Friday 19 December 2014

साधु, तुझको क्या हुआ?

भाग - २
ईश्वर ने अपने प्रतिनिधि के रूप में संतों को भेजा है। जैसे लोकतंत्र प्रतिनिधि तंत्र है, ठीक उसी तरह से संतों का समाज भी ईश्वर का प्रतिनिधि तंत्र है। उसके सभी उद्देश्यों, सभी इच्छाओं, सभी लीलाओं, क्रियाओं, सभी व्यवस्थाओं को संत जन समाज कल्याण के लिए प्रयुक्त करते हैं। संत स्वयं को केवल समाज के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए, केवल मानवता के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण प्राणियों के लिए समर्पित कर सबके विकास को गति देते हैं।
संसार में साधुओं, संतों का बड़ा काम है। संतों ने मानव समाजों को ईश्वरीय ज्ञान से जोड़ा, संस्कारों से जोड़ा, जीवन जीने की कला से जोड़ा है। विकास की तमाम क्रियाओं से जोड़ा है और सबकुछ इतना अच्छा किया कि पूरा संसार उनकी ओर देखता है। ऐसे बड़े कामों के लिए, लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए संत का बड़ा अच्छा और वैसा ही सही स्वरूप होना चाहिए, जैसे ईश्वर के किसी प्रतिनिधि का होना चाहिए।  
आज यह हमें जानना होगा कि संत का सही स्वरूप क्या होता है। जब वह अपने ज्ञान द्वारा ईश्वर को समझ लेता है, अपनी भक्ति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, अपनी शरणागति द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर लेता है और उसके गुणों से युक्त हो जाता है, जब उसी तरह से अपने संपूर्ण जीवन को संसार का जीवन बना लेता है, जब अपनी संपूर्ण इच्छाओं को संसार की इच्छाओं में डालकर विकास के लिए प्रयास करता है, तमाम उपयोगी विविधिताओं में गुणों को डालकर उनके विकास के लिए प्रयास करता है, तब उसको सही संत का दर्जा प्राप्त होता है। तभी वह संसार में संत के रूप में सार्थक होता है। उसका सम्बंध केवल वस्त्र-आभूषण से नहीं है, किसी एक पंथ या संप्रदाय से नहीं है, बाहरी आडंबरों से नहीं है। वास्तव में आंतरिक उत्कर्ष ही संतत्व का लक्षण है। यह उत्कर्ष उसकी क्रियाओं में प्रकट होता है, यह संत की सबसे बड़ी पहचान है। संत का कर्म कभी स्वार्थ के अनुरूप नहीं होता, हमेशा परमार्थ के अनुरूप होता है।
आज लोगों को भी यह देखना होगा कि संत का केन्द्रीकरण कहाँ है, कहां के लिए वह अपने जीवन को लगा रहा है, किसी काम के लिए स्वयं को थका रहा है, किस उद्देश्य के लिए जीवन व्यतीत कर रहा है, उसके जीवन का परम लक्ष्य कहां है। निस्संदेह, संत का उद्देश्य सम्पूर्ण संसार के लिए होना चाहिए। वह यह चाहता है कि सभी लोगों को महा-आनंद मिल जाए, सभी लोग सुखी हो जाएं, यदि कोई ऐसा चाहता है और इसके लिए प्रयास करता है, तो वैदिक सनातन धर्म में उसे संत कहा गया है।
केवल सनातन धर्म में ही नहीं, दूसरी परंपराओं में भी अच्छे संत हुए हैं। हम कभी यह नहीं मानते की संत केवल भारतीय समाज में हुए। मुसलमानों में भी एक बड़ी धारा सूफियों की रही, जिनका जीवन बहुत अच्छा था, जिनमें सत्ता लोभ नहीं था, भोग नहीं था, जो तपस्या से रहते थे, बहुत त्याग से रहते थे, उनमें दान पाने के लिए उतावलापन नहीं था। ऐसे ज्ञान से प्रेरित होकर मुस्लिम धर्म में भी अनेक संत हुए। अपूर्व शक्ति और स्थान उन्होंने प्राप्त किया। न जाने कितने लोगों के जीवन को सुधारा। जो सही मायने में जीवन का चरम है, वे वहां पहुंच गए। क्रमशः

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