Saturday 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र


नित नई राह निकाल बढ़े

महाराज गाधि जी के पुत्र थे विश्वामित्र जी। राज परिवार के थे, क्षत्रिय वंश में समाज के विस्तार का, शक्तियों को बढ़ाने का शौक होता है, बहुत तरह की अच्छाइयां और बुराइयां होती हैं। वे प्रजापालक भी थे, लोगों के संरक्षण की चिंता करना, अच्छे राजाओं में इनकी गणना होती थी, ये पुरुषार्थी राजा थे, यह नहीं कि दूसरे के द्वारा अर्जित धन संपदा से ही संतुष्ट हो गए, दूसरों से अर्जित करके ही जीवन जीने का उनमें विश्वास नहीं था। एक पुरुषार्थी अपने जीवन में जिन ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है, वैसा उन्होंने किया। केवल मनोरथ करने से किसी की सिद्धि नहीं होती, जंगल का सिंह भी अगर बैठा रहे या सोया रहे, तो उसके पास कोई भी नहीं आएगा। राजा को ही प्रयास करना पड़ता है। जब कोई पुरुषार्थी होगा, तभी तो उसके मनोरथ पूरे होंगे। वे जीवन भर पुरुषार्थ करते रहे। कभी विराम नहीं लिया। भगवान की दया से ईश्वर के आशीर्वाद से इन्हें सभी क्षेत्रों में सफलता मिली। उनके जीवन से सबसे बड़ी प्रेरणा ही यही है कि व्यक्ति को पुरुषार्थी होना चाहिए। अच्छी चीजों के लिए प्रयास करना चाहिए। जो जीवन को समृद्ध करने वाला है, जो समाज को समृद्ध करने वाला है, मानवता को समृद्ध करने वाला है, इस तरह के पुरुषार्थ को कभी बंद नहीं करना चाहिए। निष्क्रिय जीवन ठीक नहीं है। पूर्णता के बाद भी पुरुषार्थ नहीं छोडऩा चाहिए। पुरुषार्थ को कभी विराम नहीं देना चाहिए। उसे कुंठित नहीं करना चाहिए। जीवन में जो भी शक्ति मिली है, उसके साथ हमें लगे रहना चाहिए, परिवार, समाज के लिए, अपने लिए। जीवन के सभी क्षेत्रों में विश्वामित्र जी ने काम किया, विद्या, तप के क्षेत्र में, राजा के क्षेत्र में भी, बल के क्षेत्र में भी, अनेक तरह की सिद्धियों को प्राप्त किया। सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि ब्रह्मणत्व को प्राप्त कर लिया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया और संतों की सर्वश्रेष्ठ ऊंचाई को प्राप्त किया। 
विश्वामित्र जी का जीवन अद्भुत जीवन है, उनके जीवन से सनातन वैदिक धर्म की उदारता का भी परिचय मिलता है।
ईसाइयों का सबसे प्रमुख देश अमरीका है, जो दुनिया का नेतृत्व कर रहा है, अमरीका दुनिया के संरक्षक के रूप में स्वयं को देखता है और उसकी मान्यता भी है, तो अमरीका का जो प्रजातांत्रिक जीवन है, उस जीवन में भी उद्धार आसान नहीं है।
वरिष्ठ जॉर्ज बुश के कार्यकाल में एक अश्वेत व्यक्ति को संतत्व की उपाधि मिली। ईसाई धर्म को इससे पहले २ हजार साल हो गए थे, किसी भी अश्वेत आदमी को संतत्व हासिल नहीं हुआ था। किसी अश्वेत व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ाया गया था, लेकिन अपने वैदिक सनातन धर्म में उदारता महत्वपूर्ण है, अनुकरणीय है, यहां क्षत्रिय ब्रह्मर्षि हो गया। जब उन्होंने प्रयास किया राजर्षि से ब्रह्मर्षि होने का, तो विधिवत सम्मान हुआ, ब्रह्मा ने भी उन्हें मान्यता प्रदान की और महर्षि वशिष्ठ ने भी कहा कि ये ब्रह्मर्षि हैं, उन्हें गले लगाया, उनका अभिनंदन किया। इससे सनातन धर्म की उदारता ही प्रकट होती है। रंग के आधार पर यदि धर्म का या गरिमा का या ऊंचाई का निर्धारण हो, तो वह कौन-सा मानव धर्म हुआ, वह ऐसे में विश्व धर्म या मानव धर्म नहीं हो सकता। जो जिसके लायक है, जिस गरिमा को प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहा है, सही ऊंचाई पर पहुंचता है, तो उसे यथोचित पद मिलना चाहिए। किन्तु दूसरे संप्रदायों में इस गुण का बहुत अभाव रहा है। सिख पंथ में तो गुरु परंपरा को ही विराम दे दिया गया, गुरुग्रंथ साहब को ही गुरु के रूप में मान लिया गया। क्या यह सोचने वाली बात नहीं हो गई कि केवल ग्रंथ गुरु कैसे होगा? ग्रंथ को पढऩे वाला, जानने वाला, अपने जीवन में उतारने वाला, उसे दूसरों को समझाने की क्षमता वाला गुरु होता है। हमारे यहां वेदों की अनुपम महिमा है, लेकिन इनको जो समझे, अपने जीवन में उतारे, वही गुरु होगा। चौबीसवें तीर्थंकर के बाद जैनों ने तीर्थंकरों की परंपरा को बंद कर दिया। बौद्ध भी किनारे होने लगे हैं, दलाई लामा निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कोई पूछने वाला नहीं है।
क्रमश:

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