भाग - २
जब से सृष्टि हुई, ब्राह्मण कभी आगे नहीं आते थे, अपने शिष्यों को राज्य संचालन-संरक्षण के लिए शिक्षित, प्रशिक्षित और प्रेरित करते थे। पीछे से संपूर्ण शक्ति, ज्ञान का स्रोत, संपूर्ण व्यावहारिक संस्कारों का स्रोत, संपूर्ण हमदर्दी का स्रोत उनके पास होता था। वस्तुत: तो पुरोहित ही राजा होता था। राज्य में अकाल पड़ गया, तो पुरोहित ही समाधान करता था कि वर्षा कैसे होगी, किसी भी तरह के संकट के समय उपाय करता था, समाधान खोजता था।
रघुवंश के ही एक प्रतापी राजा दिलीप को संतति नहीं हो रही थी, तो वशिष्ठ जी ने कहा कि नंदिनी की सेवा करो, कामधेनु की बेटी है। कामधेनु का अपमान हो गया है, आप कहीं से आ रहे थे, रास्ते में कामधेनु थी, लेकिन आपने उनका सम्मान नहीं किया, इसी कारण आपका वंश रुक गया। उसके बाद वशिष्ठ के निर्देश के अनुसार, राजा ने नंदिनी की सेवा की। राजा स्वयं गाय चराने जा रहा है, विश्व के इतिहास में यह अनोखी घटना है कि दुनिया का सबसे प्रतापी राजा रोज गाय चराने जाता है, गाय खड़ी होती है, तो खड़ा होना, जहां जा रही हो, वहां जाना, हवा के समान उस गऊ का अनुसरण करना।
कितनी ऊर्जा थी कि किसी राजा को संतति चाहिए, तो पुरोहित को मालूम है कि क्यों संतति रुक गई। राजा को गऊ के पीछे लगा देना, गऊ की हर सेवा में अपने को समर्पित कर देना, उससे पुण्य की प्राप्ति होना, उससे पुत्र की प्राप्ति होना, यह कोई मामूली बात नहीं है। केवल पंचांग देखकर पूजा करवा देना ही पुरोहित का काम नहीं है।
मैंने पढ़ा है कि एक राजा ने वशिष्ठ जी के बिना ही यज्ञ करवा दिया, तो वशिष्ठ जी ने शापित कर दिया, अरे, मैं पुरोहित हूं, तुमने दूसरे पुरोहित से यज्ञ करवा लिया, मैं कहीं चला गया, तो तुम मेरी प्रतीक्षा न कर सके। उसे शापित करके मनुष्य योनि से वंचित कर दिया। बाद में लोगों ने उन्हें समझाया। तो इतनी शक्ति थी गुरु वशिष्ठ में। अनुग्रह और निग्रह की अपार शक्ति गुरु वशिष्ठ के पास थी, तो कहने का अर्थ यह है कि पुरोहित अपने जजमान का संपूर्ण ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक आर्थिक विकास करता था, उसमें सहायक बनता है।
बहुत महत्वपूर्ण भूमिका गुरु वशिष्ठ की है। इस भूमिका का इतने लंबे समय तक उन्होंने निर्वाह किया। जिस वंश का विश्व में कितना बड़ा योगदान है, राम जी जिस वंश में हुए। ईश्वर अवतार लेता ही रहता है, अपनी सृष्टि की देखभाल करता है, जो कमी आ रही है, उसे दूर करना, साधुजनों का सम्मान करना, संरक्षण करना, साधुजनों को दिव्य लाभ देना। राम जी को सबल बनाने में वशिष्ठ जी का भी बहुत बड़ा योगदान है।
दशरथ जी की तीन रानियों को कोई संतति नहीं हो रही थी। सभी ओर से हतोत्साहित होकर, कहीं से जब उपाय नहीं दिखा, तब गुरु वशिष्ठ को कहा। तब गुरु ने कहा कि हां, आपको पुत्र की प्राप्ति होगी। फिर यज्ञ हुआ, तो राम जी आए, राम जी को प्रकट कराने के अन्य कई कारण हैं, अन्य कई भूमिकाएं हैं, कई लोगों को श्रेय मिलेगा, लेकिन मुख्य श्रेय गुरु वशिष्ठ को मिलेगा। यदि ईश्वर प्रगट होता है, तो कोई साधारण घटना नहीं होती। सुप्रीम पावर मनुष्य रूप में आए, यह कोई मामूली बात नहीं है। राम के रूप में ईश्वर सुप्रीम रूप में प्रगट हुए, इसका एक कारण वशिष्ठ भी थे, उनकी भूमिका अनुपम है।
उनका यज्ञ समाधान यज्ञ होता है। समाधान भी गुरु वशिष्ठ ने ही किया। उन्होंने दशरथ जी से कहा,
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन विदित भगत भय हारी।
उन्होंने कहा कि आपको चार पुत्र होंगे। स्वयं चरम शक्ति आपको पुत्र के रूप में प्राप्त होगी। किसी काल में वशिष्ठ जी ने ही राजा भगीरथ को ऐसे तैयार किया था कि वे गंगा को धरा पर लाने में समर्थ हो गए। वशिष्ठ जी के काल में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, वो रामराज्य में सहायक बनीं। यदि ऐसा कहा जाए कि राम राज्य रूपी महल के संबल थे वशिष्ठ जी, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। रामजी जंगल जाते हैं १४ वर्ष तक भरत राज्य का संचालन करते हैं, भरत जी राम जी को मनाने जाते हैं, प्रजा के साथ गुरु वशिष्ठ भी जाते हैं और पूरा प्रयास करते हैं कि राम जी लौट आएं। लौटकर