Monday 29 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - १०
छोटी आयु में मैं एक परिवार में गया था, बिहार में। उस परिवार में कोई बच्चा बड़ों के सामने बैठता नहीं था। खटिया नहीं बिछती थी दिन में, चौकियां बिछती थीं, दिन में बच्चे बड़ों के सामने खड़े ही रहते थे और रात में भी। बैठने के लिए जहां एकांत है, वहां जाते थे, जहां बड़ों की दृष्टि नहीं जा रही हो। और ये ऐसे बच्चे थे, जो कॉलेज, विश्वविद्यालय में टॉपर थे, भगवान ने उन्हें सबकुछ दे रखा था। जब भगवान की आरती होती थी, तो महिलाएं पर्दा के पीछे से, और सभी लोग आरती में हाथ जोडक़र खड़े रहते थे। अभी तो भगवान की आरती में भी लोग हाथ जोडक़र खड़े नहीं रहते हैं। ऐसे खड़े रहते हैं, मानो सडक़ पर खड़े हों। पता नहीं चलता कि उन्हें ईश्वर की कोई चेतना है भी या नहीं। तो मैं उस परिवार के बच्चों को देखकर हैरान था। मेरे पास तब साधन नहीं था, ज्ञान का प्रभाव भी ज्यादा नहीं था, किन्तु वो बच्चे मेरे सामने भी नहीं बैठते थे। जिस परिवार में हमारा जन्म हुआ, उस परिवार से कई गुना बड़ा वह परिवार था। जहां हर पुरुष को एक नौकर, हर महिला को एक नौकरानी, पूरे साधन, वाहन, वैभव था उस परिवार में, किन्तु संस्कार ऐसे कि परिवार के बच्चे बड़ों के सामने नहीं बैठते थे।
अब तो पिता खड़े रहते हैं और बच्चा उनके सामने ही धम्म से बैठ जाता है। आज बहुएं भी दीवार से पीठ लगाकर बैठ जाती हैं, और बूढ़ी मां, सासू मां आईं, तो न बैठने को बोलती हैं और न दीवार छोडक़र खड़ी होती हैं, जबकि बुढ़ापे में दीवार का सहारा उपयोगी है, सुकून देने वाला है। 
हमें लोगों को शिक्षित करना ही होगा। हमें संपूर्ण मूल्यों को बाल्यावस्था में अत्यंत दृढ़ता से समझाना है। परोक्ष ज्ञान, अपरोक्ष ज्ञान और चरित्र में उतारना। इसके लिए आवश्यक है कि हम जीवन के अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष, ये चार जो हमारी इच्छाओं के मुख्य विषय हैं उनको समझें। हमारी जितनी इच्छाएं होती हैं, उन्हें चार भाग में बांटा जाता है। पहले मैं बतला चुका हूं, इसी को पुरुषार्थ कहते हैं। जिसे पुरुष चाहता है। हम धन चाहते हैं, हम भोग चाहते हैं, काम को भोग कहते हैं, हम धर्म चाहते हैं और हम मोक्ष चाहते हैं। हम बच्चों को बताएं कि हमें कैसे धन लेना है, ऐसा नहीं कि किसी की जेब से निकाल लिया। पिताजी से मांग करके लेना है, चुराकर कभी नहीं लेना है। 
दान में अभी बड़ी विडंबना है, धन का अर्जन धर्म की प्रक्रिया से नहीं हो रहा है। धन न्याय से अर्जित नहीं हो रहा है। शास्त्रीय प्रक्रिया से जो धन अर्जित किया जा रहा है, उसे जब हम दूसरों को दें, तो यह दान कहलाता है। 
कोई चुरा कर दान दे, तो वह दान लेने वाले को भी मारेगा और देने वाले को भी मारेगा। ऐसे ही इधर-उधर से चुरा करके, लूटपाट करके, अमानवीय व्यवहार करके धन कमाकर दान देने से धर्म की हानि हो रही है। गलत दान लेने वाले ऋषियों, संतों की हानि हो रही है। ऐसे ही परिवार की भी हानि हो रही है। कई लोग ऐसा बोलते हैं कि व्यापारी को तो झूठ बोलना ही पड़ेगा, बड़ा आदमी झूठ बोले बगैर आगे बढ़ेगा ही नहीं, किन्तु इसीलिए तो परिवार नष्ट हो रहे हैं। धन आ गया, किन्तु चला गया। करोड़ों-करोड़ों रुपए लोगों के पास आ जाते हैं, किन्तु एक मिनट में चले भी जाते हैं। ऐसा धन इसलिए चला जाता है, क्योंकि वह धन शास्त्रीय प्रक्रिया से अर्जित नहीं किया गया है। 
जब मैं छोटा था, तब एक बहुत बड़े परिवार में मैं गुरुजी के साथ गया। उस परिवापर के बारे में मैं पहले बता चुका हूं। तो गुरुजी ने मुझे पुकारा, ‘रामनरेशदास जी...,’ 
मेरे गुरुजी मुझे ‘जी’ लगा कर कहते थे, मेरी छोटी आयु से ही। मैं उन्हें बोलता था कि मैं शिष्य हूं, कुछ भी ज्ञान नहीं है, तो आप ‘जी’ क्यों बोलते हैं? रामनरेशदास क्यों नहीं बोलते? 
