Wednesday 25 February 2015

सर्वथा अनिन्दिता सीता

भाग - 5
दो बातें हनुमान जी ने उत्तर के रूप में कही, 'आपने जो कहा, वह स्त्री स्वभाव के ही अनुकूल है, स्त्रियों में भिरुता होती है, वह आपमें भी है, कई ऐेसे स्वभाव जो शास्त्रों में वर्णित हैं, स्त्रियों के लिए, उसमें भीरुता भी है। सतियों का जो विनय है, मर्यादा है, जो पर पुरुष का स्पर्श नहीं करतीं, जो पतिव्रता हैं, पतिव्रता अपने पति के अतिरिक्त किसी को देखती नहीं, किसी के साथ कोई भी सम्बंध नहीं रखतीं, उसके अनुरूप भी आपने कहा, मैं संतुष्ट हूं। स्त्री स्वभाव के कारण आप समर्थ नहीं हैं सागर को पार करने में, मेरी पीठ पर बैठकर सप्तयोजन, ४०० कोस के विस्तारित समुद्र को आप पार नहीं कर सकतीं। दूसरा जो कारण है, आपने जो बतलाया कि रामजी के अतिरिक्त किसी का स्पर्श मैं नहीं कर सकती, तो यह बिल्कुल सही है। आप भगवान राम की पत्नी हैं, जो परामात्मा हैं, आपने निर्णय लिया, ठीक लिया। जो मैं ले जाना चाहता था, आपने मना किया, राम जी के अनुरूप ही आपने यह विचार व्यक्त किया, आपके अतिरिक्त कौन है, जो इस तरह के विचार व्यक्त कर सकता है? आप जैसी केवल आप ही हैं, जैसे गगन के समान केवल गगन ही है, उसकी दूसरे से तुलना नहीं की जा सकती, आपके अतिरिक्त आपके जैसा कोई नहीं है।'
हनुमान जी के मन में आया, हनुमान जी सफाई दे रहे हैं। राम जी का ध्यान करके उन्होंने जानकी जी को कहा, 'जो आपने कहा, जो आपने चेष्टा की रोदन की, निराशाएं आपने व्यक्ति की, उसको भगवान देख भी रहे हैं, सुन भी रहे हैं, वे सामान्य लोगों की तरह नहीं हैं कि वे हमारी बातों को सुन नहीं रहे हों। राम जी सब देख रहे हैं। मैंने बहुत से कारणों को ध्यान में रखकर निवेदन किया था, पहला कारण था, रामजी मेरे अत्यंत प्रिय हैं और उनके लिए मैं सुख देने वाला उनको उत्साह देने वाला उनको जीवन देने वाला उनको निराशा सागर से बाहर करने वाला, उनके लिए ही काम करूं, यही काम था कि मैं आपको लेकर जाऊं, राम जी की चिंता के संपादन के लिए मैंने यह कहा था। राम जी के स्नेह से भरा मेरा निवेदन था, मेरा मन पिघला हुआ था, इसलिए मैंने कहा, आप मेरे साथ चलिए और कोई कारण नहीं था। मैंने लंका में प्रवेश किया, समुद्र को भी आसानी से पार किया, इसलिए आप मेरे साथ चलें, मैं चाहता था कि आज ही आप मेरे साथ चलतीं, किन्तु आपने मुझे मना किया। भगवान की शपथ खाकर कहता हूं, मेरे मन में कोई अन्यथा प्रयोजन नहीं था कि मैंने आपको चलने के लिए कहा। यदि आप नहीं जाती हैं, तो आप कोई चिन्ह मुझे दें, जिसे लेकर मैं राम जी के पास जाऊं, ताकि उन्हें विश्वास दिलाऊं कि मेरी मुलाकात जगदंबा जानकी जी के साथ हुई, उन्हें पीडि़त करते रावण और राक्षसियों को मैंने देखा, आप कोई चिन्ह दें, तो मेरे लिए आसान हो जाएगा प्रमाणित करना कि मैं आपसे मिला।'
हनुमान जी अभिज्ञान की मांग करते हैं, जानकी जी ने चूड़ामणि निकाल कर हनुमान जी प्रदान की। राम जी से जुड़ा एक गुप्त प्रसंग भी बताया कि एक दिन जानकी जी राम जी के पास बैठी हुई थीं, इंद्र पुत्र जयंत कौवा का वेश बनाकर आया और उनके स्तनों के बीच प्रहार किया, बहुत भगाने की कोशिश की जानकी जी ने, वह बार-बार आता था, उसने प्रहार करके रक्तरंजित कर दिया, राम जी के ऊपर रक्त की बूंदें गिरी गरम-गरम तो राम जी उठे, उन्होंने एक तिनका लेकर उसे ब्रह्मास्त्र से शक्तिशाली बनाकर कौवा रूपी जयंत के पीछे लगा दिया, जयंत भागने लगा, जगह-जगह, तमाम देवताओं के पास गया, पिता इन्द्र के पास गया, ब्रह्मा जी के पास गया, अनेक ऋषियों के पास, कहीं भी किसी ने उसे शरण नहीं दी कि तू रामद्रोही है, तेरी सहायता कौन करे। अंत में जयंत राम जी के चरणों में ही आ गिरा, राम जी ने कहा, तू बड़ा पापी है, मैं अपनी पत्नी के साथ था, यह विधवा नहीं, अनाथ नहीं है, तूने इतना बड़ा दुस्साहस किया, तू कितना बड़ा दुष्ट है, किन्तु तू मेरी शरण में आ गया है, मैं शरण में आए हुए को मार नहीं सकता, तुझे जीवन दान देता हूं, किन्तु तेरी दाहिनी आंख यह ब्रह्मास्त्र जरूर लेगा।
यह प्रसंग जानकी जी ने सुनाया और कहा, 'यह प्रसंग केवल रामजी और मैं जानती हूं। जब मिलना, तो राम जी से कहना, मुझ दुखयारी को लेने के लिए जल्दी आवें।' 

क्रमशः

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