धर्म के ज्ञान से ही व्यक्ति को जीने की कला आती है.
Sunday, 20 October 2019
पंचगंगा घाट और उससे जुड़ी परंपरा
वाराणसी : गंगा के साथ ही इसके वैभव और घाटों पर मौजूद सभ्यता और संस्कृतियों का फलना फूलना यह साबित करता है कि गंगा अपने आप में भी किसी संस्कृति से कम नहीं। खासकर जब काशी में गंगा के चौरासी घाटों की चर्चा होती है तो काशी के ठाठ से जुडे़ यह घाट किसी शीर्ष प्रतीक से कम नहीं। दैनिक जागरण के वेब सीरीज में आज जानिए पंचगंगा घाट और उससे जुड़ी परंपरा और मान्यता के बारे में -
पंचगंगा घाट में पांच नदियों के संगम की जहां मान्यता है वहीं आलमगीर मस्जिद जो स्थानीय स्तर पर बेनी माधव का डेरा के नाम से जानी जाती है, यहां ¨हदू-मुस्लिम संस्कृतियों को समाहित किए हुए है। हालांकि समय के साथ काफी क्षति तो हुई है मगर यह मस्जिद अपने समय के सबसे बड़े मंदिर माने जाने वाले बिंदु माधव के ध्वंस अवशेषों पर बनी है। कालांतर में यह भगवान विष्णु का एक विशाल मंदिर हुआ करता था जो पंचगंगा से राम घाट तक फैला हुआ था। इतिहासकारों के मुताबिक मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट कर इस मस्जिद का निर्माण कराया। हालांकि पंचगंगा हिंदू और मुस्लिमों के परस्पर संबंधों की एक और कड़ी अपने में समेटे हुए है। यह कड़ी है मध्ययुगीन दौर में संत कबीर की। माना जाता है कि एक मुस्लिम जुलाहे के बेटे कबीर ने अपनी कृतियों से हिंदू और मुस्लिम दोनों ही वर्गो में समान रूप से लोकप्रियता बटोरी थी। यहां नदी के मुहाने पर तीन ओर से घिरी कोठरिया हैं, जो बरसात बाढ़ के दौरान पानी में डूबी रहती हैं। यहीं पर है पाच नदियों के संगम का प्रतीक मंदिर निर्मित है तो धूतपाप और किरण जैसी अदृश्य मानी जाने वाली नदियों सहित यमुना, सरस्वती और गंगा नदी का यह संगम स्थल भी है। यह जीवंत शहर बनारस के सर्वाधिक चर्चित और महत्व वाले घाटों में अपना स्थान रखता है।
दैनिक जागरण
पंचगंगा घाट में पांच नदियों के संगम की जहां मान्यता है वहीं आलमगीर मस्जिद जो स्थानीय स्तर पर बेनी माधव का डेरा के नाम से जानी जाती है, यहां ¨हदू-मुस्लिम संस्कृतियों को समाहित किए हुए है। हालांकि समय के साथ काफी क्षति तो हुई है मगर यह मस्जिद अपने समय के सबसे बड़े मंदिर माने जाने वाले बिंदु माधव के ध्वंस अवशेषों पर बनी है। कालांतर में यह भगवान विष्णु का एक विशाल मंदिर हुआ करता था जो पंचगंगा से राम घाट तक फैला हुआ था। इतिहासकारों के मुताबिक मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट कर इस मस्जिद का निर्माण कराया। हालांकि पंचगंगा हिंदू और मुस्लिमों के परस्पर संबंधों की एक और कड़ी अपने में समेटे हुए है। यह कड़ी है मध्ययुगीन दौर में संत कबीर की। माना जाता है कि एक मुस्लिम जुलाहे के बेटे कबीर ने अपनी कृतियों से हिंदू और मुस्लिम दोनों ही वर्गो में समान रूप से लोकप्रियता बटोरी थी। यहां नदी के मुहाने पर तीन ओर से घिरी कोठरिया हैं, जो बरसात बाढ़ के दौरान पानी में डूबी रहती हैं। यहीं पर है पाच नदियों के संगम का प्रतीक मंदिर निर्मित है तो धूतपाप और किरण जैसी अदृश्य मानी जाने वाली नदियों सहित यमुना, सरस्वती और गंगा नदी का यह संगम स्थल भी है। यह जीवंत शहर बनारस के सर्वाधिक चर्चित और महत्व वाले घाटों में अपना स्थान रखता है।
दैनिक जागरण
पंचगंगा के बिंदु माधव घाट पर पांच नदियों की मान्यता
बिंदु माधव घाट के संदर्भ में मान्यता है कि पंद्रहवीं शताब्दी के आखिर में घाट का जीर्णोद्धार रघुनाथ टण्डन ने कराया था। वहीं घाट के संदर्भ में मान्यता यह भी है कि इस घाट पर गंगा में अदृश्य तौर पर यमुना सरस्वती सहित दो अन्य गुप्त नदियों का भी संगम होता है। इन पांच नदियों का संगम स्थल यहां पर होने के कारण ही इसे पंचगंगा घाट के नाम से पहचान मिली। घाट के जानकार बताते हैं कि प्राचीन काल से ही घाट का नाम बिन्दुमाधव घाट था एवं यहां बिन्दुमाधव और भगवान विष्णु का मंदिर स्थापित था। किंवदंतियों के मुताबिक बिन्दुमाधव मंदिर का निर्माण राजस्थान के राजा मानसिंह ने सत्रहवीं शताब्दी के समय कराया था। जिसे उसी काल में ही औरंगजेब द्वारा नष्ट कर इसे आलमगीर मस्जिद का स्वरूप दिए जाने की जानकारी पुरनिए बताते हैं। नाम के ही अस्तित्व को लेकर उस दौर में घाट का नाम बदलकर पंचगंगा हो जाने की लोग तस्दीक करते हैं। हालांकि आज भी पंचगंगा घाट का हिस्सा बिंदुमाधव घाट का अस्तित्व उसी तरह बना हुआ है। अठ्ठारहवीं शताब्दी के दौर में सतारा, महाराष्ट्र महाराजा के प्रतिनिधि भावन राव ने वर्तमान स्वरूप में दिखने वाले बिन्दुमाधव मंदिर का निर्माण कराया था। काशी में मान्य सप्तपुरियों में इस घाट को काची का स्वरूप प्राप्त है। जबकि बिन्दुमाधव मंदिर की तुलना पुरी में जगन्नाथ मंदिर से की जाती है। पुराणों की बात करें तो काशीखण्ड के अनुसार शरद ऋतु एवं कार्तिक माह में इस घाट पर स्नान दान और पूजन का विशेष महात्म्य है। संगम तट प्रयागराज में माघ स्नान का जो पुण्य प्राप्त होता है वह पंचगंगा घाट के इस हिस्से पर भी मिलता है। घाट के सम्मुख ही गंगा में पंचतीर्थो की मान्यता होने से काफी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। घाट पर ही श्री संस्थान गोकर्ण पर्तकाली जीवोत्तम, रामानन्द श्रीमठ, सत्यभामा एवं तैलंगस्वामी आदि मठ मुख्य हैं। जबकि मंदिरों में बिन्दुमाधव के अलावा राम मंदिर, कंगन वाली हवेली, बिन्दु विनायक, राम मंदिर, रामानन्द मंदिर, धूतपापेश्वर, रेवेन्तेश्वर व आलमगीर मस्जिद प्रमुख है। असि घाट से लेकर आदिकेशव तक घाटों के मध्य में गंगाघाट पर स्थित एक मात्र मस्जिद आलमगीर है जो कलात्मक दृष्टि से भी विशिष्ट है। चौदहवीं व 15 वीं शताब्दी में वैष्णव संत रामानन्द यहीं निवास कर राम कथा व भक्ति का प्रसार-प्रचार करते रहे। जबकि उन्नीसवीं शताब्दी में तैलंग स्वामी मठ में संत तैलंग स्वामी का निवास रहा जिन्होंने मठ में एक विशाल पचास मन के शिवलिंग को स्थापित किया। शिव और राम सहित गंगा के विशिष्ट आयोजन इस घाट पर होते रहते हैं। आध्यात्मिक महत्व होने की वजह से दर्शनार्थियों के आने का क्रम भी लगातार बना रहता है।
(दैनिक जागरण में प्रकाशित)
Thursday, 4 July 2019
Monday, 3 June 2019
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
समापन भाग
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के लिए जो शास्त्रीय क्रियाएं हैं, इनको मनमानी ढंग से जीने के कारण ही दुनिया में राक्षसी भाव बढ़ रहा है। सुख बहुत कम होता जा रहा है। रिश्ते टूट रहे हैं, सुंदरता कम हो रही है। संसार का जो आकर्षण था, वह कम हो रहा है। घुटन हो रही है। बड़ी विडंबना है, इसलिए प्रह्लाद जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।
ज्ञान किसके लिए - यह कैसा ज्ञान कि बम बना दिया, लाखों लोगों को मार दिया। यह कौन-सा ज्ञान कि हर आदमी से हम ईष्र्या ही कर रहे हैं। यह कौन-सा ज्ञान कि हमारी सारी शक्ति अपने को सजाने में ही लग गई। क्या हम जीवन भर रजिस्टर ही लिखेंगे? हम जीवन भर लोहा पर लोहा ही ठोंकेंगे?
एक बार सूरत में किसी से पूछा कि एक आभूषण बनाने वाले को क्या देते हो। उत्तर मिला कि सौ रुपया, डेढ़ सौ रुपया एक दिन में देते हैं। वहां सौ से ज्यादा कारीगर थे। बतलाइए। ये सारा जीवन लग गया आभूषण बनाने में तो कुछ नहीं हुआ। यदि सही दिशा होती, तो ईश्वर का आभूषण बन जाता। वरदान हो जाता। इसीलिए हम अपने कर्म का इस रूप से उपयोग करें, भूलें नहीं। बंगला बना लेंगे, तो बच नहीं जाएंगे। कुछ भी कीजिएगा, मरने से नहीं बचिएगा। दुख से नहीं बचिएगा। छप्पन भोग भी खाइएगा, तो दुख और मरने से नहीं बचिएगा। बड़ा परिवार, बड़ी गाड़ी से जुडक़र नहीं, सुख सागर से जुडक़र हम आनंद पाएं। उसके लिए कर्म करें। जैसे प्रह्लाद जी ने किया। वे ईश्वर सेवा के मार्ग में कभी किसी से नहीं डरे।
भगवान की दया से मैं भी नहीं डरता था। अपने गुरुजी के सामने भी अवसर देखकर सही बात बोल देता था। मेरे गुरुदेव जमींदार परिवार के थे। जब उन्हें अवसर मिले, तो जमींदारी की कथा सुनाते रहते थे, मैं चरण दबाता रहता था। कुछ महीने जब हो गए। एक बार मैंने गुरुजी से बड़े संतों के नाम लेकर पूछता गया कि वो संत कैसे परिवार के थे। मैं संतों के नाम लेकर पूछता गया, गुरुजी बताते गए कि ये भी गरीब परिवार के थे।
फिर मैंने पूछा, आपके गुरुजी की क्या स्थिति थी?
मेरे गुरुदेव ने कहा, उनके पास भी ज्यादा संसाधन नहीं थे।
तब मैंने कहा, इसका मतलब गरीब का बच्चा भी संत हो सकता है। जरूरी नहीं कि बड़े जमींदार का ही हो। यदि ऐसा हो कि गरीब का नहीं हो सकता है, तो मैं तो जमींदार परिवार में नहीं जन्मा, तो मैं चला जाऊं क्या?
गुरुजी को लग गया कि अरे यह तो मुझे ही कह रहा है, तो उन्होंने कहा कि शिष्य ऐसी बात बोलता है क्या?
मैंने पूछा, यह कहां लिखा है कि गुरु रोज अपनी जमींदारी की बात करें।
मैंने कह दिया, कहिए तो मैं चलता हूं झोला उठाए। किसी और दरवाजे को खटखटाता हूं, जिस दरवाजे पर लिखा हो कि नहीं सामान्य परिवार का बच्चा भी संत हो सकता है, ऋषि हो सकता है, ज्ञानी हो सकता है, धन्य जीवन का हो सकता है। प्रह्लाद जी की तरह ही मैंने बिना भय के अपना विचार प्रस्तावित किया। गुरुजी के गांव में कई हजार एकड़ जमीन थी, जहां वो जन्मे थे। तो मैंने कह दिया। जब नहीं कहेगा आदमी, तो कैसे चलेगा।
प्रह्लाद जी लड़ गए कि आपको जो करना है, करो, किन्तु मैं अपना महापथ नहीं छोड़ूंगा। ध्यान रहे सभी श्रेष्ठ जो अवदान हैं, वो शास्त्रों से, ऋषियों से ही हमें प्राप्त हुए हैं। तभी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन की सारी कठिनाइयां दूर हो जाएंगी।
जय सियाराम
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के लिए जो शास्त्रीय क्रियाएं हैं, इनको मनमानी ढंग से जीने के कारण ही दुनिया में राक्षसी भाव बढ़ रहा है। सुख बहुत कम होता जा रहा है। रिश्ते टूट रहे हैं, सुंदरता कम हो रही है। संसार का जो आकर्षण था, वह कम हो रहा है। घुटन हो रही है। बड़ी विडंबना है, इसलिए प्रह्लाद जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।
ज्ञान किसके लिए - यह कैसा ज्ञान कि बम बना दिया, लाखों लोगों को मार दिया। यह कौन-सा ज्ञान कि हर आदमी से हम ईष्र्या ही कर रहे हैं। यह कौन-सा ज्ञान कि हमारी सारी शक्ति अपने को सजाने में ही लग गई। क्या हम जीवन भर रजिस्टर ही लिखेंगे? हम जीवन भर लोहा पर लोहा ही ठोंकेंगे?
