Saturday 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ५
ऐसे धर्म भी हैं, जिनके कथित संतों को भक्तों ने ही मार दिया। दंड विधान था ही नहीं। लोग एक हत्या नहीं झेल पाते, लेकिन यहां सौ पुत्रों की हत्या हो गई, फिर भी वशिष्ठ निर्लिप्त थे, गुणों की क्या ऊंचाई है। ऐसा किसी धर्म में नहीं मिलेगा, मानवता के लिए यह अनुकरणीय है, अच्छे संस्कार होने चाहिए, जो भी अच्छा कार्य करे, उसकी प्रशंसा की प्रवृत्ति होनी चाहिए। हर कोई पवित्र जीवन को प्राप्त करे, बदले की कोई भावना नहीं रहे, तब जो समाज बनेगा, वह वरदान स्वरूप होगा।
वस्तुत: यही जीवन का अद्भुत क्रम है, जो हम विश्वामित्र जी के जीवन में देखते हैं। हम अपने जीवन का ध्यान करें, अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए बल को बढ़ाने के लिए तप को बढ़ाने के लिए, जो भी आंतरिक भावों को बढ़ाने के लिए सकारात्मक है, हम निरंतर साधना करें, तप करें, जप करें, संयम-नियम करें। ऐसा करते-करते धीरे-धीरे हमारा विकास होता जाएगा। हम अपने जीवन को भी सार्थक करेंगे और दूसरे के जीवन को भी। रामराज्य जो दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मानक राज्य है, जहां लोग सभी दृष्टि से संपन्न और आनंदित थे, जहां किसी तरह का संताप नहीं था, जहां किसी तरह का विरोध नहीं था, जहां परस्पर प्रेम था, उस रामराज्य को अनेक लोगों ने अपना बल दिया होगा, प्रयास किया होगा। अपना सर्वस्व अर्पित किया होगा, लेकिन विश्वामित्र जी भी वशिष्ठ जी के समान ही रामराज्य के संस्थापकों में गिने जा सकते हैं। यह अद्भुत घटना है, राम जी पहली बार विश्वामित्र जी के आचार्यत्व में ही घर से निकलते हैं। ईश्वर मानवता के लिए ही आता है, समाज के परिष्कार के लिए आता है, वैदिक सनातन धर्म की यही मान्यता है। धर्म का सबसे बड़ा स्वरूप यज्ञ को माना जाता है। धर्म के अनेक रूप है, दान भी धर्म है, दया भी धर्म है, सेवा भी धर्म है, तीर्थाटन भी धर्म है, माता-पिता गुरु, गऊ, दरिद्रनारायण की सेवा भी धर्म है, धर्म के अनेक विकल्प हैं, लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान यज्ञ का है। देवताओं को सम्बोधित करके जब समर्पण होता है, तब यज्ञ संपन्न होता है।
तो भगवान के अवतारों में आदर्श अवतार है भगवान श्री राम का। धर्म के सर्वश्रेष्ठ कर्म के संपादन के लिए यज्ञ की सुरक्षा में अपने को अर्पित करने के लिए विश्वामित्र जी के आचार्यत्व में अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ राम जी वन जाते हैं। तैंतीस हजार वर्षों का काल है राम जी का, लेकिन कर्म का पहला प्रयोग, उसके लिए जो पहली यात्रा हुई, वह विश्वामित्र जी के साथ ही शुरू हुई। कौन सेवा के क्षेत्र में, धर्म के क्षेत्र में लेने आया, कौन लेकर गया, यह बहुत महत्व रखता है। विश्वामित्र जी ने ही राम जी को मांगा और दशरथ जी से मांगकर ले गए। उन्हें मालूम था कि भगवान प्रकट हुए हैं, मैं अयोध्या जाऊंगा, तब राम जी मिलेंगे।
राम जी लौकिक दृष्टि से विश्वामित्र जी के भी शिष्य हैं। व्यावहारिक दृष्टि से मानवीय दृष्टि से विश्वामित्र जी को शाष्टांग प्रणाम करते हैं, लेकिन वास्तव में विश्वामित्र जी भक्त हैं राम जी के। उन्हें मालूम है कि मैंने जो तप किया था, उसका फल हैं राम जी। फल देने वाले भी यही हैं और मुख्य लक्ष्य भी यही हैं, उनके लिए ही मैंने तप किया था। विश्वामित्र जी ले गए राम जी को यज्ञ रक्षा के लिए। पहले यह बात समझ में नहीं आ रही थी महाराजा दशरथ जी को, राम जी को भेजने को तैयार नहीं हो रहे थे। 
दशरथ जी को राम जी बहुत प्रिय थे, प्रेम अतुलनीय था, अपने प्राणों से अधिक पे्रम वे अपने पुत्र राम जी से करते थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि वशिष्ठ जी ने कहा कि मैं लेकर आता हूं, दशरथ जी राम जी को भेजने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं, मैं समझाऊंगा, तैयार करूंगा।
क्रमश:

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