प्रजा को प्रसन्न करें, प्रजा दुखी हो रही है। भरत को ऐसा राज्य नहीं चाहिए। उसमें भी मुख्य भूमिका है वशिष्ठ जी की। यदि नहीं आते हैं राम, तो चरण पादुका का लाभ हुआ, तो बड़ी सांत्वना भरत जी को राम जी की ओर से मिल गई। उसी को सिंहासन पर प्रतिष्ठित करके भरत जी ने १४ वर्ष तक राज्य का संचालन किया, इस राज्य के मुख्य केन्द्र गुरु वशिष्ठ जी ही रहे। भरत जी तो नंदीग्राम में रहते थे और चरण पादुका और गुरु वशिष्ठ जी से आज्ञा मांगकर सलाह लेकर प्रेरणा लेकर, उनका भाव समझकर, उनके चरणों की छाया, उनके दिव्य व्यक्तित्व की छाया में संपूर्ण राज्य का संचालन करते थे। तो अभिप्राय यह है कि वशिष्ठ जी ने अपने ज्ञान-पुण्य प्रताप से रघुवंश को ऊंचाई पर पहुंचा दिया।
क्रमश:
(महर्षि वशिष्ठ पर केन्द्रित महाराज के प्रवचन के संपादित अंश)
कुछ गुरु प्रारंभिक शिक्षा के होते हैं, तो कुछ मध्य शिक्षा के और कुछ अंत शिक्षा के होते हैं और उतने ही काल तक उनकी भूमिका रहती है। शिक्षक और गुरु का जो दायरा है, उसी में वे जुड़े रहते हैं। कोई-कोई गुरु ऐसे भी होते हैं, जो जीवन भर जुड़े रहते हैं। जरूरी है कि गुरु का ज्ञान बड़ा हो, व्यावहारिकता बहुत अच्छी हो, बच्चों या शिष्यों को जोडक़र रखने की कला हो। गुरु जो शिष्यों की गतिविधियों को बल देता हो, तो क्रम बना रहता है जीवन भर, लेकिन दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। गुरु वशिष्ठ का जो लंबा क्रम था, एक तो वे कुल पुरोहित थे, वे केवल राम जी के गुरु नहीं थे, दिलीप और रघु के गुरु नहीं थे, वे संपूर्ण रघुवंश के पुरोहित नियुक्त हुए थे। पुरोहित तमाम तरह की पारिवारिक, सामाजिक गतिविधियों और संस्कारों की गतिविधियों से, बुराइयों से बचाने की अनेक गतिविधियों से जुड़ा रहता है। सत्यनारायण कथा भी हो, तो पुरोहित के बिना नहीं होती। विवाह हो या मुंडन हो, पुरोहित के बिना कोई भी संस्कार संभव नहीं है। नामकरण संस्कार, विद्यारम्भ संस्कार, जनेऊ संस्कार, गर्भाधान संस्कार से लेकर अंतिम संस्कार तक, संपूर्ण कार्य पुरोहित के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। यह बड़ी खासियत थी कि वशिष्ठ जी कुल पुरोहित के साथ-साथ जीवन को आलोकित करने वाला जो संपूर्ण ज्ञान है, वैदिक सनातन धर्म का जो सार सर्वस्व है, जो परम रहस्य है, उसके भी ज्ञाता थे। वे शिक्षा देने का भी काम करते थे। उन्होंने ज्योतिष व अन्य तमाम तरह के ज्ञान प्राप्त थे। लौकिक जीवन में जिन संस्कारों की जरूरत होती है, जैसे तंत्र-मंत्र की जरूरत होती है, उसके भी वशिष्ठ जी ज्ञाता थे, इसलिए ऐसा कोई राजा इस वंश में नहीं हुआ है, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ है, जो वशिष्ठ से न जुड़ा हो। कई बार गुरु अपने कई दुव्र्यसनों के कारण भी जजमान परिवार से दूर हो जाता है, लेकिन गुरु वशिष्ठ जी में किसी तरह का वैसा दुव्र्यसन या दुव्र्यवहार नहीं था, किसी तरह की कुचेष्टा नहीं थी, जो उन्हें रघुवंश से दूर करती है, अत्यंत समर्पित रहने के कारण वे निरंतर रघुवंश से जुड़े रहे।
रघुवंश का पुरोहित उन्हें उनके पिताश्री ने ही बनवाया था। वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि रघुवंशियों या सूर्यवंशियों के कुल पुरोहित बन जाओ, तो उन्होंने कुछ अरुचि जताई। यह बहुत अच्छा कर्म नहीं है, ऐसा सीधे कहा तो नहीं, क्योंकि इससे पिता की आज्ञा का उल्लंघन होता था, लेकिन जितना उत्साह होना चाहिए था, जितना आनंद होना चाहिए, उतना उन्हें नहीं हुआ था। ब्रह्मा जी समझ गए कि पुत्र को पुरोहित बनने के लिए जाना है, इसलिए उसका मन ठीक नहीं लग रहा। यह आम धारणा रही है कि पुरोहिती को कोई अच्छा काम नहीं माना गया। वैसे अपने यहां पुरोहित का बहुत महत्व है, अगर यह नहीं हो, तो सारा संसार भ्रष्ट हो जाए।