एक बार सूरत में किसी से पूछा कि एक आभूषण बनाने वाले को क्या देते हो। उत्तर मिला कि सौ रुपया, डेढ़ सौ रुपया एक दिन में देते हैं। वहां सौ से ज्यादा कारीगर थे। बतलाइए। ये सारा जीवन लग गया आभूषण बनाने में तो कुछ नहीं हुआ। यदि सही दिशा होती, तो ईश्वर का आभूषण बन जाता। वरदान हो जाता। इसीलिए हम अपने कर्म का इस रूप से उपयोग करें, भूलें नहीं। बंगला बना लेंगे, तो बच नहीं जाएंगे। कुछ भी कीजिएगा, मरने से नहीं बचिएगा। दुख से नहीं बचिएगा। छप्पन भोग भी खाइएगा, तो दुख और मरने से नहीं बचिएगा। बड़ा परिवार, बड़ी गाड़ी से जुडक़र नहीं, सुख सागर से जुडक़र हम आनंद पाएं। उसके लिए कर्म करें। जैसे प्रह्लाद जी ने किया। वे ईश्वर सेवा के मार्ग में कभी किसी से नहीं डरे।
भगवान की दया से मैं भी नहीं डरता था। अपने गुरुजी के सामने भी अवसर देखकर सही बात बोल देता था। मेरे गुरुदेव जमींदार परिवार के थे। जब उन्हें अवसर मिले, तो जमींदारी की कथा सुनाते रहते थे, मैं चरण दबाता रहता था। कुछ महीने जब हो गए। एक बार मैंने गुरुजी से बड़े संतों के नाम लेकर पूछता गया कि वो संत कैसे परिवार के थे। मैं संतों के नाम लेकर पूछता गया, गुरुजी बताते गए कि ये भी गरीब परिवार के थे।
फिर मैंने पूछा, आपके गुरुजी की क्या स्थिति थी?
मेरे गुरुदेव ने कहा, उनके पास भी ज्यादा संसाधन नहीं थे।
तब मैंने कहा, इसका मतलब गरीब का बच्चा भी संत हो सकता है। जरूरी नहीं कि बड़े जमींदार का ही हो। यदि ऐसा हो कि गरीब का नहीं हो सकता है, तो मैं तो जमींदार परिवार में नहीं जन्मा, तो मैं चला जाऊं क्या?
गुरुजी को लग गया कि अरे यह तो मुझे ही कह रहा है, तो उन्होंने कहा कि शिष्य ऐसी बात बोलता है क्या?
मैंने पूछा, यह कहां लिखा है कि गुरु रोज अपनी जमींदारी की बात करें।
मैंने कह दिया, कहिए तो मैं चलता हूं झोला उठाए। किसी और दरवाजे को खटखटाता हूं, जिस दरवाजे पर लिखा हो कि नहीं सामान्य परिवार का बच्चा भी संत हो सकता है, ऋषि हो सकता है, ज्ञानी हो सकता है, धन्य जीवन का हो सकता है। प्रह्लाद जी की तरह ही मैंने बिना भय के अपना विचार प्रस्तावित किया। गुरुजी के गांव में कई हजार एकड़ जमीन थी, जहां वो जन्मे थे। तो मैंने कह दिया। जब नहीं कहेगा आदमी, तो कैसे चलेगा।
प्रह्लाद जी लड़ गए कि आपको जो करना है, करो, किन्तु मैं अपना महापथ नहीं छोड़ूंगा। ध्यान रहे सभी श्रेष्ठ जो अवदान हैं, वो शास्त्रों से, ऋषियों से ही हमें प्राप्त हुए हैं। तभी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन की सारी कठिनाइयां दूर हो जाएंगी।
जय सियाराम
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - ८
सभी लोगों को भगवान उज्ज्वल अनुपम प्रेरणा दे रहे हैं। कहीं कोई पिता है, यदि वह गलत बोलता है, तो वो नहीं है पिता। अगर गलत बोलता है, तो वह नहीं है पुत्र। पिता डकैती करने के लिए कहेगा, तो करेंगे क्या? गलत भावना का समर्थन भी नहीं करना चाहिए। भयभीत नहीं होना चाहिए। ईश्वर रक्षक हैं।
मेरे जीवन में भी व्यवधान आए। मेरे पिता गुरुजी बड़े विद्वान थे। बड़े गुरु के शिष्य थे, लेकिन आश्रम की सेवा को चंदा लाना, कमरा बनाना, यही सबको बहुत महत्व देते थे। मांग-मांग कर लाना। व्यसनी नहीं थे, चरित्रवान थे, वंश बड़ा था, पढ़े भी थे, किन्तु वे हमें भी बोलते थे, आपको ऐसे ही करना है। उसका हमने थोड़ा भी पालन नहीं किया। मैं कहता हूं- भक्त हमें जो धन देते हैं, उसका हम पूर्ण सदुपयोग करते हैं राम भाव के प्रचार-प्रसार में।
सभी लोगों को अपनी शक्ति का उपयोग प्रह्लाद जी की रीति से करना चाहिए। वो चंद्रमा हैं, जिसका सबको लाभ उठाना चाहिए। वे कभी मरने वाले नहीं हैं, उनका महापथ कभी मरने वाला नहीं है। यह पथ प्रह्लाद जी का ही नहीं है, यह पथ वेदों का है, स्मृतियों, पुराणों का है। परमार्थ का जीवन केवल कीर्तन करने के लिए नहीं है। केवल मंच पर कहे और फिर लग गए मांगने कि आप कितनी दक्षिणा देंगे। आज के संत जब किसी मंच पर कथा करने आते हैं, तो पहले ही अनुबंध कर लेते हैं।
सुदामा जी जब गए भगवान के यहां, कई कथाकार कहते हैं कि सुदामा जी से बड़ा कोई दरिद्र ही नहीं हुआ। ऐसे कथाकारों से बड़ा दरिद्र कोई नहीं है। बोलते हैं कि लाइए चावल जैसे सुदामा जी लाए थे और मेरा बोरा भर दीजिए। दक्षिणा के लिए रूठ जाते हैं।
एक बार एक जगह भागवत सप्ताह का उद्घाटन करने मैं गया था। वहां एक कथाकार ने कहा कि साढ़े तीन सौ कथाएं मैंने की, किन्तु इतना फिसड्डी पंडाल कहीं नहीं लगा, सूर्य की रोशनी तक नहीं रुक रही है। मंच विमान जैसा बनवाया था। मैंने कहा, वाह, जिस भगवान ने नंगे पांव गायों के पीछे चलकर अपने मित्रों के साथ सेवा का परम आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, उसी भगवान की कथा कहने वाला कथाकार पंडाल में आती धूप पर ही प्रवचन करने लग गया। यह भी बतला दिया कि अब तक कितनी कथाएं कर चुका हूं।
मैंने मैल छुड़ा दिया उद्घाटन भाषण में। यह कोई बात नहीं, मुझे २९ साल हो गए रामानंदाचार्य हुए, कभी भी किसी को नहीं कहा कि आपका मंच कैसा है, पंडाल कैसा है, दक्षिणा कैसी है, आपका भोजन कैसा है।
प्रह्लाद जी का अनुकरण करना है। सारी यातनाओं को झेलकर प्रह्लाद जी वैसे ही हो गए जैसे चंद्रमा और सूर्य हैं, जैसे वायु हैं। जिनका कोई जोड़ नहीं है। एक से एक लोग हुए सनातन धर्म में जिन्होंने परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के व्यवहार को बतलाया। केवल रोटी और भोग के लिए हमें व्यवहार नहीं करना है, हमें केवल धर्म के लिए व्यवहार नहीं करना है।
सबसे उत्तम मोक्षीय व्यवहार ही होता है, इसी के लिए मानव जीवन है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो व्यवहार है, उसका सभी को लाभ लेना चाहिए। हमें सुधार करना होगा। एक ही बार में कोई चाहे कि मैं चौथे पायदान पर पहुंच जाऊं, तो उसके पैर ही टूटेंगे। ऊंचाई पर पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहला पायदान, दूसरा पायदान, तीसरा पायदान आवश्यक है। धीरे-धीरे बढ़ें।
पहला पायदान - हम अर्थ को शुद्ध करें, अर्थीय व्यवहार सुधारें, अर्थ पाने के व्यवहार को शास्त्रीय बनाएं। उसके आधार पर धन अर्जित करें।
दूसरा पायदान - हम भोग की प्राप्ति के अनुरूप व्यवहार को शुद्ध करें।
तीसरा पायदान - हम अपने धर्म के संपादन की जो क्रियाएं हैं, जिन्हें हम व्यवहार कहेंगे, उनको भी शुद्ध करें। दान भी व्यवहार का बड़ा स्वरूप है। आज दान ही देने नहीं आ रहा है लोगों को। आयकर चुराकर दान दे रहे हैं। लूटपाट करके दान दे रहे हैं। दान के पात्र, स्थान, काल का ध्यान नहीं है। आज लोग दान दे रहे हैं कि इससे हमारा उपकार होगा, इससे हमारा धन लौटेगा। जैसे उद्योगपति लोग नेताओं को देते हैं कि नेता जी सत्ता में आएंगे, तो लाभ देंगे। यहां केवल लोगों में लेने की भावना है कि क्या लौटेगा, हमारा कैसे उपकार होगा। दान में बिल्कुल दिखावा नहीं, वर्णन नहीं करते हुए दान करना है। अभी जो राष्ट्राध्यक्ष लोग हैं, जो राजनीति से, समाजसेवा से जुड़े हैं लोग, जो नकली संत, सब यह बताने में जुटे हैं कि मैंने यह किया, मैंने वह किया। भक्त ऐसा नहीं करते। भक्त कहता है ठाकुर जी ने किया, हमने क्या किया। हममें कहां क्षमता है कि हम समुद्र पार कर जाएं, लंका जला दें। हनुमान जी ने कहा कि ये सब तो हमारे राम जी ने किया। सैनिक कभी नहीं बोलता कि मैं विजयी हो गया, वह देश प्रेम और लोगों को श्रेय देता है।
क्रमश:
सभी लोगों को भगवान उज्ज्वल अनुपम प्रेरणा दे रहे हैं। कहीं कोई पिता है, यदि वह गलत बोलता है, तो वो नहीं है पिता। अगर गलत बोलता है, तो वह नहीं है पुत्र। पिता डकैती करने के लिए कहेगा, तो करेंगे क्या? गलत भावना का समर्थन भी नहीं करना चाहिए। भयभीत नहीं होना चाहिए। ईश्वर रक्षक हैं।
मेरे जीवन में भी व्यवधान आए। मेरे पिता गुरुजी बड़े विद्वान थे। बड़े गुरु के शिष्य थे, लेकिन आश्रम की सेवा को चंदा लाना, कमरा बनाना, यही सबको बहुत महत्व देते थे। मांग-मांग कर लाना। व्यसनी नहीं थे, चरित्रवान थे, वंश बड़ा था, पढ़े भी थे, किन्तु वे हमें भी बोलते थे, आपको ऐसे ही करना है। उसका हमने थोड़ा भी पालन नहीं किया। मैं कहता हूं- भक्त हमें जो धन देते हैं, उसका हम पूर्ण सदुपयोग करते हैं राम भाव के प्रचार-प्रसार में।
सभी लोगों को अपनी शक्ति का उपयोग प्रह्लाद जी की रीति से करना चाहिए। वो चंद्रमा हैं, जिसका सबको लाभ उठाना चाहिए। वे कभी मरने वाले नहीं हैं, उनका महापथ कभी मरने वाला नहीं है। यह पथ प्रह्लाद जी का ही नहीं है, यह पथ वेदों का है, स्मृतियों, पुराणों का है। परमार्थ का जीवन केवल कीर्तन करने के लिए नहीं है। केवल मंच पर कहे और फिर लग गए मांगने कि आप कितनी दक्षिणा देंगे। आज के संत जब किसी मंच पर कथा करने आते हैं, तो पहले ही अनुबंध कर लेते हैं।
सुदामा जी जब गए भगवान के यहां, कई कथाकार कहते हैं कि सुदामा जी से बड़ा कोई दरिद्र ही नहीं हुआ। ऐसे कथाकारों से बड़ा दरिद्र कोई नहीं है। बोलते हैं कि लाइए चावल जैसे सुदामा जी लाए थे और मेरा बोरा भर दीजिए। दक्षिणा के लिए रूठ जाते हैं।
एक बार एक जगह भागवत सप्ताह का उद्घाटन करने मैं गया था। वहां एक कथाकार ने कहा कि साढ़े तीन सौ कथाएं मैंने की, किन्तु इतना फिसड्डी पंडाल कहीं नहीं लगा, सूर्य की रोशनी तक नहीं रुक रही है। मंच विमान जैसा बनवाया था। मैंने कहा, वाह, जिस भगवान ने नंगे पांव गायों के पीछे चलकर अपने मित्रों के साथ सेवा का परम आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, उसी भगवान की कथा कहने वाला कथाकार पंडाल में आती धूप पर ही प्रवचन करने लग गया। यह भी बतला दिया कि अब तक कितनी कथाएं कर चुका हूं।
मैंने मैल छुड़ा दिया उद्घाटन भाषण में। यह कोई बात नहीं, मुझे २९ साल हो गए रामानंदाचार्य हुए, कभी भी किसी को नहीं कहा कि आपका मंच कैसा है, पंडाल कैसा है, दक्षिणा कैसी है, आपका भोजन कैसा है।
प्रह्लाद जी का अनुकरण करना है। सारी यातनाओं को झेलकर प्रह्लाद जी वैसे ही हो गए जैसे चंद्रमा और सूर्य हैं, जैसे वायु हैं। जिनका कोई जोड़ नहीं है। एक से एक लोग हुए सनातन धर्म में जिन्होंने परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के व्यवहार को बतलाया। केवल रोटी और भोग के लिए हमें व्यवहार नहीं करना है, हमें केवल धर्म के लिए व्यवहार नहीं करना है।
सबसे उत्तम मोक्षीय व्यवहार ही होता है, इसी के लिए मानव जीवन है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो व्यवहार है, उसका सभी को लाभ लेना चाहिए। हमें सुधार करना होगा। एक ही बार में कोई चाहे कि मैं चौथे पायदान पर पहुंच जाऊं, तो उसके पैर ही टूटेंगे। ऊंचाई पर पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहला पायदान, दूसरा पायदान, तीसरा पायदान आवश्यक है। धीरे-धीरे बढ़ें।
पहला पायदान - हम अर्थ को शुद्ध करें, अर्थीय व्यवहार सुधारें, अर्थ पाने के व्यवहार को शास्त्रीय बनाएं। उसके आधार पर धन अर्जित करें।
दूसरा पायदान - हम भोग की प्राप्ति के अनुरूप व्यवहार को शुद्ध करें।
