Wednesday 21 March 2012

धर्म क्या है?

भाग - पांच
शिष्य के लिए गुरु अपना जीवन खपा देता है। एक बच्चे को जन्म देने और उसे बड़ा करने में मां का पूरा यौवन लग जाता है। एक गुरु अपने शिष्य को बड़ा बनाने में अपने यौवन जीवन को खपा देता है। पूरा का पूरा जीवन लग जाता है, तब एक शिष्य तैयार होता है, एक वैज्ञानिक बनता है या कुछ और बनता है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है विद्वान बनने और बनाने के लिए। गुरु को अवश्य लौटाना चाहिए।
देवता जो हमें दे रहे हैं, उसी को लौटाने के लिए हम यज्ञ करते हैं। उसका मकसद ही यही है कि देवताओं को दिया जाए, जो हमने उनसे लिया है। देवताओं की प्रसन्नता और सम्मान के लिए यत्न करना। इन्द्र को कोई कमी नहीं है, लेकिन जो आप स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं, उसके बदले में उन्हें कुछ देंगे, तो धर्म होगा, वही यज्ञ कहलाएगा। जिसमें लौटाने की भावना नहीं है, वह राक्षस हो जाएगा। असामाजिक हो जाएगा। वह आतंकवादी होगा। समाज की परम अपेक्षा है कि आदमी धार्मिक हो। आप किसी को मान देंगे, तो आपको मान की अपेक्षा है या नहीं? मान देंगे, तो मान की अपेक्षा होती ही है। लिखा है कि भगवान के भक्त को अमानी नहीं होना चाहिए। मान दे, लेकिन मान की अपेक्षा नहीं करे, लेकिन ऐसा सिर्फ अपवाद स्वरूप होता, सामाजिक जीवन में देने वाला चाहता है कि हमें मिले और मिलना भी चाहिए। देने वाला अगर लेना नहीं चाहे, तब भी देना चाहिए, लौटाना चाहिए, वरना धर्म नहीं रह जाएगा।
जिन पितरों का रक्त हमारे शरीर में है। परदादा से दादा मे आया, दादा से पिता में आया, पिता से हममें आया। मैं बार बार दोहराता रहता हूं कि मेरे पिताजी बहुत आलसी स्वभाव के थे, वह रक्त मुझमें है, भगवान ने मुझे बहुत ऊर्जा दी है, लेकिन मैं उसका उपयोग नहीं कर पाता हूं, क्योंकि आलस्य है। आलस्य न होता, तो बहुत काम होता धर्म का। मैं क्या करूं, रक्त में ही है। आलस्य भी बीमारी है।
तो मैं कह रहा था, पितरों के लिए तर्पण देना धर्म है, क्योंकि हम उनके कृतज्ञ हैं, उनका रक्त हमें जीवन स्वरूप मिला है। ऋषियों का मिला है। यह बतलाइए, भागवत के आधार पर लाखों-लाख लोग जीविका प्राप्त कर रहे हैं, रोटी प्राप्त कर रहे हैं, कितना बड़ा ऋषियों का योगदान है। उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन ही धर्म है।
जब आपने लिया है, तो आपको देना ही पड़ेगा। यदि आपको अपेक्षा है कि कोई आपको भी सर कहे, तो आपको भी कहना ही पड़ेगा। संसार प्रतिध्वनि है, प्रतिध्वनि में जो ध्वनि आपको सुननी है, वही ध्वनि दीजिए, यही धर्म है।
मेरे सम्मान में आप बैठे हैं, यदि मैं आपका मित्र होता, यदि आपका साला या रिश्तेदार होता, बराबरी का रिश्तेदार होता, तो कोई जरूरत नहीं थी पैर मोडक़र बैठने की, आप पैर फैलाकर बैठते, मित्रवत व्यवहार होता। आप मेरी ओर पैर कर देते, लेकिन यह धर्म का काम नहीं है।
जो व्यक्ति सम्पूर्ण मानवता के लिए सिद्धांत पढ़ता है, समझता है, उसको अनुभव करता है और अपने जीवन में उतारता है दूसरों को देने के लिए, इसी का नाम ज्ञान है, मैं बार बार दोहराता रहता हूं आचार्य पतंजलि ने लिखा है, ज्ञान की चार अवस्थाएं होती हैं। पहली अवस्था ज्ञान पढऩा, इसे परोक्ष ज्ञान बोलते हैं - यह ज्ञान की कच्ची अवस्था है। दूसरी अवस्था, परिपक्व ज्ञान, यानी अपरोक्ष ज्ञान - इसमें ज्ञान पक जाता है। तीसरी अवस्था, उस ज्ञान को जीवन में उतारना। फिर चौथी अवस्था, ज्ञान दूसरों को पेश करना। मैं संन्यासी ज्ञान की सम्पूर्ण अवस्था में जीवन जी रहा हूं, तो उसका सम्मान होना चाहिए। अध्यापक का सम्मान तो अमरीका में भी किया जाता है, क्या आप नहीं करेंगे? अध्यापक का सम्मान, गुरु का सम्मान होना ही चाहिए, यह भी धर्म ही है।
क्रमश:

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