Monday 27 August 2018

बच्चों को महामानव बनाएं

भाग - ३
सनातन धर्म में ऐसे विवरण आते हैं कि शिशु ने मां के गर्भ में ही वातावरण को, विचारों-संस्कारों को दृढ़ता के साथ ग्रहण कर लिया, जिससे उसका जीवन उज्ज्वल हो गया, पूर्णता की ओर बढ़ गया। अपने लिए और समस्त संसार के लिए वह वरदान स्वरूप हो गया। हमारे यहां पहले से ही इसकी तैयारी हो जाती है। भगवान की दया से, इसीलिए पुराणों को सुनाना और हरवंश पुराण को सुनाने की परंपरा है। रामायण, भागवत सुनाने की परंपरा है। संयमित रहना, गलत लोगों के साथ उठना-बैठना बंद करके रहना, ये सारी परंपराएं हैं। 
संसार में अनेक महापुरुष गर्भाधान के समय मिले ज्ञान-संस्कार के कारण जीवन में सर्वोच्च स्थान को प्राप्त हुए हैं। जब बच्चे का जन्म हुआ, तो कहां से शुरुआत करें? सबसे मु़ख्य बात तो यह है कि उसे शब्द की शिक्षा दी जाए कि ये क्या है, वो क्या है। जैसे हमने पढ़ा था कि शब्द के अर्थ का ज्ञान कई तरह से होता है, वह शब्दकोश से भी होता है, जिसमें लिखा है किस शब्द का क्या अर्थ है। जो श्रेष्ठ जन हैं, उनके वाक्य से भी होता है, लेकिन व्यवहार से भी शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है। इसलिए कहा गया है -
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च
वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यत: सिद्धपदस्य वृद्धा:
यह बहुत महत्वपूर्ण वाक्य है, जो बतलाता है कि शब्द के अर्थ का ज्ञान कैसे होता है। घर के बड़े लोग जैसा व्यवहार करते हैं, उनको देखकर भी नवजात शिशु ग्रहण करता है कि किसको लोटा बोलते हैं, किसको थाली बोलते हैं। जैसे बोलते हैं किसी को कि लोटा लाओ, तो कोई व्यक्ति उठता है और लोटा लाता है, तो ये बच्चे ने देखा कि किस बर्तन विशेष को लोटा कहा गया। बच्चा जान लेता है कि किसको लोटा बोलते हैं। घर के लोगों के व्यवहार से वह अनेक शब्द के अर्थ सीखता है। कुछ शब्द के अर्थ बतलाते भी हैं, कि यह तुम्हारी माता हैं, ये तुम्हारे पिता हैं, ये चाचा हैं, इनको भाई बोलते हैं, इसको गाय बोलते हैं, बिल्ली बोलते हैं, इत्यादि। तो शब्द के अर्थ का ऐसे ज्ञान कराते हैं अभिभावक। 
मेरा यहां अपने शास्त्रों के आधार पर सुझाव है कि शास्त्रों के अभिप्राय का एक प्रकाशन है कि हम उन तथ्यों से भी बच्चों को शुरू में ही परिचित कराएं, जो हमारे जीवन को उन्नत बनाते हैं, जो परिपक्व जीवन देते हैं, जिनसे हमारा जीवन सभी दृष्टि से सुंदर-सुडौल व अन्य लोगों के लिए भी उपकारक, सार्थक हो। 
इसके साथ ही, हमें भगवान के नामों को बच्चों को सुनाना चाहिए। जो ईश्वरवाचक शब्द हैं, जो ईश्वर के सम्बंध को हमें बतलाते हैं, ऐसे शब्दों के अर्थ को भी प्राथमिकता के साथ बतलाना चाहिए। हमारे यहां बतलाया जाता है, वेदों में पढ़ाया जाता है, जिसका व्याख्यान आचार्यों ने किया कि जीव निरंजन है, वह भगवान का ही अंश है, तुम केवल हाड़ मांस के पुतले नहीं हो, केवल दुख के आधार नहीं हो, तुम कुरूप नहीं हो, तुम लांछित नहीं हो, तुम भी वैसे हो, जैसे ईश्वर है।  
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि 
- तुम शुद्ध हो। तुममें कहीं से कोई विकार नहीं, कहीं से कुरूपता नहीं। तुम बुद्ध हो, तुम ज्ञान के स्वरूप हो, तुम आनंद स्वरूप हो, तुम सत्य स्वरूप हो और ऐसा ही ईश्वर है। तुम ईश्वर के अंश हो। तुम वही हो, इसलिए ब्रह्म का अंश हो। इसका परिणाम यह होगा कि बच्चा प्रारंभ से ही परिपूर्ण जीवन को पाएगा। हर माता-पिता को जिस ईश्वर के हम अंश हैं, उसे समर्पित होकर बच्चों को पालना चाहिए, जिससे जीवन पूर्णता को प्राप्त होगा। यही समाज, राष्ट्र, संपूर्ण मानवता की पूर्णता है। बच्चा ऐसा होगा, तो परिवार की परिपूर्णता का भी साधन होगा। वह संपूर्ण मानवता का प्रकाशक होगा। हम जानेंगे कि कितना अच्छा जीवन है। 
क्रमश:

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