तीसरा पायदान - हम अपने धर्म के संपादन की जो क्रियाएं हैं, जिन्हें हम व्यवहार कहेंगे, उनको भी शुद्ध करें। दान भी व्यवहार का बड़ा स्वरूप है। आज दान ही देने नहीं आ रहा है लोगों को। आयकर चुराकर दान दे रहे हैं। लूटपाट करके दान दे रहे हैं। दान के पात्र, स्थान, काल का ध्यान नहीं है। आज लोग दान दे रहे हैं कि इससे हमारा उपकार होगा, इससे हमारा धन लौटेगा। जैसे उद्योगपति लोग नेताओं को देते हैं कि नेता जी सत्ता में आएंगे, तो लाभ देंगे। यहां केवल लोगों में लेने की भावना है कि क्या लौटेगा, हमारा कैसे उपकार होगा। दान में बिल्कुल दिखावा नहीं, वर्णन नहीं करते हुए दान करना है। अभी जो राष्ट्राध्यक्ष लोग हैं, जो राजनीति से, समाजसेवा से जुड़े हैं लोग, जो नकली संत, सब यह बताने में जुटे हैं कि मैंने यह किया, मैंने वह किया। भक्त ऐसा नहीं करते। भक्त कहता है ठाकुर जी ने किया, हमने क्या किया। हममें कहां क्षमता है कि हम समुद्र पार कर जाएं, लंका जला दें। हनुमान जी ने कहा कि ये सब तो हमारे राम जी ने किया। सैनिक कभी नहीं बोलता कि मैं विजयी हो गया, वह देश प्रेम और लोगों को श्रेय देता है।
क्रमश:
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - ७
क्या कहा प्रह्लाद जी ने सुनिए। कहा कि प्रभु, हमें आपसे कुछ नहीं चाहिए। भगवान ने कहा कि मांगों बहुत खुश हूं। प्रह्लाद जी ने कहा, मैंने वणिक भक्ति नहीं की है। बनिया वाली भक्ति नहीं की, सामान देना और उसके बदले में पैसा लेना। एक हाथ से लो, एक हाथ से दो। हमने आपकी सेवा की, समर्पित हुआ, भजन किया, स्मरण किया, जो भी नवधा भक्ति के स्वरूप हैं, किन्तु ये सब हमारे किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए नहीं हैं। इसके लिए हमें कोई ‘रिटर्निंग गिफ्ट’ नहीं चाहिए। यह सब हमने आपकी सेवा के लिए किया। इसका कोई सकाम उद्देश्य नहीं था। जो किया, निष्काम भाव से किया। हमारे पास जो भी आपका दिया था, वो आपको दिया, कुछ लेने के लिए नहीं दिया।
भक्त अपने स्वामी के लिए सर्वस्व अर्पित करता है, उसकी खुशहाली के लिए उसके बदले में कभी नहीं कहता कि हमें भी आप कुछ दीजिए। यही भक्ति का सबसे बड़ा सिद्धांत है - तत्सुखे सुखम्
उसके सुख में सुखी रहना। अपने सुख की परवाह नहीं करना। ऐसी गोपियां हुईं, तुलसीदास जी हुए, अनेक संत हुए, जिन्होंने कभी नहीं कहा कि हमें कुछ चाहिए। हमने वणिक भक्ति नहीं की।
तो प्रह्लाद जी के बहुत मना करने बावजूद नरसिंह भगवान ने जोर देकर कहा कि मांगो, कुछ मांगो।
तब प्रह्लाद जी ने कहा, ऐसी कृपा करें भगवान कि मेरी इच्छा ही जल जाए। जिस बीज को हम दग्ध भाव कर देते हैं, मतलब सिंकाई हो गई, तो उसमें से अंकुर नहीं निकलते हैं। आशीर्वाद दीजिए कि मेरे मन में कोई इच्छा ही नहीं हो। सारी इच्छाएं जल जाएं। अब क्या इच्छा, जब आप मिल गए। जब मेरा मन आपका हो गया, हमारी इन्द्रियां आपकी हो गईं, अब क्या? इच्छा दुखदायक है, नहीं चाहिए कुछ भी।
यहां तक कह दिया प्रह्लाद जी ने, कोई जब संपूर्ण इच्छाओं को छोड़ता है, तो देवता हो जाता है। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम इच्छाएं हों। जैसे गृहिणी कम इच्छा करे, सास-ससुर की सेवा करे, परिवार की सेवा करे, कोई इच्छा न करे कि यहां ले चलो, वहां ले चलो, ये चाहिए, वो चाहिए। इच्छाएं सब खत्म होंगी, तो वह देवी बन जाएगी।
प्रह्लाद जी ने कहा - ईश्वर को समर्पित होकर इच्छाओं से हीन होकर भगवान के सदृश हो जाता है जीव। आज भी प्रह्लाद जी का जोड़ नहीं है। अभावग्रस्त परिवेश वाले कोल, भील का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है, गोपियां तो उनसे श्रेष्ठ स्थिति में हैं, आलवार संतों का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है। अनेक महात्मा, ऋषि, संत इस देश में हुए, जिन्होंने बिना स्वार्थ संसार की सेवा की। आवश्यकता है प्रह्लाद जी से सीखने की, उनसे प्रेरणा लेने की। प्रह्लाद जी ने बहुत कहने के बाद भी कुछ भी नहीं मांगा। कह दिया, नहीं चाहिए।
मैं पहले भी कह चुका हूं, जो भगवान की सभी दृष्टि से सेवा करेगा, जो ऐसी भक्ति करेगा, उसे लोक और परलोक, दोनों मिलेंगे। उसका कोई अभाव शेष नहीं रहेगा। दुनिया का कोई ऐसा सोपान नहीं, कोई ऐसा गंतव्य नहीं, इसलिए नहीं चाहने पर भी प्रह्लाद जी को भगवान ने राजा बना दिया। किसी को बड़ा फल देना हो, तो पात्र को ही देगा, अपनों को ही देगा, प्रिय को ही देगा। जो मूर्ख है, वह अक्षम बेटे को, पापी बेटे को भी दे देता है। यहां तो ईश्वर को दिया ईश्वर ने।
ऐसे ही संसार के लोगों को धैर्य के साथ सभी कामों में लगे रहना चाहिए। मैंने भी जीवन में अभाव में ही शुरुआत की, किन्तु मुझे भगवान ने सब दिया, रोटी कपड़ा, मान, स्नेह, आत्मीयता, किन्तु मैं हमेशा ध्यान रखता हूं कि मेरा जो ईश्वरीय समर्पण है, वह कभी नीचे नहीं हो जाए। संपूर्ण वरीयता रहनी चाहिए। जो मिला हुआ प्रसाद है भक्ति, ज्ञान, उनका प्रयोग बना रहे।
क्रमश:
क्या कहा प्रह्लाद जी ने सुनिए। कहा कि प्रभु, हमें आपसे कुछ नहीं चाहिए। भगवान ने कहा कि मांगों बहुत खुश हूं। प्रह्लाद जी ने कहा, मैंने वणिक भक्ति नहीं की है। बनिया वाली भक्ति नहीं की, सामान देना और उसके बदले में पैसा लेना। एक हाथ से लो, एक हाथ से दो। हमने आपकी सेवा की, समर्पित हुआ, भजन किया, स्मरण किया, जो भी नवधा भक्ति के स्वरूप हैं, किन्तु ये सब हमारे किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए नहीं हैं। इसके लिए हमें कोई ‘रिटर्निंग गिफ्ट’ नहीं चाहिए। यह सब हमने आपकी सेवा के लिए किया। इसका कोई सकाम उद्देश्य नहीं था। जो किया, निष्काम भाव से किया। हमारे पास जो भी आपका दिया था, वो आपको दिया, कुछ लेने के लिए नहीं दिया।
भक्त अपने स्वामी के लिए सर्वस्व अर्पित करता है, उसकी खुशहाली के लिए उसके बदले में कभी नहीं कहता कि हमें भी आप कुछ दीजिए। यही भक्ति का सबसे बड़ा सिद्धांत है - तत्सुखे सुखम्
उसके सुख में सुखी रहना। अपने सुख की परवाह नहीं करना। ऐसी गोपियां हुईं, तुलसीदास जी हुए, अनेक संत हुए, जिन्होंने कभी नहीं कहा कि हमें कुछ चाहिए। हमने वणिक भक्ति नहीं की।
तो प्रह्लाद जी के बहुत मना करने बावजूद नरसिंह भगवान ने जोर देकर कहा कि मांगो, कुछ मांगो।
तब प्रह्लाद जी ने कहा, ऐसी कृपा करें भगवान कि मेरी इच्छा ही जल जाए। जिस बीज को हम दग्ध भाव कर देते हैं, मतलब सिंकाई हो गई, तो उसमें से अंकुर नहीं निकलते हैं। आशीर्वाद दीजिए कि मेरे मन में कोई इच्छा ही नहीं हो। सारी इच्छाएं जल जाएं। अब क्या इच्छा, जब आप मिल गए। जब मेरा मन आपका हो गया, हमारी इन्द्रियां आपकी हो गईं, अब क्या? इच्छा दुखदायक है, नहीं चाहिए कुछ भी।
यहां तक कह दिया प्रह्लाद जी ने, कोई जब संपूर्ण इच्छाओं को छोड़ता है, तो देवता हो जाता है। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम इच्छाएं हों। जैसे गृहिणी कम इच्छा करे, सास-ससुर की सेवा करे, परिवार की सेवा करे, कोई इच्छा न करे कि यहां ले चलो, वहां ले चलो, ये चाहिए, वो चाहिए। इच्छाएं सब खत्म होंगी, तो वह देवी बन जाएगी।
प्रह्लाद जी ने कहा - ईश्वर को समर्पित होकर इच्छाओं से हीन होकर भगवान के सदृश हो जाता है जीव। आज भी प्रह्लाद जी का जोड़ नहीं है। अभावग्रस्त परिवेश वाले कोल, भील का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है, गोपियां तो उनसे श्रेष्ठ स्थिति में हैं, आलवार संतों का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है। अनेक महात्मा, ऋषि, संत इस देश में हुए, जिन्होंने बिना स्वार्थ संसार की सेवा की। आवश्यकता है प्रह्लाद जी से सीखने की, उनसे प्रेरणा लेने की। प्रह्लाद जी ने बहुत कहने के बाद भी कुछ भी नहीं मांगा। कह दिया, नहीं चाहिए।
मैं पहले भी कह चुका हूं, जो भगवान की सभी दृष्टि से सेवा करेगा, जो ऐसी भक्ति करेगा, उसे लोक और परलोक, दोनों मिलेंगे। उसका कोई अभाव शेष नहीं रहेगा। दुनिया का कोई ऐसा सोपान नहीं, कोई ऐसा गंतव्य नहीं, इसलिए नहीं चाहने पर भी प्रह्लाद जी को भगवान ने राजा बना दिया। किसी को बड़ा फल देना हो, तो पात्र को ही देगा, अपनों को ही देगा, प्रिय को ही देगा। जो मूर्ख है, वह अक्षम बेटे को, पापी बेटे को भी दे देता है। यहां तो ईश्वर को दिया ईश्वर ने।
ऐसे ही संसार के लोगों को धैर्य के साथ सभी कामों में लगे रहना चाहिए। मैंने भी जीवन में अभाव में ही शुरुआत की, किन्तु मुझे भगवान ने सब दिया, रोटी कपड़ा, मान, स्नेह, आत्मीयता, किन्तु मैं हमेशा ध्यान रखता हूं कि मेरा जो ईश्वरीय समर्पण है, वह कभी नीचे नहीं हो जाए। संपूर्ण वरीयता रहनी चाहिए। जो मिला हुआ प्रसाद है भक्ति, ज्ञान, उनका प्रयोग बना रहे।
क्रमश:
Tuesday, 7 May 2019
Why does sadness happen ?
Jagadguru Ramanandacharya Swami Shriramnareshacharya ji
Why is so much suffering in the world? One day I was going to a
village in Bihar. People of different nature, different ages, shapes and stages
were there. Those people had spread a variety of discussions, but there was no
solution for those discussions. Someone was asking why people are not accepting
the parents, They were talking about corruption also. There were one or another curiosity in every man's mind, but
solution was not being done by that group of people. From seeing, It seemed
that people are curious, there is a desire to know. It is written in the
scriptures that curiosity occurs only when there is a doubt and when its
meaning is proved. There is nobody in the world without curiosity. Everyone has
some meaning and doubts too. So the discussion was going on, why people are
getting corrupt, why limitations are being lost. The people asked me to say
something on this. I said that you are discussing well, but this discussion
should have a solution somewhere, it is not happening.
I said, look, I am trying
to convince you from a business example. Everyone in the business has to get
help from someone else. Not all people do big business with their own capital
or money. There is a large percentage of people, who start a business with a
loan from the bank or others. Some people start a business by taking loans from
friends and relatives. The man who takes the money and does not return it, His credibility
begins to end in the market.
People are hesitant to give loans to him. People
will call him a thief or a wrong person. The man will be out of the market. It
is a matter of common world, so I believe that all the dis-arrangements or dislikes
are all because we are not paying the loans from where we have taken. We have
the debt of the Gods, who give us air, give water, give the sky, give the
earth, but we forget.
