Friday 30 March 2012

धर्म क्या है?

भाग - आठ
महर्षि वेदव्यास जी का एक श्लोक सुनाता है :-
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।।
अर्थात ‘मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूं, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?’
कहा लोगों ने कि ये क्या कह रहे हैं व्यास जी? धर्म में केवल मरने से मोक्ष मिलता है, ये नहीं है। धर्म तो अर्थ भी देता है और भोग भी देता है। जिसके पास धर्म नहीं होगा, उसकी किडनी या कुछ और फेल हो जाएगा, संभवत: वह समृद्ध तो रहेगा, लेकिन पत्नी का सुख या भोजन का सुख या नए कपड़े का सुख या कोई दूसरा सुख नहीं मिलेगा। दुनिया में तमाम लोग हैं, जिनके पास अर्थ तो है, लेकिन भोग नहीं है और जिनके पास भोग है, तो अर्थ नहीं है। पैसा नहीं ही नहीं है, तो क्या होगा? धर्म उसे भी कहते हैं, जो अर्थ भी देता है, भोग भी देता है, अच्छा जीवन भी देता है। पद और यश भी देता है और अंत में दिव्य जीवन भी देता है, जिसको मोक्ष कहते हैं।
महर्षि कणाद ने कहा कि धर्म वह है, जो अभ्युदय मतलब लौकिकता को देता है, सकारात्मक नैतिक उन्नति को देता है। सुन्दरता तो सुन्दरता है, लेकिन वह सुन्दरता नहीं है, जो सिनेमा में काम आए। सुन्दर होकर यदि वेश्यावृति ही कोई औरत करती है, तो यह ठीक नहीं है। जो अपने पति का साथ दे, जहां दिया माता-पिता ने, उसको मर्यादा में रहकर निभाए। मर्यादा में ही सुख है। सुन्दरता चाहिए, तो शालीनता भी चाहिए कि जहां वह जाए, सबको गदगद कर दे। कितने लोगों को कोई सुन्दरी पति बना सकती है, दुनिया की किसी सुन्दरी ने दुनिया के सभी लोगों को कभी भी वासनात्मक सुख नहीं दिया है और न दे सकती है। सुन्दरता होनी चाहिए, किन्तु वह सकारात्मक होनी चाहिए। बल भी होना चाहिए। सैनिक बलवान होना चाहिए, बल का अपना क्षेत्र है, मजदूरों को भी भगवान बल दें। बल नहीं होता, तो मैं गरज-गरज कर बोलता क्या? बल है, तभी तो बोल रहा हूं, बल नहीं होगा, तो जो बोलूंगा, वह किसी को सुनाई ही नहीं पड़ेगा। लेखनी में भी बल होना चाहिए, तभी तो संपादन, लेखन गरजेगा। बल हो, सुन्दरता हो, लेकिन उसका सकारात्मक उपयोग हो, यही धर्म है।
पैसा धर्म से भी आता है और अधर्म से भी आता है। धर्म से जो पैसा आएगा, वह सकारात्मक विकास करेगा और भोग का सही संसाधन करवाएगा और अधर्म से जो पैसा आएगा, वह आदमी को गलत बनाएगा, दूसरी पत्नी, मांस मदिरा, अमुक-गाड़ी, हों हों, शोर-शराबा। नई-नई गाड़ी खरीद रहे हैं, नया-नया बंगला बना रहे हैं। वश चले, तो रोज बंगला बने, शरीर तो बना ही नहीं रहे हो रोज। पैसा हो जाता है, तो आदमी को लगने लगता है कि यह मकान बहुत छोटा है, अरे मरो इसी में भले आदमी, बच्चों को कहो कि आप पंद्रह एकड़ में बनाना। अधर्म हुआ, तो बहुतों को देखो, जो भगवान ने मकान दिया था, वही टूट रहा है।
इसलिए धर्म जीवन के विकास का सही साधन है।
क्रमश:

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