वैसे आज गर्भाधान संस्कार, नामकरण संस्कार इत्यादि अनेक संस्कार हैं, जो नहीं होते हैं। खाने-पीने में लोग पैसा लगाते हैं, लेकिन मूल संस्कार कर्म में नहीं लगाते हैं। फिर भी यह धारणा है, पुरोहिती को कभी प्रशस्त कर्म नहीं माना गया है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। फिर भी पिता की आज्ञा का पालन वशिष्ठ जी ने किया, रघुकुल के पुरोहित हो गए। कुल पुरोहित का अर्थ है, किसी भी तरह की कोई समस्या आती है, किसी भी तरह का व्यवधान आता है, तो पुरोहित आगे बढक़र जजमान को मार्ग दिखाए। पुरोहित बनकर वशिष्ठ जी ने समग्र रघुवंश की सेवा की। रघुवंश को संसार का सबसे बड़ा और सबसे अच्छा वंश कहा जाए, तो कुछ भी गलत नहीं होगा। वशिष्ठ जी ने अपने संपूर्ण ज्ञान से इस वंश को पाला, विकसित किया और समृद्ध बनाया। वे केवल पूजा-पाठ ही नहीं करवाते थे, केवल शिक्षा देने तक ही वे सीमित नहीं थे, संपूर्ण गतिविधियों का संपादन उनके द्वारा होता था। रघुवंश में कोई भी निर्णय या पहल गुरु वशिष्ठ के बिना संभव नहीं था। उनसे सम्मति ली जाती थी, इसलिए दूसरे गुरुओं से बिल्कुल अलग वशिष्ठ का व्यापक सम्बंध अपने जजमान परिवार के साथ था। कुल पुरोहित को किसी तरह की कमी नहीं होती थी, संपूर्ण साधन उसके पास होते थे।
पुरोहित को राजा समान समझा जाता था, जजमान अपने पुरोहित को संपूर्ण समृद्धियों से सज्जित करते रहते थे, लगता था, जैसे राजा ही हैं, कोई साधन विहीन ब्राह्मण नहीं हैं, अध्यापक या पुरोहित नहीं हैं। संपूर्ण समृद्धियों से भरा-पूरा उनका जीवन रहता था। वशिष्ठ जी तो केवल पुरोहित ही नहीं, बहुत पहुंचे हुए ऋषि थे। ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में उनकी गणना है। भगवान की दया से उन्होंने तप, संयम, नियम, शुद्ध आहार और विचार से संपन्न संपूर्ण जीवन जिया, किसी तरह की कमी नहीं थी।
क्रमश:
समापन भाग
जो वेद तत्व हैं, वो अनादि है और उसका जो परिष्कार हुआ, वेदों, इतिहासों पुराणों के रूप में। कबीरदास हुए, संत ज्ञानेश्वर जी हुए, तुकाराम जी हुए, भारत के हर प्रांत में एक से बढक़र एक संत हुए। ईश्वर में कितनी शक्ति है कि उसकी ऊर्जा ने अनेक संतों को उत्पन्न कर दिया।
स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, जो गृहस्थ के रूप में रहते थे, किन्तु तब भी उन्होंने ऊंचे संतत्व को प्राप्त किया। आज संसार में संतत्व को महत्वपूर्ण रूप में देखना चाहिए। जैसे सूर्य, ग्रह नक्षत्र तारे हैं, ठीक उसी तरह से ईश्वर जो सबसे बड़े सूर्य हैं, लेकिन उनकी भावनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने का काम संतों ने हमेशा ही किया है। मैं किसी संत विशेष की बात नहीं कर रहा हूं, किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि संतत्व संसार से कभी खत्म नहीं होगा।
मैं तो मोहम्मद साहब और ईसा मसीह को भी मान देता हूं। अजमेर वाले ख्वाजा गरीबनवाज भी सूफी संत थे। सूफी संतों में अनेक ऐसे हुए हैं, जो अहं ब्रह्मास्मि कहते थे, एक ऐसे सूफी संत की हत्या कर दी गई। जब उन्हें जलाकर राख समुद्र में फेंकी गई, तो उसमें से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आई, जिसने उस जल को पिया उसके पेट से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आने लगी। उस सूफी संत ने कितना तप किया होगा, सोचकर देखिए। जिसने उन्हें मरवाया था, उसने भी जब जल पिया, तो उसके पेट से भी आवाज आने लगी अहं ब्रह्मास्मि। कितना संयम किया होगा, कितना तप किया होगा, तभी तो ऐसी शक्ति अर्जित हुई।
हम लोगों की यह भावना है कि संसार के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हुए हैं। खान-पान, चिंतन बदला है, किन्तु ऐसे परिवेश में भी संतत्व कहीं भी निखर सकता है, संतत्व लाखों-लाखों को प्रेरित करता है। लोगों को संयम के लिए प्रेरित करना, अच्छाई की ओर प्रेरित करना, दुराचार को रोकने का प्रयास करना, समाज को ईश्वर की ऊंचाई की ओर ले जाना। यहां तो तोते को भी राम राम रटवाने की परंपरा रही है। पशु-पक्षी सारा वातावरण ईश्वरीय हो। रामायण, योगदर्शन, पुराणों में लिखा है कि व्यक्ति पूर्णत: अहिंसक हो जाए, तो साक्षात विरोधी जो जीव हैं, उनमें भी अहिंसा की भावना आ जाती है। यदि आप सच्चे अहिंसक हो जाएं, तो आपके पास सांप और नेवले भी साथ-साथ आ जाएंगे, वे भी अपना परस्पर विरोध छोड़ देंगे। परस्पर शाश्वत विरोध वाले बाघ और हिरण एक साथ ऋषियों के आश्रम में रहते थे, कोई किसी को परेशान नहीं करता था। प्रेम का वातावरण संत बनाते हैं। दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओं, प्रशासनिक, वैज्ञानिक व्यवस्थाओं में उतना दम नहीं है, जितना संतों की व्यवस्था में दम है। अत: ईश्वरीय समाज का, ईश्वरीय भावना के अनुरूप समाज का निर्माण होना चाहिए।