When a man is born, he is born with three loans. Paternal debt, sage debt and DEV debt. Every person is born as debtor. Those born in the families of Tata-Birla will also be born with these three loans. Rich or poor, everyone will need oxygen, light and water. After taking birth we receive rituals, We get wisdom, these all are debt given by sages or Rishis. At their time they had traditionally received the rituals and wisdom from The God. Now It is debt, our ancestors have given us. With all these people we move forward with debt and do not pay these loans in the same way, like borrowed from the market, but have not paid. The one who does not pay the debt, he will never prosper, he will never succeed, he will never be calm. We all should strive to repay these loans. Due to not repaying these loans, there are all the chaos in the world. There are all the problems.
Everyone was very happy and said that this need to be propagated. Who will not pay the parent’s debt ? Who will not pay the nation's debt ? If We walk on the roads of the nation, but do not accept the nation or the government, how it will go on ? Who does not believe in God, how it will go on ? The original father is the same. All the people of the world need to associate with the tradition that there should be a feeling of gratitude towards where you have got strength for your development.
What you got from the Rishis, What you took from the deities, what you received from the ancestors, it all must be considered.
In the scriptures it has been said to perform five Yajna, the Rishi Yajna, Dev Yagya, Pitra Yagna, Bhoot Yajna, Manushya Yajna. Feeding cows, feeding birds, serving poor, attending visitors and food to the guests is necessary. The person who does these Five Yajna or deeds in his life, is happy and is saved from all suffering.
Sunday, 5 May 2019
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - 6
अंत में इस व्यवहार का संसार में लाखों लोगों ने अनुकरण करके जीवन को धन्य बनाया। प्रह्लाद जी अकेले नहीं हुए, प्रह्लाद जी के जैसे वैदिक सनातन धर्म में असंख्य महान लोग हुए, जिन्होंने पूरा जीवन ईश्वर को समर्पित कर दिया, जिन्होंने जीवन के परम लाभ को प्राप्त किया और ईश्वर जैसा ही हो गए। संसार में न जाने कितने लोग मिट गए, कितने लोग लुट गए, कितने लोग असंख्य भोग के साधनों से जुड़ गए, कितने लोगों ने खूब दान किया, भामाशाह जैसे असंख्य लोग हुए, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिन्होंने व्यवहार किया और जीवन को धन्य बनाया, वे ईश्वर जैसे हो गए। इसी परंपरा में प्रह्लाद हैं।
जैसे सभी नदियों का गंतव्य समुद्र है, वैसे ही मनुष्य को भी जानना चाहिए कि उसका परम गंतव्य ईश्वर है। गुरुओं के बताए रास्ते पर चलकर ज्ञान प्राप्त करके उच्च स्तर पर पहुंचे। हिरण्यकश्यप ने बहुत कोशिश की कि प्रह्लाद जी अपने विश्वास से हट जाएं, किन्तु प्रह्लाद जी नहीं हटे। जो विपरीत परिस्थितियां हैं, जो विपरीत मन वाले लोग हैं, वे सही काम करने वालों को मुश्किल में डालते हैं। ईष्र्या, द्वेष में रहकर लोग अच्छे लोगों को परेशान करते हैं, किन्तु अच्छा रास्ता छोडऩा नहीं चाहिए, अडिग रहना चाहिए। उसी से विजय मिलती है। जीवन सही है, तो उसे धन्य बनाएगा, सुयश देगा। लोक भी देगा और परलोक भी देगा। गलत नीति से चलने वालों का एक बड़ा उदाहरण हिरण्यकश्यप हैं। भोग के लिए अहंकार के लिए जीवन जी रहे हैं। इन्हें कोई मतलब नहीं है ईश्वर से, धर्म से, सदाचार से, मर्यादा से। बेटा, पत्नी से कोई मतलब नहीं है।
हिरण्यकश्यप का पथ गर्त में ले जाने का पथ है। सर्वश्रेष्ठ जीवन को परम लांछित करने का महापथ है। प्रह्लाद जी का महापथ है, ईश्वर का पथ है। लिखा है भागवत में कि प्रह्लाद जी को मारने के लिए हिरण्यकश्यप ने बहुत प्रयास किए। कुचलवाने का प्रयास हुआ, पहाड़ से फेंकवाने का प्रयास हुआ, होलिका की गोद में बैठाकर जलाने का षड्यंत्र हुआ, किन्तु प्रह्लाद के विरुद्ध किसी गलत कार्य में हिरण्यकश्यप सफल नहीं हो पाए।
एक दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को चुनौती देते हुए कहा, तुम्हारा ईश्वर व्यापक है, तो इस जलते-तपते खंभे में प्रकट हो जाए।
ईश्वर की व्यापकता का अगर अहसास हो जाए, तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो जाए, किन्तु ऐसा नहीं होता है। यह तो मन में आता है कि कहां के पार्षद हैं, कहां के विधायक हैं, यह तो अहसास होता है, छोटा जो स्वरूप है, किन्तु यह बात मन में नहीं आती कि ईश्वर व्यापक है। कण-कण में है। बहुत बड़ा सिद्धांत है। घड़े की मिट्टी व्यापक है। कारण व्यापक होता है। वैसे ही संसार में ईश्वर व्यापक है, क्योंकि ईश्वर ही संसार हो गया है।
हिरण्यकश्यप को ईश्वर की सर्वव्यापकता पर विश्वास नहीं है। यह विश्वास तभी आएगा, जब आदमी गुरु के सान्निध्य में जाकर वेदों, स्मृतियों को पढ़ेगा। प्रह्लाद जी की अग्नि परीक्षा हो रही है, तो भगवान खंभे से ही प्रकट हो गए। नरसिंह स्वरूप प्रकट हो गया। धरती कांप गई। विशाल नर और सिंह का संधि स्वरूप - विकराल रूप प्रकट हुआ। सृष्टि संहारक स्वरूप उत्पन्न हो गया। भगवान ने सबसे पहले हिरण्यकश्यप को उठाया और उसका अंत किया।
ईश्वर का ऐसा स्वरूप देख लोग घबरा गए, लगा कि सबका विनाश हो जाएगा। सभी ने वंदना की, किन्तु भगवान शांत नहीं हो रहे थे। सभी ने फिर प्रह्लाद जी से कहा कि प्रभु इस रूप में आपके लिए ही प्रकट हुए हैं, आप प्रार्थना करें। यह नियम है कि जो व्यक्ति किसी से नहीं मान रहा है, उसका जो सबसे अधिक प्रिय है, उससे मनवाने की कोशिश की गई। प्रह्लाद जी भगवान के परम लाड़ले हैं। परम प्रेरणास्पद हैं भगवान। सब लोगों ने कहा, तो प्रह्लाद जी ने प्रार्थना की। बड़ी लंबी प्रार्थना की। भक्ति की महिमा को विस्तार से बतलाया, भगवान की परम उदारता को बतलाया। जाति, रंग, नस्ल का कोई बंधन नहीं। चांडाल भी भक्ति कर रहा है, तो वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है। उसमें लिखा है कि ब्राह्मण अपने पुण्य से ब्राह्मण हुआ, यह शास्त्र-सम्मत है, किन्तु यदि उसने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण जीवन को ईश्वर की सेवा में नहीं लगाया, प्रेम और वंदना में नहीं लगाया, तो उससे तो चांडाल भी श्रेष्ठ है। प्रह्लाद जी ने नरसिंह प्रभु से प्रार्थना करते हुए बहुत लाड़-प्यार किया। प्रह्लाद जी ने खूब सहलाया प्रभु को, तो वे शांत हुए। खुश हुए, कहा कि कुछ मांगो।
क्रमश:
अंत में इस व्यवहार का संसार में लाखों लोगों ने अनुकरण करके जीवन को धन्य बनाया। प्रह्लाद जी अकेले नहीं हुए, प्रह्लाद जी के जैसे वैदिक सनातन धर्म में असंख्य महान लोग हुए, जिन्होंने पूरा जीवन ईश्वर को समर्पित कर दिया, जिन्होंने जीवन के परम लाभ को प्राप्त किया और ईश्वर जैसा ही हो गए। संसार में न जाने कितने लोग मिट गए, कितने लोग लुट गए, कितने लोग असंख्य भोग के साधनों से जुड़ गए, कितने लोगों ने खूब दान किया, भामाशाह जैसे असंख्य लोग हुए, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिन्होंने व्यवहार किया और जीवन को धन्य बनाया, वे ईश्वर जैसे हो गए। इसी परंपरा में प्रह्लाद हैं।
जैसे सभी नदियों का गंतव्य समुद्र है, वैसे ही मनुष्य को भी जानना चाहिए कि उसका परम गंतव्य ईश्वर है। गुरुओं के बताए रास्ते पर चलकर ज्ञान प्राप्त करके उच्च स्तर पर पहुंचे। हिरण्यकश्यप ने बहुत कोशिश की कि प्रह्लाद जी अपने विश्वास से हट जाएं, किन्तु प्रह्लाद जी नहीं हटे। जो विपरीत परिस्थितियां हैं, जो विपरीत मन वाले लोग हैं, वे सही काम करने वालों को मुश्किल में डालते हैं। ईष्र्या, द्वेष में रहकर लोग अच्छे लोगों को परेशान करते हैं, किन्तु अच्छा रास्ता छोडऩा नहीं चाहिए, अडिग रहना चाहिए। उसी से विजय मिलती है। जीवन सही है, तो उसे धन्य बनाएगा, सुयश देगा। लोक भी देगा और परलोक भी देगा। गलत नीति से चलने वालों का एक बड़ा उदाहरण हिरण्यकश्यप हैं। भोग के लिए अहंकार के लिए जीवन जी रहे हैं। इन्हें कोई मतलब नहीं है ईश्वर से, धर्म से, सदाचार से, मर्यादा से। बेटा, पत्नी से कोई मतलब नहीं है।
हिरण्यकश्यप का पथ गर्त में ले जाने का पथ है। सर्वश्रेष्ठ जीवन को परम लांछित करने का महापथ है। प्रह्लाद जी का महापथ है, ईश्वर का पथ है। लिखा है भागवत में कि प्रह्लाद जी को मारने के लिए हिरण्यकश्यप ने बहुत प्रयास किए। कुचलवाने का प्रयास हुआ, पहाड़ से फेंकवाने का प्रयास हुआ, होलिका की गोद में बैठाकर जलाने का षड्यंत्र हुआ, किन्तु प्रह्लाद के विरुद्ध किसी गलत कार्य में हिरण्यकश्यप सफल नहीं हो पाए।
एक दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को चुनौती देते हुए कहा, तुम्हारा ईश्वर व्यापक है, तो इस जलते-तपते खंभे में प्रकट हो जाए।
ईश्वर की व्यापकता का अगर अहसास हो जाए, तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो जाए, किन्तु ऐसा नहीं होता है। यह तो मन में आता है कि कहां के पार्षद हैं, कहां के विधायक हैं, यह तो अहसास होता है, छोटा जो स्वरूप है, किन्तु यह बात मन में नहीं आती कि ईश्वर व्यापक है। कण-कण में है। बहुत बड़ा सिद्धांत है। घड़े की मिट्टी व्यापक है। कारण व्यापक होता है। वैसे ही संसार में ईश्वर व्यापक है, क्योंकि ईश्वर ही संसार हो गया है।
हिरण्यकश्यप को ईश्वर की सर्वव्यापकता पर विश्वास नहीं है। यह विश्वास तभी आएगा, जब आदमी गुरु के सान्निध्य में जाकर वेदों, स्मृतियों को पढ़ेगा। प्रह्लाद जी की अग्नि परीक्षा हो रही है, तो भगवान खंभे से ही प्रकट हो गए। नरसिंह स्वरूप प्रकट हो गया। धरती कांप गई। विशाल नर और सिंह का संधि स्वरूप - विकराल रूप प्रकट हुआ। सृष्टि संहारक स्वरूप उत्पन्न हो गया। भगवान ने सबसे पहले हिरण्यकश्यप को उठाया और उसका अंत किया।
