Saturday 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ४
बाद में वे राजर्षी के रूप में प्रतिष्ठित हुए, लेकिन यहां भी मेनका के सौंदर्य ने उन्हें पराजित कर दिया, तपश्चर्या को नष्ट कर लिया। काम ने उनके तप को निगल लिया। तब उन्हें ग्लानि हुई, लज्जा हुई, इसके बाद उन्होंने फिर तपस्या की। उनका दुनिया भर में डंका बजा। इसके बाद के घटनाक्रम में विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी के पुत्रों को मार दिया।
ध्यान देने की बात है, काम और क्रोध, दोनों ही तपश्चर्या के घोर विरोधी हैं। जब हम आध्यात्मिक जीवन में कुछ करना चाहते हैं, तो हमें अनेक तरह के दुर्गुणों से बचना चाहिए। अवरोधकों से हमें दूरी बनाकर रखना चाहिए। सबसे मुख्य है कि हमें काम और क्रोध से बचना चाहिए। विश्वामित्र जी तो दोनों से ही पराजित हो रहे हैं। मेनका के रूप में काम ने पराजित कर दिया और क्रोध के रूप में विश्वामित्र जी के पुत्रों को मारकर अपने तपस्वी जीवन को लांछित कर लिया। जो काम और क्रोध पर ही विजय नहीं प्राप्त करेगा, वह कभी जीवन के सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ऊंचाई को प्राप्त नहीं कर सकता, कभी ऋषित्व को प्राप्त नहीं कर सकता, ईश्वरीय जीवन को प्राप्त नहीं कर सकता, वह अपने जीवन की परमावस्था को नहीं प्राप्त सकता। ऐसी स्थिति में सौ बच्चों की हानि के बावजूद वशिष्ठ जी का चित्त अत्यंत व्यवस्थित था, कहीं से कोई चिंता नहीं, कहीं से कोई लांछना नहीं, कहीं से कोई भेद नहीं, पूर्ण रूप से वे शांत हैं। कहीं भी कितनी भी बड़ी हानि हो जाए, लेकिन मन में विकृति नहीं आनी चाहिए, तभी आदमी आध्यात्मिक जीवन में ऊंचाई प्राप्त करता है।
जब वशिष्ठ जी शांत रहे, तो यह बात विश्वामित्र जी को बहुत खली। उन्हें लगा कि राजर्षित्व से ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त करना चाहिए। ऐसे कर्मों से तो कोई राजर्षि नहीं बनता था, तो ब्रह्मर्षि क्या बनेगा? गलत आचरण वाला, काम, क्रोध का शिकार व्यक्ति संत कैसे होगा? जो ऋषि के ही पुत्रों को मार दे, वह संत कैसे बनेगा, उन्हें ग्लानि हुई, उन्होंने नए सिरे से अपने जीवन को संवारा। अद्भुत तप किया। जो लोग ऊंचाई पर जाने का प्रयास करते हैं, उन्हें प्रलोभन मिलते हैं, लेकिन भटकना नहीं चाहिए। दृष्टि अपने लक्ष्य पर रहनी चाहिए। जो आकाश पर जा रहा है, वही जमीन पर गिरता है। तप के क्रम में उन्होंने काम और क्रोध पर विजय प्राप्त की, इस क्रम में अनेक तरह के विघ्नों को उन्होंने पार किया। वे ऋषित्व की विशिष्टतम स्थिति में पहुंचे। उनका संपूर्ण संसार जय-जयकार करने लगा। उन्होंने सभी देवताओं, ऋषियों को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी आए और कहा कि मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम वरदान मांगो।
तब ब्रह्मा जी को उन्होंने कहा कि आप मुझे वरदान दीजिए ब्रह्मर्षि बनने का। उन्होंने कहा, वशिष्ठ जी यदि ये उपाधि दें, सम्मान से दें, तब मुझे संतोष होगा। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से वशिष्ठ जी आए, वशिष्ठ जी विश्वामित्र जी भी के तप के बारे में जानते थे, इसलिए विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि मनाने में देर नहीं की।
ब्रह्मर्षि के रूप में उन्होंने विश्वामित्र को सम्मान दिया। प्रसन्नता व्यक्त की। इस घटना के बाद विश्वामित्र जी सर्वश्रेष्ठ ऊंचाई पर पहुंचे। लेकिन सबसे बड़ी ऊंचाई तो सनातन धर्म की हुई, यहां केवल प्रभाव से उपाधियां नहीं मिलतीं, आध्यात्मिक जगत में कोई संस्था उपाधि नहीं बांटती, लोग उपाधि नहीं बांटते। जब तक व्यक्ति सही मायने में ऊंचाई पर नहीं पहुंचते, तब तक उन्हें स्वीकार नहीं किया जाता। विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी का कितना विरोध किया था, कितना लांछित किया था, इसके बावजूद वशिष्ठ जी में लालसा नहीं थी। दुनिया के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना है।
इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिए कि अपना दुश्मन भी अगर सुधार करता है, आंतरिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठ गुणों, मानवता को वरदान स्वरूप जो ऊंचाई को प्राप्त करता है, तो उसे हमें सहर्ष गले लगाना है और अपनी हानि के बावजूद उसे सम्मान देना है। किसी तरह का विद्वेष नहीं रखना है, लेकिन आज की दुनिया में यह काम बंद हो गया है, आज जो संत समाज है, आज जो साधकों का समाज है, उसमें यह काम कम हुआ है, लेकिन वास्तव में सनातन धर्म में ऐसा नहीं होना चाहिए।
क्रमश:

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