आज नेताओं को देखिए। उनमें आवश्यक गुण नहीं हैं। संसदीय प्रणाली जैसी होनी चाहिए, लोकतंत्र के लिए, वैसी नहीं है। यदि नेताओं में लोकतांत्रिक भाव ही ठीक से नहीं है, तो ईश्वरीय भाव कहां से आएगा? ईश्वरीय संसार को ईश्वरीय शक्ति के माध्यम से ही ईश्वरीय वातावरण देने का एकमात्र जो कारण है, उसी का नाम संतत्व है। संतत्व कभी नष्ट नहीं होता। अभी अनेक संत संसार की श्रेष्ठ सेवा कर रहे हैं। देश और दुनिया में ऐसे असंख्य लोग हैं, जो ईश्वरीय जीवन को जी रहे हैं।
जय श्रीराम
भाग - ५
आज हमें प्रयास करना है कि इस संसार में अच्छाई को बल मिले, सभी में ईवरीय जीवन वितरित हो, धैर्य का जीवन वितरित हो। संतों, ऋषियों को अपनी ऊर्जा का ध्यान रखना चाहिए, उन्हें पता होना चाहिए कि ऊर्जा कहां लगानी है। ताडक़ा, सुबाहू को तो विश्वामित्र जी भी मार सकते थे, लेकिन वे अपनी तप-जप शक्ति को नष्ट करना नहीं चाहते थे, इसलिए राम-लक्ष्मण जी को मांगकर ले गए और राक्षसों के आतंक को कम करवाया, जिससे यज्ञ संभव हुए।
तो संतों के श्रेष्ठ जीवन की बड़ी लंबी परंपरा है, इसमें अब शिथिलता आई है। युगों का परिवर्तन होता रहता है, जब कलयुग समाप्त हो जाएगा, तब पुन: सतयुग आएगा, सभी भावों में परिष्कार आ जाएगा, सही भावों में मजबूती आ जाएगी।
संतों के सम्बंध में अपने मनोबल और मनोभावों को यह सोचकर दूषित नहीं करना चाहिए कि अब संत नहीं रहे। ईश्वर की फैक्ट्री बंद होने वाली नहीं है। एक फैक्ट्री बंद होती है, तो तमाम फेक्ट्रियां खुल जाती हैं। जो ईश्वर की प्रक्रिया है, उसमें कभी भी संतत्व लुप्त नहीं होता है, क्योंकि संत तो ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। संत में गुणवत्ता की कमी आ जाना संभव है, लेकिन संतत्व पूरी तरह से कभी लुप्त नहीं होता।
लोगों को आज आशंका होती है, संतों पर प्रश्न उठते हैं। फिर भी यदि विवेचना की जाए, तो अनेक ऐसे संत मिलेंगे, जिनका जीवन पवित्र है, जो पूरा जीवन समाज के लिए लगा रहे हैं, कहीं से भी जिनमें कोई बुराई नहीं है। अनेक संत उत्तम निर्माण में लगे हैं। लोगों को परखने में अवश्य परेशानी होती है, वे गलत लोगों को भी संत मान लेते हैं। रजनीश को भी लोगों ने संत मान लिया था, जबकि उनका शास्त्रों, वेदों से लेना-देना नहीं था, जिनका संयम-नियम से लेना-देना नहीं था, जहां सच्चा साधु जीवन नहीं था, जो आदमी यह कह रहा है कि संभोग से समाधि होती है, वह वैदिक सनातन धर्म का कैसे हो सकता है? हमारे चिंतन में यह बात कहीं नहीं दिखाई देती। परिणाम सामने है, आज उन्हें संत के रूप में कम ही लोग याद करते हैं।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि संपूर्ण संतत्व लांछित हो गया है। जैसे कभी मंदी आ जाती है, मजबूती गायब हो जाती है, तो कभी मंदी दूर हो जाती है, मजबूती आ जाती है। परिवर्तन चलता रहता है, ठीक इसी तरह से संतत्व समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। संत के रूप में हमें ईश्वर प्रतिनिधि रूप में प्राप्त हैं।
संत और ईश्वर में अभेद भावना का भी उल्लेख किया गया है। देवर्षि नारद जी स्वयं भी एक संत हैं, हर युग में उनकी उपस्थिति मानी जाती है, वे हमेशा ही रहते हैं। उन्होंने अपने गं्रथ में लिखा है कि संत में और भगवान में कोई भेद नहीं होता। भगवान की जो भावना होती है, जो उसके गुण होते हैं, जो उसकी क्रिया होती है, जिस तरह से परिवर्तन होते हैं, वे सभी संतों में भी होते हैं। रामानंद संप्रदाय में एक संत हुए नाभादास जी, उन्होंने संत चरित्र की रचना की, वे राजस्थान के सीकर में रैवासा पीठ में रहे। उन्होंने भी यही कहा कि भक्त और भगवान में भेद नहीं होता।
सारे वेदों में संत तत्व एक ही है। सारा संसार ईश्वर स्वरूप ही है। जेट चलाने वाले से लेकर रिक्शा चलाने वाले तक ईश्वर की व्याप्ति है, किन्तु सभी लोग एक ऊंचाई के नहीं होते हैं। सबकी अपनी-अपनी ऊंचाई होती है, ठीक उसी तरह से संत एक जैसे नहीं होते, लेकिन संतत्व का जो सही परिमार्जित स्वरूप है, वह ईश्वर की भावना का स्वरूप है। इन्हीं भावों को ईश्वरों ने शास्त्रों के रूप में प्रस्तुत किया। संतों ने ईश्वर के लिए समर्पित होकर शास्त्र ज्ञान को संसार के लिए समर्पित किया।
