Sunday 5 May 2019

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

भाग - 5
मुझे तो कोई मित्र मिलता ही नहीं था। छोटी आयु में भगवान ने मेरी बनावट ऐसी की थी कि मेरी किसी से मित्रता नहीं होती थी। मेरे जीवन से दूसरों का ऐसा अंतर होता था कि मैं कह नहीं पाता था और न कोई मुझे मित्र कह पाता था। साधु जीवन में आने पर भी लोग मुझे मित्र कहने में हिचकते हैं। एक बार एक आदमी ने कहा कि मैं उनका मित्र हूं, तो उठ के चल पड़ा, कैसा मित्र? कहां उनका जीवन, एक घंटा लगाते थे कपड़ा पहनने में, अपनी दाढ़ी दांत से ही काटते रहते थे, वो बाद में बिगड़ गए, किसी युवती के साथ जुड़ गए। संन्यासी जीवन उनका गड़बड़ा गया। पहनने का ठिकाना नहीं, कभी इधर देखेगा, कभी उधर देखेगा। स्वभाव, उद्देश्य, ज्ञान, विज्ञान की साम्यता नहीं, तो कैसी मित्रता? हमने सोचा कि भगवान को ही मित्र बनाएंगे। 
राम जी को सखा भाव बहुत प्रिय है। अंगद को भी राम जी सखा बोलते हैं। नल, नील को भी बोलते हैं। लगता है कि पूरे संसार के जीवों को भगवान सखा मान रहे हैं। कोल, भील, किरात, किसी को नौकर नहीं मान रहे हैं। 
जब राम जी अयोध्या आए, तो वानरों की ओर संकेत करके गुरु वशिष्ठ से कहा कि ये मेरे मित्र हैं। इन्होंने मेरे युद्ध रूपी जहाज को संभाला। राम जी ने सुग्रीव को मित्र बनाया, किन्तु जब सुग्रीव को समझ आ गई, तो वह स्वयं को राम जी का दास ही मान रहा था। पूर्ण समर्पण भी ईश्वर के साथ। पूर्ण समर्पण पार्टी, जाति, परिवार को नहीं करना है। जिसने हमें पूर्ण जीवन दिया है, जिससे जुडक़र ही पूर्णता हुई है, उसी को समर्पित होना है। अपने समस्त कर्मों को ईश्वरीय चासनी में भिगोना होगा। वैसा ही करना होगा, जैसा ईश्वर करते हैं और जैसा वे सबसे चाहते हैं। 
प्रह्लाद जी ने कहा कि वाणी, आंखें, मन भी, हमारे हाथ भी, हमारे पैर भी, हमारा रोम-रोम, हमारी सांस-सांस, हमारी चेष्टा, इन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां, परमेन्द्रियां भगवान के लिए समर्पित और श्रेष्ठ जीवन की हैं। यह मोक्षीय व्यवहार है। मैं कहना चाह रहा हूं, जीवन का जो सर्वश्रेष्ठ व्यवहार का स्वरूप है, वह यही है कि हम ईश्वर के लिए अपने संपूर्ण जीवन को समर्पित करें। उसके लिए ज्ञान, शिक्षा की संप्राप्ति करके जीवन जीएं। यह सृष्टि और समाज का वरदान जीवन होगा। जिन संतों ने, जिन ऋषियों ने, जिन समाजसेवियों ने संपूर्ण रीति से अपने को समर्पित कर दिया, सृष्टि के लिए संसार के लिए वही बड़े लोग इतिहास में हैं। इनमें जाति का बंधन नहीं है, कोई भी हो सकता है। 
महात्मा गांधी का जन्म वैश्य परिवार में हुआ था, कभी चर्चा नहीं होती कि बनिया राष्ट्रपिता कैसे हो गया। उस समय किसी का व्यक्तित्व नहीं था वैसा। अपने को ईश्वर के लिए समर्पित कर देना। उन्होंने अपने को राष्ट्र को पूर्ण समर्पित कर दिया, तो उन्हें राष्ट्रपिता बना दिया गया। यहां जाति नहीं चलती। रूप नहीं चला, बहुत लोग विद्वान थे, गांधी जी से भी धनवान थे, तमाम तरह की बातें बड़ी थीं, किन्तु गांधी जी ही महान कहलाए। वैसे ही जीव जब ईश्वर को अपना संपूर्ण अर्पित करता है, तो ही आगे बढ़ता है। 
प्रह्लाद जी के पिता के मन में यह बात समा नहीं रही थी कि मेरे अतिरिक्त कोई ईश्वर शक्तिशाली है। मेरा बेटा ही मुझे ईश्वर नहीं मान रहा है, यह कोई बेटा है क्या? जो आदमी बड़े उद्देश्य का होता है, वह छोटे उद्देश्य वालों को बड़ा ही बेकार लगता है। हिरण्यकश्यप मान रहे हैं कि बेटा मेरा दुश्मन है। विपरीत धारा वाला है। प्रह्लाद जी जीवन के सर्वश्रेष्ठ मोक्षीय व्यवहार के बहुत बड़े उदाहरण हैं। मोक्ष अंतिम व्यवहार और परम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है। ईश्वर के बढ़े अनुग्रह से असंख्य जीवन के पुण्य प्रभाव से जो मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है, जो परम लाभ है, यह जीवन - ऋषि जीवन है। 
यह परमार्थ नहीं है, यह व्यवहार है। जैसे सिर पर सामान रखकर बेचना, कुदाल चलाना, छोटी-मोटी नौकरी करना व्यापार है, वैसे ही लाखों लोगों को जीवन देना, मकान देना, यह भी तो व्यापार है। वैसे ही व्यवहार की पराकाष्ठा सबसे बड़ी ऊंचाई। उसके सामने एवरेस्ट की ऊंचाई तक कम है। और ऊंचाई...ऊंचाई का जो अंतिम स्वरूप है, वह व्यवहार है मोक्षीय व्यवहार। 
क्रमश:

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