Friday 19 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ५ 
बच्चों को बांटकर खाने की आदत हो। उसका व्याख्यान, उसका प्रयोग और उसका हर दृष्टि से विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि हम बांट करके खाएं। इसलिए जो मोक्ष का बड़ा स्वरूप है, उसका यही अर्थ है कि भोग में साम्यता होती है। अपने प्रयास से जब जीव मुक्त हो जाता है, तो वह भगवान के बराबर हो जाता है, उसका रूप और उसकी आवाज, इत्यादि सब भगवान स्वरूप हो जाता है। इतना ही नहीं, उसका भोग भी भगवान जैसा हो जाता है। भगवान अपने धाम में जो ग्रहण करते हैं, वही सभी मुक्त जीवों को भी मिलता है। तो भोजन की जो समानता है, भोग की जो समानता, वो बच्चों को शुरू से ही देना चाहिए, जबकि परिवारों में अब बड़ी विकृति आ रही है कि जो ज्यादा कमाने वाले सदस्य हैं, वो अपने बच्चों को ज्यादा खिला देते हैं, कपड़ा भी अलग से, उनकी देख-रेख भी अलग से करते हैं। जो घर में काम या सेवा करने वाले सेवक हैं, उनका भी भोजन अलग कर देते हैं। कई परिवारों में भोजन भी अलग-अलग पकने लगता है। ये जो पद्धति है, नहीं बांटकर खाने वाली, भोजन की समानता से दूर रहने वाली और छिपाकर-छिपकर खाने वाली, ये हमारे जीवन को कभी सार्वभौम स्वरूप नहीं दे पाती। वो उस स्वरूप को नहीं देती, जिसको देखकर मानवता गदगद हो जाए, शरीर तृप्त हो जाए और उसका सौंदर्य भी बढ़ जाए, उसकी व्यापकता बढ़ जाए। 
हमारे बच्चों के प्रशिक्षण की बड़ी अद्भुत बात है। हम सब लोगों को ये ध्यान रखना चाहिए कि जब हम बच्चों को खुशी दें, भोजन, कपड़ा, सम्मान, स्नेह दें, शिक्षा दें, तो उसमें ध्यान रखा जाए कि उसके साथ समानता का व्यवहार हो, उससे उसे उचित संदेश मिले। उसे कहा भी जाए कि बांट करके खाना चाहिए और बांटकर जो खाता है, वही बड़ा मनुष्य होता है। अकेले में नहीं खाना चाहिए। 
इसी अभिप्राय में दान की भी महिमा है, आप कमाए हैं, तो दीजिए दूसरों को। महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है कि जब भरत जी गए राम जी को मनाने के लिए तब राम जी से कहा कि भरत ये तो बतलाओ आपका चेहरा म्लान क्यों है, मुरझाया हुआ है, चेहरा क्यों दिव्य नहीं है, उसकी रशमियां क्यों ओझल हो रही हैं, ये क्या मामला है? राम जी ने कई तरह के प्रश्न किए। ये वाल्मीकि रामायण में है। राम जी ने भरत जी से पूछा, कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपके यहां गायों की सेवा बंद हो गई हो। ऐसा तो नहीं कि आपके यहां वेद ध्वनि नहीं हो रही हो, यज्ञ नहीं हो रहे हों? ऐसा तो नहीं है कि आप भगवान और माता-पिता का आदर नहीं कर रहे, ब्राह्मण का आदर नहीं कर रहे, गायों का नहीं कर रहे? अनेक ऐसे प्रश्न वाल्मीकि रामायण में वर्णित हैं, जो राम जी ने भरत जी की म्लानता को लेकर शंका की थी, उन्होंने अंत में यह भी पूछा था कि ऐसा तो नहीं है कि तुम कहीं अकेले ही तो नहीं खाते हो। 
बांटकर नहीं खाने से भी चेहरा म्लान होता है। बांटकर के खाना चाहिए, नहीं तो कभी भी मनुष्यता विकसित नहीं होती, वरदान नहीं बन पाती, प्रेरक नहीं बन पाती। 
वाल्मीकि रामायण के इस प्रसंग को तुलसीदास जी ने तुरंत ले लिया और बड़े ही मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया। राम जी चरण पादुका देकर भरत जी को विदा कर रहे हैं। तुलसीदास जी ने लिखा है कि भरत जी सोच रहे थे, चरण पादुका तो मिल गई, किन्तु वे चिंतित थे कि चरण पादुका को राजा बनाकर १४ वर्षों तक कैसे रहूंगा। भगवान ने चरण पादुका तो दे दिया, लेकिन चरण पादुका रखने से ही राज्य की सेवा कैसे की जाएगी। १४ वर्षों तक चरण पादुका जी को राजा मानकर, उन्हीं से आज्ञा लेकर भरत जी ने राम राज्य की नींव रखी। राम राज्य की सेवा की और खूब-खूब यशस्वी और कारगर राज्य विकसित किया। भरत जी इस बात के लिए सूत्र चाहते थे। भरत जी चरण पदुका को अत्यंत आदर के साथ सिर पर धारण करके राम जी के चरणों में ध्यान लगाए हुए थे कि अब भइया, हमें बतलाएंगे कि वो क्या सूत्र है। राम राज्य का सूत्र केवल सेना नहीं, बड़े-बड़े हथियार और तमाम तरह की गाडिय़ां नहीं, और तमाम तरह के जीतने के, सुयश के जो संसाधन होते हैं, वो नहीं हैं। रामराज्य तभी स्थापित होगा, जब हम बांटकर खाएंगे। हम भोजन में समानता का परिचय देंगे, तो वहां तुलसीदास जी ने एक चौपाई लिख दिया कि मुखिया को कैसा होना चाहिए, मुखिया जो परिवार का बड़ा है, अपने संस्थान का बड़ा है। तो उसके लिए वाल्मीकि रामायण से प्रेरित चौपाई है। रामजी ने सूत्र दिया कि यदि तुम्हें रामराज्य स्थापित करना है, यदि तुम्हें यशस्वी राजा बनना है, तो चरण पादुका के माध्यम से, सेवा के माध्यम से, तो इसको ध्यान में रखो - 
मुखिया मुखु सो चाहिए, खान पान कहुं एक।
पालइ-पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।
मुखिया को मुख के समान होना चाहिए। जैसे मुख खाता है, जिससे पोषक सामग्री शरीर के भीतर जाती है और उससे जो ऊर्जा मिलती है, रक्त बनता है, तमाम तरह के पोषक तत्व बनते हैं, तो सारे पोषक तत्व मुंह में नहीं आ जाते। जिस अंग को जितनी जरूरत है, बिना भेदभाव किए, बिना विषमता किए, सभी अंगों को आवश्यकता अनुरूप शक्ति-पोषकता प्राप्त होती है। सारा पोषक तत्व केवल मुंह ही रखने लगे, तो मुंह इतना बड़ा हो जाएगा, राक्षस जैसा दिखने लगेगा, भयावह हो जाएगा। हमें यह उपदेश बार-बार देना चाहिए कि बच्चे बांटकर खाना खाएं, सभी तो अपने भाई हैं, सभी तो अपने परिवार के लोग हैं, सबके साथ खेलते हो, तो खाओ बांटकर, तो हमारा जीवन वरदान हो जाएगा - अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपनी जाति के लिए और अपने राष्ट्र के लिए, संपूर्ण मानवता के लिए। 
क्रमश:

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