ईश्वर का ऐसा स्वरूप देख लोग घबरा गए, लगा कि सबका विनाश हो जाएगा। सभी ने वंदना की, किन्तु भगवान शांत नहीं हो रहे थे। सभी ने फिर प्रह्लाद जी से कहा कि प्रभु इस रूप में आपके लिए ही प्रकट हुए हैं, आप प्रार्थना करें। यह नियम है कि जो व्यक्ति किसी से नहीं मान रहा है, उसका जो सबसे अधिक प्रिय है, उससे मनवाने की कोशिश की गई। प्रह्लाद जी भगवान के परम लाड़ले हैं। परम प्रेरणास्पद हैं भगवान। सब लोगों ने कहा, तो प्रह्लाद जी ने प्रार्थना की। बड़ी लंबी प्रार्थना की। भक्ति की महिमा को विस्तार से बतलाया, भगवान की परम उदारता को बतलाया। जाति, रंग, नस्ल का कोई बंधन नहीं। चांडाल भी भक्ति कर रहा है, तो वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है। उसमें लिखा है कि ब्राह्मण अपने पुण्य से ब्राह्मण हुआ, यह शास्त्र-सम्मत है, किन्तु यदि उसने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण जीवन को ईश्वर की सेवा में नहीं लगाया, प्रेम और वंदना में नहीं लगाया, तो उससे तो चांडाल भी श्रेष्ठ है। प्रह्लाद जी ने नरसिंह प्रभु से प्रार्थना करते हुए बहुत लाड़-प्यार किया। प्रह्लाद जी ने खूब सहलाया प्रभु को, तो वे शांत हुए। खुश हुए, कहा कि कुछ मांगो।
क्रमश:
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - 5
मुझे तो कोई मित्र मिलता ही नहीं था। छोटी आयु में भगवान ने मेरी बनावट ऐसी की थी कि मेरी किसी से मित्रता नहीं होती थी। मेरे जीवन से दूसरों का ऐसा अंतर होता था कि मैं कह नहीं पाता था और न कोई मुझे मित्र कह पाता था। साधु जीवन में आने पर भी लोग मुझे मित्र कहने में हिचकते हैं। एक बार एक आदमी ने कहा कि मैं उनका मित्र हूं, तो उठ के चल पड़ा, कैसा मित्र? कहां उनका जीवन, एक घंटा लगाते थे कपड़ा पहनने में, अपनी दाढ़ी दांत से ही काटते रहते थे, वो बाद में बिगड़ गए, किसी युवती के साथ जुड़ गए। संन्यासी जीवन उनका गड़बड़ा गया। पहनने का ठिकाना नहीं, कभी इधर देखेगा, कभी उधर देखेगा। स्वभाव, उद्देश्य, ज्ञान, विज्ञान की साम्यता नहीं, तो कैसी मित्रता? हमने सोचा कि भगवान को ही मित्र बनाएंगे।
राम जी को सखा भाव बहुत प्रिय है। अंगद को भी राम जी सखा बोलते हैं। नल, नील को भी बोलते हैं। लगता है कि पूरे संसार के जीवों को भगवान सखा मान रहे हैं। कोल, भील, किरात, किसी को नौकर नहीं मान रहे हैं।
जब राम जी अयोध्या आए, तो वानरों की ओर संकेत करके गुरु वशिष्ठ से कहा कि ये मेरे मित्र हैं। इन्होंने मेरे युद्ध रूपी जहाज को संभाला। राम जी ने सुग्रीव को मित्र बनाया, किन्तु जब सुग्रीव को समझ आ गई, तो वह स्वयं को राम जी का दास ही मान रहा था। पूर्ण समर्पण भी ईश्वर के साथ। पूर्ण समर्पण पार्टी, जाति, परिवार को नहीं करना है। जिसने हमें पूर्ण जीवन दिया है, जिससे जुडक़र ही पूर्णता हुई है, उसी को समर्पित होना है। अपने समस्त कर्मों को ईश्वरीय चासनी में भिगोना होगा। वैसा ही करना होगा, जैसा ईश्वर करते हैं और जैसा वे सबसे चाहते हैं।
प्रह्लाद जी ने कहा कि वाणी, आंखें, मन भी, हमारे हाथ भी, हमारे पैर भी, हमारा रोम-रोम, हमारी सांस-सांस, हमारी चेष्टा, इन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां, परमेन्द्रियां भगवान के लिए समर्पित और श्रेष्ठ जीवन की हैं। यह मोक्षीय व्यवहार है। मैं कहना चाह रहा हूं, जीवन का जो सर्वश्रेष्ठ व्यवहार का स्वरूप है, वह यही है कि हम ईश्वर के लिए अपने संपूर्ण जीवन को समर्पित करें। उसके लिए ज्ञान, शिक्षा की संप्राप्ति करके जीवन जीएं। यह सृष्टि और समाज का वरदान जीवन होगा। जिन संतों ने, जिन ऋषियों ने, जिन समाजसेवियों ने संपूर्ण रीति से अपने को समर्पित कर दिया, सृष्टि के लिए संसार के लिए वही बड़े लोग इतिहास में हैं। इनमें जाति का बंधन नहीं है, कोई भी हो सकता है।
महात्मा गांधी का जन्म वैश्य परिवार में हुआ था, कभी चर्चा नहीं होती कि बनिया राष्ट्रपिता कैसे हो गया। उस समय किसी का व्यक्तित्व नहीं था वैसा। अपने को ईश्वर के लिए समर्पित कर देना। उन्होंने अपने को राष्ट्र को पूर्ण समर्पित कर दिया, तो उन्हें राष्ट्रपिता बना दिया गया। यहां जाति नहीं चलती। रूप नहीं चला, बहुत लोग विद्वान थे, गांधी जी से भी धनवान थे, तमाम तरह की बातें बड़ी थीं, किन्तु गांधी जी ही महान कहलाए। वैसे ही जीव जब ईश्वर को अपना संपूर्ण अर्पित करता है, तो ही आगे बढ़ता है।
प्रह्लाद जी के पिता के मन में यह बात समा नहीं रही थी कि मेरे अतिरिक्त कोई ईश्वर शक्तिशाली है। मेरा बेटा ही मुझे ईश्वर नहीं मान रहा है, यह कोई बेटा है क्या? जो आदमी बड़े उद्देश्य का होता है, वह छोटे उद्देश्य वालों को बड़ा ही बेकार लगता है। हिरण्यकश्यप मान रहे हैं कि बेटा मेरा दुश्मन है। विपरीत धारा वाला है। प्रह्लाद जी जीवन के सर्वश्रेष्ठ मोक्षीय व्यवहार के बहुत बड़े उदाहरण हैं। मोक्ष अंतिम व्यवहार और परम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है। ईश्वर के बढ़े अनुग्रह से असंख्य जीवन के पुण्य प्रभाव से जो मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है, जो परम लाभ है, यह जीवन - ऋषि जीवन है।
यह परमार्थ नहीं है, यह व्यवहार है। जैसे सिर पर सामान रखकर बेचना, कुदाल चलाना, छोटी-मोटी नौकरी करना व्यापार है, वैसे ही लाखों लोगों को जीवन देना, मकान देना, यह भी तो व्यापार है। वैसे ही व्यवहार की पराकाष्ठा सबसे बड़ी ऊंचाई। उसके सामने एवरेस्ट की ऊंचाई तक कम है। और ऊंचाई...ऊंचाई का जो अंतिम स्वरूप है, वह व्यवहार है मोक्षीय व्यवहार।
क्रमश:
मुझे तो कोई मित्र मिलता ही नहीं था। छोटी आयु में भगवान ने मेरी बनावट ऐसी की थी कि मेरी किसी से मित्रता नहीं होती थी। मेरे जीवन से दूसरों का ऐसा अंतर होता था कि मैं कह नहीं पाता था और न कोई मुझे मित्र कह पाता था। साधु जीवन में आने पर भी लोग मुझे मित्र कहने में हिचकते हैं। एक बार एक आदमी ने कहा कि मैं उनका मित्र हूं, तो उठ के चल पड़ा, कैसा मित्र? कहां उनका जीवन, एक घंटा लगाते थे कपड़ा पहनने में, अपनी दाढ़ी दांत से ही काटते रहते थे, वो बाद में बिगड़ गए, किसी युवती के साथ जुड़ गए। संन्यासी जीवन उनका गड़बड़ा गया। पहनने का ठिकाना नहीं, कभी इधर देखेगा, कभी उधर देखेगा। स्वभाव, उद्देश्य, ज्ञान, विज्ञान की साम्यता नहीं, तो कैसी मित्रता? हमने सोचा कि भगवान को ही मित्र बनाएंगे।
राम जी को सखा भाव बहुत प्रिय है। अंगद को भी राम जी सखा बोलते हैं। नल, नील को भी बोलते हैं। लगता है कि पूरे संसार के जीवों को भगवान सखा मान रहे हैं। कोल, भील, किरात, किसी को नौकर नहीं मान रहे हैं।
जब राम जी अयोध्या आए, तो वानरों की ओर संकेत करके गुरु वशिष्ठ से कहा कि ये मेरे मित्र हैं। इन्होंने मेरे युद्ध रूपी जहाज को संभाला। राम जी ने सुग्रीव को मित्र बनाया, किन्तु जब सुग्रीव को समझ आ गई, तो वह स्वयं को राम जी का दास ही मान रहा था। पूर्ण समर्पण भी ईश्वर के साथ। पूर्ण समर्पण पार्टी, जाति, परिवार को नहीं करना है। जिसने हमें पूर्ण जीवन दिया है, जिससे जुडक़र ही पूर्णता हुई है, उसी को समर्पित होना है। अपने समस्त कर्मों को ईश्वरीय चासनी में भिगोना होगा। वैसा ही करना होगा, जैसा ईश्वर करते हैं और जैसा वे सबसे चाहते हैं।
प्रह्लाद जी ने कहा कि वाणी, आंखें, मन भी, हमारे हाथ भी, हमारे पैर भी, हमारा रोम-रोम, हमारी सांस-सांस, हमारी चेष्टा, इन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां, परमेन्द्रियां भगवान के लिए समर्पित और श्रेष्ठ जीवन की हैं। यह मोक्षीय व्यवहार है। मैं कहना चाह रहा हूं, जीवन का जो सर्वश्रेष्ठ व्यवहार का स्वरूप है, वह यही है कि हम ईश्वर के लिए अपने संपूर्ण जीवन को समर्पित करें। उसके लिए ज्ञान, शिक्षा की संप्राप्ति करके जीवन जीएं। यह सृष्टि और समाज का वरदान जीवन होगा। जिन संतों ने, जिन ऋषियों ने, जिन समाजसेवियों ने संपूर्ण रीति से अपने को समर्पित कर दिया, सृष्टि के लिए संसार के लिए वही बड़े लोग इतिहास में हैं। इनमें जाति का बंधन नहीं है, कोई भी हो सकता है।
महात्मा गांधी का जन्म वैश्य परिवार में हुआ था, कभी चर्चा नहीं होती कि बनिया राष्ट्रपिता कैसे हो गया। उस समय किसी का व्यक्तित्व नहीं था वैसा। अपने को ईश्वर के लिए समर्पित कर देना। उन्होंने अपने को राष्ट्र को पूर्ण समर्पित कर दिया, तो उन्हें राष्ट्रपिता बना दिया गया। यहां जाति नहीं चलती। रूप नहीं चला, बहुत लोग विद्वान थे, गांधी जी से भी धनवान थे, तमाम तरह की बातें बड़ी थीं, किन्तु गांधी जी ही महान कहलाए। वैसे ही जीव जब ईश्वर को अपना संपूर्ण अर्पित करता है, तो ही आगे बढ़ता है।
प्रह्लाद जी के पिता के मन में यह बात समा नहीं रही थी कि मेरे अतिरिक्त कोई ईश्वर शक्तिशाली है। मेरा बेटा ही मुझे ईश्वर नहीं मान रहा है, यह कोई बेटा है क्या? जो आदमी बड़े उद्देश्य का होता है, वह छोटे उद्देश्य वालों को बड़ा ही बेकार लगता है। हिरण्यकश्यप मान रहे हैं कि बेटा मेरा दुश्मन है। विपरीत धारा वाला है। प्रह्लाद जी जीवन के सर्वश्रेष्ठ मोक्षीय व्यवहार के बहुत बड़े उदाहरण हैं। मोक्ष अंतिम व्यवहार और परम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है। ईश्वर के बढ़े अनुग्रह से असंख्य जीवन के पुण्य प्रभाव से जो मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है, जो परम लाभ है, यह जीवन - ऋषि जीवन है।
यह परमार्थ नहीं है, यह व्यवहार है। जैसे सिर पर सामान रखकर बेचना, कुदाल चलाना, छोटी-मोटी नौकरी करना व्यापार है, वैसे ही लाखों लोगों को जीवन देना, मकान देना, यह भी तो व्यापार है। वैसे ही व्यवहार की पराकाष्ठा सबसे बड़ी ऊंचाई। उसके सामने एवरेस्ट की ऊंचाई तक कम है। और ऊंचाई...ऊंचाई का जो अंतिम स्वरूप है, वह व्यवहार है मोक्षीय व्यवहार।
क्रमश:
Wednesday, 1 May 2019
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - ४
जब हम सुनेंगे ईश्वर को, तो कहां से सुनेंगे, किससे सुनेंगे। संसार में अनेक धर्मों की परंपराएं खड़ी हो गई हैं, जिनको सीधे-सीधे लोग बोलते हैं कि सब धर्म बराबर हैं। तो आइंस्टीन भी बराबर और पटाखा बनाने वाला भी बराबर। बर्तन बनाने वाला भी बराबर और बर्तन धोने वाली भी बराबर। कई लोग हैं, जो माता-पिता को ही बर्तन धोने में लगा देते हैं, क्योंकि वे नौकर नहीं रख सकते। तो हमें ऐसा नहीं मानना है कि किसी को भी सुनें ईश्वर के लिए। हम वेदों को सुनेंगे। बराबरी कैसे होगी? वो तो लूटने आए थे, कुछ लोग आज भी वही काम कर रहे हैं। गौतम बुद्ध के लोग भी आगे चलकर विक्षिप्त हुए, सनातन धर्म को अपशब्द बोलकर। मांस, मदिरा इत्यादि का सेवन सब करने लगे। सारे दुव्र्यसन करने लगे। तो हम केवल वेदों को ही सुनें।
कहा प्रह्लाद जी ने कि हमें उस ईश्वर को जानना है। केवल सुनने के लिए ही नहीं, उस ईश्वर की वाणी का वाचन भी करें। सुनें, देखें और बोलें। हमें उसका स्मरण भी करना है। तीनों इन्द्रियां साथ हैं। सुनना, गायन करना और मन से स्मरण करना। स्मरण से प्रेम उत्पन्न होता है ज्ञान और परिपक्व होता है।
प्रह्लाद जी ने कहा कि ईश्वर को ही जानना है। भक्ति और ज्ञान का स्वरूप स्मरण है। तेल की धारा टूटती नहीं है, वैसे ही स्मरण है, जो टूटे ना। ऐसे स्मरण से उत्पन्न प्रेम ही भक्ति है।
