Monday 26 March 2012

धर्म क्या है?

भाग - सात
लोगों को आज तक समझ में नहीं आया कि सुख का कारण क्या है? यदि सुख का कारण पत्नी है, तो जब से सृष्टि बनी है, ऐसी अनेक पत्नियां भी हुई हैं, जिन्होंने अपने पतियों को ही मार डाला, प्रेमियों के साथ मिलकर, धन के लिए या किसी अन्य कारण से। दूसरी बात, अगर जांच की जाए, तो सौ में से पांच लोग भी नहीं होंगे, जो पत्नी से सुख प्राप्त कर रहे होंगे। कहीं वैचारिक भिन्नता है, तो कहीं किसी और प्रकार की भिन्नताएं हैं। ऐसे में कैसे सुख कारण है पत्नी? दुनिया का कोई भी चिंतक यह निश्चित नहीं कर सकता है कि सुख का कारण पत्नी है, क्योंकि उससे दुख भी हो रहा है, उससे तमाम कठिनाइयां भी हो रही हैं, इसलिए हमारे चिंतकों ने बताया कि एक ही वस्तु तीन का काम करती है : सुख भी देती है, दुख भी देती है और मोह भी पैदा करती है।
सांख्य दर्शन का उदाहरण है, एक आदमी ने दूसरी शादी की, क्योंकि कोई पुत्र नहीं हो रहा था। दूसरी शादी से जो पत्नी आई, वह सुन्दर थी। वही सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख देती है, अपनी सौत या पहली पत्नी को दुख देती है और जब घर से बाहर निकलती है, तो दूसरे लोगों को मोहग्रस्त करती है। एक से ही तीन भाव बने। पति को सुख, सौत को दुख और राहगीरों को मोह। हर पदार्थ के ये तीन गुण हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो केवल सुख ही देता हो।
इस कपड़े की बात करें, तो कपड़े में अटक कर ही कई लोग गिर जाते हैं, वस्त्र में उलझकर कइयों के पैर टूट गए। जो वाहन यात्रा सुख देते हैं, उन्हीं से कुचलकर हजारों लोग भी मरते हैं। भोजन से भी लोग मरते हैं, पेट खराब हो जाता है। कपड़ा हो या वाहन या भोजन या कुछ और हर चीज से सुख भी होता है, दुख भी होता है और मोह भी।
अब प्रश्न यह कि कितना सुख होता है या कितना दुख होता है। जो वस्तु जितनी मात्रा में धर्म से बनी है, उतनी मात्रा में ही वह सुख देती है, जितनी मात्रा में उसमें अधर्म लगा है, उतना ही वह दुख देती है। दुख का कारण पाप है और सुख का कारण पुण्य है। आज हमें आप सुख दे रहे हैं, तो हमारा पुण्य जितना आपके साथ लगा है, उतनी ही मात्रा में आप हमें सुख दे रहे हैं। या हमारा जितना पुण्य लगा है, उतना हमें सुख मिल रहा है।
वही पुत्र सुख का कारण बनता है, वही पुत्र बीमार पड़ जाता है, तो दुख होता है और मर जाता है, तो महान कष्ट होता है। कई पुत्र जब तक शादी नहीं करते, माता-पिता को मानते हैं और शादी के बाद माता-पिता के दुख का कारण बन जाते हैं। वही आदमी जब माला पहनाता है, तो सुख देता है और जब वही मुर्दाबाद-मुर्दाबाद करता है, तो दुख का कारण बन जाता है।
सृष्टि में ऐसे ही होता है। हर परिस्थिति में सुख को बनाए रखना वेदांत का काम है। सुख का मूल कारण भारतीय चिंतन के अनुसार धर्म है, दिखाई नहीं पड़ता है, धर्म का एक नाम अदृश्य भी है, जो दिखे नहीं। धर्म भी और अधर्म भी। जैसे बुखार किसी को दिखता नहीं है, थर्मामीटर से अनुमान होता है कि बुखार है, शरीर गरम है, तो बुखार का अनुमान होता है, बुखार प्रत्यक्ष नहीं होता है। आप को लग रहा है, लेकिन वास्तव में आकाश आपको दिख नहीं रहा है, आपकी दृष्टि लौट आ रही है। आकाश तो अनंत है। तो धर्म ही सुख का मूल कारण है।
क्रमश:

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