Monday 26 March 2012

धर्म क्या है?

भाग - छह
किसको पैर फैलाकर बैठने में अच्छा नहीं लगता। मैं अभी अध्यापक की मुद्रा में हूं। संवाद कर रहा हूं, किन्तु मैं भी अपने कमरे में होता, तो कम्बल में पैर लम्बा करके आराम से हाथ भी खूब फैला लेता। किन्तु उस अवस्था में प्रेरणा नहीं दी जा सकती। प्रेरक की भी एक अवस्था है, अभी जो मेरी अवस्था है, यह भी कोई बहुत अच्छी नहीं है, यह आचार्य परंपरा के अनुरूप व्यवस्था नहीं है। मुद्रा तो जमीन पर बैठकर, गद्दी पर बैठकर बात करने वाली होनी चाहिए। इसमें मैंने संशोधन किया है, लेकिन हमेशा महात्मा को चौकी पर बैठना चाहिए, जमीन पर बैठे, तभी आचार्य धर्म है। वस्तुत: जमीन पर जो आदमी होता है, वही बड़ा आदमी होता है। आप जमीन पर नहीं हैं, तो गिरेंगे, तो पैर टूट जाएंगे। जमीनी आदमी होना चाहिए। महात्मा को जमीन पर बैठना चाहिए। जब से महात्मा गद्दी धारी हो गए हैं, बड़ी गड़बड़ हो गई है। उनके बैठने के लिए अब मोटी-मोटी गद्दियां होने लगी हैं। आपको आश्चर्य होगा, दुनिया में सबसे शक्तिशाली अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की जैसी गद्दी नहीं होगी, वैसी गद्दी संतों की होने लगी है। मेरे जैसे लोगों के सिर पर तो कंघी तक नहीं लगती। किन्तु आज के गद्दीधारी महंत हमें भी बताते हैं कि एक ऐसी गद्दी आप भी बनवा लीजिए। इच्छा होती है कि इनको पकड़ कर पीटूं। बाद में रामानंदाचार्य के पद का देखा जाएगा। लफंगे हमें सलाह दे देते हैं। लफंगे भी संत की गद्दी पर बैठ गए हैं। एक ऐसे ही संत ने खास पंखा लगवाया, मैंने दूर से देखा, पूछा, ‘कितने का पंखा लगवाया है?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘यह ज्यादा का नहीं है, बस २५ हजार का है। आप भी लगवा लीजिए।’ हमने देखा ही नहीं कि कैसा पंखा है, क्या पंखा है। उनका नाम नहीं बतलाऊंगा।
हम जहां पढ़े थे, वहां एक व्यक्ति थे, बाद में उन्होंने विवाह कर लिया और फुलपैंट पहनकर वेदांत पढ़ाते हैं। जब उन्होंने मुझे पहली बार श्रीमठ में रामानंदाचार्य की वेशभूषा में देखा, तो रोने लगे, उन्होंने कहा, ‘आप तो छात्रावस्था में इससे अच्छे थे।’ श्रीमठ में जब मैं रामानंदाचार्य जी के गद्दी पर आया, तब विरासत में मिली जिस चौकी पर मुझे बैठाया गया, उसकी तीन पटरियां ऊंची-नीची थीं। जिस पर चढक़र मजदूर लोग दीवारों पर प्लास्टर इत्यादि करते हैं, वैसे लकड़ी के फंटे ही जोडक़र मेरी चौकी बना दी गई थी, उसमें तिलचट्टे बहुत थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘इससे बेहतर स्थिति में तो आप पहले थे।’ वह मेरे विद्यार्थी भी रहे थे, एक साथ हम लोग पढ़े भी थे। उन्होंने कहा, ‘इसी को रामानंदाचार्य कहते हैं क्या? क्या यह चौकी नहीं बदल सकती है?’ मैंने विनम्रता से कहा, ‘जिस दिन मैं श्रीमठ गया, मैं पहले दिन ही चौकी बदलवा सकता था, इतना मेरे पास था, जेब में नहीं था, लेकिन प्रभाव था, लेकिन मैंने कभी नहीं कहा कि चौकी बदली जाए। बदलने को जरूरी काफी कुछ था, लेकिन बदलने के लिए यदि मुझे चौकी ही सबसे पहले दिखेगी, तो राम राज्य कैसे आएगा?
आजकल तो बड़े लोग हर साल अपना सोफा, कुर्सी-टेबल, सजावट बदल देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, सादगी का जीवन होना चाहिए। रामराज्य का जीवन होना चाहिए। जरा सोचिए तो कि राम जी ने जंगल में कैसे बिताया होगा समय। ईश्वर की बात छोडि़ए, अयोध्या के महल में तो सब कुछ था, लेकिन जंगल में रहकर एक दिन उफ् तक नहीं किया।
वृंदावन में एक महात्मा से मैं मिला था। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा, तो मैंने उनसे पूछा, ‘आप इतने अच्छे साधु हो गए, इसका रहस्य क्या है?’
उन्होंने कहा, ‘मैं तो आपको अपना रोना कहने आया हूं, आप मेरा ही इंटरव्यू मत लीजिए। मुझे एक बात का सदा ध्यान रहा कि मैं साधु बनने आया हूं, और इसी का आज यह फल है।’
मैं भी बनारस साधु बनने नहीं आया था, मैं तो विद्वान बनने आया था, अविवाहित रहने आया था। मुझे साधु तो नहीं बनना था, लेकिन जब रामानंदाचार्य हो गया, तो फिर कोशिश की कि थोड़े-बहुत साधु हम भी हो जाएं, साधुओं जैसे दिखने लगें। इस कोशिश से मुझे लाभ हुआ।
ध्यान दीजिएगा, केवल यह याद रहे कि मैं साधु हूं, तो आदमी साधु हो जाएगा। दिखावा क्या करना, गद्दी का क्या करना? जब शरीर का मांस ही सूख जाएगा, तो बुढ़ापे में तो ये गद्दा ही गडऩे लगेगा। चेहरा सिकुड़ जाएगा, दांत टूट जाएंगे, तो ये गद्दा-पंखा काम करेगा क्याï? कदापि नहीं करेगा।
उन मूल्यों को हम धर्म कहते हैं, जो शाश्वत जीवन देते हैं, जो बहुत सुख देते हैं। क्रमश:

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