क्रमश:
भाग - ४
दुनिया के दूसरे देशों में भी संत हुए, लेकिन जितनी समृद्ध परंपरा संतों की भारत में रही है, वैसी कहीं नहीं रही। कल भी नहीं थी और आज भी नहीं है और कल भी नहीं रहेगी। यहां संतत्व की प्राप्ति का बड़ा राजमार्ग था, इस राजमार्ग पर चलकर असंख्य लोग संतत्व को प्राप्त करते थे। इस मार्ग पर चलना है, यह ईश्वरीय मार्ग है, यह खाने-कमाने का मार्ग नहीं है। कहीं भी रहकर संतत्व को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी कमरे में किसी भी क्षेत्र में, भाषा, जाति, समाज, आयु में रहकर संत बना जा सकता है।
रोम-रोम से जैसे ईश्वर का जीवन होता है, वैसे ही संत का जीवन होना चाहिए, कहीं कोई बुराई नहीं, वासना नहीं, कहीं कोई राग, विद्वेष नहीं। कोई दुर्गण उनमें नहीं है, ये लोग घूम-घूमकर संस्कारों का प्रचार करते हैं, असंख्य लोगों को मंगलमय जीवन देते हैं, पूर्ण विश्राम का जीवन देते हैं। अद्भुत जीवन है उनका। ऐसी ही देश में एक लंबी परंपरा चली है, संतत्व जो है, वह सतयुग में भी वैसा ही था, त्रेता में भी और द्वापर में भी ऐसा ही और कलयुग में भी ऐसा ही है।
कौन कितना बड़ा संत है, यह कैसे तय होगा? संत ने ईश्वरीयता को कहां तक प्राप्त किया है और कहां तक प्राप्त नहीं किया है, इससे ही संत के बड़े या छोटे होने का निर्धारण होगा। जिसको ज्ञान नहीं है, वैराग्य, निष्ठा, प्रेम नहीं है, वो संत कैसे बनेगा? कभी भी किसी भी काल में सभी लोग पूर्णत: संतत्व को प्राप्प्त नहीं होते हैं। जो ईश्वरीय कण है, वह सभी में नहीं आता। जैसे सभी लोग वैज्ञानिक नहीं होते, सभी लोग अच्छे खिलाड़ी नहीं होते, सभी लोग बड़े विद्वान नहीं होते, जैसे सभी लोग बलशाली नहीं होते, जैसे सारे लोग योग्य नहीं होते, वैसे ही सभी संतत्व की प्राप्ति में लगे हुए लोग पूर्ण संत नहीं होते। संतत्व आंशिक रूप से आता है, कुछ मात्रा में आता है, आंशिक रूप से आ जाता है, तो भी संत सम्मानित हो जाते हैं।
आजकल संतत्व लांछित हो रहा है, संतों को जो काम करना चाहिए, नित्य अनुष्ठान, संयम, नियम, तप का जो उपक्रम होना चाहिए, वह अब नहीं हो रहा है। संतों को जो काम करने चाहिए, उसमें काफी गिरावट आई है। त्रेता में भी गिरावट आई, कुछ द्वापर में आई और कलयुग में भी गिरावट हुई। इसलिए समाज भी लांछित हो रहे हैं, क्योंकि संतत्व कम हुआ है। संतत्व की प्राप्ति में लगे हर व्यक्ति को देखकर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। अनेक प्रयासरत संतों को देखकर लोगों को लगता है कि अब संत नहीं होते, अब संतों का जीवन सात्विक नहीं रहता। आज ऐसे संत बहुत कम हैं, जिन्हें खाने-पीने, धन की चिंता नहीं है, जिन्हें परिवार और अपनी जाति की चिंता नहीं है। ऐसे संत कम हैं, जिन्होंने स्वयं को संसार को समर्पित कर रखा है।
फिर भी आज समाज में संत की बड़ी उपयोगिता है। आम आदमी में विकार होता है, अपनी कमाई का थोड़ा धर्म पर खर्च करता है, लेकिन सच्चा संत जो भी कमाता है, उसे पूरा का पूरा समाज पर खर्च कर देता है। संत और आम आदमी में यही फर्क है, संत जो भी कमाता है, उसे पूरा खर्च कर सकता है, लेकिन आम आदमी बचत के बारे में सोचता है। कई संत तो कर्ज लेकर भी समाज का भला करते हैं, क्योंकि समाज के कार्य जरूरी हैं। अच्छे संत अपने ऊपर पैसे खर्च नहीं करते। आम आदमी जो भी बल हो, ज्ञान हो, प्रभाव हो, उसका उपयोग अपने लिए, अपने लोगों, अपने परिवार के लिए, अपने सम्बंधियों के लिए करता है और संत का जो स्वभाव है, संत की जो आंतरिक कमाई है, उसे वह संपूर्ण समाज के लिए खर्च करता है। कहीं से उसमें यह भावना नहीं होती कि ये हमारी जाति के हैं, हमारे संपर्क वाले हैं, हमारे सम्बंधी हैं, हमारी भाषा के हैं। जितने जुड़ाव हैं, उन सबसे अलग हटकर संत अपने जीवन को समाज-संसार के लिए अर्पित कर देता है। निश्चित रूप से संसार की जो स्थिति आज है, यदि संतों को घटा दिया जाए, तो लोगों को अच्छा जीवन जीने की कला ही नहीं आएगी।