गुरुजी बोलते थे, ‘आपको बड़ा संत बनाना है, इसलिए मैं आपको अभी से आदर के साथ बुलाता हूं। मेरी बड़ी शुभकामना है।’ 
बड़ा जिसे बनाना है, उसे बड़ी बात सिखलाइए, बड़ा परिवेश दीजिए, बड़ा व्यवहार दीजिए, तो उन्होंने पुकारा, ‘रामनरेशदास जी।’
मैंने कहा, ‘हां... हां।’ 
तो बड़े परिवार के जो वरिष्ठ व्यक्ति थे, उन्होंने मुझसे तत्काल पूछा, ‘आपका कहां घर है?’ 
मैंने बतला दिया कि इस गांव में, तब उन्होंने कहा, ‘तब आपका उत्तर ठीक है, हां, क्योंकि आपके गांव का संस्कार बहुत उन्नत नहीं है।’ 
मुझे उन्होंने दबोचा। मैं पहले ही बतला चुका हूं कि वह परिवार कितना संस्कारवान था। जहां लोग कैसे जीवन जीते हैं। कोई बच्चा बैठता नहीं था बड़ों के सामने। मालिक जब भोजन करते थे, तब सबको पूछकर भोजन करते थे। सबने भोजन कर लिया क्या, ये मैंने आंखों से देखा, कानों से सुना। जब उनको कहा जाता कि सबने भोजन कर लिया, तब भोजन करते थे। वे अपने अंत समय में काशी आए, तो छोटे पोते-पोतियां, भतीजों और अंत में अपने नौकर को भी पूछते थे कि तुमने भोजन कर लिया दरभंगा। नौकर का नाम दरभंगा था। वह छोटी आयु से उनका सेवक था। तो दरभंगा बोलता था, ‘सरकार आपने नहीं किया, तो मैं कैसे कर सकता हूं। मैं तो आपका धूल कण हूं।’ 
कितनी बड़ी बात है। कितना बड़ा आदमी और पूछ करके नौकर से और भोजन कर रहा है अंत में। अभी ये जो सारी परिपाटियां हैं, सबकुछ अकेले-अकेले करने की। छिपाकर करने की और सबको विकृत रूप से प्रस्तुत करने की, तो इसीलिए परिवार टूट रहे हैं। लांछित हो रहे हैं। सबकुछ बंटाधार हो रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। कोई हमें मान दे रहा है, तो हम उस मान को उपहार के रूप में, उसकी शुभकामना के रूप में ग्रहण करें, तो हम भी उसे मान दें। तो हमने जब कहा, ‘हां,’ तो उन्होंने सिखाया, ‘ऐसे नहीं बोलना चाहिए। गुरुजी ने पुकारा, तो जी कहना चाहिए।’ 
वह बात मुझे अभी तक याद रहती है। गुरुजी बोल रहे हैं ‘रामनरेशदास जी।’ और आप बोल रहे हैं ‘हां’। ये क्या है? 
इसका अभिप्राय यह कि ये ही नहीं बोलने आ रहा है, पिता जी पुकारें, तो जी बोलने में क्या दिक्कत है। अफसरों को तो बोलना पड़ता है सर, कोर्ट में बोलना पड़ता है सर। ऐसे ही जिससे दो रुपए लेने हैं, उसे भी कहना पड़ेगा। वरिष्ठों के लिए सर कहना पड़ेगा, किन्तु अब इसका प्रशिक्षण नहीं हो रहा है। 
क्रमश:

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