाव मुझमें भी आया। लेकिन सबसे बड़ी बात, नर्मदा परिक्रमा का एक जो स्वरूप है, जो निर्मित हुई, जो लोग गए थे, १२५ के करीब लोग थे, सभी लोगों को धन्यता का बोध हुआ। किसी ने नहीं कहा साथ चलने वाले को कि हटिएगा हमें आगे चलना है, कोई महिला औैर पुरुष लंगड़ा रहा है, तो लोग पीछे ही रहते थे, सभी लोगों ने नंगे पांव यात्रा की। मेरे पांव में कांटे भी गड़ गए थे, लोग बोलते थे कि निकाल दिए जाएं, मैं कहता था, इनकी भी परिक्रमा करा देता हूं, न जाने कौन से जीव हैं।
क्रमश:

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