कई बार अपने स्वजनों के बीच भी कई महीनों के बाद बातचीत होती है, किन्तु मन में स्मरण रहता है, अपनत्व निरंतर रहता है, तो लगता ही नहीं है कि कितने दिन बीत गए और बात ही नहीं हुई। हमारा कोई भी अनुयायी हो, समर्थक हो, अपने को बल देने वाला हो, अपने को अपना मानने वाला हो, उससे बातचीत नहीं हुई, किन्तु स्मरण से परस्पर जुड़े रहे। हमने जो कहा है, उसने जो कहा है, उसके आधार पर स्मरण होता है। स्मरण का अर्थ है अनुभव होगा, तो संस्कार उत्पन्न होंगे, उन्हीं संस्कारों से उद्बोधक की प्राप्ति होगी। भगवान का स्मरण करें। अभी चुनाव होना है, तो पूरे देश के लोग लगे हैं। अपशब्द बोले जा रहे हैं। तमाम आरोप लग रहे हैं। लोकतंत्र को घटिया बना रहे हैं लोग। मन उसी में जा रहा है। यदि हम ईश्वर को सुनेंगे-गाएंगे-स्मरण करेंगे, उससे जो हमारा ज्ञान परिपक्व होगा, तो ईश्वर के दर्शन होंगे, तो हमारा उसमें प्रेम बढ़ेगा। प्रेमी का स्तर कैसा है, उसी से तो प्रेम का स्तर तय होता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, वह कैसा है। किसी का दुष्ट ही प्रेमास्पद है, किसी का कुत्ता ही प्रेमास्पद है। पीने वाला है नाचने वाला है। प्रह्लाद जी ने कहा कि हम ईश्वर से प्रेम करेंगे, जो दुनिया का सबसे बड़ा है, किसी भी दुर्गुण से युक्त नहीं है। उसी की हम चरण सेवा करेंगे। पादसेवनम्
उसी की हम पूजा करेंगे। संपूर्ण साधनों से उसकी हम वंदना करेंगे। उसको प्रणाम करेंगे। उसी को हम अपना मित्र बनाएंगे। हमें मित्रों की आवश्यकता होती है, जो हमारी बराबरी का हो, जिसे हम मानें कि ये मेरे जैसा है, मैं इसके जैसा हूं, स्वच्छ भाव से हम जुड़ें। भगवान के सामने सुग्रीव और विभीषण की क्या योग्यता है, किन्तु भगवान ने सखा बना लिया। जैसे पत्नी का अपहरण करने वाले रावण को हमें दंडित करना है, वैसे ही सुग्रीव की भी पत्नी का अपहरण हुआ है, उनके लिए भी लडऩा है। जैसे मैं संसार के लोगों में श्रेष्ठ भावनाओं का प्रसार करता हूं, ठीक वैसे ही ये भी करेंगे। विभीषण लंका को अयोध्या बनाएंगे और सुग्रीव किष्किन्धा को बनाएंगे। बहुत बड़े क्षेत्र को अयोध्या जैसा बनाएंगे। भगवान को मित्र बनाना है। तमाम लोग दुनिया में हैं, जिनका कोई मित्र नहीं है। समान संस्कार और दीक्षा चरित्र, कत्र्तव्य के लोग नहीं हैं। मित्रता का बड़ा अकाल है। ऐसे-ऐसे लोगों को मित्र लोग बना लेते हैं।
क्रमश:
जब हम सुनेंगे ईश्वर को, तो कहां से सुनेंगे, किससे सुनेंगे। संसार में अनेक धर्मों की परंपराएं खड़ी हो गई हैं, जिनको सीधे-सीधे लोग बोलते हैं कि सब धर्म बराबर हैं। तो आइंस्टीन भी बराबर और पटाखा बनाने वाला भी बराबर। बर्तन बनाने वाला भी बराबर और बर्तन धोने वाली भी बराबर। कई लोग हैं, जो माता-पिता को ही बर्तन धोने में लगा देते हैं, क्योंकि वे नौकर नहीं रख सकते। तो हमें ऐसा नहीं मानना है कि किसी को भी सुनें ईश्वर के लिए। हम वेदों को सुनेंगे। बराबरी कैसे होगी? वो तो लूटने आए थे, कुछ लोग आज भी वही काम कर रहे हैं। गौतम बुद्ध के लोग भी आगे चलकर विक्षिप्त हुए, सनातन धर्म को अपशब्द बोलकर। मांस, मदिरा इत्यादि का सेवन सब करने लगे। सारे दुव्र्यसन करने लगे। तो हम केवल वेदों को ही सुनें।
कहा प्रह्लाद जी ने कि हमें उस ईश्वर को जानना है। केवल सुनने के लिए ही नहीं, उस ईश्वर की वाणी का वाचन भी करें। सुनें, देखें और बोलें। हमें उसका स्मरण भी करना है। तीनों इन्द्रियां साथ हैं। सुनना, गायन करना और मन से स्मरण करना। स्मरण से प्रेम उत्पन्न होता है ज्ञान और परिपक्व होता है।
प्रह्लाद जी ने कहा कि ईश्वर को ही जानना है। भक्ति और ज्ञान का स्वरूप स्मरण है। तेल की धारा टूटती नहीं है, वैसे ही स्मरण है, जो टूटे ना। ऐसे स्मरण से उत्पन्न प्रेम ही भक्ति है।
कई बार अपने स्वजनों के बीच भी कई महीनों के बाद बातचीत होती है, किन्तु मन में स्मरण रहता है, अपनत्व निरंतर रहता है, तो लगता ही नहीं है कि कितने दिन बीत गए और बात ही नहीं हुई। हमारा कोई भी अनुयायी हो, समर्थक हो, अपने को बल देने वाला हो, अपने को अपना मानने वाला हो, उससे बातचीत नहीं हुई, किन्तु स्मरण से परस्पर जुड़े रहे। हमने जो कहा है, उसने जो कहा है, उसके आधार पर स्मरण होता है। स्मरण का अर्थ है अनुभव होगा, तो संस्कार उत्पन्न होंगे, उन्हीं संस्कारों से उद्बोधक की प्राप्ति होगी। भगवान का स्मरण करें। अभी चुनाव होना है, तो पूरे देश के लोग लगे हैं। अपशब्द बोले जा रहे हैं। तमाम आरोप लग रहे हैं। लोकतंत्र को घटिया बना रहे हैं लोग। मन उसी में जा रहा है। यदि हम ईश्वर को सुनेंगे-गाएंगे-स्मरण करेंगे, उससे जो हमारा ज्ञान परिपक्व होगा, तो ईश्वर के दर्शन होंगे, तो हमारा उसमें प्रेम बढ़ेगा। प्रेमी का स्तर कैसा है, उसी से तो प्रेम का स्तर तय होता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, वह कैसा है। किसी का दुष्ट ही प्रेमास्पद है, किसी का कुत्ता ही प्रेमास्पद है। पीने वाला है नाचने वाला है। प्रह्लाद जी ने कहा कि हम ईश्वर से प्रेम करेंगे, जो दुनिया का सबसे बड़ा है, किसी भी दुर्गुण से युक्त नहीं है। उसी की हम चरण सेवा करेंगे। पादसेवनम्
उसी की हम पूजा करेंगे। संपूर्ण साधनों से उसकी हम वंदना करेंगे। उसको प्रणाम करेंगे। उसी को हम अपना मित्र बनाएंगे। हमें मित्रों की आवश्यकता होती है, जो हमारी बराबरी का हो, जिसे हम मानें कि ये मेरे जैसा है, मैं इसके जैसा हूं, स्वच्छ भाव से हम जुड़ें। भगवान के सामने सुग्रीव और विभीषण की क्या योग्यता है, किन्तु भगवान ने सखा बना लिया। जैसे पत्नी का अपहरण करने वाले रावण को हमें दंडित करना है, वैसे ही सुग्रीव की भी पत्नी का अपहरण हुआ है, उनके लिए भी लडऩा है। जैसे मैं संसार के लोगों में श्रेष्ठ भावनाओं का प्रसार करता हूं, ठीक वैसे ही ये भी करेंगे। विभीषण लंका को अयोध्या बनाएंगे और सुग्रीव किष्किन्धा को बनाएंगे। बहुत बड़े क्षेत्र को अयोध्या जैसा बनाएंगे। भगवान को मित्र बनाना है। तमाम लोग दुनिया में हैं, जिनका कोई मित्र नहीं है। समान संस्कार और दीक्षा चरित्र, कत्र्तव्य के लोग नहीं हैं। मित्रता का बड़ा अकाल है। ऐसे-ऐसे लोगों को मित्र लोग बना लेते हैं।
क्रमश:
Monday, 29 April 2019
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - 3
वैदिक सनातन धर्म की परंपरा में पुनर्जन्म पर परम विश्वास है। अब तो दुनिया की तमाम परंपराएं, संप्रदाय, पंथ और लोग पुनर्जन्म में विश्वास करने लगे हैं। बड़ी लंबी विवेचना है पुनर्जन्म के सम्बंध में।
प्रह्लाद जी का चिंतन देखिए, अरे... ईश्वर के बिना कौन-सा संसार। हम तमाम लोगों को सुनते हैं, देखते हैं, उनके लिए करते हैं, तमाम विषयों से हम अपनी इन्द्रियों को जोड़ते हैं, स्मरण करते हैं, चिंतन करते हैं, निश्चय करते हैं, अहंकार करते हैं कि ये मेरा है, ये मेरा है, यही अहंकार है। किन्तु इन सभी संसाधनों का जो मुख्य व्यवहार है, वह ईश्वर है। हम सुनेंगे, तो ईश्वर को सुनेंगे। हम देखेंगे, तो ईश्वर को देखेंगे।
वेदों ने कहा - आत्मा वा रे द्रष्टव्य:।
आत्मा का ही दर्शन करो, देखो उसको, देखने योग्य है वो, उसका साक्षात्कार करो, उसकी अपरोक्षानुभूति करो, जो ज्ञान की अनुभूति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है, वही है देखने योग्य, उसको देखो। सिनेमा देख करके, क्रिकेट देखकर जीवन किसी का बड़ा नहीं हुआ है और न कभी होगा। सफल वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जितना समय लगाते हैं, उतना समय वे सिनेमा देखने में नहीं लगाते। सिनेमा, क्रिकेट में थोड़ी देर के लिए आनंद मिलता है, ताली बजा दिए और बस हो गया। संसार जिनसे अपेक्षा करता है और गौरवान्वित होता है, वो तो प्रयोगशाला में रहकर साधना करते हैं, जंगल में रहकर साधना करते हैं, विकास के क्रम में लगकर साधना करते हैं।
तो प्रह्लाद जी ने कहा, यह तो आत्मा ही देखने योग्य है... ईश्वर । आत्मा का एक अर्थ जीवात्मा भी होता है। हमें अपने को देखना चाहिए, किन्तु लोग व्यवहार में दूसरों को ही देख रहे हैं। अपना भी तो देखो। मन कैसा है, क्रिया कैसी है, तुम्हारी इच्छाएं कैसी हैं, तुम्हारे संकल्प कैसे हैं, उसको भी देखो। दूसरे को देख रहे हैं कि ये पतित है और तू क्या है। अपना देख ही नहीं रहा है, तो आत्मा-परमात्मा, दोनों को देखें, जिसमें परमात्मा मुख्य हुआ, उसी को हमें देखना है। उसी को हमें सुनना है। ऐसा नहीं है कि हम रास्ता किसी से पूछ रहे हैं और वो बतलावे, तो हम नहीं सुनें। ऐसा नहीं है कि जो हमारी जिम्मेदारियां हैं, उनको हम नहीं सुनें, उनको सुनना ही होगा। किन्तु संसार के जो लौकिक व्यवहार और जिम्मेदारियां हैं, उनको भी उसका साधन बनाना है, इसका मुख्य लक्ष्य वहीं पहुंचने का है। तो प्रह्लाद जी ने कहा,
श्रवणं कीर्तनम विष्णो: - हमें सुनना भी उसी को है, जो वेदों ने कहा था, आत्मा वा रे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।
ईश्वर को देखना है, तो आप कैसे देखेंगे, उसके प्रतिपादक शास्त्रों को सुनिए। ईश्वर को यदि आपको जानना है, तो ज्ञान का सबसे बड़ा साधन तो श्रवण है। श्रवण माने शब्दों को कानों से ग्रहण करना और उनके अर्थों के माध्यम से पूरे वाक्य के अर्थ का ज्ञान करना, इसको शब्द बोध कहते हैं। पहले हम शब्दों को सुनते हैं, यह प्रत्यक्ष हुआ, पद ज्ञान हुआ, शब्द ज्ञान हुआ, फिर उन शब्दों के अर्थ जो होते हैं, उनका ज्ञान हुआ कि इस शब्द का अर्थ क्या है। फिर उन सभी शब्दों के अर्थ जुड़ जाते हैं रेल के डिब्बों की तरह और उनका एक बोध तैयार होता है, उसको ही बोलते हैं शब्दबोध। वाक्यार्थबोध। तो ईश्वर को सुनना चाहिए। नहीं सुनने के कारण ही आज पतन हो रहा है। जब विद्यार्थी नहीं सुनेगा अपने अध्यापक के वचनों को, तो न परीक्षा में अच्छी श्रेणी से उत्तीर्ण होगा और न वो विद्वान हो पाएगा, उसको समझ नहीं हो पाएगी। तो भगवान को सुनना है। वेदों के, पुराणों के, इतिहासों के माध्यम से सुनना है। ईश्वर प्रतिपादन की जो विधा हमें अनादि काल से प्राप्त हुई, वो दुनिया में कहीं नहीं है। जैसे अरबपति के सामने दूसरे व्यवसायी लगता है कि ये तो भिखमंगे हैं। लोग पढ़ते हैं अखबारों में कि मात्र डेढ़ सौ या दो सौ उद्यमी घरानों के पास अपने देश की ७५ प्रतिशत संपदा है। बाकी लोग तो हो गए सीताराम, उनके पास क्या है, कुछ भी नहीं है।
क्रमश:
वैदिक सनातन धर्म की परंपरा में पुनर्जन्म पर परम विश्वास है। अब तो दुनिया की तमाम परंपराएं, संप्रदाय, पंथ और लोग पुनर्जन्म में विश्वास करने लगे हैं। बड़ी लंबी विवेचना है पुनर्जन्म के सम्बंध में।
प्रह्लाद जी का चिंतन देखिए, अरे... ईश्वर के बिना कौन-सा संसार। हम तमाम लोगों को सुनते हैं, देखते हैं, उनके लिए करते हैं, तमाम विषयों से हम अपनी इन्द्रियों को जोड़ते हैं, स्मरण करते हैं, चिंतन करते हैं, निश्चय करते हैं, अहंकार करते हैं कि ये मेरा है, ये मेरा है, यही अहंकार है। किन्तु इन सभी संसाधनों का जो मुख्य व्यवहार है, वह ईश्वर है। हम सुनेंगे, तो ईश्वर को सुनेंगे। हम देखेंगे, तो ईश्वर को देखेंगे।