संत प्रयोगशाला भी होते थे और कारखाना भी। संत लेबोरेटरी भी होते थे और फैक्ट्री भी। संत श्रेष्ठ भावों की प्रयोगशाला होते थे, वे स्वयं में अच्छे मूल्यों का प्रयोग करते थे और दूसरों को भी इसके लिए तैयार करते थे। दूसरों में भी सफल प्रयुक्त-उपयोगी भावों को डालना संतों का ही काम होता है।
महर्षि विश्वामित्र जी के जीवन में ऐसा प्रसंग आता है कि वे जब राजा थे, तब वशिष्ठ जी से पवित्र गऊ कामधेनु पुत्री नन्दिनी मांग रहे थे। जब वे सेना के माध्यम से गाय ले जाने लगे, तब नन्दिनी ने वशिष्ठ से पूछा कि क्या मैं बचने-छूटने का प्रयास करूं। वशिष्ठ जी ने कहा कि करो। नन्दिनी ने तत्काल विशाल सेना को जन्म दिया और विश्वामित्र की सेना पराजित होकर लौटने को मजबूर हो गई। विश्वामित्र ने अनेक प्रकार से वशिष्ठ को कष्ट दिए, उनके पुत्रों को भी मार दिया, लेकिन वशिष्ठ जी कुछ नहीं बोले, कहीं कोई आक्रोश नहीं, विद्वेष नहीं। साधु ऐसे ही होते हैं। इसका प्रभाव विश्वामित्र जी पर पड़ा, वे समझ गए कि राजाओं से भी अधिक शक्ति व महानता साधुओं-ऋषियों के पास है। उन्होंने भी तप-जप-नियम से स्वयं को ब्रह्मर्षि बना लिया।
क्रमश:
भाग - ३
ईश्वर ने संसार को बनाकर छोड़ दिया होता, यदि ऋषियों, संतों, विद्वानों का सृजन नहीं हुआ होता, तो संसार वहीं का वहीं पड़ा रहता। जैसे वेदों ने कहा कि सत्य बोलना चाहिए, सत्यम वद्। वेदों के माध्यम से ईश्वर ने यह बोल दिया, लेकिन वह हर व्यक्ति के पास आकर यह नहीं बोल सकता कि आप सत्य बोलिए, भगवान कितना समय कितने लोगों के साथ बिता सकते हैं, इसीलिए शास्त्रों की रचना हुई, शास्त्रों का अनुसरण करके संतों ने अपने जीवन को अच्छा व धन्य बनाया। संसार में अनेक संतों का प्रादिर्भाव हुआ, न जाने कितने संतों ने संतत्व के विकास के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। संयम, नियम से सज्जित जीवन के माध्यम से ऊंचाई को प्राप्त किया। उन्होंने बार-बार बताया कि मेरा जीवन अपने लिए ही नहीं है, संपूर्ण संसार के लिए है। जैसे सूर्य अपने लिए नहीं उगता, जैसे चांद अपने लिए नहीं उगता, जैसे नदियां अपने लिए नहीं बहतीं, आकाश अपने लिए ही आवागमन की सुविधा नहीं देता, ठीक उसी तरह से संत का जीवन भी दूसरों के लिए है। संत, मुनि जीवन के लोग अपने जीवन को समाज के लिए पूर्णत: समर्पित कर देते हैं, उनमें अपना स्व कुछ नहीं होता, उनमें अपने भोग की भावना नहीं होती। कहीं भी वे शक्ति नष्ट नहीं करते, कहीं मन में कटुता नहीं आती। एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, संपूर्ण जीवन वे ऐसा ही करते चलते हैं। केवल ईश्वरीय भावों को, सर्वश्रेष्ठ भावों को सबको बांटना है। सर्वश्रेष्ठ भावों को अपने जीवन में उतारकर उसका प्रयोग सबको बताना है। कोई भेदभाव नहीं करना है, न जाति का भेदभाव, न क्षेत्र का, न भाषा का, हमें तो बस अच्छी बातें बतलाना है, लोगों को सुशिक्षित बनाना है, सत्य बोलना है और लोगों से बोलवाना है।
सत्य में जो प्रतिष्ठित होता है, वह यदि किसी पापी को भी बोल दे कि तुम स्वर्ग जाओगे, तो पापी को स्वर्ग मिल जाता है, ऐसा योग दर्शन में कहा गया है।
इसमें पैसा नहीं लगता, इसके लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय में डिग्री लेने की जरूरत नहीं है, अखाड़े में जाने की जरूरत नहीं, मैदान में जाने की जरूरत नहीं है, जो जहां पर है, वहीं पर जो ज्ञान हुआ है, जो वस्तु जैसी है, उसका ध्यान करे और उसी के अनुरूप बोले। संसार की बहुत बड़ी समस्या का समाधान केवल सत्य बोलने से हो जाएगा और यही काम संत लोग सदा से करते रहे हैं।
कबीरदास जी की एक कथा है। वे एक दिन बैठकर राम-राम भजन कर रहे थे, तभी एक आदमी भागता हुआ आया और बोला, ‘मुझे बचाओ, कोई मुझे हथियार लेकर मारने के लिए दौड़ा रहा है। बोल रहा है कि मार दूंगा, आप मुझे बचाओ।’
पास ही रुई का ढेर था, कबीरदास जी ने कहा, ‘जाओ, उसमें छिप जाओ।’
वह व्यक्ति बहुत डरा हुआ था, बिना विचार किए वह तत्काल जाकर रुई के ढेर में छिप गया। इसके कुछ ही पल बाद तलवार लिए एक आदमी आया, उसने पूछा, ‘यहां एक आदमी दौड़ता हुआ आया था क्या?’
