Saturday 29 March 2014

जय गंगा, जय नर्मदा - ७

समापन भाग
महाराज के चरण में विद्वान श्री राधेश्याम धूत जी और ज्ञानेश उपाध्याय, चित्र - श्री हिमांशु व्यास जी ने लिए हैं.

नर्मदा में मेरी आस्था का विकास हुआ, धन्यता बोध हुआ और धर्म में धारणा का विकास हुआ। सबलोग अलग-अलग होने पर किसी को कोई शिकायत नहीं थी, आरोप नहीं था, किसी ने कोई भी गलत बात नहीं की और नर्मदा परिक्रमा में लोग पैसा भी कमाते हैं, मैंने कहा था कि श्रीमठ के दो पैसे लग जाएंगे, किन्तु अपने को परिक्रमा कराकर दो रुपए भी नहीं चाहिए। जबकि हम चाहते, तो लाखों-लाखों रुपया मिल जाता। उस समय बड़ा आनंद हुआ। स्वामी रामानन्दाचार्य जी के दोनों तट पर आश्रम थे, इतने आश्रम नर्मदा के तट पर किसी दूसरी परंपरा के नहीं थे। उन सभी समूहों ने मेरी और मेरे लोगों के लिए पलक पांवड़े बिछा दिए। उत्तराधिकारी होने का मुझे लाभ मिला। स्वामी रामानन्दाचार्य का मैं उत्तराधिकारी हूं और उन्हीं की तपस्या का, उनकी परंपरा का जो प्रयास है, उसका फल हम लोगों को मिला, जो सामान हम ले गए थे, वैसे ही लेकर लौट आए। कहीं हमारी पोटली गेहूं, चावल इत्यादि की नहीं खुली। गद्दी संभालते हुए पांच प्रतिशत जो हमने भी प्रयास किया है इतने दिनों तक, इसके लिए भी जो स्वागत लोगों ने किया, मैं धन्य हो गया। यदि मेरा कोई योगदान नहीं होता, तो लोग कहते कि आप रामानन्दाचार्य हो गए, किन्तु आपने कुछ नहीं किया, किन्तु मेरा योगदान मात्र ५ प्रतिशत है। ९५ प्रतिशत से स्वामी जी का ही काम है। उनके आश्रम नर्मदा परिक्रमा के मार्ग में बिछे हुए हैं। जैसा स्वागत उन्होंने किया, वैसा स्वागत आजतक मेरा हुआ ही नहीं। जहां मैं जाता था, लगता था जैसे वनवासियों के यहां राम जी आ गए हैं और वनवासी धन्य हो रहे हैं। नर्मदा जी की कृपा से मैं भी धन्य हो गया।

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