वेदों ने कहा - आत्मा वा रे द्रष्टव्य:।
आत्मा का ही दर्शन करो, देखो उसको, देखने योग्य है वो, उसका साक्षात्कार करो, उसकी अपरोक्षानुभूति करो, जो ज्ञान की अनुभूति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है, वही है देखने योग्य, उसको देखो। सिनेमा देख करके, क्रिकेट देखकर जीवन किसी का बड़ा नहीं हुआ है और न कभी होगा। सफल वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जितना समय लगाते हैं, उतना समय वे सिनेमा देखने में नहीं लगाते। सिनेमा, क्रिकेट में थोड़ी देर के लिए आनंद मिलता है, ताली बजा दिए और बस हो गया। संसार जिनसे अपेक्षा करता है और गौरवान्वित होता है, वो तो प्रयोगशाला में रहकर साधना करते हैं, जंगल में रहकर साधना करते हैं, विकास के क्रम में लगकर साधना करते हैं।
तो प्रह्लाद जी ने कहा, यह तो आत्मा ही देखने योग्य है... ईश्वर । आत्मा का एक अर्थ जीवात्मा भी होता है। हमें अपने को देखना चाहिए, किन्तु लोग व्यवहार में दूसरों को ही देख रहे हैं। अपना भी तो देखो। मन कैसा है, क्रिया कैसी है, तुम्हारी इच्छाएं कैसी हैं, तुम्हारे संकल्प कैसे हैं, उसको भी देखो। दूसरे को देख रहे हैं कि ये पतित है और तू क्या है। अपना देख ही नहीं रहा है, तो आत्मा-परमात्मा, दोनों को देखें, जिसमें परमात्मा मुख्य हुआ, उसी को हमें देखना है। उसी को हमें सुनना है। ऐसा नहीं है कि हम रास्ता किसी से पूछ रहे हैं और वो बतलावे, तो हम नहीं सुनें। ऐसा नहीं है कि जो हमारी जिम्मेदारियां हैं, उनको हम नहीं सुनें, उनको सुनना ही होगा। किन्तु संसार के जो लौकिक व्यवहार और जिम्मेदारियां हैं, उनको भी उसका साधन बनाना है, इसका मुख्य लक्ष्य वहीं पहुंचने का है। तो प्रह्लाद जी ने कहा,
श्रवणं कीर्तनम विष्णो: - हमें सुनना भी उसी को है, जो वेदों ने कहा था, आत्मा वा रे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।
ईश्वर को देखना है, तो आप कैसे देखेंगे, उसके प्रतिपादक शास्त्रों को सुनिए। ईश्वर को यदि आपको जानना है, तो ज्ञान का सबसे बड़ा साधन तो श्रवण है। श्रवण माने शब्दों को कानों से ग्रहण करना और उनके अर्थों के माध्यम से पूरे वाक्य के अर्थ का ज्ञान करना, इसको शब्द बोध कहते हैं। पहले हम शब्दों को सुनते हैं, यह प्रत्यक्ष हुआ, पद ज्ञान हुआ, शब्द ज्ञान हुआ, फिर उन शब्दों के अर्थ जो होते हैं, उनका ज्ञान हुआ कि इस शब्द का अर्थ क्या है। फिर उन सभी शब्दों के अर्थ जुड़ जाते हैं रेल के डिब्बों की तरह और उनका एक बोध तैयार होता है, उसको ही बोलते हैं शब्दबोध। वाक्यार्थबोध। तो ईश्वर को सुनना चाहिए। नहीं सुनने के कारण ही आज पतन हो रहा है। जब विद्यार्थी नहीं सुनेगा अपने अध्यापक के वचनों को, तो न परीक्षा में अच्छी श्रेणी से उत्तीर्ण होगा और न वो विद्वान हो पाएगा, उसको समझ नहीं हो पाएगी। तो भगवान को सुनना है। वेदों के, पुराणों के, इतिहासों के माध्यम से सुनना है। ईश्वर प्रतिपादन की जो विधा हमें अनादि काल से प्राप्त हुई, वो दुनिया में कहीं नहीं है। जैसे अरबपति के सामने दूसरे व्यवसायी लगता है कि ये तो भिखमंगे हैं। लोग पढ़ते हैं अखबारों में कि मात्र डेढ़ सौ या दो सौ उद्यमी घरानों के पास अपने देश की ७५ प्रतिशत संपदा है। बाकी लोग तो हो गए सीताराम, उनके पास क्या है, कुछ भी नहीं है।
क्रमश:
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
भाग - २
प्रह्लाद जी की जो शिक्षा है, वह हिरण्यकश्यप की विचारधारा से मेल नहीं खा रही है। हिरण्यकश्यप की विचारधारा में कोई ईश्वर नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई वेद नहीं, कोई पुराण नहीं। प्रह्लाद जी को शिक्षा मिलनी थी, मिली। ईश्वर के बनाए संसार में मिली। हिरण्यकश्यप क्या बनाएंगे आकाश को, सूर्य को, चंद्रमा को। उन्हें भी मालूम है कि मैं नहीं बना सकता, किन्तु उनका ध्यान इस पर नहीं जा रहा है कि इसका निर्माता कोई और हो सकता है, मुझसे बड़ा, मुझसे ज्यादा पराक्रम संपन्न, ज्यादा ज्ञानी कोई हो सकता है। पिछले पापों के कारण, सही शिक्षा नहीं मिलने के कारण हिरण्यकश्यप के साथ ऐसा हुआ। शास्त्रों पर विश्वास करने वाले श्रेष्ठजनों का आशीष उस पर नहीं था। उसका जीवन सही सांचे में नहीं ढला था। उसमें पिछले जन्म के असंख्य पापों का बाहुल्य भी था। ज्ञान की प्राप्ति तभी सही होती है, जब हमारे पिछले पाप नष्ट हो जाएं, मन साफ हो जाए, तभी ज्ञान, तभी प्रेम, तभी श्रेष्ठ भाव प्रगट होते हैं। जैसे खेत परिपूर्ण रूप से साफ हो जाए, बीज को अंकुरित होने से रोकने वाले तत्व जब खेत से निकाल दिए जाएं, तभी उसमें फसल उगती है। यदि खेत में पत्थर हैं, शुष्कता है, घास है, तमाम अवरोधक हैं, तो फसल नहीं होती, बीज अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और फलित नहीं होता। वो अपने पापों के कारण उस ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पा रहा है, जिस ज्ञान से जीवन को सही प्रकाश, सही प्रेरणा, सही कार्यकारिता मिल पाए। अर्जुन ने भगवान से पूछा था कि महाराज, ज्ञान कब प्राप्त होगा, तो भगवान ने कहा,
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
यानी कई जन्मों के बाद ज्ञान की प्राप्ति होती है। अर्जुन ने पूछ लिया कि भगवान इतने जन्म क्यों? भगवान ने कहा कि जब तक सब पाप नष्ट नहीं होंगे, तो मन मलीन रहेगा और उसमें वैसे ही ज्ञान नहीं उत्पन्न होता है, जैसे अस्त-व्यस्त, अंकुर विरोधी अवरोधकों से भरे खेत में बीजारोपण व्यर्थ हो जाता है।
माता-पिता बच्चे को समझाते-बोलते रहते हैं कि बेटा ये नहीं करो, वो करो, किन्तु नहीं समझ में आती बात। अध्यापक बोलते हैं सभी बच्चों को, मगर नहीं समझ में आती बात। कुछ को आती है, तो जज, कलक्टर, इंजीनियर, विद्वान हो जाते हैं, बाकी नहीं हो पाते। तो इसका मूल कारण मन की अयोग्यता, मन की अयोग्यता मतलब पापों का बाहुल्य है, मन उसके लायक नहीं है। तो प्रह्लाद जी के पिताश्री का वैसा ही मन है। ऐसे न जाने कितने लोग दुनिया में हैं, जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करतेे, जो सही जीवन नहीं जी रहे हैं, वो सब हिरण्यकश्यप हैं, शिशुपाल हैं, रावण हैं।
प्रह्लाद जी का बड़ा ही उत्कृष्ट पुण्य है, तो उनका मन निर्मल है और उसमें जो गुरु लोग शास्त्र मर्यादित प्रेरणाएं दे रहे हैं, उपदेश दे रहे हैं, उसको वो समझ रहे हैं और उन्होंने समझ लिया कि जीवन का सही व्यवहार क्या है। कैसे जीवन में प्रयास करना चाहिए। जीवन में कैसी इच्छा होनी चाहिए और क्या ज्ञान होना चाहिए।
पूछते थे हिरण्यकश्यप कि तुम क्या पढ़ते हो, कौन-सा उत्तम ज्ञान, तो उन्होंने कहा कि हमारा संपूर्ण जीवन जब ईश्वर में लगे, जब हमारी बाह्य अंग-प्रत्यंग इन्द्रियां और भीतरी इन्द्रियां, भीतरी अंग-प्रत्यंग संपूर्ण रीति से जब भगवान की सेवा में लगें, उनको जानने में, उनकी इच्छा करने में, उनके लिए कत्र्तव्य करने में, तो ही समझना चाहिए कि यही उत्तम अध्ययन, उत्तम ज्ञान है।
हम केवल खाने में, केवल सांसारिक विषयों के भोग में और सांसारिक सुख में ध्यान लगा रहे हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हमने ज्ञान तो प्राप्त किया, किन्तु उत्तम ज्ञान प्राप्त नहीं किया। वो प्रथम श्रेणी की विद्या नहीं हुई। पिछले असंख्य जन्मों के पुण्य-प्रताप से इस तरह की पृष्ठभूमि प्रह्लाद जी को मिली। भगवान की दया से जैसे हमारे आचार्य लोग कहते हैं - जैसे पहली बार ही अध्यापक ने बतलाया और उस विद्यार्थी को समझ में आ गया, तो समझना चाहिए कि वो प्रथम श्रेणी का विद्यार्थी है। जिसको कुछ ज्यादा प्रयास से समझ में आया, तो वह मध्यम श्रेणी का विद्यार्थी हुआ और जिसको वर्षों लग गए, असंख्य बार अध्यापक, गुरुजन और बड़े लोग कह रहे हैं, तब समझ में आया, तो यह तृतीय श्रेणी का विद्यार्थी हुआ।
क्रमश:
प्रह्लाद जी की जो शिक्षा है, वह हिरण्यकश्यप की विचारधारा से मेल नहीं खा रही है। हिरण्यकश्यप की विचारधारा में कोई ईश्वर नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई वेद नहीं, कोई पुराण नहीं। प्रह्लाद जी को शिक्षा मिलनी थी, मिली। ईश्वर के बनाए संसार में मिली। हिरण्यकश्यप क्या बनाएंगे आकाश को, सूर्य को, चंद्रमा को। उन्हें भी मालूम है कि मैं नहीं बना सकता, किन्तु उनका ध्यान इस पर नहीं जा रहा है कि इसका निर्माता कोई और हो सकता है, मुझसे बड़ा, मुझसे ज्यादा पराक्रम संपन्न, ज्यादा ज्ञानी कोई हो सकता है। पिछले पापों के कारण, सही शिक्षा नहीं मिलने के कारण हिरण्यकश्यप के साथ ऐसा हुआ। शास्त्रों पर विश्वास करने वाले श्रेष्ठजनों का आशीष उस पर नहीं था। उसका जीवन सही सांचे में नहीं ढला था। उसमें पिछले जन्म के असंख्य पापों का बाहुल्य भी था। ज्ञान की प्राप्ति तभी सही होती है, जब हमारे पिछले पाप नष्ट हो जाएं, मन साफ हो जाए, तभी ज्ञान, तभी प्रेम, तभी श्रेष्ठ भाव प्रगट होते हैं। जैसे खेत परिपूर्ण रूप से साफ हो जाए, बीज को अंकुरित होने से रोकने वाले तत्व जब खेत से निकाल दिए जाएं, तभी उसमें फसल उगती है। यदि खेत में पत्थर हैं, शुष्कता है, घास है, तमाम अवरोधक हैं, तो फसल नहीं होती, बीज अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और फलित नहीं होता। वो अपने पापों के कारण उस ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पा रहा है, जिस ज्ञान से जीवन को सही प्रकाश, सही प्रेरणा, सही कार्यकारिता मिल पाए। अर्जुन ने भगवान से पूछा था कि महाराज, ज्ञान कब प्राप्त होगा, तो भगवान ने कहा,
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
यानी कई जन्मों के बाद ज्ञान की प्राप्ति होती है। अर्जुन ने पूछ लिया कि भगवान इतने जन्म क्यों? भगवान ने कहा कि जब तक सब पाप नष्ट नहीं होंगे, तो मन मलीन रहेगा और उसमें वैसे ही ज्ञान नहीं उत्पन्न होता है, जैसे अस्त-व्यस्त, अंकुर विरोधी अवरोधकों से भरे खेत में बीजारोपण व्यर्थ हो जाता है।
माता-पिता बच्चे को समझाते-बोलते रहते हैं कि बेटा ये नहीं करो, वो करो, किन्तु नहीं समझ में आती बात। अध्यापक बोलते हैं सभी बच्चों को, मगर नहीं समझ में आती बात। कुछ को आती है, तो जज, कलक्टर, इंजीनियर, विद्वान हो जाते हैं, बाकी नहीं हो पाते। तो इसका मूल कारण मन की अयोग्यता, मन की अयोग्यता मतलब पापों का बाहुल्य है, मन उसके लायक नहीं है। तो प्रह्लाद जी के पिताश्री का वैसा ही मन है। ऐसे न जाने कितने लोग दुनिया में हैं, जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करतेे, जो सही जीवन नहीं जी रहे हैं, वो सब हिरण्यकश्यप हैं, शिशुपाल हैं, रावण हैं।