कबीरदास जी ने कहा, ‘हां, इसी ढेर में छिपा हुआ है।’
हमला करने आए व्यक्ति ने कहा, ‘मुझे मूर्ख बना रहे हो, जिसे मौत का भय होगा, वह रुई के ढेर में छिपेगा क्या? उसमें तो मारना बहुत आसान है, रुई में तो कोई आग लगा देगा, तो छिपा बैठा आदमी मर जाएगा। तलवार से बचना है, तो व्यक्ति कहीं और छिपेगा। वह सोचेगा कि किसी भी तरह से सुरक्षा हो जाए, यह संभव नहीं है कि कोई रुई में छिपे।’
कबीरदास जी ने कहा, ‘मैं कह रहा हूं कि वह यहीं छिपा है।’
हमलावर व्यक्ति को विश्वास नहीं हुआ, वह बुरा-भला कहते आगे बढ़ गया। उसके जाने के कुछ देर बाद रुई में छिपा व्यक्ति बाहर निकला। उसने कबीरदास जी से कहा, ‘आप बाबा बड़े ढोंगी हो, आपने मुझे छिपाया और वह आया तो आपने उसे भी बता दिया कि इसी में छिपा है, आप तो ढोंगी हैं, आप तो जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, मैं तो भाग्य से बच गया।’
कबीरदास जी ने कहा, ‘मैंने तुम्हें रुई से नहीं ढका था, मैंने तुम्हें सत्य से ढका था, सत्य पर कोई तलवार काम नहीं करती। तुम छिपे थे, मैं संत हूं, मैंने ही छिपाया था, मैंने ही कहा कि आप मार दीजिए, लेकिन सत्य इतना मजबूत है कि उस हमलावर को विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे रुई समझ रहा था और मैं सत्य समझ रहा था।’
तो संत लोग अपने प्रत्येक व्यवहार को सत्यतापूर्वक चलाते हैं। संयम, वैराग्य की इच्छा से अपना पूरा जीवन चलाते हैं और समाज में ऐसे श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करते हैं, जिन मूल्यों के कारण मनुष्य मनुष्यता वाला बन जाता है, जिसके कारण मनुष्य देवता तक बन जाता है, चंद्रमा बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र बन जाता है।
क्रमश:
भाग - २
ईश्वर ने अपने प्रतिनिधि के रूप में संतों को भेजा है। जैसे लोकतंत्र प्रतिनिधि तंत्र है, ठीक उसी तरह से संतों का समाज भी ईश्वर का प्रतिनिधि तंत्र है। उसके सभी उद्देश्यों, सभी इच्छाओं, सभी लीलाओं, क्रियाओं, सभी व्यवस्थाओं को संत जन समाज कल्याण के लिए प्रयुक्त करते हैं। संत स्वयं को केवल समाज के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए, केवल मानवता के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण प्राणियों के लिए समर्पित करके सबके विकास को गति देते हैं।
संसार में साधुओं, संतों का बड़ा काम है। संतों ने मानव समाजों को ईश्वरीय ज्ञान से जोड़ा, संस्कारों से जोड़ा, जीवन जीने की कला से जोड़ा है। विकास की तमाम क्रियाओं से जोड़ा है और सबकुछ इतना अच्छा किया कि पूरा संसार उनकी ओर देखता है। ऐसे बड़े कामों के लिए, लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए संत का बड़ा अच्छा और वैसा ही सही स्वरूप होना चाहिए, जैसे ईश्वर के किसी प्रतिनिधि का होना चाहिए।
आज यह हमें जानना होगा कि संत का सही स्वरूप क्या होता है। जब वह अपने ज्ञान द्वारा ईश्वर को समझ लेता है, अपनी भक्ति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, अपनी शरणागति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है और उसके गुणों से युक्त हो जाता है, जब उसी तरह से अपने संपूर्ण जीवन को संसार का जीवन बना लेता है, जब अपनी संपूर्ण इच्छाओं को संसार की इच्छाओं में डालकर विकास के लिए प्रयास करता है, तमाम उपयोगी विविधिताओं में गुणों को डालकर उनके विकास के लिए प्रयास करता है, तब उसको सही संत का दर्जा प्राप्त होता है। तभी वह संसार में संत के रूप में सार्थक होता है। उसका सम्बंध केवल वस्त्र-आभूषण से नहीं है, किसी एक पंथ या संप्रदाय से नहीं है, बाहरी आडंबरों से नहीं है। वास्तव में आंतरिक उत्कर्ष ही संतत्व का लक्षण है। यह उत्कर्ष उसकी क्रियाओं में प्रकट होता है, यह संत की सबसे बड़ी पहचान है। संत का कर्म कभी स्वार्थ के अनुरूप नहीं होता, हमेशा परमार्थ के अनुरूप होता है।
आज लोगों को भी यह देखना होगा कि संत का केन्द्रीकरण कहा है, कहां के लिए वह अपने जीवन को लगा रहा है, किसी काम के लिए स्वयं को थका रहा है, किस उद्देश्य के लिए जीवन व्यतीत कर रहा है, उसके जीवन का परम लक्ष्य कहां है। निस्संदेह, संत का उद्देश्य सम्पूर्ण संसार के लिए होना चाहिए। वह यह चाहता है कि सभी लोगों को महा-आनंद मिल जाए, सभी लोग सुखी हो जाएं, यदि कोई ऐसा चाहता है और इसके लिए प्रयास करता है, तो वैदिक सनातन धर्म में उसे संत कहा गया है।
केवल सनातन धर्म में ही नहीं, दूसरी परंपराओं में भी अच्छे संत हुए हैं। हम कभी यह नहीं मानते कि संत केवल भारतीय समाज में हुए। मुसलमानों में भी एक बड़ी धारा सूफियों की रही, जिनका जीवन बहुत अच्छा था, जिनमें सत्ता लोभ नहीं था, भोग नहीं था, जो तपस्या से रहते थे, बहुत त्याग से रहते थे, उनमें दान पाने के लिए उतावलापन नहीं था। ऐसे ज्ञान से प्रेरित होकर मुस्लिम धर्म में भी अनेक संत हुए। अपूर्व शक्ति और स्थान उन्होंने प्राप्त किया। न जाने कितने लोगों के जीवन को सुधारा। जो सही मायने में जीवन का चरम है, वे वहां पहुंच गए।