प्रह्लाद जी का बड़ा ही उत्कृष्ट पुण्य है, तो उनका मन निर्मल है और उसमें जो गुरु लोग शास्त्र मर्यादित प्रेरणाएं दे रहे हैं, उपदेश दे रहे हैं, उसको वो समझ रहे हैं और उन्होंने समझ लिया कि जीवन का सही व्यवहार क्या है। कैसे जीवन में प्रयास करना चाहिए। जीवन में कैसी इच्छा होनी चाहिए और क्या ज्ञान होना चाहिए।
पूछते थे हिरण्यकश्यप कि तुम क्या पढ़ते हो, कौन-सा उत्तम ज्ञान, तो उन्होंने कहा कि हमारा संपूर्ण जीवन जब ईश्वर में लगे, जब हमारी बाह्य अंग-प्रत्यंग इन्द्रियां और भीतरी इन्द्रियां, भीतरी अंग-प्रत्यंग संपूर्ण रीति से जब भगवान की सेवा में लगें, उनको जानने में, उनकी इच्छा करने में, उनके लिए कत्र्तव्य करने में, तो ही समझना चाहिए कि यही उत्तम अध्ययन, उत्तम ज्ञान है।
हम केवल खाने में, केवल सांसारिक विषयों के भोग में और सांसारिक सुख में ध्यान लगा रहे हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हमने ज्ञान तो प्राप्त किया, किन्तु उत्तम ज्ञान प्राप्त नहीं किया। वो प्रथम श्रेणी की विद्या नहीं हुई। पिछले असंख्य जन्मों के पुण्य-प्रताप से इस तरह की पृष्ठभूमि प्रह्लाद जी को मिली। भगवान की दया से जैसे हमारे आचार्य लोग कहते हैं - जैसे पहली बार ही अध्यापक ने बतलाया और उस विद्यार्थी को समझ में आ गया, तो समझना चाहिए कि वो प्रथम श्रेणी का विद्यार्थी है। जिसको कुछ ज्यादा प्रयास से समझ में आया, तो वह मध्यम श्रेणी का विद्यार्थी हुआ और जिसको वर्षों लग गए, असंख्य बार अध्यापक, गुरुजन और बड़े लोग कह रहे हैं, तब समझ में आया, तो यह तृतीय श्रेणी का विद्यार्थी हुआ।
क्रमश:
Saturday, 27 April 2019
प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा
(दुख, पाप का समाधान और इच्छाओं पर नियंत्रण की शिक्षा)
(जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन के संपादित अंश)
मनुष्य जीवन प्राप्ति के बाद संपूर्ण जीवन व्यवहारमय है, उस व्यवहार को कैसा होना चाहिए, उसका स्वरूप, उसका उद्देश्य, उसकी बारीकियां, उसका मूल, उसका विस्तार, उसकी प्रेरणा, इन सब बातों की पहले चर्चा हुई। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हैं। दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि पहले हम जानते हैं, ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान से इच्छा उत्पन्न होती है कि ये हमें मिल जाता, ये मेरा हो जाता, इसी का नाम इच्छा है। और फिर हम इच्छा से एक कदम आगे बढ़ते हैं, प्रयत्न करते हैं, व्यापार करते हैं, उसको प्राप्त करने के लिए। ज्ञान से उत्पन्न, इच्छा से उत्पन्न क्रिया द्वारा जो वस्तु प्राप्ति का प्रयास करते हैं, ये जो क्रिया है वही व्यवहार है। ये समस्त क्रियाएं जो मनुष्य जीवन में प्राप्त होती हैं, इन्हीं को व्यवहार कहते हैं। क्रिया का नाम ही व्यवहार है। उस क्रिया का मूल इच्छा और इच्छा का मूल ज्ञान। मनुष्य क्रिया से कभी दूर नहीं रह सकता, क्योंकि शरीर जिसको मिला है, उसको तो क्रिया करनी ही पड़ती है। वो कभी उससे वंचित नहीं रह सकता है, ये बड़ी ही स्वाभाविक बात है और दर्शनशास्त्र का भी इसमें पूरा समर्थन है। चिंतन की सबसे सूक्ष्म विधा है कि हम क्रिया से कभी भी रहित नहीं हो सकते।
भगवान ने गीता में कहा -
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठ्यत्यकर्मकृत्।
कर्म से रहित होकर कोई शरीरधारी एक क्षण भी नहीं रह सकता। शरीर है, तो क्रिया करनी ही पड़ेगी। बैठना भी क्रिया, सोना भी क्रिया, सांस लेना भी क्रिया, रक्तों का प्रवाह भी क्रिया, शरीर में तमाम नाडिय़ां काम कर रही हैं। लगता तो है कि कुछ कर नहीं रही हैं, लेकिन वो सब क्रियाशील हैं। कोई जीवन ही नहीं है क्रिया के बिना, तो ऐसी स्थिति में क्रिया का परिष्कार किया ऋषियों, विद्वानों ने, महामनिषियों ने। तो मनमानी नहीं चलेगी। जैसे भोजन में मनमानी नहीं चलेगी। जो व्यवस्था है, उसमें या ऑक्सीजन में मनमानी नहीं चलेगी, नाक से ही लेना है, चाहे सिलेंडर से लीजिए, चाहे प्राकृतिक लीजिए।
इस क्रम में जिन लोगों ने इन क्रियाओं को मनमानी नहीं किया, वे देवता हो गए। जो दिव्य दृष्टि संपन्न हुआ ऋषियों द्वारा, उनको भी शक्ति देने वाले शास्त्रों द्वारा, वे सर्वोच्च जीवन को, सर्वोत्कृष्ट जीवन को, सफल जीवन को प्राप्त हुए, क्योंकि उनका व्यवहार बहुत व्यवस्थित हुआ। तो इसी क्रम में बहुत अच्छा उदाहरण है प्रह्लाद जी का, जिनका सारा वातावरण ही विपरीत है, जहां उनका जन्म हुआ है, जो उनके पिताश्री हैं हिरण्यकश्यप, वो आसुरी भाव की पराकाष्ठा के हैं। उन्हें कोई विश्वास नहीं शास्त्रों में, उन्हें कोई विश्वास नहीं परलोक में, उन्हें कोई विश्वास नहीं परंपरा में, उन्हें कोई विश्वास नहीं पुण्य में, ऋषियों के जीवन में, संतों के जीवन में, ब्राह्मणों के जीवन में। जो इस सृष्टि के श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं ईश्वर की, उनमें गाय है, तुलसी जी हैं और तमाम ग्रह, नक्षत्र तारे हैं। वे शिक्षित होने के लिए प्रह्लाद जी को भेज तो देते हैं कि आप अच्छा पढि़ए। हर पिता-माता का मन होता है कि उनके बच्चे पढ़ें, किन्तु हिरण्यकश्यप उस शिक्षा को नहीं शिक्षा मान रहे हैं, जिसमें ईश्वर का अस्तित्व हो। जबकि इस सृष्टि की परिकल्पना, इसका चिंतन, इसके साथ संबद्धता, इसके माध्यम से जीवन का उत्कर्ष तब तक संभव नहीं है, जब तक इसमें यह भाव नहीं जोड़ा जाए कि ये सृष्टि किसी मनुष्य की रचना नहीं है। किसी शासन की, किसी धनपति की, किसी कलाकार शिरोमणि की, किसी की नहीं है। ये हम सब लोगों द्वारा आज और कल कभी संभव नहीं है कि हम संसार को बना सकें, जबकि आदमी घिरा हुआ है कार्यों से, निर्माण से, वो वैसे ही समझता है कि मैंने इसको बनाया है। इसी को तो इतिहास कहते हैं कि उन्होंने इसको तोड़ा है, इसको बनया है, यही तो इतिहास है। इन्होंने नागासाकी को तोड़ा, लेकिन ये भी है कि इन्होंने इतनी बड़ी मंजिल बनाई, सडक़ बनाई। बम बनाया और तमाम जीवन के लिए उपयोगी चीजें बनाईं। यही तो बात होती है कि ये इसका लडक़ा है और उन्होंने इसके लडक़े को मारा। ये विद्वान है, ये मूर्ख है। इन्होंने विद्वान बनाया, किन्तु जहां पर मनुष्य की गति नहीं है, वहां आम आदमी चिंतन नहीं कर पाता है।
क्रमश:
(जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन के संपादित अंश)
मनुष्य जीवन प्राप्ति के बाद संपूर्ण जीवन व्यवहारमय है, उस व्यवहार को कैसा होना चाहिए, उसका स्वरूप, उसका उद्देश्य, उसकी बारीकियां, उसका मूल, उसका विस्तार, उसकी प्रेरणा, इन सब बातों की पहले चर्चा हुई। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हैं। दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि पहले हम जानते हैं, ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान से इच्छा उत्पन्न होती है कि ये हमें मिल जाता, ये मेरा हो जाता, इसी का नाम इच्छा है। और फिर हम इच्छा से एक कदम आगे बढ़ते हैं, प्रयत्न करते हैं, व्यापार करते हैं, उसको प्राप्त करने के लिए। ज्ञान से उत्पन्न, इच्छा से उत्पन्न क्रिया द्वारा जो वस्तु प्राप्ति का प्रयास करते हैं, ये जो क्रिया है वही व्यवहार है। ये समस्त क्रियाएं जो मनुष्य जीवन में प्राप्त होती हैं, इन्हीं को व्यवहार कहते हैं। क्रिया का नाम ही व्यवहार है। उस क्रिया का मूल इच्छा और इच्छा का मूल ज्ञान। मनुष्य क्रिया से कभी दूर नहीं रह सकता, क्योंकि शरीर जिसको मिला है, उसको तो क्रिया करनी ही पड़ती है। वो कभी उससे वंचित नहीं रह सकता है, ये बड़ी ही स्वाभाविक बात है और दर्शनशास्त्र का भी इसमें पूरा समर्थन है। चिंतन की सबसे सूक्ष्म विधा है कि हम क्रिया से कभी भी रहित नहीं हो सकते।
भगवान ने गीता में कहा -
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठ्यत्यकर्मकृत्।
कर्म से रहित होकर कोई शरीरधारी एक क्षण भी नहीं रह सकता। शरीर है, तो क्रिया करनी ही पड़ेगी। बैठना भी क्रिया, सोना भी क्रिया, सांस लेना भी क्रिया, रक्तों का प्रवाह भी क्रिया, शरीर में तमाम नाडिय़ां काम कर रही हैं। लगता तो है कि कुछ कर नहीं रही हैं, लेकिन वो सब क्रियाशील हैं। कोई जीवन ही नहीं है क्रिया के बिना, तो ऐसी स्थिति में क्रिया का परिष्कार किया ऋषियों, विद्वानों ने, महामनिषियों ने। तो मनमानी नहीं चलेगी। जैसे भोजन में मनमानी नहीं चलेगी। जो व्यवस्था है, उसमें या ऑक्सीजन में मनमानी नहीं चलेगी, नाक से ही लेना है, चाहे सिलेंडर से लीजिए, चाहे प्राकृतिक लीजिए।
इस क्रम में जिन लोगों ने इन क्रियाओं को मनमानी नहीं किया, वे देवता हो गए। जो दिव्य दृष्टि संपन्न हुआ ऋषियों द्वारा, उनको भी शक्ति देने वाले शास्त्रों द्वारा, वे सर्वोच्च जीवन को, सर्वोत्कृष्ट जीवन को, सफल जीवन को प्राप्त हुए, क्योंकि उनका व्यवहार बहुत व्यवस्थित हुआ। तो इसी क्रम में बहुत अच्छा उदाहरण है प्रह्लाद जी का, जिनका सारा वातावरण ही विपरीत है, जहां उनका जन्म हुआ है, जो उनके पिताश्री हैं हिरण्यकश्यप, वो आसुरी भाव की पराकाष्ठा के हैं। उन्हें कोई विश्वास नहीं शास्त्रों में, उन्हें कोई विश्वास नहीं परलोक में, उन्हें कोई विश्वास नहीं परंपरा में, उन्हें कोई विश्वास नहीं पुण्य में, ऋषियों के जीवन में, संतों के जीवन में, ब्राह्मणों के जीवन में। जो इस सृष्टि के श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं ईश्वर की, उनमें गाय है, तुलसी जी हैं और तमाम ग्रह, नक्षत्र तारे हैं। वे शिक्षित होने के लिए प्रह्लाद जी को भेज तो देते हैं कि आप अच्छा पढि़ए। हर पिता-माता का मन होता है कि उनके बच्चे पढ़ें, किन्तु हिरण्यकश्यप उस शिक्षा को नहीं शिक्षा मान रहे हैं, जिसमें ईश्वर का अस्तित्व हो। जबकि इस सृष्टि की परिकल्पना, इसका चिंतन, इसके साथ संबद्धता, इसके माध्यम से जीवन का उत्कर्ष तब तक संभव नहीं है, जब तक इसमें यह भाव नहीं जोड़ा जाए कि ये सृष्टि किसी मनुष्य की रचना नहीं है। किसी शासन की, किसी धनपति की, किसी कलाकार शिरोमणि की, किसी की नहीं है। ये हम सब लोगों द्वारा आज और कल कभी संभव नहीं है कि हम संसार को बना सकें, जबकि आदमी घिरा हुआ है कार्यों से, निर्माण से, वो वैसे ही समझता है कि मैंने इसको बनाया है। इसी को तो इतिहास कहते हैं कि उन्होंने इसको तोड़ा है, इसको बनया है, यही तो इतिहास है। इन्होंने नागासाकी को तोड़ा, लेकिन ये भी है कि इन्होंने इतनी बड़ी मंजिल बनाई, सडक़ बनाई। बम बनाया और तमाम जीवन के लिए उपयोगी चीजें बनाईं। यही तो बात होती है कि ये इसका लडक़ा है और उन्होंने इसके लडक़े को मारा। ये विद्वान है, ये मूर्ख है। इन्होंने विद्वान बनाया, किन्तु जहां पर मनुष्य की गति नहीं है, वहां आम आदमी चिंतन नहीं कर पाता है।
क्रमश:
Saturday, 2 February 2019
Wednesday, 16 January 2019
Monday, 7 January 2019
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