ईसा मसीह को भी संत का दर्जा प्राप्त है, उन्होंने भी संसार को अपने जीवन से धन्य बनाया। यह परंपरा संसार में अनादि है, जैसे संसार अनादि है, जैसे ईश्वरीय व्यवस्था, उसके संस्कार अनादि हैं। इस संसार का तो यह पता ही नहीं है कि यह कब बना। कर्मों के आधार पर लोगों ने उसे विकसित किया है। केवल बच्चा जन्म देने से बच्चा पवित्र जीवन का नहीं हो जाता, उसके पालन-पोषण में उच्चता होनी चाहिए, उसे पढ़ाना, शब्दों का ज्ञान कराना, ज्ञान देना, यह प्रक्रिया लंबी चलती है और जीवन भर चलती रहती है।
क्रमश:
(महाराज के विशेष प्रवचन का संपादित अंश)
संसार में आकार, प्रकार, स्वभाव की अथाह विविधता है, जहां चौरासी लाख योनियों की चर्चा की जाती है। चौरासी लाख योनियों के संपूर्ण निर्माण का जो श्रेय है, सनातन धर्म के अनुसार, सृष्टि जहां भी हो, जैसी भी हो, इस संपूर्ण सृष्टि का निर्माता ईश्वर ही है। ईश्वर द्वारा ही संसार में सारे निर्माण हो रहे हैं। जिन्हें आज के आधुनिक निर्माण कहा जाता है, वो निर्माण भी उसी ईश्वर के बनाए हुए पदार्थों को ही जोड़-तोडक़र हो रहे हैं। अनुसंधान हो रहे हैं, वस्तुएं बन रही हैं, उपयोगी पदार्थ बन रहे हैं, लेकिन उसका जो मूल है, उसका जो प्रारंभ है, वह तो ईश्वर ही है। इतनी बड़ी सृष्टि का संपादन कोई मनुष्य नहीं कर सकता - न समुद्र का, न हिमालय का, न आकाश का, न पृथ्वी का, न वायु का, न ग्रह-नक्षत्र का। इसलिए यह माना गया है और इसको बार-बार वेदों ने, पुराणों ने, स्मृतियों में दोहराया गया है कि संसार को ईश्वर ही बनाता है और वही उसका पालन करता है, वही उसका पोषण करता है। उसको सुन्दर बनाता है, उपयोगी बनाता है, उसे सुदृढ़ बनाता है और जब कभी उसे लगता है कि अनिवार्य है, तो उस चीज को अपने में समाहित कर लेना है, इसी को संहार कहते हैं। ईश्वर अपनी तरह से सुधार करता है। जैसे राज प्रथा की जो विकृतियां थीं, उनमें से बहुत-सी विकृतियों से समाज को छुटकारा मिला। उसकी तुलना में लोकतंत्र में बहुत-सी अच्छाइयां हैं, जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। वैसे ही संसार को बनाकर ईश्वर ने वेदों, शास्त्रों के रूप में नियम-कानून भी बनाए कि जीवन में कैसे चलना है, कैसे रहना है, किस तरह से विकास होगा, किस तरह से व्यक्ति सही रहेगा। संपूर्ण नियम-कानून उसने बनाए और उसी आधार पर संसार को अच्छाई की ओर ले जाने का सही मार्गदर्शन किया।
कहीं कोई आदमी भटक रहा है, तो उसके दोषों को दूर करके सही रास्ते पर लाने का, कोई और अधिक उन्नति करना चाहता है, तो उसका भी मार्गदर्शन करने का। सहायक साधनों को देकर आगे बढ़ाने का, इस तरह हर सही उपाय किए गए। प्रेरित किया कि अपने दायरे में सभी परम शक्ति या सुप्रीम पावर से जुड़ें। आज यह होना कठिन लगता है, लेकिन राजतंत्र हो या लोकतंत्र या कोई अन्य तंत्र हो, परम शक्ति से सभी लोग सीधे जुडक़र अपना संरक्षण प्राप्त करें, अपना विकास प्राप्त करें। अपने जीवन की अच्छाइयों को प्राप्त करें, अपना जो भी कुछ जीवन के लिए अनुकूल है, उसे प्राप्त करें, यह कठिन काम है, इसलिए आज की दुनिया में लोकतंत्र की महत्ता अत्यंत सात्विक दृष्टि से सभी लोग स्वीकार करते हैं कि यह अच्छा तंत्र है। वैसे ही ईश्वर ने अपनी बातों को लोगों को समझाने के लिए, सही रास्ते पर लाने के लिए कि कैसे लोगों का विकास हो, चिंतन, शरीर, धन, ज्ञान का कैसे विकास हो, कैसे लोगों की गतिविधियों का विकास हो, उसके लिए एक प्रतिनिधि परंपरा का प्रारंभ किया, यही संत परंपरा है। जो ईश्वर की भावनाएं होती हैं, जो ईश्वर की स्थापनाएं होती हैं, जो ईश्वर के सारे उद्देश्य होते हैं, ईश्वर जिन भावनाओं से जुड़ा होता है, जिन गुणों से जुड़ा होता है, जिन अच्छाइयों से जुड़ा होता है, वो सब संतों में होती हैं। संत के जीवन में समाज भी यही खोजता है कि संत में लोभ नहीं हो, कामना-हीनता हो। समाज संत में यह देखता है कि उसमें श्रेष्ठता है या नहीं, संयम है या नहीं। संत में दूसरों की भलाई करने की भावना है या नहीं। लोग संत में सभी गुण खोजते हैं। संतों को परखा जाता है। लोग यह नहीं देखते कि संत को गाड़ी चलाना आता है या नहीं, कंप्यूटर चलाना आता है या नहीं, संत को प्रबंधन चलाना आता है या नहीं। संत हैं, तो संतत्व होना चाहिए। जो गुण, जो भाव, जो उत्कर्ष, जो ग्रहणशीलता, जो विशिष्टता ईश्वर में पाई जाती है, उन सभी भावों को लोग लोकतंत्र में खोजते हैं और संतों में भी खोजते हैं। लोग जब किसी में इन गुणों को नहीं पाते हैं, तब उसे ढोंगी कहते हैं।
क्रमश: